संयुक्त राष्ट्र ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की. इस में दुनिया के 75 देशों और क्षेत्रों में शिक्षा और राजनीति समेत विविध क्षेत्रों में लैंगिक भेदभाव का विश्लेषण किया गया. रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि दुनिया में कोई भी देश ऐसा नहीं है, जहां लैंगिक समानता हो. रिपोर्ट के मुताबिक 86 फीसदी महिलाएं और 90 फीसदी पुरुष, महिलाओं के प्रति किसी न किसी तरह का भेदभाव (2018) बरतते हैं.
रिपोर्ट से यह पता चलता है कि दुनिया के लगभग आधे पुरुष और महिलाएं महसूस करते हैं कि पुरुष बेहतर राजनीतिक नेता बनते हैं और 40% अधिक लोगों को लगता है कि पुरुष बेहतर व्यावसायिक अधिकारी बनते हैं.
इसलिए दुनियाभर में केवल 24% संसदीय सीटें महिलाओं के पास हैं, और सरकार की संभावित 193 महिला प्रमुखों में से केवल 10 हैं.
राजनीति में पूरी भागीदारी नहीं
अमेरिका जैसे बड़े देश की ही बात करें तो काबिलियत के बाद भी अमेरिका की प्रथम महिला हिलेरी क्लिंटन को वह स्थान नहीं मिल पाया, जिस की वह हकदार थीं.
कौन है हिलेरी क्लिंटन:
हिलेरी डायेन क्लिंटन अमेरिका के न्यूयार्क प्रांत से कनिष्ठ सेनेटर हैं. वे अमेरिका के 42वें राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हैं और सन 1993 से 2001 तक अमेरिका की प्रथम महिला रहीं. बराक ओबामा के कार्यकाल में हिलेरी क्लिंटन विदेश मंत्री थीं. अमेरिका की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में डैमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी के लिए दावा पेश किया था. हिलेरी का कहना था कि वह अमेरिकी लोगों की चैंपियन बनना चाहती हैं लेकिन वे ट्रंप से हार गईं. हिलेरी क्लिंटन ने 2008 में भी डैमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी पेश की थी, लेकिन बराक ओबामा से भी वे हार गईं.
राष्ट्रपति चुनाव में अपनी हार की वजह हिलेरी क्लिंटन ने रूस के राष्ट्रपति पुतिन को ठहराया. उन्होंने यह भी कहा कि मुझे दुख इस बात का है कि मैं ट्रंप को राष्ट्रपति बनने से नहीं रोक पाई.
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कहां चूक गई हिलेरी
अमेरिकी इतिहास का सब से साधारण राष्ट्रपति चुनाव 2016 का था और वह दरअसल, राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था. और इस राजनीतिक व्यवस्था का सब से बड़ा प्रतीक कोई और नहीं, खुद हिलेरी क्लिंटन थीं. चुनाव प्रचार के दौरान करोड़ों गुस्साए हुए वोटरों के लिए वे अमेरिका की खंडित राजनीति का चेहरा बन कर उभरी थीं.
वहीं, डोनाल्ड ट्रंप कई प्रांतों के काफी मतदाताओंके लिए एक ऐसा इंसान बन कर उभरे थे, जो बिगड़ी हुई व्यवस्था को ठीक कर सकते थे. वे अपने एक बिलकुल अंदरूनी आदमी को खिलाफ एक बाहरी आदमी के रूप में स्थापित करने में कामयाब रहे.
हिलेरी क्लिंटन यह दावा करती रहीं कि वे राष्ट्रपति पद के लिए सब से योग्य इंसान हैं. एक तरह से वे अपनी सीवी रटती रहीं जैसे प्रथम महिला के तौर पर उन का अनुभव, न्यूयार्क सीनेटर और विदेश मंत्री. लेकिन असंतोष और गुस्से के माहौल में ट्रंप के समर्थन ने अनुभव और योग्यता को नकारात्मक ही माना. वहां के तमाम लोग व्हाइट हाउस में एक पारंपरिक राजनेता नहीं, बल्कि एक व्यवसायी को देखना चाहते थे. वाशिंगटन के प्रति लोगों की नफरत साफ थी.
इसलिए, क्लिंटन के प्रति भी लोगों के मन में नफरत थी. उन के प्रति घृणा बेइंतहा और तेजी से फैलने लगी थी. इतना कि एक अधेड़ उम्र की विनम्र महिला भी हिलेरी क्लिंटन का नाम सुनते ही बिदक पड़ी थीं.
हिलेरी क्लिंटन के साथ विश्वास की समस्या पहले से ही थी. यही वजह थी कि ईमेल स्कैंडल इतना बड़ा मामला बन गया था. उन की छवि पूर्वी तट के कुलीन खानदान की ऐसी इंसान की बन गई, जो मजदूर वर्ग को हिकारत की नजरों से देखती है. मजदूरों से उन की दूरियां इतनी बढ़ती चली गईं कि उसी मजदूर वर्ग ने स्टेट अरबपति को खुशीखुशी वोट दिया.
अमेरिका में महिला वोटरों की तादाद पुरुष वोटरों से 10 लाख ज्यादा है. समझा जाता था कि हिलेरी को इस का फायदा होगा. मगर ऐसा नहीं हुआ. क्योंकि प्राइमरी में बनीं सैंडर्स का मुकाबला करने के दौरान ही यह साफ हो गया था कि युवतियों को देश की पहली महिला राष्ट्रपति के नाम पर एकजुट करना बहुत आसान भी नहीं था. कई महिलाएं उन के साथ सहज हो ही नहीं पाईं.
नहीं बन पाई अच्छी वक्ता
हिलेरी क्लिंटन स्वाभाविक प्रचारक नहीं हैं. उन के भाषण अमूमन सपाट होते हैं और कुछकुछ ऐसा लगता है कि मानों रोबोट बोल रहा हो. उन की कही बातें बनावटी लगती है और कुछ लोगों को वे बातें गंभीर नहीं लगती थीं.
डोनाल्ड ट्रंप ने उन पर प्रेम संबंध में पति की मदद का आरोप लगाया था. उन्होंने हिलेरी की यह कह कर आलोचना की थी कि जिन महिलाओं ने बिल क्लिंटन पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया, हिलेरी ने उन की निंदा की थी. जब ट्रंप यह सब कह रहे थे, उन की बातों पर कई महिलाओं ने रजामंदी जताई थी.
हिलेरी क्लिंटन का दिया नारा नहीं चला, अमेरिका के बारे में अपनी दृष्टि को उन्हें हमेशा सहेज कर पेश करने की जद्दोजहद करनी होती थी. ‘‘स्ट्रौंगर टुगैदर’’ नारे में वह दम नहीं था जो ‘‘मेक अमरीका ग्रेट अगेन’’ में था. क्लिंटन के नारे को अलगअलग दर्जनभर तरीके से पेश किया गया था. इस से यही साबित होता था कि एक साफ संकेत देने में वे सहज नहीं हैं.
माना जाता है कि उन के प्रचार अभियान में कुछ गलतियां भी हुई. उन्हें उत्तरी कैरोलिना और ओहियो जैसे उन राज्यों पर समय और संसाधन नहीं बरबाद करना चाहिए था. क्योंकि डैमोक्रेटिक पार्टी पहले से ही मजबूत स्थिति में थी. उन्हें ‘नीली दीवार’ कहा जाता है. ये वे 18 राज्य थे, जहां पिछले 6 चुनावों में उन की पार्टी को बढ़त मिलती आई थी.
ट्रंप ने गोरे मजदूर वर्ग के मतदाताओं की मदद से पैंसिलवेनिआ और विस्कोन्सिन राज्य जीत कर इस मजबूत ‘नीली दीवार’ को भी ढहा दिया. ये वे राज्य थे, जहां 1984 से अब तक रिपब्लिकन पार्टी को जीत नसीब नहीं हुई थी.
यह सिर्फ हिलेरी क्लिंटन को नकारना नहीं था. आधे देश से अधिक ने अमेरिका को ले कर बराक ओबामा की दृष्टि को खारिज कर दिया था.
कहा जाता था कि अमेरिका में अगर हिलेरी क्लिंटन चुनाव जीत जातीं तो अमेरिका की पहली महिला प्रैसिडैंट होने का इतिहास रचतीं. लेकिन ऐसा नहीं हो पाया.
पूर्व प्रथम महिला और सांसद हिलेरी क्लिंटन के पास लंबा अनुभव है. लेकिन उन्हें अमेरिकी राजनीति में एक बांटने वाली शख्शियत के रूप में भी देखा जाता है. राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी उन की तारीफ करते हुए कहा था कि वे एक शानदार राष्ट्रपति साबित होंगी.
महिला राष्ट्रपति मंजूर नहीं
इस में कोई संदेह नहीं है कि पुराने जमाने के लैंगिक भेदभाव की भी चुनावों में भूमिका रही है. कई पुरुषों ने महिलाओं को राष्ट्रपति के रूप में उन्हें मंजूर नहीं किया.
मिशैल ओबामा अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ओबामा की पत्नी हैं, एवं वह अमेरिका की प्रथम महिला रह चुकी हैं.
राष्ट्रपति बनने के सवाल पर मिशैल ओबामा कहती हैं कि नहीं, बिल्कुल नहीं. मैं राष्ट्रपति पद की दौड़ का हिस्सा नहीं बनूंगी. उन का कहना है कि हिलेरी क्लिंटन के पदचिन्हों पर चलने और राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल होने में उन की कोई दिलचस्पी नहीं है. उन का कहना था कि वे वाशिंगटन की धु्रवीय राजनीति से अलग रह कर भी अधिक प्रभावी हो सकती हैं.
पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भी साफतौर पर कहा था कि मिशैल की राष्ट्रपति पद के चुनाव में शरीक होने की कोई मंशा नहीं है.
जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तो लोगों की जितनी निगाह बराक ओबामा पर थी उतनी ही सुर्खियां मिशैल ओबामा ने भी बटोरी थीं.
नकारात्मक छवि:
बताया जाता है कि शुरू में मिशैल को बराक ओबामा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर ऐतराज था. लेकिन ‘‘द ओबामाज’’ किताब लिखने वाली जोड़ी कैंटर का कहना है जब मिशैल बराक ओबामा का समर्थन करने का फैसला कर लेती है तब वह ओबामा की सब से बड़ी समर्थक बन जाती है.
जो लोग मिशैल को लंबे समय से जानते हैं उन का कहना है कि मिशैल स्पष्टवादी हैं. वे हावर्ड में ट्रेनिंग प्राप्त वकील हैं. वे अपने पति के तर्कों को सामने रखने में यकीन रखती हैं. लेकिन इस बात का लोगों पर अच्छा असर नहीं हुआ. शायद इसलिए कि आमतौर पर राजनेताओं की पत्नियां हाशिए पर रहती हैं और शायद इसलिए भी कि मिशैल के लिए भी यह सब नया था.
2008 में डेमोक्रेटिक पार्टी के डेनवर में हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में मिशैल ने भाषण दिया था और कहा था कि वह एक अच्छी पत्नी, मां और बेटी के तौर पर खड़ी रहेंगी.
ओहिओ यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर कैथरीन जेलिसन ने कहा जिस दिन ओबामा ने राष्ट्रपति की शपथ ली, तभी से मिशैल एक ऐसी फर्स्ट लेडी के तौर पर दिखीं जो अमेरिका देखना चाहता था. समर्पित पत्नी और मां.
राष्ट्रपति बनने के बाद जहां बराक ओबामा की रेटिंग गिरने लगी थी वहीं मिशैल की रेटिंग बढ़ती रही. मई 2012 में गैलअप के सर्वे में ओबामा की रेटिंग 52 फीसदी थी तो मिशैल की 60 फीसदी.
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हाशिए पर रहना पसंद किया
प्रोफेसर बोनी डाओ के मुताबिक, फर्स्ट लेडी बनने के बाद मिशैल ने बच्चों और परिवारों से जुड़ी योजनाओं को अपनाया. वे व्हाइट हाउस में सब्जियों का बगीचा लगा चुकी हैं, वजन घटाने के फायदे समझाने के लिए रिऐलिटी शो पर भी आ चुकी हैं और बागबानी पर किताब लिख चुकी हैं.
न्यूजवीक में वरिष्ठ लेखक एलिसन सैम्युल्स कहते हैं मिशैल को समझ आ गया था कि व्हाइट हाउस में सब कुछ ओबामा के इर्दगिर्द घूमता है. इसलिए उन्होंने ऐसे मुद्दों पर ध्यान देना शुरू किया जिस से वे पृष्ठभूमि में ही रहें और ओबामा पर हावी न हों.
रिपब्लिकन पार्टी के कई सदस्य भी उन के प्रशंसक हैं. हालांकि आलोचक भी हैं जो उन के कपड़ों, योजनाओं और विचारों में खामियां निकालते रहे हैं.
पत्रकार और लेखक जोडी कैंटर कहती हैं कि मिशैल ऐसा दिखाती हैं कि राजनीति से परे हैं लेकिन सच तो ये है कि वे प्रचार भी करती हैं, चुनाव अभियान के लिए पैसा भी जुटाती हैं. वे सब से लोकप्रिय राजनीतिक हस्तियों में से एक हैं.
दरअसल, फर्स्ट लेडी होने का विरोधाभास यही है कि महिला जितनी गैर राजनीतिक नजर आती है, राजनीतिक स्तर पर वह उतनी ही प्रभावी साबित होती हैं.
विश्लेषकों का कहना है कि लोगों में मिशैल का राजनीतिक आकर्षण अब भी बरकरार है. 2012 के चुनाव में भी मिशैल ने अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल अपने पति को जीत दिलाने की कोशिश में किया.
होममेकर की भूमिका तक सीमित
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि महिलाओं में नेतृत्व के गुण कूटकूट कर भरे हुए हैं. फिर भी उस नेतृत्व का दायरा उस की होममेकर की भूमिका तक सीमित कर दिया जाता है. औरतों की सीमा रेखा आज भी घरपरिवार की देहरी बना दी जाती है. जब महिलाएं एक अपराधी समाज का सामना कर सकती हैं तो राजनीति का क्यों नहीं? मगर यह बात पुरुष समाज समझना ही नहीं चाहता.
भारत में भी (2014-15) 97 फीसदी महिलाएं और 99 फीसदी पुरुष, महिलाओं से भेदभाव करते हैं. 5 सालों में महिला राष्ट्राध्यक्षों की संख्या में महज 10 रह गई है, जबकि 2014 में यह संख्या 25 थी.
भारत में उदार कांग्रेस ने इंदिरा और सोनिया को तो जगह दे दी, पर कट्टर भाजपा ने एक भी महिला नेता को वह स्थान नहीं दिया जिस की वह हकदार थी. सिर्फ सुषमा स्वराज को ही नहीं, बल्कि उमा, अनुप्रिया, मेनका गांधी की भी भाजपा सरकार में बुरी गत हुई.
शपथ समारोह के बाद सुषमा स्वराज ने ट्वीट कर कहा था कि प्रधानमंत्री जी, आप ने मुझे 5 साल तक बतौर विदेश मंत्री देश की सेवा का मौका दिया, सम्मान दिया, इसलिए मैं आप की आभारी हूं. सुषमा स्वराज ने भले ही खुद को सरकार में शामिल नहीं किए जाने को सहजता से ले रही थीं लेकिन अंदर ही अंदर दुख तो उन्हें भी हो रहा होगा. जबकि सुषमा स्वराज ने भाजपा सरकार में रहते हुए क्या कुछ नहीं किया था.
सुषमा स्वराज ने कई विषम परिस्थितियों में देश का मान बढ़ाया. लेकिन सब व्यर्थ, क्योंकि वह आडवाणीजी की शुभचिंतक थी और इसी बात की उन्हें कीमत चुकानी पड़ी. 66 साल की सुषमा राजनीति में 25 साल की उम्र में आई थीं. सुषमा स्वराज के राजनीतिक गुरु लाल कृष्ण आडवाणी रहे थे.
सुषमा स्वराज एक प्रखर और ओजस्वी वक्ता, प्रभावी पार्लियामेंटेरियन और कुशल प्रशासक मानी जाती थीं.
राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि साल 2013 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनने से रोकने की लाल कृष्ण आडवाणी की मुहिम में वे आडवाणी के साथ थीं. इस मुहिम में उन्होंने आखिर तक आडवाणीजी का साथ दिया था. 2014 में मोदी की जीत के बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा.
जानकारों का मानना था कि उसी अपराध की सजा सुषमा स्वराज को भविष्य में मिली. इंदिरा गांधी के बाद सुषमा स्वराज दूसरी महिला थीं जिन्होंने विदेश मंत्री का पद संभाला था.
बसपा ने मायावती को सहज अपनाया पर सोशल मीडिया में भगवाई पहलवानों ने उस पर तरहतरह के भद्दे जोक बना कर डाले, पर उन पर कोई मुकदमा नहीं चला. भाजपा नेता दयाशंकर ने तो मायावती पर अभद्र टिप्पणी की थी. भाजपा के नेता दयाशंकर ने मायावती पर बेहद भद्दा तंज कसते हुए उन की तुलना यौनकर्मी से कर दी थी. उन्होंने मायावती पर टिकटों की बिक्री का भी इल्जाम लगाया था.
सशक्तिकरण के बावजूद भेदभाव
महिला सशक्तिकरण को ले कर आज पूरी दुनिया में कई प्रकार के अभियान चलाए जा रहे हैं. लैंगिक समानता के क्षेत्र में सुधार के बावजूद आज भी दुनिया भर के हर 10 में से 9 लोग महिलाओं के साथ भेदभाव करते हैं या पूर्वाग्रह रखते हैं.
‘राजनीतिक भागीदारी’ इस शब्द का उच्चारण जितना महान और विशाल है, अगर महिलाओं के पक्ष में देखें तो बहुत ही कमतर और तुच्छ दिखाई पड़ता है, क्योंकि भारत जैसे देश में जब सारी राजनीतिक पार्टियों को कोई और राह दिखाई नहीं पड़ती है तब उन्हें महिलाओं की अचानक से याद आती है, जिन्हें वे हथियार के तौर पर समाज से इस्तेमाल कर सकें.
उन्हें राजनीति के अखाड़ों में उन के पतियों, भाइयों और पिताओं के पीछे खड़ा कर के अपनेअपने पार्टी की प्रत्याशी के तौर पर दिखाते हैं.
महिलाओं के लिए राजनीतिक संघर्ष:
प्राचीन काल से आधुनिक काल यानी वर्तमान समय तक भारत में स्त्रियों की स्थिति परिवर्तनशील रही है. हमारा समाज प्राचीन काल से आज तक पुरुष प्रधान ही रहा है. विश्व का इतिहास और विश्व के प्रगतिशील देशों की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति इस बात का प्रमाण है कि किसी भी देश की वांछित प्रगति के लिए उस देश की महिलाओं की भागीदारी आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है. संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा द्वारा घोषित ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष’ एवं ‘महिला दशक 1990-2000’ की समाप्ति तक भी भारत की संपूर्ण कार्यात्मक शक्ति में महिला कार्यकर्ताओं की संख्या कम है.
विश्व की आधी शक्ति एवं क्षमता होने के बावजूद राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका, उन की काम में भागीदारी तथा कमजोर स्थिति और सहभागिता पर प्रश्नचिन्ह यथावत लगा हुआ है. भारतीय राजनीति में महिलाओं के लिए किसी प्रकार का प्रतिबंध न होने के बावजूद भी वे भारत के आम चुनावों में बहुत कम संख्या में भाग लेती हैं तथा जो भाग लेती हैं वे प्राय: राजनीति की ऊंची कुर्सी तक पहुंचने अथवा उसे प्राप्त करने में असमर्थ रहती हैं.
इतिहास गवाह है कि जबजब महिलाओं को मौका मिला है, उन्होंने हर तरीके से अपनी काबिलीयत सिद्ध की है और कई मायनों में पुरुषों से कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से सिद्ध की है.
चाहे हम बहुत पीछे जा कर रानी लक्ष्मीबाई को देखें या 19वीं सदी की आयरन लेडी इंदिरा गांधी को, ऐसे अनेकों सुंदर उदाहरण महिलाओं के मिल जाएंगे, जिन्होंने विश्व स्तर पर देशदुनिया को गौरवान्वित किया है.
आज की तारीख में कोई भी ऐसा देश नहीं है, जिस ने पुरुषों और महिलाओं के बीच का फर्क मिटाने में पूरी तरह से सफलता प्राप्त कर ली हो. चाहे खेल जगत हो, मनोरंजन जगत या फिर राजनीतिक, महिलाएं सभी जगह असमानता का दंश झेल रही हैं.
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संयुक्त राष्ट्र महिला संस्थान:
यूएन की कार्यकारी निदेशक फुमजिली क्लाक्बो नाक्यूका का कहना है, ‘‘महिलाधिकारों की समीक्षा दिखाती है कि कुछ प्रगति हासिल करने के बावजूद, कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां लिंग समानता हासिल कर ली गई हो.’’
उन्होंने कहा कि समानता का मतलब केवल यह नहीं है कि राजनीति से संबंधित केवल एक चौथाई सीटें महिलाओं के लिए छोड़ दी जाएं, जबकि दुनियाभर में महिला प्रतिनिधित्व के मामले में ऐसी ही स्थिति है.
सांसदों में 75% सीटों पर पुरुष विराजमान हैं और प्रबंधन संबंधी पदों पर 73% पुरुषों का नियंत्रण है. साथ ही जलवायु परिवर्तन के पदों में से 70% पर पुरुष विराजमान हैं.
राजनीति के लंबे इतिहास में महिला नेत्री उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं, इंदिरा गांधी से ले कर सुचेता कृपलानी, भंडारनायक से ले कर मार्गरेट अल्वा तक अधिकांश ने उच्च पदों पर जा कर भी महिलाओं की बेहतरी के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया. महिलाओं के हक में किसी भी बड़े फैसले को पारित होने में दशकों लग गए.
कारण यह भी है कि उन की आवाज सुनी ही नहीं गई, चाहे वह सुभाषनी अली हों या वृंदा करात. परिवार के तहत आई नेत्रियों ने समाज में ओहदा तो लिया पर पर्याप्त हस्तक्षेप नहीं किया.
महिला जब तक वर्ग, जाति और धर्म की फांस से बाहर नहीं निकलतीं, तब तक राजनीति तो क्या घर में भी उस की सहभागिता सार्थक और सम्मानजनक नहीं हो सकती है. धर्म का ध्वज वाहक बने रहने से पितृसत्ता ही मजबूत होती है. पितृसत्ता और स्त्री चेतना या स्त्री अस्मिता एकदूसरे के विलोम होते हैं.
यह कहना गलत नहीं होगा कि पुरुषों ने राजनीति को अपना अखाड़ा बना डाला है, जहां या तो महिलाएं ऊंचे पदों तक आ नहीं पाती या उन के खानदान की महिलाओं के सिवाय ऊंचे पद पर किसी सामान्य औरत को टिकने ही नहीं दिया जाता. अथवा उन के द्वारा नियुक्त स्त्री मात्र स्टार प्रचारक मार्का शोपीस या कठपुतली बना दी जाती है.
महिला सशक्तिकरण की पहल के बावजूद अब भी संसद में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 12% है. पंचायतों में भी स्त्रियां प्रौक्सी नेता, मुखिया ही हैं. फिर भी नियमों का बिसरण और व्यापन ही सामाजिक जड़ता को तोड़ने का काम करेगा.
शिक्षा, खेलकूद, चिकित्सा, इंर्फोमेशन टैक्नोलौजी, फिल्में, बैंकिंग, व्यापार, अंतरिक्ष, सेना और यहां तक कि अंडरवर्ल्ड में भी महिलाएं पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. यहां तक कि युद्ध रिर्पोटिंग जैसे साहस भरे कामों को अंजाम दे रही हैं और अपना मनवा रही हैं. तो राजनीति जैसे क्षेत्र में उन की ऐसी धनक कम क्यों है यह एक शोध का विषय हो सकता है.
चुनौतीपूर्ण है स्थिति
भारत समेत दुनिया के सभी देशों में चाहे वह विकसित देश हो या विकासशील या तीसरी दुनिया महिलाओं के लिए राजनीति में आना, बने रहना एक चुनौतीपूर्ण है.
जनरल औफ इकोनोमिक बिहैवियर एंड और्गेनाइजेशन में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है कि जिन सरकारों में महिलाओं की भागीदारी अधिक होती है, वहां भ्रष्टाचार कम होता है. संयुक्त राष्ट्र महासभा की अध्यक्ष मारिया फर्नांडा एस्पिनोसा ने न्यूयार्क में महिला की स्थिति पर आयोग के 63वें सत्र के दौरान महिलाओं की भागीदारी के विषय में चर्चा करते हुए इस बात को रेखांकित किया कि मौजूदा रुझान के जारी रहते दुनिया को लैंगिक बराबरी हासिल होने में 107 साल और लग जाएंगे.
अंतर्राष्ट्रीय संस्था अंतर संसदीय यूनियन के ताजा आंकड़े बताते हैं कि राजनीति में महिलाओं को अधिकार देने के मामले में भारत विश्व में 98 नंबर पर आता है. भारत में लोकसभा की 545 सीटों में 59 महिलाएं हैं. राज्य सभा की 242 सीटों में सिर्फ 25 महिलाएं हैं. पाकिस्तान की संसद में नीचे सदन में 22.2% महिलाएं हैं, जबकि ऊपरी सदन में 17%. पाकिस्तान 51 स्थान पर. चीन 55वें और बंगलादेश 65वें नंबर पर है.
अफ्रीकी देश रवांडा इस सूची में पहले नंबर पर है. जहां संसद के निचले सदन में 56% महिलाओं की भागीदारी है और ऊपरी सदन में 34% की. स्वीडन 45% के साथ दूसरे नंबर पर और दक्षिण अफ्रीका तीसरे स्थान पर, नंबर 4 पर क्यूबा, आइसलैंड, फिनलैंड और नार्वे आते हैं.
महिलाओं को राजनीति में शामिल करने के मुद्दे पर जर्मनी दुनिया में 19 नंबर पर है जबकि अमेरिका 72वें नंबर पर. रिपोर्ट में बताया गया है कि सऊदी अरब, कतर और ओमान में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी शून्य है.
आज हम विश्व स्तर पर सतत विकास में लैंगिक भेदभाव को दूर करने की बात कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर लैंगिक भेदभाव की जड़ें समाज और राजनीति में मजबूती पकड़ रही है. ऐसे में हमें सोचना होगा कि कैसे हम लैंगिक समानता की मंजिल तक पहुंच कर विश्व में सतत विकास का सपना पूरा कर पाएंगे या फिर एक बार फिर लैंगिक असमानता हमारे लिए एक बड़ी चुनौती साबित होगी, एक शांतिपूर्ण और सुंदर विश्व की कल्पना बिना लैंगिक समानता के नहीं पूरा हो सकता है. जब तक लैंगिक समानता नहीं होगी तब तक एजेंडा 2030 का पूरा होना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है.