घोंसले का तिनका: क्या टोनी के मन में जागा देश प्रेम

7 बज चुके थे. मिशैल के आने में अभी 1 घंटा बचा था. मैं ने अपनी मनपसंद कौफी बनाई और जूते उतार कर आराम से सोफे पर लेट गया. मैं ने टेलीविजन चलाया और एक के बाद एक कई चैनल बदले पर मेरी पसंद का कोई भी प्रोग्राम नहीं आ रहा था. परेशान हो टीवी बंद कर अखबार पढ़ने लगा. यह मेरा रोज का कार्यक्रम था. मिशैल के आने के बाद ही हम खाने का प्रोग्राम बनाते थे. जब कभी उसे अस्पताल से देर हो जाती, मैं चिप्स और जूस पी कर सो जाता. मैं यहां एक मल्टीस्टोर में सेल्समैन था और मिशैल सिटी अस्पताल में नर्स.

दरवाजा खुलने के साथ ही मेरी तंद्रा टूटी. मिशैल ने अपना पर्स दरवाजे के पास बने काउंटर पर रखा और मेरे पास पीछे से गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘बहुत थके हुए लग रहे हो.’’

‘‘हां,’’ मैं ने अंगड़ाई लेते हुए कहा, ‘‘वीकएंड के कारण सारा दिन व्यस्त रहा,’’ फिर उस की तरफ प्यार से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं. मैं भी अपने लिए कौफी बना कर लाती हूं,’’ कह कर वह किचन में जातेजाते पूछने लगी, ‘‘मेरे कौफी बींस लाए हो या आज भी भूल गए.’’

‘‘ओह मिशैल, आई एम रियली सौरी. मैं आज भी भूल गया. स्टोर बंद होने के समय मुझे बहुत काम होता है. फूड डिपार्टमेंट में जा नहीं सका.’’

3 दिन से लगातार मिशैल के कहने के बावजूद मैं उस की कौफी नहीं ला सका था. मैं ने उसी समय उठ कर जूते पहने और कहा, ‘‘मैं अभी सामने की दुकान से ला देता हूं, वह तो खुली होगी.’’

‘‘ओह नो, टोनी. मैं आज भी तुम्हारी कौफी से गुजारा कर लूंगी. मुझे तो तुम इसीलिए अच्छे लगते हो कि फौरन अपनी गलती मान लेते हो. थके होने के बावजूद तुम अभी भी वहां जाने को तैयार हो. आई लव यू, टोनी. तुम्हारी जगह कोई यहां का लड़का होता तो बस, इसी बात पर युद्ध छिड़ जाता.’’

मैं ऐसे हजारों प्रशंसा के वाक्य पहले भी मिशैल से अपने लिए सुन चुका था. 5 साल पहले मैं अपने एक दोस्त के साथ जरमनी आया था और बस, यहीं का हो कर रह गया. भारत में वह जब भी मेरे घर आता, उस का व्यवहार और रहनसहन देख कर मैं बहुत प्रभावित होता था. उस का बातचीत का तरीका, उस का अंदाज, उस के कपड़े, उस के मुंह से निकले वाक्य और शब्द एकएक कर मुझ पर अमिट छाप छोड़ते गए. मुझ से कम पढ़ालिखा होने के बावजूद वह इतने अच्छे ढंग से जीवन जी रहा है और मैं पढ़ाई खत्म होने के 3 साल बाद भी जीवन की शुरुआत के लिए जूझ रहा था. मैं अपने परिवार की भावनाओं की कोई परवा न करते हुए उसी के साथ यहां आ गया था.

पहले तो मैं यहां की चकाचौंध और नियमित सी जिंदगी से बेहद प्रभावित हुआ. यहां की साफसुथरी सड़कें, मैट्रो, मल्टीस्टोर, शौपिंग मौल, ऊंचीऊंची इमारतों के साथसाथ समय की प्रतिबद्धता से मैं भारत की तुलना करता तो यहीं का पलड़ा भारी पाता. जैसेजैसे मैं यहां के जीवन की गहराई में उतरता गया, लगा जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं समझता था.

एक भारतीय औपचारिक समारोह में मेरी मुलाकत मिशैल से हो गई और उस दिन को अब मैं अपने जीवन का सब से बेहतरीन दिन मानता हूं. चूंकि मिशैल के साथ काम करने वाली कई नर्सें एशियाई मूल की थीं इसलिए उसे इन समारोहों में जाने की उत्सुकता होती थी. उसे पेइंग गेस्ट की जरूरत थी और मुझे घर की. हम दोनों की जरूरतें पूरी होती थीं इसलिए दोनों के बीच एक अलिखित समझौता हो गया.

मिशैल बहुत सुंदर तो नहीं थी पर उसे बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था. धीरेधीरे हम एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि अब एकदूसरे के पर्याय बन गए हैं. मेरी नीरस जिंदगी में बहार आने लगी है.

मिशैल जब भी मुझ से भारत की संस्कृति, सभ्यता और भारतीयों की वफादारी की बात करती है तो मैं चुप हो जाता हूं. मैं कैसे बताता कि जो कुछ उस ने सुना है, भारत वैसा नहीं है. वहां की तंग और गंदी गलियां, गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी से भाग कर ही तो मैं यहां आया हूं. उसे कैसे बताता कि भ्रष्टाचार, घूसखोरी और बिजलीपानी का अभाव कैसे वहां के आमजन को तिलतिल कर जीने को मजबूर करता है. इन बातों को बताने का मतलब था कि उस के मन में भारत के प्रति जो सम्मान था वह शायद न रहता और शायद वह मुझ से भी नफरत करने  लग जाती. चूंकि मैं इतना सक्षम नहीं था कि अलग रह सकूं इसलिए कई बार उस की गलत बातों का भी समर्थन करना पड़ता था.

‘‘जानते हो, टोनी,’’ मिशैल कौफी का घूंट भरते हुए बोली, ‘‘इस बार हैनोवर इंटरनेशनल फेयर में तुम्हारे भारत को जरमन सरकार ने अतिथि देश चुना है और यहां के अखबार, न्यूज चैनलों में इस समाचार को बहुत बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है. जगहजगह भारत के झंडे लगे हुए हैं.’’

‘‘भारत यहां का अतिथि देश होगा?’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनने की कोशिश की.

‘‘और क्या? देखा नहीं तुम ने…मैं एक बार तो जरूर जाऊंगी, शायद कोई सामान पसंद आ जाए.’’

‘‘मिशैल, भारतीय तो यहां से सामान खरीद कर भारत ले जाते हैं और तुम वहां का सामान…न कोई क्वालिटी होगी न वैराइटी,’’ मैं ने मुंह बनाया.

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर उस ने कौफी का आखिरी घूंट भरा और मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर बोली, ‘‘टोनी, तुम भी चलो न, वस्तुओं को समझने में आसानी होगी.’’

फेयर के पहले दिन सुबहसुबह ही मिशैल तैयार हो गई. मैं ने सोचा था कि उस को वहां छोड़ कर कोई बहाना कर के वहां से चला जाऊंगा. पर मैं ने जैसे ही मेन गेट पर गाड़ी रोकी, गेट पर ही भारत के विशालकाय झंडे, कई विशिष्ट व्यक्तियों की टीम, भारतीय टेलीविजन चैनलों की कतार और नेवी का पूरा बैंड देख कर मैं दंग रह गया. कुल मिला कर ऐसा लगा जैसे सारा भारत सिमट कर वहीं आ गया हो.

मैं ने उत्सुकतावश गाड़ी पार्किंग में खड़ी की तो मिशैल भाग कर वहां पहुंच गई. मेरे वहां पहुंचते ही बोली, ‘‘देखो, कैसा सजा रखा है गेट को.’’

मैं ने उत्सुकता से वहां खड़े एक भारतीय से पूछा, ‘‘यहां क्या हो रहा है?’’

‘‘यहां तो हम केवल प्रधानमंत्रीजी के स्वागत के लिए खड़े हैं. बाकी का सारा कार्यक्रम तो भीतर हमारे हाल नं. 6 में होगा.’’

‘‘भारत के प्रधानमंत्री यहां आ रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकतावश मिशैल से पूछा.

‘‘मैं ने कहा था न कि भारत अतिथि देश है पर लगता है यहां हम लोग ही अतिथि हो गए हैं. जानते हो टोनी, उन के स्वागत के लिए यहां के चांसलर स्वयं आ रहे हैं.’’

थोड़ी देर में वंदेमातरम की धुन चारों तरफ गूंजने लगी. प्रधानमंत्रीजी के पीछेपीछे हम लोग भी हाल नं. 6 में आ गए, जहां भारतीय मंडप को दुलहन की तरह सजाया हुआ था.

प्रधानमंत्रीजी के वहां पहुंचते ही भारतीय तिरंगा फहराने लगा और राष्ट्रीय गीत के साथसाथ सभी लोग सीधे खड़े हो गए, जैसा कि कभी मैं ने अपने स्कूल में देखा था. टोनी आज भारतीय होने पर गर्व महसूस कर रहा था. उसे भीतर तक एक झुरझुरी सी महसूस हुई कि क्या यही वह भारत था जिसे मैं कई बरस पहले छोड़ आया था. आज यदि जरमनी के लोगों ने इसे अतिथि देश स्वीकार किया है तो जरूर अपने देश में कोई बात होगी. मुझे पहली बार महसूस हुआ कि अपना देश और उस के लोग किस कदर अपने लगते हैं.

समारोह के समाप्त होते ही एक विशेष कक्ष में प्रधानमंत्री चले गए और बाकी लोग भारतीय सामान को देखने में व्यस्त हो गए. थोड़ी देर में प्रधानमंत्रीजी अपने मंत्रिमंडल एवं विदेश विभाग के लोगों के साथ भारतीय निर्यातकों से मिलने चले गए. उधर हाल में अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम होेते रहे. एक कोने में भारतीय टी एवं कौफी बोर्ड के स्टालों पर भी काफी भीड़ थी.

मैं ने मिशैल से कहा, ‘‘चलो, तुम्हें भारतीय कौफी पिलवाता हूं.’’

‘‘नहीं, पहले यहां कठपुतलियों का यह नाच देख लें. मुझे बहुत अच्छा लग रहा है.’’

अगले दिन मेरा मन पुन: विचलित हो उठा. मैं ने मिशैल से कहा तो वह भी वहां जाने को तैयार हो गई.

मैं एकएक कर के भारतीय सामान के स्टालों को देख रहा था. भारत की क्राकरी, हस्तनिर्मित सामान, गृहसज्जा का सामान, दरियां और कारपेट तथा हैंडीक्राफ्ट की गुणवत्ता और नक्काशी देख कर दंग रह गया. मैं जिस स्टोर में काम करता था वहां ऐसा कुछ भी सामान नहीं था. मैं एक भारतीय स्टैंड के पास बने बैंच पर कौफी ले कर सुस्ताने को बैठ गया. पास ही बैठे किसी कंपनी के कुछ लोग आपस में जरमन भाषा में बात कर रहे थे कि भारत का सामान कितना अच्छा और आधुनिक तरीकों से बना हुआ है. वे कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि यह सब भारत में ही बना हुआ है और एशिया के बाकी देशों की तुलना में भारत कहीं अधिक तरक्की कर चुका है. मुझे यह सब सुन कर अच्छा लग रहा था.

उन्होंने मेरी तरफ देख कर पूछा, ‘‘आप को क्या लगता है कि क्या सचमुच माल भी ऐसा ही होगा जैसा सैंपल दिखा रहे हैं?’’

‘‘मैं क्या जानूं, मैं तो कई वर्षों से यहीं रहता हूं,’’ मैं ने अपना सा मुंह बनाया.

मिशैल ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई गलत बात कह दी हो. वह धीरे से मुझ से कहने लगी, ‘‘तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था. क्या तुम्हें अपने देश से कोई प्रेम नहीं रहा?’’

मैं उस की बातों का अर्थ ढूंढ़ने का प्रयास करता रहा. शायद वह ठीक ही कह रही थी. हाल में दूर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में राजस्थानी लोकगीत की धुन के साथसाथ मिशैल के पांव भी थिरकने लगे. वह वहां से उठ कर चली गई.

मैं थोड़ी देर आराम करने के बाद भारतीय सामान से सजे स्टैंड की तरफ चला गया. मेरे हैंडीक्राफ्ट के स्टैंड पर पहुंचते ही एक व्यक्ति उठ कर खड़ा हो गया और बोला,  ‘‘मे आई हैल्प यू?’’

‘‘नो थैंक्स, मैं तो बस, यों ही,’’ मैं हिंदी में बोलने लगा.

‘‘कोई बात नहीं, भीतर आ जाइए और आराम से देखिए,’’ वह मुसकरा कर हिंदी में बोला.

तब तक पास के दूसरे स्टैंड से एक सरदारजी आ कर उस व्यक्ति से पूछने लगे, ‘‘यार, खाने का यहां क्या इंतजाम है?’’

‘‘पता नहीं सिंह साहब, लगता है यहां कोई इंडियन रेस्तरां नहीं है. शायद यहीं की सख्त बै्रड और हाट डाग खाने पड़ेंगे और पीने के लिए काली कौफी.’’

जिस के स्टैंड पर मैं खड़ा था वह मेरी तरफ देख कर बोले, ‘‘सर, आप तो यहीं रहते हैं. कोई भारतीय रेस्तरां है यहां? ’’

‘‘भारतीय रेस्तरां तो कई हैं, पर यहां कुछ दे पाएंगे…यह पूछना पड़ेगा,’’ मैं ने अपनत्व की भावना से कहा.

मैं ने एक रेस्तरां में फोन कर के उस से पूछा. पहले तो वह यहां तक पहुंचाने में आनाकानी करता रहा. फिर जब मैं ने उसे जरमन भाषा में थोड़ा सख्ती से डांट कर और इन की मजबूरी तथा कई लोगों के बारे में बताया तो वह तैयार हो गया. देखते ही देखते कई लोगों ने उसे आर्डर दे दिया. सब लोग मुझे बेहद आत्मीयता से धन्यवाद देने लगे कि मेरे कारण उन्हें यहां खाना तो नसीब होगा.

अगले 3 दिन मैं लगातार यहां आता रहा. मैं अब उन में अपनापन महसूस कर रहा था. मैं जरमन भाषा अच्छी तरह जानता हूं यह जान कर अकसर मुझे कई लोगों के लिए द्विभाषिए का काम करना पड़ता. कई तो मुझ से यहां के दर्शनीय स्थलों के बारे में पूछते तो कई यहां की मैट्रो के बारे में. मैं ने उन को कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां दीं, जिस से पहले दिन ही उन के लिए सफर आसान हो गया.

आखिरी दिन मैं उन सब से विदा लेने गया. हाल में विदाई पार्टी चल रही थी. सभी ने मुझे उस में शामिल होने की प्रार्थना की. हम ने आपस में अपने फोन नंबर दिए, कइयों ने मुझे अपने हिसाब से गिफ्ट दिए. भारतीय मेला प्राधिकरण के अधिकारियों ने मुझे मेरे सहयोग के लिए सराहा और भविष्य में इस प्रकार के आयोजनों में समर्थन देने को कहा. मिशैल मेरे साथ थी जो इन सब बातों को बड़े ध्यान से देख रही थी.

अगले कई दिन तक मैं निरंतर अपनों की याद में खोया रहा. मन का एक कोना लगातार मुझे कोसता रहा, न चाहते हुए भी रहरह कर यह विचार आता रहा कि किस तरह अपने मातापिता से झूठ बोल कर विदेश चला आया. उस समय यह भी नहीं सोचा कि मेरे पीछे उन्होंने कैसे यह सब सहा होगा.

एक दिन मिशैल और मैं टेलीविजन पर कोई भारतीय प्रोग्राम देख रहे थे. कौफी की चुस्कियों के साथसाथ वह बोली, ‘‘तुम्हें याद है टोनी, उस दिन इंडियन कौफी बोर्ड की कौफी पी थी. सचमुच बहुत ही अच्छी थी. सबकुछ मुझे बहुत अच्छा लगा और वह कठपुतलियों का नाच भी…कभीकभी मेरा मन करता है कुछ दिन के लिए भारत चली जाऊं. सुना है कला और संस्कृति में भारत ही विश्व की राजधानी है.’’

‘‘क्या करोगी वहां जा कर. जैसा भारत तुम्हें यहां लगा असल में ऐसा है नहीं. यहां की सुविधाओं और समय की पाबंदियों के सामने तुम वहां एक दिन भी नहीं रह सकतीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर मैं जाना जरूर चाहूंगी. तुम वहां नहीं जाना चाहते क्या? क्या तुम्हारा मन नहीं करता कि तुम अपने देश जाओ?’’

‘‘मन तो करता है पर तुम मेरी मजबूरी नहीं समझ सकोगी,’’ मैं ने बड़े बेमन से कहा.

‘‘चलो, अपने लोगों से तुम न मिलना चाहो तो न सही पर हम कहीं और तो घूम ही सकते हैं.’’

मैं चुप रहा. मैं नहीं जानता कि मेरे भीतर क्या चल रहा है. दरअसल, जिन हालात में मैं यहां आया था उन का सामना करने का मुझ में साहस नहीं था.

सबकुछ जानते हुए भी मैं ने अपनेआप को आने वाले समय पर छोड़ दिया और मिशैल के साथ भारत रवाना हो गया.

हमारा प्रोग्राम 3 दिन दिल्ली रुकने के बाद आगरा, जयपुर और हरिद्वार होते हुए वापस जाने का तय हो गया था. मिशैल के मन में जो कुछ देखने का था वह इसी प्रोग्राम से पूरा हो जाता था.

जैसे ही मैं एअरपोर्ट से बाहर निकला कि एक वातानुकूलित बस लुधियाना होते हुए अमृतसर के लिए तैयार खड़ी थी. मेरा मन कुछ क्षण के लिए विचलित सा हो गया और थोड़ा कसैला भी. मेरा अतीत इन शहरों के आसपास गुजरा था. इन 5 वर्षों में भारत में कितना बदलाव आ गया था. आज सबकुछ ठीक होता तो सीधा अपने घर चला जाता. मैं ने बड़े बेमन से एक टैक्सी की और मिशैल को साथ ले कर सीधा पहाड़गंज के एक होटल में चला गया. इस होटल की बुकिंग भी मिशैल ने की थी.

मैं जिन वस्तुओं और कारणों से भागता था, मिशैल को वही पसंद आने लगे. यहां के भीड़भाड़ वाले इलाके, दुकानों में जा कर मोलभाव करना, लोगों का तेजतेज बोलना, अपने अहं के लिए लड़ पड़ना और टै्रफिक की अनियमितताएं. हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा के तट पर बैठना, मंदिरों में जा कर घंटियां बजाना उस के लिए एक सपनों की दुनिया में जाने जैसा था.

जैसेजैसे हमारे जाने के दिन करीब आते गए मेरा मन विचलित होने लगा. एक बार घर चला जाता तो अच्छा होता. हर सांस के साथ ऐसा लगता कि कुछ सांसें अपने घर के लिए भी तैर रही हैं. अतीत छाया की तरह भरमाता रहा. पर मैं ने ऐसा कोई दरवाजा खुला नहीं छोड़ा था जहां से प्रवेश कर सकूं. अपने सारे रास्ते स्वयं ही बंद कर के विदेश आया था. विदेश आने के लिए मैं इतना हद दर्जे तक गिर गया था कि बाबूजी के मना करने के बावजूद उन की अलमारी से फसल के सारे पैसे, बहन के विवाह के लिए बनाए गहने तक मैं ने नहीं छोड़े थे. तब मन में यही विश्वास था कि जैसे ही कुछ कमा लूंगा, उन्हें पैसे भेज दूंगा. उन के सारे गिलेशिक वे भी दूर हो जाएंगे और मैं भी ठीक से सैटल हो जाऊंगा. पर ऐसा हो न सका और धीरेधीरे अपने संबंधों और कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.

शाम को मैं मिशैल के साथ करोल बाग घूम रहा था. सामने एक दंपती एक बच्चे को गोद में उठाए और दूसरे का हाथ पकड़ कर सड़क पार कर रहे थे. मिशैल ने उन की तरफ इशारा कर के मुझ से कहा, ‘‘टोनी, उन को देखो, कैसे खुशीखुशी बच्चों के साथ घूम रहे हैं,’’ फिर मेरी तरफ कनखियों से देख कर बोली, ‘‘कभी हम भी ऐसे होंगे क्या?’’

किसी और समय पर वह यह बात करती तो मैं उसे बांहों में कस कर भींच लेता और उसे चूम लेता पर इस समय शायद मैं बेगानी नजरों से उसे देखते हुए बोला, ‘‘शायद कभी नहीं.’’

‘‘ठीक भी है. बड़े जतन से उन के मातापिता उन्हें बड़ा कर रहे हैं और जब बडे़ हो जाएंगे तो पूछेंगे भी नहीं कि उन के मातापिता कैसे हैं…क्या कर रहे हैं… कभी उन को हमारी याद आती है या…’’ कहतेकहते मिशैल का गला भर गया.

मैं उस के कहने का इशारा समझ गया था, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’ मेरी आवाज भारी थी.

‘‘कुछ नहीं, डार्लिंग. मैं ने तो यों ही कह दिया था. मेरी बातों का गलत अर्थ मत लगाओ,’’ कह कर उस ने मेरी तरफ बड़ी संजीदगी से देखा और फिर हम वापस अपने होटल चले आए.

उस पूरी रात नींद पलकों पर टहल कर चली गई थी. सूरज की पहली किरणों के साथ मैं उठा और 2 कौफी का आर्डर दिया. मिशैल मेरी अलसाई आंखों को देखते हुए बोली, ‘‘रात भर नींद नहीं आई क्या. चलो, अब कौफी के साथसाथ तुम भी तैयार हो जाओ. नीचे बे्रकफास्ट तैयार हो गया होगा,’’ इतना कह कर वह बाथरूम चली गई.

दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने मिशैल को बाथरूम में ही रहने को कहा क्योंकि वह ऐसी अवस्था में नहीं थी  कि किसी के सामने जा सके.

दरवाजा खोलते ही मैं ने एक दंपती को देखा तो देखता ही रह गया. 5 साल पहले मैं ने जिस बहन को देखा था वह इतनी बड़ी हो गई होगी, मैं ने सोचा भी न था. साथ में एक पुरुष और मांग में सिंदूर की रेखा को देख कर मैं समझ गया कि उस की शादी हो चुकी है. मेरे कदम वहीं रुक गए और शब्द गले में ही अटक कर रह गए. वह तेजी से मेरी तरफ आई और मुझ से लिपट गई…बिना कुछ कहे.

मैं उसे यों ही लिपटाए पता नहीं कितनी देर तक खड़ा रहा. मिशैल ने मुझे संकेत किया और हम सब भीतर आ गए.

‘‘भैया, आप को मेरी जरा भी याद नहीं आई. कभी सोचा भी नहीं कि आप की छोटी कैसी है…कहां है…आप के सिवा और कौन था मेरा,’’ यह कह कर वह सुबकने लगी.

मेरे सारे शब्द बर्फ बन चुके थे. मेरे भीतर का कठोर मन और देर तक न रह सका और बड़े यत्न से दबाया गया रुदन फूट कर सामने आ गया. भरे गले से मैं ने पूछा, ‘‘पर तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिशैल के कारण. उन्होंने ही यहां का पता बताया था,’’ छोटी सुबकियां लेती हुई बोली.

तब तक मिशैल भी मेरे पास आ चुकी थी. वह कहने लगी, ‘‘टोनी, सच बात यह है कि तुम्हारे एक दोस्त से ही मैं ने तुम्हारे घर का पता लिया था. मैं सोचती रही कि शायद तुम एक बार अपने घर जरूर जाओगे. मैं तुम्हारे भीतर का दर्द भी समझती थी और बाहर का भी. तुम ने कभी भी अपने मन की पीड़ा और वेदना को किसी से नहीं बांटा, मेरे से भी नहीं. मैं कहती तो शायद तुम्हें बुरा लगता और तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचती. मुझ से कोई गलती हो गई हो तो माफ कर देना पर अपनों से इस तरह नाराज नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मां कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मां तो रही नहीं…तुम्हें बताते भी तो कहां?’’ कहतेकहते छोटी की आंखें नम हो गईं.

‘‘कब और कैसे?’’

‘‘एक साल पहले. हर पल तुम्हारा इंतजार करती रहती थीं. मां तुम्हारे गम में बुरी तरह टूट चुकी थीं. दिन में सौ बार जीतीं सौ बार मरतीं. वह शायद कुछ और साल जीवित भी रहतीं पर उन में जीने की इच्छा ही मर चुकी थी और आखिरी पलों में तो मेरी गोद में तुम्हारा ही नाम ले कर दरवाजे पर टकटकी बांधे देखती रहीं और जब वह मरीं तो आंखें खुली ही रहीं.’’

यह सब सुनना और सहना मेरे लिए इतना कष्टप्रद था कि मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. मैं दीवार का सहारा ले कर बैठ गया. मां की भोली आकृति मेरी आंखों के सामने तैरने लगी. मुझे एकएक कर के वे क्षण याद आते रहे जब मां मुझे स्कूल के लिए तैयार कर के भेजती थीं, जब मैं पास होता तो महल्ले भर में मिठाइयां बांटती फिरतीं, जब होलीदीवाली होती तो बाजार चल कर नए कपड़े सिलवातीं, जब नौकरी न मिली तो मुझे सांत्वना देतीं, जब राखी और भैया दूज का टीका होता तो इन त्योहारों का महत्त्व समझातीं और वह मां आज नहीं थीं.

‘‘उन के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन भी शायद मेरी तकदीर में नहीं थे,’’ कह कर मैं फूटफूट कर रोने लगा. छोटी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे इस अपमान और संवेदना से निकालने का प्रयत्न किया.

छोटी ने ही मेरे पूछने पर मुझे बताया था कि मेरे घर से निकलने के अगले दिन ही पता लग चुका था कि मैं विदेश के लिए रवाना हो चुका हूं. शुरू के कुछ दिन तो वह मुझे कोसने में लगे रहे पर बाद में सबकुछ सहज होने लगा. छोटी ही उन दिनों मां को सांत्वना देती रहती और कई बार झूठ ही कह देती कि मेरा फोन आया है और मैं कुशलता से हूं.

छोटी का पति उस की ही पसंद का था. दूसरी जाति का होने के बावजूद मांबाबूजी ने चुपचाप उसे शादी की सहमति दे दी. मेरे विदेश जाने में मेरी बातों का समर्थन न देने का अंजाम तो वे देख ही चुके थे.

अपने पति के साथ छोटी ने मुझे ढूंढ़ने की कोशिश भी की थी पर सब पुराने संपर्क टूट चुके थे. अब अचानक मिशैल के पत्र से वह खुश हो गई और बाबूजी को बताए बिना यहां तक आ पहुंची थी.

‘‘बाबूजी कैसे हैं?’’ मैं ने बड़ी धीमी और सहमी आवाज में पूछा.

‘‘ठीक हैं. बस, जी रहे हैं. मां के मरने के बाद मैं ने कई बार अपने साथ रहने को कहा था पर शायद वह बेटी के घर रहने के खिलाफ थे.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता, मिशैल बोली, ‘‘टोनी, यह देश तो तुम्हारे लिए पराया हो गया है पर मांबाप तो तुम्हारे अपने हैं. तुम अपने फादर को मिल लोगे तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और तुम्हारे बेचैन मन को शांति मिलेगी…फिर न जाने तुम्हारा आना कब हो,’’  उस के स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया.

मिशैल ठीक ही कह रही थी. मेरे पास समय बहुत कम था. मैं बिना कोई समय गंवाए उन से मिलने चला गया.

बाबूजी को देखते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी. पर वह ठहरे हुए पानी की तरह एकदम शांत थे. पहले वाली मुसकराहट उन के चेहरे पर अब नहीं थी. उन्होंने अपनी बूढ़ी पनीली आंखों से मुझे देखा तो मैं टूटी टहनी की तरह उन की गोद में जा गिरा और उन के कदमों में अपना सिर सटा दिया. बोला, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए बाबूजी. मां की असामयिक मौत का मैं ही जिम्मेदार हूं.’’

मैं ने नजर उठा कर घर के चारों तरफ देखा. एकदम रहस्यमय वातावरण व्याप्त था. बीता समय बारबार याद आता रहा. बाबूजी ने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. आज पहली बार महसूस हुआ कि शांति तो अपनी जड़ों से मिल कर ही मिलती है. मैं उन्हें साथ ले जाने की जिद करता रहा पर वह तो जैसे वहां से कहीं जाना ही नहीं चाहते थे.

‘‘तू आ गया है बस, अब तेरी मां को भी शांति मिल जाएगी,’’ कह कर वह भीतर मेरे साथ अपने कमरे में आ गए और मां की तसवीर के पीछे से लाल कपड़ों में बंधी मां की अस्थियों को मुझे दे कर कहने लगे, ‘‘देख, मैं ने कितना संभाल कर रखा है तेरी मां को. जातेजाते कुरुक्षेत्र में प्रवाहित कर देना. बस, यही छोटी सी तेरी मां की इच्छा थी,’’ बाबूजी की सरल बातें मेरे अंतर्मन को छू गईं.

मां की अस्थियां हाथ में आते ही मेरे हाथ कांपने लगे. मां कितनी छोटी हो चुकी थीं. मैं ने उन्हें कस कर सीने में भींच लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां.’’

2 दिन बाद ही मैं, छोटी, उस के पति और पापा के साथ दिल्ली एअरपोर्र्ट रवाना हुआ. मिशैल बड़ी ही भावुक हो कर सब से विदा ले रही थी. भाषा न जानते हुए भी उस में अपनी भावनाओं को जाहिर करने की अभूतपूर्व क्षमता थी. बिछुड़ते समय वह बोली, ‘‘आप सब लोग एक बार हमारे पास जरूर आएं. मेरा आप के साथ कोई रिश्ता तो नहीं है पर मेरी मां कहती थीं कि कुछ रिश्ते इन सब से कहीं ऊपर होते हैं जिन्हें हम समझ नहीं सकते.’’

‘‘अब कब आओगे, भैया?’’ छोटी के पूछने पर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आए. मैं कोई भी उत्तर न दे सका और तेजी से भीतर आ गया. उस का सवाल अनुत्तरित ही रहा. मैं ने भीतर आते ही मिशैल से भरे हृदय से कहा, ‘‘मिशैल, आज तुम न होतीं तो शायद मैं…’’

सच तो यह था कि मेरा पूरा शरीर ही मर चुका था. मैं फूटफूट कर रोने लगा. मिशैल ने फिर से मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे पास ही बिठा दिया और बड़े दार्शनिक स्वर में बोली, ‘‘सच, दुनिया तो यही है जो तुम्हारा तिलतिल कर इंतजार करती रही और करती रहेगी, और तुम अपनी ही झूठी दुनिया में खोए रहना चाहते हो. तुम यहां से जाना चाहते हो तो जाओ पर कितनी भी ऊंचाइयां छू लो जब भी नीचे देखोगे स्वयं को अकेला ही पाओगे.

‘‘मेरी मानो तो अपनी दुनिया में लौट जाओ. चले जाओ…अब भी वक्त है…लौट जाओ टोनी, अपनी दुनिया में.’’

मिशैल ने बड़ा ही मासूम सा अनुरोध किया. मेरे सोए हुए जख्म भीतर से रिसने लगे. मेरे सोचने के सभी रास्ते थोड़ी दूर जा कर बंद हो जाते थे. मैं ने इशारे से उस से सहमति जतलाई.

मैं उस से कस कर लिपट गया और वह भी मुझ से चिपक गई.

‘‘बहुत याद आओगे तुम मुझे,’’ कह कर वह रोने लगी, ‘‘पर मुझे भूल जाना, पता नहीं मैं पुन: तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं,’’ कह कर वह तेज कदमों से जहाज की ओर चली गई.

आज सोचता हूं और सोचता ही रह जाता हूं कि वह कौन थी…अपना सर्वस्व मुझे दे कर, मुझे रास्ता दिखा कर वह न जाने अब वहां कैसे रह रही होगी.

घोंसले का तिनका- भाग 2: क्या टोनी के मन में जागा देश प्रेम

मिशैल ने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे मैं ने कोई गलत बात कह दी हो. वह धीरे से मुझ से कहने लगी, ‘‘तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था. क्या तुम्हें अपने देश से कोई प्रेम नहीं रहा?’’

मैं उस की बातों का अर्थ ढूंढ़ने का प्रयास करता रहा. शायद वह ठीक ही कह रही थी. हाल में दूर हो रहे सांस्कृतिक कार्यक्रमों में राजस्थानी लोकगीत की धुन के साथसाथ मिशैल के पांव भी थिरकने लगे. वह वहां से उठ कर चली गई.

मैं थोड़ी देर आराम करने के बाद भारतीय सामान से सजे स्टैंड की तरफ चला गया. मेरे हैंडीक्राफ्ट के स्टैंड पर पहुंचते ही एक व्यक्ति उठ कर खड़ा हो गया और बोला,  ‘‘मे आई हैल्प यू?’’

‘‘नो थैंक्स, मैं तो बस, यों ही,’’ मैं हिंदी में बोलने लगा.

‘‘कोई बात नहीं, भीतर आ जाइए और आराम से देखिए,’’ वह मुसकरा कर हिंदी में बोला.

तब तक पास के दूसरे स्टैंड से एक सरदारजी आ कर उस व्यक्ति से पूछने लगे, ‘‘यार, खाने का यहां क्या इंतजाम है?’’

‘‘पता नहीं सिंह साहब, लगता है यहां कोई इंडियन रेस्तरां नहीं है. शायद यहीं की सख्त बै्रड और हाट डाग खाने पड़ेंगे और पीने के लिए काली कौफी.’’

जिस के स्टैंड पर मैं खड़ा था वह मेरी तरफ देख कर बोले, ‘‘सर, आप तो यहीं रहते हैं. कोई भारतीय रेस्तरां है यहां? ’’

‘‘भारतीय रेस्तरां तो कई हैं, पर यहां कुछ दे पाएंगे…यह पूछना पड़ेगा,’’ मैं ने अपनत्व की भावना से कहा.

मैं ने एक रेस्तरां में फोन कर के उस से पूछा. पहले तो वह यहां तक पहुंचाने में आनाकानी करता रहा. फिर जब मैं ने उसे जरमन भाषा में थोड़ा सख्ती से डांट कर और इन की मजबूरी तथा कई लोगों के बारे में बताया तो वह तैयार हो गया. देखते ही देखते कई लोगों ने उसे आर्डर दे दिया. सब लोग मुझे बेहद आत्मीयता से धन्यवाद देने लगे कि मेरे कारण उन्हें यहां खाना तो नसीब होगा.

अगले 3 दिन मैं लगातार यहां आता रहा. मैं अब उन में अपनापन महसूस कर रहा था. मैं जरमन भाषा अच्छी तरह जानता हूं यह जान कर अकसर मुझे कई लोगों के लिए द्विभाषिए का काम करना पड़ता. कई तो मुझ से यहां के दर्शनीय स्थलों के बारे में पूछते तो कई यहां की मैट्रो के बारे में. मैं ने उन को कई महत्त्वपूर्ण जानकारियां दीं, जिस से पहले दिन ही उन के लिए सफर आसान हो गया.

आखिरी दिन मैं उन सब से विदा लेने गया. हाल में विदाई पार्टी चल रही थी. सभी ने मुझे उस में शामिल होने की प्रार्थना की. हम ने आपस में अपने फोन नंबर दिए, कइयों ने मुझे अपने हिसाब से गिफ्ट दिए. भारतीय मेला प्राधिकरण के अधिकारियों ने मुझे मेरे सहयोग के लिए सराहा और भविष्य में इस प्रकार के आयोजनों में समर्थन देने को कहा. मिशैल मेरे साथ थी जो इन सब बातों को बड़े ध्यान से देख रही थी.

अगले कई दिन तक मैं निरंतर अपनों की याद में खोया रहा. मन का एक कोना लगातार मुझे कोसता रहा, न चाहते हुए भी रहरह कर यह विचार आता रहा कि किस तरह अपने मातापिता से झूठ बोल कर विदेश चला आया. उस समय यह भी नहीं सोचा कि मेरे पीछे उन्होंने कैसे यह सब सहा होगा.

एक दिन मिशैल और मैं टेलीविजन पर कोई भारतीय प्रोग्राम देख रहे थे. कौफी की चुस्कियों के साथसाथ वह बोली, ‘‘तुम्हें याद है टोनी, उस दिन इंडियन कौफी बोर्ड की कौफी पी थी. सचमुच बहुत ही अच्छी थी. सबकुछ मुझे बहुत अच्छा लगा और वह कठपुतलियों का नाच भी…कभीकभी मेरा मन करता है कुछ दिन के लिए भारत चली जाऊं. सुना है कला और संस्कृति में भारत ही विश्व की राजधानी है.’’

‘‘क्या करोगी वहां जा कर. जैसा भारत तुम्हें यहां लगा असल में ऐसा है नहीं. यहां की सुविधाओं और समय की पाबंदियों के सामने तुम वहां एक दिन भी नहीं रह सकतीं,’’ मैं ने कहा.

‘‘पर मैं जाना जरूर चाहूंगी. तुम वहां नहीं जाना चाहते क्या? क्या तुम्हारा मन नहीं करता कि तुम अपने देश जाओ?’’

‘‘मन तो करता है पर तुम मेरी मजबूरी नहीं समझ सकोगी,’’ मैं ने बड़े बेमन से कहा.

‘‘चलो, अपने लोगों से तुम न मिलना चाहो तो न सही पर हम कहीं और तो घूम ही सकते हैं.’’

मैं चुप रहा. मैं नहीं जानता कि मेरे भीतर क्या चल रहा है. दरअसल, जिन हालात में मैं यहां आया था उन का सामना करने का मुझ में साहस नहीं था.

सबकुछ जानते हुए भी मैं ने अपनेआप को आने वाले समय पर छोड़ दिया और मिशैल के साथ भारत रवाना हो गया.

हमारा प्रोग्राम 3 दिन दिल्ली रुकने के बाद आगरा, जयपुर और हरिद्वार होते हुए वापस जाने का तय हो गया था. मिशैल के मन में जो कुछ देखने का था वह इसी प्रोग्राम से पूरा हो जाता था.

जैसे ही मैं एअरपोर्ट से बाहर निकला कि एक वातानुकूलित बस लुधियाना होते हुए अमृतसर के लिए तैयार खड़ी थी. मेरा मन कुछ क्षण के लिए विचलित सा हो गया और थोड़ा कसैला भी. मेरा अतीत इन शहरों के आसपास गुजरा था. इन 5 वर्षों में भारत में कितना बदलाव आ गया था. आज सबकुछ ठीक होता तो सीधा अपने घर चला जाता. मैं ने बड़े बेमन से एक टैक्सी की और मिशैल को साथ ले कर सीधा पहाड़गंज के एक होटल में चला गया. इस होटल की बुकिंग भी मिशैल ने की थी.

मैं जिन वस्तुओं और कारणों से भागता था, मिशैल को वही पसंद आने लगे. यहां के भीड़भाड़ वाले इलाके, दुकानों में जा कर मोलभाव करना, लोगों का तेजतेज बोलना, अपने अहं के लिए लड़ पड़ना और टै्रफिक की अनियमितताएं. हरिद्वार और ऋषिकेश में गंगा के तट पर बैठना, मंदिरों में जा कर घंटियां बजाना उस के लिए एक सपनों की दुनिया में जाने जैसा था.

जैसेजैसे हमारे जाने के दिन करीब आते गए मेरा मन विचलित होने लगा. एक बार घर चला जाता तो अच्छा होता. हर सांस के साथ ऐसा लगता कि कुछ सांसें अपने घर के लिए भी तैर रही हैं. अतीत छाया की तरह भरमाता रहा. पर मैं ने ऐसा कोई दरवाजा खुला नहीं छोड़ा था जहां से प्रवेश कर सकूं. अपने सारे रास्ते स्वयं ही बंद कर के विदेश आया था. विदेश आने के लिए मैं इतना हद दर्जे तक गिर गया था कि बाबूजी के मना करने के बावजूद उन की अलमारी से फसल के सारे पैसे, बहन के विवाह के लिए बनाए गहने तक मैं ने नहीं छोड़े थे. तब मन में यही विश्वास था कि जैसे ही कुछ कमा लूंगा, उन्हें पैसे भेज दूंगा. उन के सारे गिलेशिक वे भी दूर हो जाएंगे और मैं भी ठीक से सैटल हो जाऊंगा. पर ऐसा हो न सका और धीरेधीरे अपने संबंधों और कर्तव्यों से इतिश्री मान ली.

शाम को मैं मिशैल के साथ करोल बाग घूम रहा था. सामने एक दंपती एक बच्चे को गोद में उठाए और दूसरे का हाथ पकड़ कर सड़क पार कर रहे थे. मिशैल ने उन की तरफ इशारा कर के मुझ से कहा, ‘‘टोनी, उन को देखो, कैसे खुशीखुशी बच्चों के साथ घूम रहे हैं,’’ फिर मेरी तरफ कनखियों से देख कर बोली, ‘‘कभी हम भी ऐसे होंगे क्या?’’

किसी और समय पर वह यह बात करती तो मैं उसे बांहों में कस कर भींच लेता और उसे चूम लेता पर इस समय शायद मैं बेगानी नजरों से उसे देखते हुए बोला, ‘‘शायद कभी नहीं.’’

‘‘ठीक भी है. बड़े जतन से उन के मातापिता उन्हें बड़ा कर रहे हैं और जब बडे़ हो जाएंगे तो पूछेंगे भी नहीं कि उन के मातापिता कैसे हैं…क्या कर रहे हैं… कभी उन को हमारी याद आती है या…’’ कहतेकहते मिशैल का गला भर गया.

मैं उस के कहने का इशारा समझ गया था, ‘‘तुम कहना क्या चाहती हो?’’ मेरी आवाज भारी थी.

‘‘कुछ नहीं, डार्लिंग. मैं ने तो यों ही कह दिया था. मेरी बातों का गलत अर्थ मत लगाओ,’’ कह कर उस ने मेरी तरफ बड़ी संजीदगी से देखा और फिर हम वापस अपने होटल चले आए.

उस पूरी रात नींद पलकों पर टहल कर चली गई थी. सूरज की पहली किरणों के साथ मैं उठा और 2 कौफी का आर्डर दिया. मिशैल मेरी अलसाई आंखों को देखते हुए बोली, ‘‘रात भर नींद नहीं आई क्या. चलो, अब कौफी के साथसाथ तुम भी तैयार हो जाओ. नीचे बे्रकफास्ट तैयार हो गया होगा,’’ इतना कह कर वह बाथरूम चली गई.

दरवाजे की घंटी बजी. मैं ने मिशैल को बाथरूम में ही रहने को कहा क्योंकि वह ऐसी अवस्था में नहीं थी  कि किसी के सामने जा सके.

ये भी पढ़ें- बदलाव की आंधी: कैसे हुई अंकिता और रामकुमार की शादी

घोंसले का तिनका- भाग 3: क्या टोनी के मन में जागा देश प्रेम

दरवाजा खोलते ही मैं ने एक दंपती को देखा तो देखता ही रह गया. 5 साल पहले मैं ने जिस बहन को देखा था वह इतनी बड़ी हो गई होगी, मैं ने सोचा भी न था. साथ में एक पुरुष और मांग में सिंदूर की रेखा को देख कर मैं समझ गया कि उस की शादी हो चुकी है. मेरे कदम वहीं रुक गए और शब्द गले में ही अटक कर रह गए. वह तेजी से मेरी तरफ आई और मुझ से लिपट गई…बिना कुछ कहे.

मैं उसे यों ही लिपटाए पता नहीं कितनी देर तक खड़ा रहा. मिशैल ने मुझे संकेत किया और हम सब भीतर आ गए.

‘‘भैया, आप को मेरी जरा भी याद नहीं आई. कभी सोचा भी नहीं कि आप की छोटी कैसी है…कहां है…आप के सिवा और कौन था मेरा,’’ यह कह कर वह सुबकने लगी.

मेरे सारे शब्द बर्फ बन चुके थे. मेरे भीतर का कठोर मन और देर तक न रह सका और बड़े यत्न से दबाया गया रुदन फूट कर सामने आ गया. भरे गले से मैं ने पूछा, ‘‘पर तुम यहां कैसे?’’

‘‘मिशैल के कारण. उन्होंने ही यहां का पता बताया था,’’ छोटी सुबकियां लेती हुई बोली.

तब तक मिशैल भी मेरे पास आ चुकी थी. वह कहने लगी, ‘‘टोनी, सच बात यह है कि तुम्हारे एक दोस्त से ही मैं ने तुम्हारे घर का पता लिया था. मैं सोचती रही कि शायद तुम एक बार अपने घर जरूर जाओगे. मैं तुम्हारे भीतर का दर्द भी समझती थी और बाहर का भी. तुम ने कभी भी अपने मन की पीड़ा और वेदना को किसी से नहीं बांटा, मेरे से भी नहीं. मैं कहती तो शायद तुम्हें बुरा लगता और तुम्हारे स्वाभिमान को ठेस पहुंचती. मुझ से कोई गलती हो गई हो तो माफ कर देना पर अपनों से इस तरह नाराज नहीं होना चाहिए.’’

‘‘मां कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘मां तो रही नहीं…तुम्हें बताते भी तो कहां?’’ कहतेकहते छोटी की आंखें नम हो गईं.

‘‘कब और कैसे?’’

‘‘एक साल पहले. हर पल तुम्हारा इंतजार करती रहती थीं. मां तुम्हारे गम में बुरी तरह टूट चुकी थीं. दिन में सौ बार जीतीं सौ बार मरतीं. वह शायद कुछ और साल जीवित भी रहतीं पर उन में जीने की इच्छा ही मर चुकी थी और आखिरी पलों में तो मेरी गोद में तुम्हारा ही नाम ले कर दरवाजे पर टकटकी बांधे देखती रहीं और जब वह मरीं तो आंखें खुली ही रहीं.’’

यह सब सुनना और सहना मेरे लिए इतना कष्टप्रद था कि मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा था. मैं दीवार का सहारा ले कर बैठ गया. मां की भोली आकृति मेरी आंखों के सामने तैरने लगी. मुझे एकएक कर के वे क्षण याद आते रहे जब मां मुझे स्कूल के लिए तैयार कर के भेजती थीं, जब मैं पास होता तो महल्ले भर में मिठाइयां बांटती फिरतीं, जब होलीदीवाली होती तो बाजार चल कर नए कपड़े सिलवातीं, जब नौकरी न मिली तो मुझे सांत्वना देतीं, जब राखी और भैया दूज का टीका होता तो इन त्योहारों का महत्त्व समझातीं और वह मां आज नहीं थीं.

‘‘उन के पार्थिव शरीर के अंतिम दर्शन भी शायद मेरी तकदीर में नहीं थे,’’ कह कर मैं फूटफूट कर रोने लगा. छोटी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे इस अपमान और संवेदना से निकालने का प्रयत्न किया.

छोटी ने ही मेरे पूछने पर मुझे बताया था कि मेरे घर से निकलने के अगले दिन ही पता लग चुका था कि मैं विदेश के लिए रवाना हो चुका हूं. शुरू के कुछ दिन तो वह मुझे कोसने में लगे रहे पर बाद में सबकुछ सहज होने लगा. छोटी ही उन दिनों मां को सांत्वना देती रहती और कई बार झूठ ही कह देती कि मेरा फोन आया है और मैं कुशलता से हूं.

छोटी का पति उस की ही पसंद का था. दूसरी जाति का होने के बावजूद मांबाबूजी ने चुपचाप उसे शादी की सहमति दे दी. मेरे विदेश जाने में मेरी बातों का समर्थन न देने का अंजाम तो वे देख ही चुके थे.

अपने पति के साथ छोटी ने मुझे ढूंढ़ने की कोशिश भी की थी पर सब पुराने संपर्क टूट चुके थे. अब अचानक मिशैल के पत्र से वह खुश हो गई और बाबूजी को बताए बिना यहां तक आ पहुंची थी.

‘‘बाबूजी कैसे हैं?’’ मैं ने बड़ी धीमी और सहमी आवाज में पूछा.

‘‘ठीक हैं. बस, जी रहे हैं. मां के मरने के बाद मैं ने कई बार अपने साथ रहने को कहा था पर शायद वह बेटी के घर रहने के खिलाफ थे.’’

इस से पहले कि मैं कुछ कहता, मिशैल बोली, ‘‘टोनी, यह देश तो तुम्हारे लिए पराया हो गया है पर मांबाप तो तुम्हारे अपने हैं. तुम अपने फादर को मिल लोगे तो उन्हें भी अच्छा लगेगा और तुम्हारे बेचैन मन को शांति मिलेगी…फिर न जाने तुम्हारा आना कब हो,’’  उस के स्वर की आर्द्रता ने मुझे छू लिया.

मिशैल ठीक ही कह रही थी. मेरे पास समय बहुत कम था. मैं बिना कोई समय गंवाए उन से मिलने चला गया.

बाबूजी को देखते ही मेरी रुलाई फूट पड़ी. पर वह ठहरे हुए पानी की तरह एकदम शांत थे. पहले वाली मुसकराहट उन के चेहरे पर अब नहीं थी. उन्होंने अपनी बूढ़ी पनीली आंखों से मुझे देखा तो मैं टूटी टहनी की तरह उन की गोद में जा गिरा और उन के कदमों में अपना सिर सटा दिया. बोला, ‘‘मुझे माफ कर दीजिए बाबूजी. मां की असामयिक मौत का मैं ही जिम्मेदार हूं.’’

मैं ने नजर उठा कर घर के चारों तरफ देखा. एकदम रहस्यमय वातावरण व्याप्त था. बीता समय बारबार याद आता रहा. बाबूजी ने मुझे उठा कर सीने से लगा लिया. आज पहली बार महसूस हुआ कि शांति तो अपनी जड़ों से मिल कर ही मिलती है. मैं उन्हें साथ ले जाने की जिद करता रहा पर वह तो जैसे वहां से कहीं जाना ही नहीं चाहते थे.

‘‘तू आ गया है बस, अब तेरी मां को भी शांति मिल जाएगी,’’ कह कर वह भीतर मेरे साथ अपने कमरे में आ गए और मां की तसवीर के पीछे से लाल कपड़ों में बंधी मां की अस्थियों को मुझे दे कर कहने लगे, ‘‘देख, मैं ने कितना संभाल कर रखा है तेरी मां को. जातेजाते कुरुक्षेत्र में प्रवाहित कर देना. बस, यही छोटी सी तेरी मां की इच्छा थी,’’ बाबूजी की सरल बातें मेरे अंतर्मन को छू गईं.

मां की अस्थियां हाथ में आते ही मेरे हाथ कांपने लगे. मां कितनी छोटी हो चुकी थीं. मैं ने उन्हें कस कर सीने में भींच लिया, ‘‘मुझे माफ कर दो, मां.’’

2 दिन बाद ही मैं, छोटी, उस के पति और पापा के साथ दिल्ली एअरपोर्र्ट रवाना हुआ. मिशैल बड़ी ही भावुक हो कर सब से विदा ले रही थी. भाषा न जानते हुए भी उस में अपनी भावनाओं को जाहिर करने की अभूतपूर्व क्षमता थी. बिछुड़ते समय वह बोली, ‘‘आप सब लोग एक बार हमारे पास जरूर आएं. मेरा आप के साथ कोई रिश्ता तो नहीं है पर मेरी मां कहती थीं कि कुछ रिश्ते इन सब से कहीं ऊपर होते हैं जिन्हें हम समझ नहीं सकते.’’

‘‘अब कब आओगे, भैया?’’ छोटी के पूछने पर मेरी आंखों में आंसू उमड़ आए. मैं कोई भी उत्तर न दे सका और तेजी से भीतर आ गया. उस का सवाल अनुत्तरित ही रहा. मैं ने भीतर आते ही मिशैल से भरे हृदय से कहा, ‘‘मिशैल, आज तुम न होतीं तो शायद मैं…’’

सच तो यह था कि मेरा पूरा शरीर ही मर चुका था. मैं फूटफूट कर रोने लगा. मिशैल ने फिर से मेरे कंधे पर हाथ रख कर मुझे पास ही बिठा दिया और बड़े दार्शनिक स्वर में बोली, ‘‘सच, दुनिया तो यही है जो तुम्हारा तिलतिल कर इंतजार करती रही और करती रहेगी, और तुम अपनी ही झूठी दुनिया में खोए रहना चाहते हो. तुम यहां से जाना चाहते हो तो जाओ पर कितनी भी ऊंचाइयां छू लो जब भी नीचे देखोगे स्वयं को अकेला ही पाओगे.

‘‘मेरी मानो तो अपनी दुनिया में लौट जाओ. चले जाओ…अब भी वक्त है…लौट जाओ टोनी, अपनी दुनिया में.’’

मिशैल ने बड़ा ही मासूम सा अनुरोध किया. मेरे सोए हुए जख्म भीतर से रिसने लगे. मेरे सोचने के सभी रास्ते थोड़ी दूर जा कर बंद हो जाते थे. मैं ने इशारे से उस से सहमति जतलाई.

मैं उस से कस कर लिपट गया और वह भी मुझ से चिपक गई.

‘‘बहुत याद आओगे तुम मुझे,’’ कह कर वह रोने लगी, ‘‘पर मुझे भूल जाना, पता नहीं मैं पुन: तुम्हें देख भी पाऊंगी या नहीं,’’ कह कर वह तेज कदमों से जहाज की ओर चली गई.

आज सोचता हूं और सोचता ही रह जाता हूं कि वह कौन थी…अपना सर्वस्व मुझे दे कर, मुझे रास्ता दिखा कर वह न जाने अब वहां कैसे रह रही होगी.

ये भी पढ़ें- औरों से आगे: अम्मा का दहेज को लेकर क्या था कहना

घोंसले का तिनका- भाग 1: क्या टोनी के मन में जागा देश प्रेम

7 बज चुके थे. मिशैल के आने में अभी 1 घंटा बचा था. मैं ने अपनी मनपसंद कौफी बनाई और जूते उतार कर आराम से सोफे पर लेट गया. मैं ने टेलीविजन चलाया और एक के बाद एक कई चैनल बदले पर मेरी पसंद का कोई भी प्रोग्राम नहीं आ रहा था. परेशान हो टीवी बंद कर अखबार पढ़ने लगा. यह मेरा रोज का कार्यक्रम था. मिशैल के आने के बाद ही हम खाने का प्रोग्राम बनाते थे. जब कभी उसे अस्पताल से देर हो जाती, मैं चिप्स और जूस पी कर सो जाता. मैं यहां एक मल्टीस्टोर में सेल्समैन था और मिशैल सिटी अस्पताल में नर्स.

दरवाजा खुलने के साथ ही मेरी तंद्रा टूटी. मिशैल ने अपना पर्स दरवाजे के पास बने काउंटर पर रखा और मेरे पास पीछे से गले में बांहें डाल कर बोली, ‘‘बहुत थके हुए लग रहे हो.’’

‘‘हां,’’ मैं ने अंगड़ाई लेते हुए कहा, ‘‘वीकएंड के कारण सारा दिन व्यस्त रहा,’’ फिर उस की तरफ प्यार से देखते हुए पूछा, ‘‘तुम कैसी हो?’’

‘‘ठीक हूं. मैं भी अपने लिए कौफी बना कर लाती हूं,’’ कह कर वह किचन में जातेजाते पूछने लगी, ‘‘मेरे कौफी बींस लाए हो या आज भी भूल गए.’’

‘‘ओह मिशैल, आई एम रियली सौरी. मैं आज भी भूल गया. स्टोर बंद होने के समय मुझे बहुत काम होता है. फूड डिपार्टमेंट में जा नहीं सका.’’

3 दिन से लगातार मिशैल के कहने के बावजूद मैं उस की कौफी नहीं ला सका था. मैं ने उसी समय उठ कर जूते पहने और कहा, ‘‘मैं अभी सामने की दुकान से ला देता हूं, वह तो खुली होगी.’’

‘‘ओह नो, टोनी. मैं आज भी तुम्हारी कौफी से गुजारा कर लूंगी. मुझे तो तुम इसीलिए अच्छे लगते हो कि फौरन अपनी गलती मान लेते हो. थके होने के बावजूद तुम अभी भी वहां जाने को तैयार हो. आई लव यू, टोनी. तुम्हारी जगह कोई यहां का लड़का होता तो बस, इसी बात पर युद्ध छिड़ जाता.’’

मैं ऐसे हजारों प्रशंसा के वाक्य पहले भी मिशैल से अपने लिए सुन चुका था. 5 साल पहले मैं अपने एक दोस्त के साथ जरमनी आया था और बस, यहीं का हो कर रह गया. भारत में वह जब भी मेरे घर आता, उस का व्यवहार और रहनसहन देख कर मैं बहुत प्रभावित होता था. उस का बातचीत का तरीका, उस का अंदाज, उस के कपड़े, उस के मुंह से निकले वाक्य और शब्द एकएक कर मुझ पर अमिट छाप छोड़ते गए. मुझ से कम पढ़ालिखा होने के बावजूद वह इतने अच्छे ढंग से जीवन जी रहा है और मैं पढ़ाई खत्म होने के 3 साल बाद भी जीवन की शुरुआत के लिए जूझ रहा था. मैं अपने परिवार की भावनाओं की कोई परवा न करते हुए उसी के साथ यहां आ गया था.

पहले तो मैं यहां की चकाचौंध और नियमित सी जिंदगी से बेहद प्रभावित हुआ. यहां की साफसुथरी सड़कें, मैट्रो, मल्टीस्टोर, शौपिंग मौल, ऊंचीऊंची इमारतों के साथसाथ समय की प्रतिबद्धता से मैं भारत की तुलना करता तो यहीं का पलड़ा भारी पाता. जैसेजैसे मैं यहां के जीवन की गहराई में उतरता गया, लगा जिंदगी वैसी नहीं है जैसी मैं समझता था.

एक भारतीय औपचारिक समारोह में मेरी मुलाकत मिशैल से हो गई और उस दिन को अब मैं अपने जीवन का सब से बेहतरीन दिन मानता हूं. चूंकि मिशैल के साथ काम करने वाली कई नर्सें एशियाई मूल की थीं इसलिए उसे इन समारोहों में जाने की उत्सुकता होती थी. उसे पेइंग गेस्ट की जरूरत थी और मुझे घर की. हम दोनों की जरूरतें पूरी होती थीं इसलिए दोनों के बीच एक अलिखित समझौता हो गया.

मिशैल बहुत सुंदर तो नहीं थी पर उसे बदसूरत भी नहीं कहा जा सकता था. धीरेधीरे हम एकदूसरे के इतने करीब आ गए कि अब एकदूसरे के पर्याय बन गए हैं. मेरी नीरस जिंदगी में बहार आने लगी है.

मिशैल जब भी मुझ से भारत की संस्कृति, सभ्यता और भारतीयों की वफादारी की बात करती है तो मैं चुप हो जाता हूं. मैं कैसे बताता कि जो कुछ उस ने सुना है, भारत वैसा नहीं है. वहां की तंग और गंदी गलियां, गरीबी, पिछड़ापन और बेरोजगारी से भाग कर ही तो मैं यहां आया हूं. उसे कैसे बताता कि भ्रष्टाचार, घूसखोरी और बिजलीपानी का अभाव कैसे वहां के आमजन को तिलतिल कर जीने को मजबूर करता है. इन बातों को बताने का मतलब था कि उस के मन में भारत के प्रति जो सम्मान था वह शायद न रहता और शायद वह मुझ से भी नफरत करने  लग जाती. चूंकि मैं इतना सक्षम नहीं था कि अलग रह सकूं इसलिए कई बार उस की गलत बातों का भी समर्थन करना पड़ता था.

‘‘जानते हो, टोनी,’’ मिशैल कौफी का घूंट भरते हुए बोली, ‘‘इस बार हैनोवर इंटरनेशनल फेयर में तुम्हारे भारत को जरमन सरकार ने अतिथि देश चुना है और यहां के अखबार, न्यूज चैनलों में इस समाचार को बहुत बढ़ाचढ़ा कर बताया जा रहा है. जगहजगह भारत के झंडे लगे हुए हैं.’’

‘‘भारत यहां का अतिथि देश होगा?’’ मैं ने जानबूझ कर अनजान बनने की कोशिश की.

‘‘और क्या? देखा नहीं तुम ने…मैं एक बार तो जरूर जाऊंगी, शायद कोई सामान पसंद आ जाए.’’

‘‘मिशैल, भारतीय तो यहां से सामान खरीद कर भारत ले जाते हैं और तुम वहां का सामान…न कोई क्वालिटी होगी न वैराइटी,’’ मैं ने मुंह बनाया.

‘‘कोई बात नहीं,’’ कह कर उस ने कौफी का आखिरी घूंट भरा और मेरे गले में अपनी बांहें डाल कर बोली, ‘‘टोनी, तुम भी चलो न, वस्तुओं को समझने में आसानी होगी.’’

फेयर के पहले दिन सुबहसुबह ही मिशैल तैयार हो गई. मैं ने सोचा था कि उस को वहां छोड़ कर कोई बहाना कर के वहां से चला जाऊंगा. पर मैं ने जैसे ही मेन गेट पर गाड़ी रोकी, गेट पर ही भारत के विशालकाय झंडे, कई विशिष्ट व्यक्तियों की टीम, भारतीय टेलीविजन चैनलों की कतार और नेवी का पूरा बैंड देख कर मैं दंग रह गया. कुल मिला कर ऐसा लगा जैसे सारा भारत सिमट कर वहीं आ गया हो.

मैं ने उत्सुकतावश गाड़ी पार्किंग में खड़ी की तो मिशैल भाग कर वहां पहुंच गई. मेरे वहां पहुंचते ही बोली, ‘‘देखो, कैसा सजा रखा है गेट को.’’

मैं ने उत्सुकता से वहां खड़े एक भारतीय से पूछा, ‘‘यहां क्या हो रहा है?’’

‘‘यहां तो हम केवल प्रधानमंत्रीजी के स्वागत के लिए खड़े हैं. बाकी का सारा कार्यक्रम तो भीतर हमारे हाल नं. 6 में होगा.’’

‘‘भारत के प्रधानमंत्री यहां आ रहे हैं?’’ मैं ने उत्सुकतावश मिशैल से पूछा.

‘‘मैं ने कहा था न कि भारत अतिथि देश है पर लगता है यहां हम लोग ही अतिथि हो गए हैं. जानते हो टोनी, उन के स्वागत के लिए यहां के चांसलर स्वयं आ रहे हैं.’’

थोड़ी देर में वंदेमातरम की धुन चारों तरफ गूंजने लगी. प्रधानमंत्रीजी के पीछेपीछे हम लोग भी हाल नं. 6 में आ गए, जहां भारतीय मंडप को दुलहन की तरह सजाया हुआ था.

प्रधानमंत्रीजी के वहां पहुंचते ही भारतीय तिरंगा फहराने लगा और राष्ट्रीय गीत के साथसाथ सभी लोग सीधे खड़े हो गए, जैसा कि कभी मैं ने अपने स्कूल में देखा था. टोनी आज भारतीय होने पर गर्व महसूस कर रहा था. उसे भीतर तक एक झुरझुरी सी महसूस हुई कि क्या यही वह भारत था जिसे मैं कई बरस पहले छोड़ आया था. आज यदि जरमनी के लोगों ने इसे अतिथि देश स्वीकार किया है तो जरूर अपने देश में कोई बात होगी. मुझे पहली बार महसूस हुआ कि अपना देश और उस के लोग किस कदर अपने लगते हैं.

समारोह के समाप्त होते ही एक विशेष कक्ष में प्रधानमंत्री चले गए और बाकी लोग भारतीय सामान को देखने में व्यस्त हो गए. थोड़ी देर में प्रधानमंत्रीजी अपने मंत्रिमंडल एवं विदेश विभाग के लोगों के साथ भारतीय निर्यातकों से मिलने चले गए. उधर हाल में अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम होेते रहे. एक कोने में भारतीय टी एवं कौफी बोर्ड के स्टालों पर भी काफी भीड़ थी.

मैं ने मिशैल से कहा, ‘‘चलो, तुम्हें भारतीय कौफी पिलवाता हूं.’’

‘‘नहीं, पहले यहां कठपुतलियों का यह नाच देख लें. मुझे बहुत अच्छा लग रहा है.’’

अगले दिन मेरा मन पुन: विचलित हो उठा. मैं ने मिशैल से कहा तो वह भी वहां जाने को तैयार हो गई.

मैं एकएक कर के भारतीय सामान के स्टालों को देख रहा था. भारत की क्राकरी, हस्तनिर्मित सामान, गृहसज्जा का सामान, दरियां और कारपेट तथा हैंडीक्राफ्ट की गुणवत्ता और नक्काशी देख कर दंग रह गया. मैं जिस स्टोर में काम करता था वहां ऐसा कुछ भी सामान नहीं था. मैं एक भारतीय स्टैंड के पास बने बैंच पर कौफी ले कर सुस्ताने को बैठ गया. पास ही बैठे किसी कंपनी के कुछ लोग आपस में जरमन भाषा में बात कर रहे थे कि भारत का सामान कितना अच्छा और आधुनिक तरीकों से बना हुआ है. वे कल्पना भी नहीं कर पा रहे थे कि यह सब भारत में ही बना हुआ है और एशिया के बाकी देशों की तुलना में भारत कहीं अधिक तरक्की कर चुका है. मुझे यह सब सुन कर अच्छा लग रहा था.

उन्होंने मेरी तरफ देख कर पूछा, ‘‘आप को क्या लगता है कि क्या सचमुच माल भी ऐसा ही होगा जैसा सैंपल दिखा रहे हैं?’’

‘‘मैं क्या जानूं, मैं तो कई वर्षों से यहीं रहता हूं,’’ मैं ने अपना सा मुंह बनाया.

ये भी पढ़ें- अब जाने दो उसे: क्या नीलू के लिए बदली भाईयों की भावनाएं

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें