धर्म से ही है लैंगिक असमानता

हमारा समाज दोहरे मानदंड का चैंपियन है. यहां कभी औरत को छलकपट से मर्द को अपने वश में करने वाली बना दिया जाता है तो कभी एक मजबूत, बलवान, खुशमिजाज मर्द को अवसादग्रस्त, कमजोर शख्स बना कर दिखाने वाली. सदियों से चली आ रही विचहंट की प्रक्रिया, जिस में हर बुराई, हर आघात, यहां तक कि प्राकृतिक आपदा के लिए भी किसी न किसी औरत को दोषी ठहरा कर उस की बली दे दी जाती रही है, कभी उसे नंगा कर के पूरे गांव में घुमाया जाता है, तो कभी चुड़ैल बता कर पीटपीट कर उस की हत्या कर दी जाती है.

क्या आप ने कभी समाज में किसी पुरुष को ऐसे कारणों के लिए इस तरह प्रताडि़त होते सुना है? गलती किसी की भी हो, दोष औरत के सिर ही क्यों?

हमारा समाज जैंडर लिंगभेद में बहुत पिछड़ा हुआ है. विकसित देश स्त्रियों को केवल औरत न मान कर, मर्द की तरह एक इंसान मानते हैं. यही कारण है कि महिलाओं को काफी हद तक वे सभी अधिकार मिले हुए हैं, जो वहां के समाज में पुरुषों को मिले हुए हैं. रेप हो जाने पर वहां औरत को एक पीडि़ता की तरह देखा जाता है, न कि उसी की गलती निकालने की कोशिश की जाती है. हमारा समाज और उस में गुंथा हुआ धर्म अकसर औरत को ही उस के ऊपर बीती व्यथा का जिम्मेदार ठहराता है.

क्या यह सही है

कितनी बार खाप पंचायतें, नेतागण, महल्ले के लोग, यहां तक कि औरतें खुद पीडि़ता के कपड़े, उस के अंधेरा होने पर अकेले बाहर जाने, सुनसान रास्ते पर जाने या फिर उस के चालचलन को अपराध का कारण सिद्ध करने लगती हैं. रेप जैसे घिनौने अपराध पर हम अपराधियों की गलती के पीछे पीडि़ता की तरफ से हुई लापरवाही को ढूंढ़ने लगते हैं. क्या यह सही है?

पहली बात तो यह कि लड़कों की तरह लड़कियों को भी बाहर आनेजाने, देर रात घर से बाहर होने, नौकरी करने, पार्टी करने या फिर दोस्तों के साथ आनंद उठाने का अधिकार होना चाहिए, क्योंकि लड़कियां भी इस समाज का उतना ही हिस्सा हैं जितना लड़के. लेकिन इस तरह का दोहरा मानदंड, हमारे समाज में बहुत पुराना है और काफी गहरी पैठ लिए हुए है.

एक बहुत पुरानी और लिजलिजी कहावत है, छुरी खूरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर, कटता खरबूजा ही है. इस चिढ़ा देने वाली कहावत को अकसर लोग लड़कियों की सुरक्षा को ले कर उपयोग करते हैं. क्या उन की दृष्टि में जीतीजागती लड़कियों और फलसब्जी में कोई अंतर नहीं?

लड़कियों को एक सुरक्षित समाज देने  की जगह हमारा समाज उन्हें ही घर के अंदर  बंद कर के अपनी जिम्मेदारी की पुष्टि कर  देता है. क्या हमें अपने गांवोंकसबोंशहरों को लड़कियों के लिए सुरक्षा की दृष्टि से बेहतर  नहीं बनाना चाहिए?

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गलत की जिम्मेदारी औरत की

जब सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या की खबर सामने आई, तो सब से पहले मीडिया उस की गर्लफ्रैंड रिया चक्रवर्ती के पीछे लग गया कि रिया ने सुशांत को पूरी तरह कंट्रोल कर रखा था, रिया हर मेहमान के आनेजाने पर नजर रखती थी, रिया ने सुशांत को पूरी तरह अपने ऊपर आश्रित कर लिया था. ऐसी अनेक बातें उठाई जा रही थीं. बाद में जब यह बात सामने आई कि सुशांत सिंह ड्रग्स लेता था तो इस का जिम्मेदार भी रिया को ठहराया जाने लगा.

अब इस स्थिति को उलट कर सोचिए. यदि एक ड्रग्स लेने वाली लड़की ने आत्महत्या की होती, जिस का बायफ्रैंड उस के लिए वही सब करता था जो रिया ने सुशांत के लिए किया तब हमारे समाज की क्या प्रतिक्रिया होती. क्या तब लोग उस लड़की पर ड्रग्स लेने की बात को ले कर उंगली नहीं उठाते? क्या उसे अपनी स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराते? बल्कि मुझे लगता है कि लोग उस के बायफ्रैंड को केयरिंग, उस से प्यार करने वाला और उस का ध्यान रखने वाला मानते.

सुशांत सिंह राजपूत के परिवार के वकील ने तो यहां तक कहा, ‘‘रिया का वीडियो उन के बयान नहीं, उन के कपड़ों के बारे में है, मुझे नहीं लगता उन्होंने जिंदगी में कभी ऐसे कपड़े पहने होंगे, उन का मकसद बस खुद को एक सीधीसादी औरत जैसा पेश करना था.’’

उन के इस कथन को वरिष्ठ वकील  करुणा नंदी ने कानून के दायरे में औरतों को नीचा देखना, करार दिया. उन्होंने लिखा कि कम कपड़े मतलब अपराधी, सलवारकमीज मतलब अपराध छिपाने की कोशिश.

कुछ समय पूर्व सुनील गावस्कर ने एक  बार विराट कोहली के अपने खेल में खराब प्रदर्शन के लिए अनुष्का शर्मा को जिम्मेदार ठहराया था. सोचिए, यदि अनुष्का शर्मा की  कोई फिल्म पिट जाए तो क्या उस के लिए  विराट कोहली को जिम्मेदार माना जाएगा?  शायद नहीं.

तब समाज यह कहेगा कि शादी के बाद अनुष्का शर्मा ने अपने काम के प्रति गैरजिम्मेदारी दिखाई, शादी के बाद वह अपने काम को ले कर उतनी मेहनत नहीं करती, उतनी संजीदा नहीं  रही. अर्थ साफ है कि गलती चाहे औरत खुद करे या उस का मर्द पार्टनर, ठीकरा औरत के सिर पर ही फूटेगा.

सुंदरता का आत्मिक बोझ

हमारे चारों ओर हर वक्त सुंदर चेहरों की तारीफ, सुंदर न होने की हीनभावना और सुंदरता निखारने के तरीकों की नुमाइश की वजह से सुंदरता एक बोझ सरीखी लगने लगती है. औरत कितनी भी पढ़ीलिखी हो, अपने काम में निपुण हो, पर थोड़ा सुंदर भी हो जाती तो बेहतर होता वाली विचाराधारा औरतों को पीछे धकेलने का काम करती है.

एक बहुप्रचलित विचारधारा और है कि यदि औरत चेहरे से सुंदर है तो दिमाग से जरूर बंदर होगी. उसे मौका केवल उस की सुंदरता के कारण मिलता है. वह कुछ खास काम नहीं कर सकती, क्योंकि काबिलीयत के नाम पर सुंदरता ही तो है, जबकि किसी भी पुरुष के आगे बढ़ने के पीछे केवल उस की काबिलीयत को ही श्रेय दिया जाता है.

औरतों के ऊपर सुंदर रहने, खूबसूरत दिखने, सही फिगर मैंटेन करने आदि का इतना बोझ बना रहता है कि उन्हें अकसर हीनभावना अपना शिकार बनाए रखती है.

औरतें बच्चों को जन्म देती हैं तब भी उन का बढ़ा हुआ पेट शर्मिंदगी का कारण होता है. आप अकसर लोगों, खासकर औरतों को कहते सुनेंगे कि बढ़े पेट के साथ यह ड्रैस उन पर फबती नहीं है, जबकि बिना ऐसे किसी कारण के जब आदमियों की तोंद बढ़ी रहती है और वे तंग शर्ट या टीशर्ट पहने रहते हैं, तब उन्हें कोई भी ऐसी बात नहीं कहता.

राजनीति में अडिग औरतें

औरतों के प्रति दोहरे मानदंड तब भी देखने को मिलते हैं जब औरतें राजनीति में अपनी पकड़ बनाने का प्रयास करती हैं. जब प्रियंका गांधी को कांग्रेस का महासचिव बनाया गया तब भारतीय जनता पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं की टिप्पणियां इस प्रकार थीं-

‘‘लोक सभा चुनाव में कांग्रेस चौकलेट जैसे चेहरे सामने ला रही है.’’

‘‘इस से उत्तर प्रदेश में बस यह फायदा होगा कि कांग्रेस की चुनाव सभाओं में कुरसियां खाली नहीं दिखेंगी.’’

‘‘वोट चेहरों की सुंदरता के बल पर नहीं जीते जा सकते.’’

किंतु ऐसा भी नहीं कि महिला नेता ‘सुंदर’ की परिभाषा में फिट न होती हो तो इज्जत मिल जाएगी. समाजवादी पार्टी (सपा) नेता मुलायम सिंह यादव ने राजस्थान में कहा था कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया मोटी हो गई हैं, उन्हें आराम करने देना चाहिए. यानी कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्टी कौन सी है या फिर राजनेता कौन है. बात बस इतनी सी है कि ऐसे पुरुषों की कमी नहीं जो यह मानते हैं कि राजनीति में औरतें पुरुषों से कमतर हैं और उस के लिए वे कोई भी तर्क रख सकते हैं.

किसी जगह आप को इतना बेइज्जत किया जाए, आप के शरीर पर बेहिचक भद्दी बात हो और आप के काम को इसी बल पर नीचा दिखाए जाए तो क्या आप वहां का रुख करना चाहेंगे? शायद नहीं. पर इन औरतों को देखो, ये उस राह पर चल ही नहीं रहीं, डटी हुई हैं. चमड़ी गोरी हो या सांवली, मोटी जरूर कर ली है. तादाद में अभी काफी कम हैं. पहली लोक सभा में 4 फीसदी से बढ़ कर 17वीं लोक सभा में करीब 14 फीसदी महिला सांसद हैं.

अब जरा अपने आसपास के छोटे देशों में झांकते हैं- नेपाल की संसद में 38 फीसदी, बंगलादेश और पाकिस्तान में 20 फीसदी महिलाएं हैं. यहां तक कि अफ्रीकी देश रवांडा की संसद में 63 फीसदी महिलाएं हैं. तो क्यों न हम अपनी चाहत की उड़ान को और पंख देने को मचल जाएं.

आर्थिक दौड़ में पिछड़ती औरत

आर्थिक दौड़ में औरतों की स्थिति इतनी कमजोर क्यों है? इस का सीधा सा कारण है कि गृहस्थी के कार्यों को हमारा समाज आर्थिक नजरिए से नहीं तोलता. पुरुष नौकरी करता है, कमा कर लाता है. स्त्री घर संभालती है, घर के काम, बाजार के काम, बच्चों को पालना, पढ़ाना, वृद्धों की देखभाल, खाना पकाना, साफसफाई, घर की देखरेख, कपड़ों की धुलाई प्रैस और न जाने ऐसे कितने काम होंगे जो इस लिस्ट में शामिल हो सकते हैं.

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक औरत रोज करीब 4 घंटे 25 मिनट अवैतनिक कार्य करती हैं जबकि पुरुष केवल 1 घंटा 23 मिनट. इन सभी कार्यों को यदि बाहर से करवाया जाए तो इन में कितने पैसे खर्च होंगे, इस का हिसाब लगाना मुश्किल नहीं.

लेकिन जब एक गृहिणी इन सभी कार्यों  को बिना शिकन के संभालती है तो उस के  हिस्से में केवल जिम्मेदारियां आती हैं. यदि वह घर खर्च से कुछ पैसे बचा कर अपने पास रख लेती है तो उसे भी हमारा समाज हंस कर चोरी का उपनाम दे देता है. मोदीजी के विमुद्रीकरण ने इन बेचारी औरतों से यह जरा सा संबल भी छीन लिया था.

कोरोना के चलते बहुत सी महिलाओं की नौकरियां छिन गईं, क्योंकि करीब 60% महिलाएं अनौपचारिक क्षेत्रों में नौकरियां करती हैं जहां वर्क फ्रौम होम करना संभव नहीं. ऐसे में तनाव और आर्थिक परेशानियों से घिरी, घर पर बैठने को मजबूर ये महिलएं फिर घरेलू हिंसा का शिकार नहीं होंगी तो क्या होगा?

धर्म और समाज की मारी औरत

धर्म के अनुसार वही स्त्री ‘अच्छी’ है जो अपने पति, पिता और बेटे के कहे अनुसार  अपना जीवन जीए. ऐसी स्त्री का गुणगान करते  न जाने कितने किस्सेकहानियां मिल जाते हैं. लगभग हर धार्मिक कथा केवल महिलाओं को ज्ञान और शिक्षा देती है. घर के मर्दों के लिए व्रतउपवास करो, घरेलू कार्य करो, बचे हुए

समय को धर्म में लगाओ, प्रश्न मत करो, केवल आज्ञा मानो, यही सब औरत की नियति में लिख दिया गया है और जब घरेलू कामकाज केवल औरत का कर्तव्य है तो उस में न तो कोई उस  की प्रशंसा का प्रश्न उठता है और न ही वाहवाही का, उलटा यदि कोई औरत घरेलू कामों में  निपुण नहीं है तो उस की भद्द जरूर उड़ती है, क्योंकि वह औरत ही क्या जो घर के, रसोई के, धर्म के और रीतिरिवाजों के सभी कार्यों में होशियार न हो. धर्म ने औरत को आगे बढ़ने  से रोक कर, केवल चारदीवारी में निहित कर छोड़ा है.

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गीता में एक उपदेश में उक्त है कि

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यंती कुलस्त्रीय:

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकर:

अर्थात हे कृष्ण, पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां अत्यंत दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय, स्त्रीयोन के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है.

एक अन्य श्लोक कहता है इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं. अर्थ स्पष्ट है कि कुल की शुद्धता, मर्यादा और गुण को नष्ट करने की पूरी जिम्मेदारी केवल और केवल स्त्री को सौंप दी गई. पुरुषों की भटकन से इस का कोई लेनादेना नहीं. बस, स्त्री को स्वयं को बनीबनाई सीधी लकीर पर आंख मूंदे चलते  रहना होगा.

गालियां हमेशा महिलाओं को ले कर

इसी तरह गालियां भी हमारे पितृसत्तात्मक समाज की देन हैं, इसलिए अमूमन हर गाली महिला को टार्गेट करते हुए होती है. जिस समाज में महिलाओं को देवी की तरह पूजने की बात होती हो, वहीं पुरुषों को दी जाने वाली गालियों  में घर की माताबहनों को निशाना बनाना उचित  है क्या?

जैसे हिंदी भाषा में कुलटाकुलक्षिणी जैसे उपनाम पुरुषों के लिए हैं ही नहीं, वैसे ही तमिलनाडु स्थित केरला विश्वविद्यालय में असोसिएट प्रोफैसर टी विजयलक्ष्मी का कहना है कि वेश्या शब्द का कोई पुल्लिंग नहीं.

इन्होंने 2017 में कुछ कविताएं लिखीं  और प्रकाशित कीं जिन में इन्होंने वेसी  (वेश्या) के लिए वेसन (पुल्लिंग) तथा मूली (उपशगुनी औरत) के लिए मूलन शब्दों का आविष्कार किया.

हेमंग दत्ता, भाषा विज्ञान में समाजशास्त्री ने भी इसी तरह मलयालम व असमिया भाषाओं में यह जाना कि कुछ शब्द जैसे ओक्सोटी यानी व्यभिचारिणी या फिर ‘बोनोरी’ यानी चरित्रहीन महिला जैसे शब्दों का कोई पुल्लिंग नहीं है.

2016 में अभिनेत्री श्रुति हसन ने एक वीडियो निकाला, ‘बी द बिच’ जिस में उन्होंने बिच यानी कुतिया जोकि एक गाली की तरह उपयोग किया जाता है को एक नई परिभाषा दी, वह औरत जो अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जीने की हिम्मत रखती हो.

मदुरै के समाजशास्त्री चित्राराज जोसफ कहते हैं कि केवल पुरुष ही नहीं, महिलाएं भी औरतों के लिए गालियों को प्रयोग करती हैं, क्योंकि वे भी तो इसी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं. इन का मत है कि जो महिलाएं अपनी स्वाधीनता व अपने वजूद में विश्वास नहीं रखतीं, वे दूसरे पुरुषों या महिलाओं से लड़ते समय ऐसी गालियां बेझिझक देती हैं जो औरत के चरित्र, उस की जननक्षमता, उस की शारीरिक बनावट आदि को निशाना बनाती हैं.

पीपल्स लिंगुइस्टिक सर्वे औफ इंडिया के चेयरमैन गणेश डेवी एक बहुत रोचक तथ्य को सामने रखते हुए कहते हैं कि कई भारतीय भाषाओं में ‘गुण’ को पुल्लिंग और ‘गलती’ को स्त्रीलिंग के रूप में बोला व लिखा जाता है.

अनमोल पहलू को नकारता

कब तक समाज में आगे बढ़ती हिम्मती महिला को मर्दानी कह कर उस के स्त्रीत्व के इस अनमोल पहलू को नकारा जाएगा? बेटी ने अच्छी नौकरी प्राप्त कर ली तो वह बेटों सी लायक हो गई, बेटी ने घर की जिम्मेदारी उठाई तो वह बेटे की तरह सक्षम निकली, लेकिन वहीं यदि कोई बेटा भावुक प्रवृत्ति का निकला तो उसे औरत की तरह कमजोर कह कर गाली दी जाती है. औरतों के लिए ‘मर्दानी’ एक मैडल है, लेकिन ‘हाथों में चूडि़यां पहनना’ पुरुषों के लिए गाली और फिर भी हमारे समाज में औरतों के लिए चूडि़यां व अन्य शृंगार बेहद आवश्यक माना जाता है, उन के पूरे व्यक्तित्व का अहम हिस्सा समझा जाता है. विधवा का मुंह देखना अपशकुन माना जाता है, जबकि विधुर पुरुषों के लिए ऐसी कोई बाधा नहीं है.

जैंडर असमानता क्यों

जैंडर असमानता पर अपने अध्ययन में मारथा फोशी कहती हैं कि दफ्तरों में अच्छे पदासीन पुरुष की आक्रामक कार्यप्रणाली को निर्णयात्मक रूप में सराहा जाता है, किंतु एक स्त्री यदि ऐसा ही रवैया अपनाए तो उसे हावी होने वाली, गुस्सैल और नकारात्मक ढंग से देखा जाता है. महिलाओं से अधिक संवेदनशीलता की अपेक्षा की जाती है. साथ ही उन से एक आदर्श व्यवहार, सम्मानजनक दूरी बनाए रखना और चुपचाप काम करने की उम्मीद भी की जाती है.

जब किसी औरत के कपड़ों की, उस के राजनीतिक विकल्पों की, उस की नौकरी की, उस  के मनोरंजन की आलोचना की जाती है तो यह आलोचना दरअसल उस के निर्णय लेने की क्षमता की होती है. समाज यह दर्शाना चाहता है कि तुम में इतनी अक्ल नहीं कि तुम अपने फैसले खुद ले सके. तुम सदियों पुरानी घिसीपिटी मान्यताओं को तोड़ कर आगे नहीं बढ़ सकती. तुम वही करो जो करती आई हो. कुछ नया सोचना या करने की तुम्हें इजाजत नहीं है. मगर ऐसा कब तक चलता रहेगा?

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आज हमें अपने घरों में पत्नी बन कर, मां बन कर और गृहिणी बन कर बदलाव लाना होगा. आज हमें अपनी बेटियों को गाय सी सीधी नहीं, शेरनी सी तेज बनाना होगा. धर्म और समाज का यह दोगलापन खत्म करने का समय हमें ही तय करना होगा.

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