मेरी कमाई, मेरा हक

सोमी के ऑफिस में आज सभी के चेहरे गुलाब की तरह खिले हुए थे.हो भी क्यों ना आज सब कर्मचारियों को 10 प्रतिशत इन्क्रीमेंट मिला था.सोमी पर बुझी बुझी सी लग रही थी. जब कायरा ने पूछा तो सोमी फट पड़ीमेरी सैलरी पर मेरा नही ,बल्कि पूरे परिवार का हक हैं

इन्क्रीमेंट का मतलब हैं ज़्यादा काम ,पर मुझे क्या मिलेगा कुछ नही.हर महीने एक बच्चे की तरह मेरे पति मुझे चंद हज़ार पकड़ा देते हैं. पूछने पर बोलते हैंसब कुछ तो मिल रहा हैं क्या करोगी तुम इन पैसों का ,फिजूलखर्ची करने के अलावा

सोमी अकेली महिला नही हैं. सोमी जैसी महिलाएं हर घर मे मौजूद हैं जो आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने पर भी पराधीन हैं.वो बस अपने पति और परिवार के लिए एक कमाई की मशीन हैं.उनके पैसों को कैसे ख़र्च करना हैं और कहाँ निवेश करना हैं ये पति महोदय का मौलिक अधिकार होता हैं.

  रितिका की कहानी भी सोमी से कुछ अलग नही हैं.रितिका की सैलरी आते ही,पूरा पैसा विभाजित हो जाता हैं.बच्चों के स्कूल की फ़ीस, घर की लोन की किस्तें और घर ख़र्च सब रितिका की सैलरी पर होता हैं.परन्तु रितिका के पति प्रदीप की सैलरी कैसे ख़र्च होती हैं ये प्रदीप के अलावा कोई नही जानता हैं.

हर छुट्टियों में घूमने की प्लानिंग करना, दूर पास के रिश्तेदारों के लिए तोहफ़े खरीदना ,पत्नी बच्चो के लिए कपड़े इत्यादि खरीदना प्रदीप अपनी सैलरी से करता हैं और सबकी आंखों का तारा हैं.वहीं रितिका के बारे में प्रदीप कहता हैंअरे औरतों की लाली लिपस्टिक पर ख़र्च रोकना का ये नायाब तरीका हैं कि उनकी सैलरी पर लोन इत्यादि ले लो

रितिका जो 80 हज़ार मासिक कमा रही हैं ना अपनी पसंद के कपड़े पहन सकती हैं और ना ही अपनी पसंद के तोहफ़े किसी को दे सकती हैं.इतना कमाने के बाद भी वो पूरी तरह से अपने पति पर निर्भर हैं.

  अगर ऊपर की दोनो घटनाओं को देखे तो एक बात दोनो में समान हैं कि सोमी और रितिका अभी भी गुलामी की बेड़ियों में मानसिक रूप से कैद हैं.दोनो ही महिलाओं में एक समानता हैं कि दोनों ही मानसिक रूप से स्वतंत्र नही हैं. दोनो को ये भी नही मालूम हैं कि उन्हें अपने गाढ़े पसीने की कमाई कैसे ख़र्च करनी हैं.

ये भी पढ़ें- उफ… यह मम्मीपापा की लड़ाई

ये कहना गलत ना होगा कि सोमी और रितिका जैसी महिलाओं की दशा उन महिलाओं से भी बदतर हैं जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नही हैं.कभी प्यार में तो कभी डर के कारण वो अपनी आर्थिक स्वतंत्रता की कुंजी अपने पति के हाथों में थमा देती हैं जो बिल्कुल भी सही नही हैं.

आज के समय मे ज़िन्दगी की गाड़ी तभी सुचारू रूप से चल सकती जब दोनों जीवनसाथी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो.जैसे गाड़ी के दोनो पहिए यदि समान नही होते तो गाड़ी नही चल सकती हैं, उसी तरह से पति और पत्नी में भी समानता होनी चाहिए ताकि ज़िन्दगी सुचारू रूप से चल सके.

अगर आप इन छोटी छोटी बातों का ध्यान रखेगी तो अपनी कमाई को अपने हिसाब से ख़र्च कर पाएगी.

1.प्यार का मतलब नही हैं ग़ुलामी-

महिलाएं स्वभाव से ही कोमल और भावुक होती हैं.प्यार की डोर में बंधी हुई वो अपने वेतन का पूरा ब्यौरा अपने पति को दे देती हैं.पति अपने वेतन के साथ साथ अपनी पत्नी के वेतन को भी अपने हिसाब से ख़र्च करने लगते हैं.शुरू शुरू में तो पत्नियों को ये सब बड़ा प्यारा लगता हैं पर शादी के एक दो वर्ष के बाद उन्हें कोफ़्त होने लगती हैं.पति के हाथों में अपने वेतन या एटीएम कार्ड को पकड़ना प्यार या वफ़ा का नही ,गुलामी का परिचायक हैं.

2.अपने ऊपर ख़र्च करना हैं आपका मौलिक अधिकार-

बहुत से मामलों में देखने को मिलता हैं कि विवाह के पश्चात लड़कियां अपने ऊपर ख़र्च करने में हिचकिचाने लगती हैं.उन्हें लगता हैं कि अब घर की ज़िम्मेदारी ही उनकी सर्वपरिता हो जाता हैं. पार्लर जाना या खुद के ऊपर ख़र्च करना, सहेलियों के साथ बाहर जाना ,सब कुछ उन्हें बेमानी लगने लगता हैं जो सही नही हैं.आपका सबसे पहला रिश्ता अपने साथ हैं तो इसलिए उसे खुश रखना आपका मौलिक अधिकार हैं.

3.अपने भविष्य को सुरक्षित करे-

ज़िन्दगी आपकी हैं तो उसकी बागड़ोर अपने हाथों में ही रखे. विवाह का मतलब ये नही होता कि सबकुछ पति के भरोसे छोड़ कर हाथ पर हाथ धर कर बैठ जाए.अपने भविष्य को सुरक्षित रखना ,आपकी ज़िम्मेदारी हैं.अपनी कमाई को सही जगह पर लगाकर अपने भविष्य को सुनिश्चित कर ले.

4.लेन देन करे अपनी हैसियत के हिसाब से-

बहुत बार देखने मे  आता हैं कि पत्नी के वेतन के कारण ,पति अपनी झूठी शान दिखाते हुए बहुत महँगे महँगे तोहफे शादी और फंक्शन में दे देते हैं.अगर आपकी पति की भी ये आदत हैं तो आप उन पहले ही अवसर पर टोक दे.मायके और ससुराल दोनो ही जगह समान  रूप से और अपनी हैसियत के अनुरूप ही लेन देन करे.

5.निवेश करे सोच समझ कर-

अपने पैसों को सोच समझ कर निवेश करे क्योंकि ये आपकी मेहनत की कमाई हैं. आपको अपने पैसे शेयर मार्केट में लगाने हैं या उन पैसों से कोई बांड खरीदना हैं या फिर किसी प्रोपेर्टी में लगाना हैं आपका ही फैसला होना चाहिए.अपने पति से आप सलाह अवश्य ले सकती हैं पर उन्हें अपने पैसों का कर्ता धर्ता मत बनाइए.

ये भी पढ़ें- माता-पिता का डिवोर्स बच्चे पर कितना भारी, आइए जानें

6.धन हैं बड़ा बलवान-

ये बात हालांकि कड़वी हैं पर सत्य हैं.धन में बहुत ताकत होती हैं.जब तक आपके पास अपने पैसे हैं तब तक आपकी ससुराल में इज़्ज़त बनी रहेगी.आपके पति भी कुछ उल्टा सीधा करने से पहले सौ बार सोचेंगे क्योंकि उन्हें पता होगा कि आपकी ज़िंदगी की लगाम आपके ही हाथों में हैं.वो अगर कुछ ग़लत करेंगे तो आप उनको छोड़ने में जरा भी हिचकिचायेगी नही. पति महोदय को ये भी अच्छे से मालूम होगा कि आपके द्वारा भविष्य के लिए संचित किया हुआ धन आपके साथसाथ उनके बुढ़ापे की भी लाठी हैं

शादी निभाने की जिम्मेदारी पत्नी की ही क्यों

गौतम बुद्ध की शादी 16 वर्ष की आयु में यशोधरा नाम की एक कन्या से होती है और 29 वर्ष की आयु में उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति होने के बाद यानी शादी के 13 वर्ष बाद उन्हें यह ध्यान आता है कि उन्हें संन्यास लेना है और तभी वे अचानक एक दिन आधी रात को बिना अपनी पत्नी को बताए अपनी पत्नी और नवजात शिशु को सोता छोड़ घर से चुपचाप निकल जाते हैं.

सांसारिक दुख उन्मूलन की तथा ज्ञान के खोज की ऐसी उत्कट अभिलाषा कि पत्नी और बेटे की जिम्मेदारी तक भूल गए, उन के पीछे उन के कष्टों का भी ज्ञान न रहा.

गौतम बुद्ध के विषय में यह कहा जाता है कि वे बचपन से ही बेहद करुण हृदय वाले थे किसी का भी दुख नहीं देख सकते थे और ऐसे करुण हृदय वाले बुद्ध को अपनी पत्नी का ही दुख नजर नहीं आया.

अपनी पत्नी की ऐसी उपेक्षा करने वाले करुण हृदय बुद्ध के अनुसार, दुख होने के अनेक कारण हैं और सभी कारणों का मूल है तृष्णा अर्थात पिपासा अथवा लालसा.

तो क्या ज्ञानप्राप्ति की उन की पिपासा ने उन के पीछे उन की पत्नी और उन के नवजात की जिंदगी को असंख्य दुखों की ओर नहीं धकेला था? बुद्ध के अष्टांगिक मार्गों में एक सम्यक संकल्प अथवा इच्छा तथा हिंसा से रहित संकल्प करना तथा दूसरा सम्यक स्मृति अर्थात् अपने कर्मों के प्रति विवेक तथा सावधानी का स्मरण भी है.

मानसिक कष्ट देना भी हिंसा

इच्छा तथा हिंसा से रहित संकल्प… तो क्या, जब गौतम बुद्ध ने अपनी पत्नी का त्याग किया तो उन के इस कृत्य से उन की पत्नी को जिस प्रकार की मानसिक वेदना  झेलना पड़ी थी वह क्या हिंसा नहीं थी? किसी को शारीरिक आघात पहुंचाना ही हिंसा नहीं होता, बल्कि मानसिक कष्ट देना भी एक तरह की हिंसा ही तो है. अब यदि उन के अष्ट मार्ग में से सातवें मार्ग पर भी नजर डालें तो इन के अनुसार, ‘अपने कर्मों के प्रति सावधानी तथा विवेक का स्मरण.’

अब यदि देखा जाए तो अपनी पत्नी और पुत्र का त्याग करते वक्त क्या बुद्ध ने विवेकपूर्ण दृष्टि से उन के प्रति अपने दायित्वों के विषय में विचार किया नहीं न…

उन की पत्नी ने यह दायित्व अकेले ही निभाया होगा और उन्हें भी उस समय के समाज ने पतिव्रता नारी के गुण पति धर्म आदि का पाठ पढ़ा कर उन्हें चुप करा दिया होगा…

ये भी पढ़ें- आर्टिस्ट कृपा शाह से जानें कैसे भरे जीवन में रंग

बुद्ध तो अपनी पत्नी का त्याग कर महान ज्ञानी बन गए परंतु उन की पत्नी का क्या? उस पत्नी के अनजानेअनचाहे कष्टों का क्या जिसे बुद्ध सांसारिक दुखों के उन्मूलन हेतु छोड़ कर अकेले निकल गए?

इस समाज ने नारी को ही पत्नी धर्म के पाठ पढ़ाए. पुरुषों को कभी उन के उत्तरदायित्व से मुंह मोड़ने पर कुसूरवार नहीं ठहराया.

आश्चर्य है इस दलील पर

मर्यादापुरुषोत्तम राम तथा भारतीय संस्कृति के भाव नायक राम ने तो सीता जैसी परम पवित्र और आदर्श नारी का त्याग सिर्फ समाज द्वारा सवाल उठाए जाने पर अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए किया था क्योंकि समाज के किसी वर्ग में यह संदेह उत्पन्न हुआ कि सीता पहले की तरह ही पवित्र और सती नहीं हैं क्योंकि उन्हें रावण हरण कर के ले गया था.

वैसे दलील तो यह दी जाती है कि सीता ने खुद वन जाने की इच्छा जताई थी क्योंकि पति को बदनामी का दुख  झेलना न पड़े और राम ने इसे होनी सम झ कर मान लिया था.

आश्चर्य है ऐसी दलील पर कि जिन्हें अपनी पत्नी के सतीत्व पर पूर्ण विश्वास है वे समाज के किसी वर्ग के कहने पर बदनामी के दुख से दुखी या आहत हो जाएं और पत्नी उन के दुख से दुखी हो कर स्वयं ही गृह का त्याग कर दे और वह भी तब जबकि वह गर्भवती थी.

मर्यादापुरुषोत्तम राम उस समाज पर क्रोधित होने की जगह अपनी पत्नी के साथ खड़े होने की जगह, दुखी हो गए और उसे होनी सम झ लिया. यह दलील कुछ अजीब नहीं है?

जब राम ने रावण के द्वारा सीता के हरण को होनी नहीं सम झा अर्थात् यही किस्मत में लिखा था. तब यह नहीं सम झा और रावण का सर्वनाश कर दिया. वे अपनी पत्नी के सतीत्व पर उठे इस सवाल पर दुखी हो कर चुप रह जाते हैं और अपनी पत्नी को जंगल में भटकने के लिए छोड़ देते हैं.

यह किस प्रकार का आदर्श है जो समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया गया. क्या यह तर्क इसलिए नहीं दिया जाता ताकि समाज में नारियों को सीता का उदाहरण दे कर अन्याय के खिलाफ खड़े होने की जगह त्याग का पाठ पढ़ाया जा सके ताकि कभी कोई स्त्री अपने हक के लिए सवाल उठाए तो उसे सीता का उदाहरण दे कर पतिव्रता बने रहने की सलाह दे कर आदर्श नारी बनने का पाठ पढ़ा कर उस का मुंह बंद किया जा सके.

मर्यादापुरुषोत्तम राम ने यह किस प्रकार का उदाहरण भारतीय पुरुषों के समक्ष पेश किया कि यदि पत्नी के सतीत्व पर सवाल उठे तो पति को बदनामी का दुख हो तो पत्नी के साथ खड़े होने की जगह अपनी प्रतिष्ठा की वे चिंता करें और उसे भाग्य का लिखा सम झ लें और अपनी पत्नी की प्रतिष्ठा की रक्षा करने की जगह उसे घर त्याग कर चुपचाप जाने दें जबकि उस का कोई कसूर ही न था. क्या यह अन्याय नहीं था?

त्याग स्त्री ही क्यों करे

राजा दुष्यंत जो कि पूरू वंशी राजा थे, एक बार मृग का शिकार करते हुए महर्षि कण्व के आश्रम में पहुंचे और शकुंतला पर आसक्त हो कर गंधर्व विवाह कर लिया और कुछ समय उस के साथ व्यतीत कर अपने नगर लौट गए. आश्रम में शकुंतला उन के पुत्र को जन्म देती है परंतु बाद में शकुंतला जब राजा दुष्यंत के पास जाती है तो राजा उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं.

दलील यह दी जाता है कि राजा किसी श्राप के कारण शकुंतला को भूल गए थे. खैर, शकुंतला वापस अकेले ही अपने पुत्र का पालनपोषण करती है और एक दिन राजा दुष्यंत वापस कण्व ऋ षि के घर पहुंचते हैं और उन का अपने पुत्र के प्रति प्यार भी अचानक उमड़ पड़ता है साथ ही खोई हुई अंगूठी भी मिल जाती है जिस से उन की खोई हुई याददाश्त वापस आ जाती है.

लेकिन इतने समय तक शकुंतला वन में अकेले ही दुख उठाती हुई अपने पुत्र का भरणपोषण करती है.

यहां भी बड़ी आसानी से समाज के ठेकेदारों ने पत्नी के लिए त्याग का उदाहरण पेश कर दिया कि एक पुरुष अपनी पत्नी का त्याग कर सकता है और वह भी बड़ी आसानी से तथा पत्नी उस की याददाश्त के वापस आने तक उस का इंतजार करती है. यहां भी त्याग की कहानी सिर्फ एक स्त्री के लिए. पुरुष चाहे तो कैसे भी अपनी पत्नी का त्याग कर दे परंतु पत्नी को पतिव्रता बने रहना है. यहां भी पति के कृत्य पर कोई सवाल नहीं. पत्नी और बेटे का त्याग कर पुरुष फिर भी महान बना रह जाता है.

ये भी पढ़ें- #coronavirus: रोजाना 90 लाख वैक्सीन देने का दावा कितना सही?

यह कैसा क्रोध

राजा उत्तम ने तो क्रोध में ही अपनी पत्नी का त्याग कर दिया. उसे राजमहल से निकाल दिया उन्हें अपनी पत्नी का त्याग करने के लिए किसी ठोस कारण की जरूरत भी नहीं पड़ी बस पत्नी पर क्रोध आना ही काफी था. लेकिन बाद में निंदा और तिरस्कार के डर से अपनी पत्नी को वापस अपना लेते हैं परंतु सिर्फ क्रोध आया और पत्नी को घर से निकाल दिया यह उदाहरण भी समाज के लिए निंदनीय ही है.

ऋ षि गौतम ‘अक्षपाद गौतम’ के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त हैं और न्याय दर्शन के प्रथम प्रवक्ता भी माने जाते हैं. महर्षि गौतम को परम तपस्वी और बेहद संयमी भी बताया जाता है. महाराज वृद्धाश्रव की पुत्री अहिल्या उन की पत्नी थी जोकि बहुत ही सुंदर और आकर्षक थी. एक दिन ऋ षि स्नान के लिए आश्रम से बाहर गए तभी इंद्र ने गौतम ऋ षि का रूप ले कर उन के साथ छल किया और बिना किसी अपराध के ही अहिल्या को दंड भोगना पड़ा. ऋ षि गौतम ने आश्रम से इंद्र को निकलते देख लिया था और पत्नी के चरित्र पर ही शक कर बैठे और अपनी पत्नी को श्राप दे दिया और वह हजारों वर्षों तक पत्थर बनी रही.??

छल इंद्र का दंड पत्नी को

यहां सम झने वाली बात यह है कि न्याय दर्शन के प्रवक्ता परम तपस्वी बेहद संयमित ऋ षि अपनी पत्नी के साथ ही घोर अन्याय कर जाते हैं. वे इंद्र के छल के लिए दंड अपनी पत्नी को दे देते हैं जो उस ने किया ही नहीं था. उस कृत्य का दंड पा कर वह हजारों वर्षों तक पत्थर बनी रहती है. यहां एक ऋ षि का संयम जवाब दे देता है. इतने क्रोधित हो उठते हैं कि अपनी पत्नी को ही पत्थर बनाने का श्राम दे देते हैं.

यह कहानी पुरुषों की उस मानसिकता का उदाहरण है जहां एक पत्नी को मात्र उपभोग की वस्तु सम झा जाता रहा है और कभी भी अर्थहीन पा कर उस का त्याग करने में उसे दंडित करने में थोड़ा भी विलंब नहीं होता.

उन्होंने भी एक ऐसा दृष्टिकोण पत्नी को देखने का, सम झने का ऐसा ही नजरिया समाज के समक्ष प्र्रस्तुत किया था और फिर भी उन्हें महानता के शिखर पर बैठा कर यह समाज उन्हें पूजता रहा है. क्या अहिल्या के प्रति उन का अपराध क्षमा करने योग्य था?

पत्नी की अवहेलना

सम्राट अशोक ने भी अपनी पहली पत्नी जिस का नाम देवी था जोकि एक बौद्ध व्यापारी की पुत्री थी जिस से अशोक को पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा प्राप्त हुई थी को छोड़ कर एक मछुआरे की पुत्री करुणावकि से विवाह कर लेते हैं और उन के शिलालेखों में कहीं भी उन की पहली पत्नी का नाम तक नहीं होता है. सम्राट अशोक भले ही एक महान शासक के रूप में प्रसिद्धि पाए हों परंतु अपनी पत्नी की अवहेलना उन्होंने भी की.

और फिर संत कवि तुलसीदास जिन का विवाह रत्नावली नाम की अति सुंदर कन्या से हुआ था. ये पहले तो पत्नी प्रेम में इतना डूब जाते हैं कि लोकमर्यादा का होश तक नहीं रहता और फिर एक दिन अचानक पत्नी का त्याग कर देते हैं और संत कवि बन जाते हैं.

अटपटी दलील

ठीक इन्हीं की तरह कालिदास ने भी पारिवारिक जीवन का त्याग कर दिया और दुनिया के महान कवि बन गए. इन दोनों कवियों में एक बात की समानता है जिस में इन के त्याग के पीछे पत्नी की फटकार को ही कारण बताया गया. यहां यह दलील थोड़ी अटपटी सी लगती है कि दोनों कवियों ने अपनीअपनी पत्नी को त्यागने के पीछे का कारण अपनी पत्नी की फटकार या उस के उपदेश को ही बताया और अपनी महानता को भी बनाए रखने की चेष्टा करते हैं.

कोईर् भी पत्नी यह बिलकुल नहीं चाहेगी कि उस का पति उस का त्याग कर दे परंतु यहां पत्नियों के कारण का एक अलग ही उदाहरण पेश कर दिया गया और अकसर उदाहरण के तौर पर पेश भी किया जाता है.

समाज के ठेकेदारों ने इन्हें अपनीअपनी पत्नी को त्यागने में भी इन की महानता को ही ढूंढ़ निकाला. अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ने के बावजूद इन की महानता पर कोई आंच नहीं आने दी और पत्नियों को त्याग का पाठ पढ़ाने के लिए एक नया फौर्मूला भी तैयार कर लिया, जिस का सहारा आज भी किसी न किसी रूप में लिया जाता है.

औरत क्या सजावटी वस्तु

अकसर ऐसा कहते हुए सुना जाता है कि स्त्रियां घरों की शोभा होती हैं. शोभा यानी सजावट. सजावट शब्द ने एक औरत को वस्तु शब्द का पर्याय बना दिया और फिर सजावट जैसे शब्द को गढ़ने वाले अपनी सोच की परिधि में एक औरत रूपी चेतना को घुटघुट कर दम तोड़ने पर मजबूर कर देते हैं. इस मानसिकता की शुरुआत संभवत: उन कथित दरबारी कवियों ने ही की थी जो शृंगार रस में डूब कर नखशिख वर्णन यानी किसी औरत के नाखूनों से ले कर उस के सिर तक की सुंदरता का वर्णन राज दरबारों में राजाओं के मनोरंजन के लिए किया करते थे. तब से ले कर लगभग आज तक औरतों को देखने का एक ही दृष्टिकोण लगभग तय सा हो गया. यह समाज औरत को बस एक खूबसूरत वस्तु के पैमाने में ही मापता आ रहा है.

आज भी औरतों को अपनी इसी सोच के दायरे में रख कर देखने वाले पुरुषों की कमी नहीं है विवाह के बाद पत्नियों को त्याग कर किसी खूबसूरत युवती से शादी कर लेना भी एक चलन बन गया है गांव में ऐसी पत्नी आज भी हैं, जिन्हें जिन के पतियों ने शादी के काफी साल बाद त्याग कर अकेले ही जिंदगी जीने के लिए छोड़ दिया और वे पतिव्रता नारी धर्म का पालन किए जी रही हैं. वे किन कष्टों का सामना कर रही हैं. उन की जिंदगी कैसीकैसी कठिनाइयों से भरी हुई है इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता.

ये भी पढ़ें- सावधान ! बदल गई है जॉब मार्केट, खुद को काम का बनाए रखने की कोशिश करें  

औरतों की आजादी पर अंकुश

सदियों पहले मनु ने एक फतवा जारी किया. मनु के अनुसार स्त्री का बचपन में पिता के अधीन, युवा अवस्था में पति के आधिपत्य में तथा पति की मृत्यु के उपरांत पुत्र के संरक्षण में रहना चाहिए. मनु का ऐसा कहना एक स्त्री के लिए फतवा नहीं है? स्त्रियों की आजादी को क्या ऐसा कह कर छीन नहीं लिया गया? क्या उन की आजादी पर अंकुश नहीं लगा दिया गया? क्या इस फतवे ने नारी के प्रति पुरुषों के अत्याचार के सिलसिले को और भी बढ़ावा नहीं दे दिया?

तमाम तरह की बंदिशें इस समाज में एक नारी के ऊपर ही लगानी शुरू कर दीं जैसे परदे में रहना, पुरुषों की आज्ञा का पालन करना, पुरुषों को पलट कर उत्तर न देना, चुपचाप उन के अत्याचारों को सहन करना इस सोच ने नारी को एक तरह से पुरुषों के अधीन बना दिया जैसे वे कोई संपत्ति हों जिन पर पहले पिता का, फिर पति का और फिर बाद में पुत्र का अधिकार हो गया और फिर स्त्री को सारे सुखों और अधिकारों से वंचित कर दिया गया.

इन सभी वजहों से वह एक वस्तु पर्याय बना दी गई, पुरुषों के अधीन हो गई. पुरुष जब चाहे उस का त्याग कर दे और वह मुंह तक न खोले, पलट कर जवाब तक न दे जैसे वह कोई वस्तु है जिस का त्याग पुरुष अपनी मरजी के हिसाब से कर सकता है.

पुरुषों के लिए कोई बंदिश नहीं

मनु और याज्ञवल्क्य जैसे स्मृतिकारों ने एक पत्नी के क्या कर्तव्य होते हैं जैसे निर्देश देते हुए पत्नी धर्म का पालन करना, पति को परमेश्वर मानना आदि फतवे जारी कर उन्हें पूर्णतया पति के उपभोग की वस्तु बना दिया, एक मानदंड तैयार कर दिया गया जिस के आधार पर उन्हें या तो देवी या तो फिर कुलक्षिणी करार दिया जाने लगा परंतु उसी समाज ने पुरुषों के लिए कभी कोई बंदिश क्यों नहीं लगाई?

पुरुष चाहे तो अपनी मरजी से पत्नी का साथ निभाए या फिर उस का अपनी मरजी से त्याग कर दे परंतु स्त्री के लिए सतीत्व का पालन करना, उस का देवी बने रहना क्यों अनिवार्य कर दिया गया? हमारा समाज आज भी नहीं बदला है. आज भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां पति अपनी पत्नी का त्याग कर महान बने बैठे हुए हैं. शादी की और उसे अकेला छोड़ दिया. खुद अपनी जिंदगी मजे में जी रहे हैं परंतु पत्नी को कोई पूछता नहीं. उस की हालत पर कहीं कोई चर्चा नहीं होती. बस पत्नियों को त्याग का पाठ पढ़ा दिया जाता है और वे देवी बने रहने के दायरे से कभी भी बाहर नहीं निकल पातीं.

दयनीय स्थिति

आज भी हमारे समाज में एक औरत पर ही हजारों पाबंदियां ज्यों की त्यों बनी हुई हैं. पुरुष चाहे तो कितने भी प्रेम करे. वह चाहे तो अपनी पहली पत्नी के होते हुए भी दूसरी शादी रचा ले. उसे समाज बहिष्कृत नहीं करता. उस के चरित्र पर सवाल उठाने की जगह उसे महान बना दिया जाता है. उसे कोई कुलटा नहीं कहता क्योंकि वह पुरुष है. त्याग का पाठ बस पत्नियों को ही पढ़ाई जाने की चीज है.

आज भी इस समाज में कईर् ऐसी पत्नियां हैं जिन के पति स्वयं तो समाज के कई प्रतिष्ठित स्थानों पर विराजमान हैं. उन में कोईर् अभिनेता है, फिल्म अभिनेता है, महान गायक है या फिर कोई राजनेता है और ये सब बिना किसी ठोस कारण अपनीअपनी पत्नी का त्याग कर महान बन बैठे हैं और फिर भी यह समाज उन्हें पूरी इज्जत व प्रतिष्ठा दे रहा है या देता आ रहा है. परंतु उन पत्नियों का जीवन कैसा है, वे किस प्रकार जी रही हैं, किसी को कोई चिंता नहीं है.

गांवों में तो ऐसी स्थिति और भी दयनीय है. जिस का पति बिना तलाक दिए मजे में अपनी जिंदगी बिता रहा है क्या वह पत्नी न्याय की हकदार नहीं है? क्यों उस के कष्टों की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता? तीन तलाक बेशक निंदनीय अपराध है परंतु उन हिंदू औरतों, उन पत्नियों का क्या अपराध जिन के पतियों ने बिना तलाक दिए उन्हें अकेले जिंदगी जीने को लाचार कर रखा है.

आज ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो शादी कर अपनी पत्नी को छोड़ के विदेशों में भाग गए हैं. हाल के ही एक ताजा समाचार के अनुसार ऐसी 15 हजार महिलाओं की शिकायतें मिली हैं जिन के पति उन्हें छोड़ कर विदेश भाग गए हैं. हम हिंदू औरतों पर हो रहे खुले अत्याचार को भाग्य की देन कैसे मान सकते हैं. यदि साथ नहीं रख सकते तो तलाक दे कर उन्हें सम्मान के साथ जीने का हक तो दें.

ये भी पढ़ें- बस 3 मिनट का सुख और फिर…

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें