नैतिकता पर भारी पंडेपुजारी

पहले औरतों को इस तरह विवश कर दो कि वे समाज के तथाकथित नैतिकता के मानदंडों के खिलाफ जाने को मजबूर हो जाएं और फिर उन पीडि़ताओं को ही अपराधी मान लो कि वे तो गंदी मछलियां हैं, जो शुद्ध पानी को खराब कर रही हैं. चेन्नई में इंडोनेशियाई लड़की को 2 साल पहले गिरफ्तार कर लिया गया कि वह एक स्पा में काम कर रही है और इम्मोरल ट्रैफिकिंग ऐक्ट में बंद कर दिया. 26 दिनों की कैद के बाद इंडोनेशिया सरकार के दखल पर उसे रिहा कर दिया गया, क्योंकि वह वैलिड डौक्यूमैंटों से काम कर रही थी.

वह कमजोर भारतीय पाखंडों की मारी नारी नहीं थी. अत: उस ने पुलिस इंस्पैक्टर के. नटराजन को कोर्ट में घसीट लिया और चेन्नई उच्च न्यायालय ने इंस्पैक्टर पर क्व25 लाख का जुरमाना भी ठोंक दिया, जो उस की सैलरी से काटा जाना चाहिए.

इंस्पैक्टर एक तो पुरुष और ऊपर से खाकी वरदी वाला सरकार का प्रतिनिधि, वह भला क्यों जुरमाना भरेगा. अत: उस ने अपील की और स्टे ले लिया.

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अब यह इंडोनेशियाई लड़की सुप्रीम कोर्ट में है कि हाई कोर्ट की डबल बैंच का स्टे गलत है. सुप्रीम कोर्ट तक आने में उस ने कितना पैसा खर्च कर दिया होगा, यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. विशुद्ध पाखंडों की मारी भारतीय नारी तो इस अत्याचार को पिछले जन्मों का पाप समझ लेती पर यह बहादुर लड़की, जो इंडोनेशिया से भारत कुछ कमाने आई है, अभी हार मानने को तैयार नहीं है.

यहां के धर्म के दुकानदारों ने जनमानस के मन में यह बैठा रखा है कि चीनी जैसी दिखने वाली सभी लड़कियों का कैरेक्टर ढीला होता है. मणिपुर, मिजोरम, नेपाल, अरुणाचल प्रदेश आदि की भारतीय लड़कियों को भी छोड़ा नहीं जाता और उन्हें दलितों की तरह बिकाऊ मान कर चलना आम बात है. ये लड़कियां वास्तव में अपने अधिकार आम भीरु, डरपोक औरत, चाहे वह धन्ना सेठ की बेटी या बीवी ही क्यों न हो, से ज्यादा अपने अधिकारों को जानती हैं.

इंडोनेशिया जैसे मुसलिम देश में पाकिस्तानी और पश्चिमी एशिया जैसा इसलाम नहीं है. वहां काफी छूट है पर धर्म के दुकानदार औरतों को बंद कर के आदमियों को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं.

औरतों पर इस तरह का लूज कैरेक्टर का आरोप लगा कर असल में मर्दों को छूट दी जाती है कि वे उन से जब चाहें सैक्स कर लें, पत्नी बना कर खाना बनवा लें, बच्चे पैदा करने की मशीन बना लें, घर की लीपापोती की चौकीदारी करवा लें. बदले में धर्म आदमी की आय का मोटा हिस्सा लेता है और उन्हें धर्म के नाम पर मरनेमारने को तैयार करता है. शासक धर्म को समर्थन देते हैं, क्योंकि तभी उन्हें वे सैनिक मिलते हैं, जो बिना कारण किसी को भी शासक के कहने पर दुश्मन मान कर उस की हत्या करने को तैयार हो जाते हैं और इस चक्कर में खुद भी चाहे मर जाते हैं.

नैतिकता का जितना ढोल पीटा जाता है वह धर्मों के दुकानदारों द्वारा पीटा जाता है, जबकि वाराणसी, उज्जैन जैसी धर्म की बड़ी मंडियां औरतों के बाजारों की मंडियां भी हैं. धर्म को औरतों की रक्षा और नैतिकता की चिंता कभी होती तो न चुड़ैलें, डायनें होतीं, न विधवाओं को सिर मुंडवा कर व सफेद कपड़ों में रहना होता, न सतीप्रथा होती और न औरतें संपत्तिविहीन होतीं. नैतिकता का हनन करने का दोषी अगर कोई है तो वह औरत नहीं जो 4 पैसों के लिए कपड़े उतारती है, वह मर्द है जो 4 पैसे देता है कि औरत कपड़े उतारे.

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इम्मोरल ट्रैफिकिंग ऐक्ट में वैसे यह बात कुछ हद तक मापी गई पर जमीनी हकीकत यही है कि औरतों के अपहरण, रेप, वेश्यावृत्ति, अश्लील फिल्मों सब के लिए दोषी पुलिस औरतों को भी मानती है.

सुप्रीम कोर्ट ने यदि कोई अच्छा निर्णय दे भी दिया तो उसे कभी लागू नहीं किया जाएगा. लागू करने की ताकत तो शासकों की पोशाक पहने धर्म के दुकानदारों और उन के रक्षकों के हाथ में ही है. 33 जजों का सुप्रीम कोर्ट चाहे जो कहता रहे 3 करोड़ पंडेपुजारी उन पर भारी पड़ेंगे. वे भी औरतों से खानापीना और शारीरिक सुख पाते हैं न, बिना नैतिकता खोए, बिना कोई कीमत चुकाए.

भरोसा खुद पर करें ईश्वर पर नहीं

अमीर देशों में धार्मिक अंधविश्वास कम होते हैं और गरीब देशों में ज्यादा. इसी तरह अमीर लोग कम अंधविश्वासी होते हैं और गरीब लोग ज्यादा. 109 देशों के पूरे 20वीं सदी के आंकड़ों को जांच कर यह गुत्थी सुलझाने की कोशिश की गई कि अंधविश्वास पैसा आने के बाद कम होते हैं या पैसा आता ही तब जब अंधविश्वास कम हों.

यूनिवर्सिटी औफ ब्रिस्टल व यूनिवर्सिटी औफ टैनिसी के शोधकर्ताओं का मानना है कि अंधविश्वासों में कमी ही देश, राज्य, समाज या घर की आर्थिक प्रगति के लिए जिम्मेदार है. आर्थिक प्रगति से अंधविश्वासों में कमी हो जाएगी यह गलत धारणा है.

यह स्वाभाविक है कि जो लोग हरेक सुख के लिए ईश्वर को धन्यवाद देने के आदी हो जाते हैं वे सबकुछ ईश्वर के पूजापाठ पर छोड़ देते हैं. जिन्हें खुद पर विश्वास होता है उन्हें ईश्वर से कोई अपेक्षा नहीं होती और वे मेहनत कर के उत्पादन करते हैं.

हमारे देश में उत्तर प्रदेश, बिहार गरीब हैं क्योंकि ये ही देश के तीर्थस्थलों के केंद्र हैं. गंगा के किनारे हर 100 मीटर पर एक घाट बना है. कुछ मील पर मंदिरों का शहर है. हर शहर बदबूदार है. हर शहर में गंद है. हर शहर में बेईमानी है. हर शहर में तीर्थयात्रियों की भरमार है. लोग अपने काम अधूरे छोड़ कर पुण्य कमाने और ईश्वर को खुश करने यहां आते हैं.

हां, हमारे यहां बहुत से अमीर भी अति धार्मिक हैं पर यह याद रखिए कि इन धार्मिक अमीरों में 99% सरकारी कृपा पर पनप रहे हैं. उन के उद्योगों और आशाराम के आश्रमों में फर्क नहीं है. वे उद्योगपति कम हैं, सरकार व जनता को बहका कर लूटे पैसे के संरक्षक ज्यादा. दुनियाभर में भारतीय ब्रैंड नाम कहीं नहीं बिकता.

खाड़ी के देशों में भरपूर तेल है पर उस पैसे का पिछले 100 सालों में क्या हुआ? वहां की अंधविश्वासी जनता ने उसे नष्ट कर डाला. हिटलर बेहद अंधविश्वासी था. उस ने यहूदियों के धर्म को समाप्त करने के लिए नया धर्म बना लिया था. नतीजा यह हुआ कि अपने खनीजों और लोगों की मेहनत को दूसरे विश्वयुद्ध में स्वाहा कर दिया. आज वहां चर्च बंद हो रहे हैं और पैसा बरस रहा है. अमेरिका में धर्म का बोलबाला बढ़ रहा है और वह नास्तिक चीन से पिछड़ने लगा है.

यह घरघर की कहानी है. सिर्फ अंधविश्वास और प्रगति अकेले फैक्टर नहीं होते, सुखसमृद्धि के. दूसरी बातें भी होती हैं. कहीं प्राकृतिक भंडार होते हैं, कहीं राजनीतिक अस्थिरता होती है, कहीं पैसे और पूंजी की मौलिक कमी होती है, तो कहीं पड़ोसी देश का आक्रमण होता है. वैसे ही आत्मविश्वासी भी कई बार सफल नहीं होते, क्योंकि बीमारी आ सकती है, प्रतियोगी दांवपेंच रच सकता है.

पर यह सोचना कि 4 घंटे पूजा करने, साल में 4 बार वैष्णो देवी या तिरुपति जाने से धनधान्य बरसने लगेगा, गलत है. पैसे वाले जो लूट का खाते हैं, वे तो जाएंगे पर लूटने के अवसर हरेक को थोड़े मिलते हैं?

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