प्रोडक्टिविटी में पिछड़ क्यों गई आधी आबादी

हाल ही में एक ईकौमर्स कंपनी ने अपने विज्ञापन के लिए अलगअलग उम्र की 30 महिलाओं और पुरुषों के साथ एक सोशल ऐक्सपैरिमैंट किया, जिस में उन से कई तरह के सवाल पूछे गए. इस के तहत अगर जवाब ‘हां’ होता तो उन्हें एक कदम आगे बढ़ाना था और अगर ‘न’ होता तो एक कदम पीछे जाना था.

जब तक उन से सामान्य सवाल जैसे साइकिल चलाने, खेल खेलने, संगीत, कपड़े प्रैस करने या फिर चायनाश्ता बनाने से जुड़े सवाल पूछे गए तब तक महिलाएं पुरुषों के मुकाबले में बराबरी पर थीं, लेकिन जब बिल पेमैंट, सैलरी ब्रेकअप, बीमा पौलिसी, बजट, निवेश, म्यूचुअल फंड, इनकम टैक्स से जुड़े सवाल पूछे गए तो महिलाओं और पुरुषों के बीच का फासला इतना बढ़ गया कि अंत में केवल पुरुष ही अगली कतार में खड़े नजर आए.

भारतीय शेयर बाजार में बाकी देशों की तुलना में पुरुषों और महिलाओं के बीच फासला साफ नजर आएगा. ब्रोकरचूजर के आंकड़ों में पाया गया कि भारत में हर 100 निवेशकों में से सिर्फ 21 निवेशक ही महिलाएं हैं यानी उन की तादाद 21% ही है. वैसे भी पारंपरिक रूप से परिवारों में जो भी आर्थिक मामले होते हैं ज्यादातर उन का फैसला घर के पुरुष सदस्य ही करते हैं.

दरअसल, इस की वजह महिलाओं द्वारा इन विषयों में रुचि नहीं लेना है. बचपन से ही घर का माहौल कुछ ऐसा रहता है कि लड़कियां आर्थिक मसलों से जुड़े कामों या फैसलों से दूर ही रहती हैं. वे इन का दारोमदार पूरी तरह अपने पिता, भाइयों या फिर शादी के बाद पति पर छोड़ कर निश्चिंत हो जाती हैं. अपनी, घर की या देश की इनकम बढ़ाने के बारे में सामान्यतया ज्यादातर महिलाएं सोचती भी नहीं. वे खुद को घरगृहस्थी के कामों में उलझए रखती हैं और इस तरह कहीं न कहीं वे खुद के साथ ही नाइंसाफी करती हैं.

रोजगार की स्थिति

इस मामले में यह समझना भी जरूरी है कि देश में महिलाओं के रोजगार की भी स्थिति कुछ ऐसी ही है. वर्ल्ड बैंक के 2020 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट सिर्फ 18.6 फीसदी है. लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन यानी कामकाजी उम्र की कितनी फीसदी महिलाएं काम कर रही हैं या काम की तलाश में हैं.

अगर महिलाओं के आसपास ऐसे लोग हों जो ‘ये सब तुम से नहीं होगा’ कहने की जगह उन का समर्थन करें, उन्हें जौब या बिजनैस करने को प्रेरित करें और उन के सारे सवालों के जवाब दें तो महिलाएं सबकुछ ज्यादा बेहतर समझ पाएंगी और संभाल पाएंगी. पर आम घरों में होता कुछ और है. लड़कियों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि औरतों का काम घर, किचन और बच्चे संभालना है.

धीरेधीरे उन के दिमाग में यही बात बैठ जाती है और वे इस से ऊपर कुछ सोचना ही नहीं चाहतीं. उन्हें लगता है कि घर के कामों के साथ वे औफिस के काम नहीं संभाल सकतीं, इसलिए जौब की बात सोचना भी बेमानी है. वे अपना समय घरगृहस्थी और इधरउधर की बातों में ही व्यतीत करने की आदी हो जाती हैं और बेमतलब के कामों में अपना समय बरबाद करती रहती हैं.

किस काम की शिक्षा

बलविंदर कौर एक स्मार्ट और खूबसूरत महिला हैं. उम्र 45 साल है, 2 जवान बच्चों की मां हैं, लेकिन कोई उन्हें 30 साल से ज्यादा का नहीं कहता. वह रोज सुबह 6 बजे नहाधो कर, बढि़या से तैयार हो कर, फुल मेकअप में खुद कार ड्राइव कर के गुरुद्वारे जाती हैं. करीब घंटाभर वहां सिर पर दुपट्टा रख कर श्रद्धाभाव से सामने गाए जा रहे भजनों को सुनती हैं और फिर प्रसाद ले कर घर आ जाती हैं.

सालों से उन का यही रुटीन है. शादी हो कर आई थीं तो यह नियम उन की सास ने बंधवाया था. पहले सास के साथ गुरुद्वारे जाती थीं, उन की मृत्यु के बाद अब अकेले जाती हैं. वही रास्ता, वही गुरुद्वारा और वही 4-5 भजन जो उलटपलट कर गाए जाते हैं. इस में उन के सुबह के 3-4 घंटे बरबाद हो जाते हैं.

बलविंदर कौर अपने स्वास्थ्य के प्रति काफी सचेत रहती हैं, इसलिए शाम का समय उन का पार्क में सहेलियों के साथ व्यायाम करते हुए बीतता है. दिन में उन का समय टीवी पर मनपसंद फैमिली ड्रामा देखते या किसी किट्टी पार्टी में गुजर जाता है. उन के पति का चांदनी चौक में कपड़ों का बड़ा व्यापार है. पैसे की कमी नहीं है. घर में 3 गाडि़यां हैं, 2 फुलटाइम नौकर हैं. बलविंदर कौर को घर का कोई काम नहीं करना पड़ता है.

वे एमए पास हैं. कालेज खत्म करते ही शादी हो गई. शादी के बाद न तो उन से किसी ने नौकरी करने के लिए कहा और न उन की खुद की इच्छा नौकरी करने की हुई.

सवाल यह कि बलविंदर कौर ने उच्च शिक्षा क्यों प्राप्त की? क्यों अपनी शिक्षा में मातापिता का लाखों रुपया खर्च करवाया जब उस शिक्षा से कोई प्रोडक्टिव कार्य नहीं होना था? जब उस शिक्षा से समाज और देश को कोई फायदा नहीं होना था?

सरकारी योजनाओं का क्या लाभ

दिल्ली की पौश कालोनियों के फ्लैट सिस्टम में रह रही महिलाओं की दिनचर्या पर नजर दौड़ाएं तो 10 में से कोई एक महिला मिलेगी जो किसी संस्थान में कार्यरत होगी, जिस की शिक्षा का सही उपयोग हो रहा होगा वरना बाकी 9 महिलाओं का सारा समय पूजापाठ, व्रतत्योहार, शौपिंग या किट्टी पार्टियों में ही जाया होता है.

उच्च मध्यवर्गीय परिवार की ये तमाम महिलाएं उच्च शिक्षा प्राप्त होती हैं. देश के तमाम प्रशासनिक अधिकारियों, मंत्रियों की पत्नियां बड़ीबड़ी शैक्षणिक डिगरियों के बावजूद पूरा जीवन घर की चारदीवारी में परिवार और बच्चों की देखभाल में बिता देती हैं. उन की शिक्षा का कोई फायदा देश को नहीं हो रहा है.

सरकारी आंकड़ों की मानें तो वर्तमान समय में देश में महिलाओं की साक्षरता दर 70.3% है. शहरी क्षेत्रों की ही नहीं बल्कि गांवदेहात की लड़कियां भी अब स्कूल जा रही हैं. शिक्षा के क्षेत्र में लड़कियां लड़कों से अच्छा प्रदर्शन भी करती हैं. 2-3 दशकों के हाई स्कूल और इंटरमीडिएट के रिजल्ट उठा कर देख लें लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों से बेहतर ही रहा है.

लेकिन उन की शिक्षा से देश या समाज को क्या फायदा हो रहा है? लड़कियों को शिक्षा क्यों दी जा रही है? लड़कियां ऊंची डिगरियां क्यों प्राप्त कर रही हैं? शिक्षा का उन के आने वाले जीवन में क्या उपयोग हो रहा है? ऐसे बहुतेरे सवाल हैं जिन के जवाब हतोत्साहित करने वाले हैं.

शिक्षा का मतलब शादी नहीं

भारत में आमतौर पर सामान्य मध्यवर्गीय परिवार अपनी बेटी को ग्रैजुएट इसलिए बनाते हैं ताकि उस की किसी अच्छे परिवार में शादी हो सके. 10 में से 7 परिवारों की लड़कियों की शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ अच्छी शादी तक ही सीमित होता है.

गांवदेहात की लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो सरकारी प्रयास से आंगनबाड़ी केंद्रों और प्राथमिक शिक्षा संस्थानों में अब लड़कियों की तादाद बढ़ रही है. यह इस कारण भी है क्योंकि सरकार स्त्री शिक्षा का आंकड़ा बढ़ाने और अपनी पीठ थपथपाने के लिए अनेक योजनाएं चला रही है जिस के लालच में बच्चियां स्कूल आने लगी हैं.

गरीब बच्चों को मिड डे मील का लालच, फ्री यूनिफौर्म, फ्री किताबें, फ्री स्टेशनरी बैग, छात्रवृत्ति का पैसा, इन के लालच में मांबाप अब बेटियों को भी स्कूल भेजने लगे हैं. कन्याश्री योजना में 13 वर्ष से 18 वर्ष के बीच की लड़कियों के लिए 750 रुपए की छात्रवृत्ति दी जाती है. 18 से 19 वर्ष के बीच की लड़कियों के लिए 25 हजार रुपए का एकमुश्त अनुदान दिया जाता है.

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, बालिका समृद्धि योजना, धनलक्ष्मी योजना, लाड़ली स्कीम, भाग्यश्री योजना, कन्याश्री प्रकल्प योजना जैसी सैकड़ों योजनाएं देशभर में चल रही हैं जिन के माध्यम से लड़की के खाते में सरकार पैसे डालती है. यह लालच लड़कियों को स्कूल तक लाता है. मगर ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियां 8वीं या 10वीं तक पहुंच पाती हैं कि उन की शादियां हो जाती है.

पढ़ालिखा सब भूल जाती हैं

शादी के बाद उन्हें खेतों में वही काम करना है जो उन की ससुराल की अन्य अनपढ़ औरतें कर रही हैं. ससुराल जा कर वे अपनी शिक्षा को आगे नहीं बढ़ा पातीं हैं बल्कि चूल्हाचौका करने, बच्चे पैदा करने और उन की परवरिश में अगले कुछ सालों में वह पढ़ालिखा सब भूल जाती हैं. तो ऐसी शिक्षा देने का क्या फायदा? सरकार जो करोड़ों रुपए तमाम योजनाओं पर लुटा रही है उस से देश को क्या मिल रहा है?

आखिर क्या वजहें हैं जो लड़कियों को काम करने से रोकती हैं?

धर्म और कर्मकांड: लड़कियों की शिक्षा पर हुए निवेश को उत्पादन में नहीं बदला जा पा रहा है, इस की सब से बड़ी बजह है धर्म. धर्म ने भारतीय समाज को इतना कुंठित और संकीर्ण बना दिया है कि वह स्त्री को आजादी नहीं देना चाहता है. धर्म, कर्मकांड, व्रत, पूजा, त्योहार की ऐसी बेडि़यां उस के पैरों में डाल दी हैं कि पढ़लिख कर भी वह उन से मुक्त नहीं हो पा रही है. सारे धार्मिक कर्मकांड उस के सिर मढ़ दिए गए हैं. सारे व्रत उसे ही करने हैं.

मंदिर के भगवान से ले कर घर के बुजुर्गों तक की सेवा की जिम्मेदारी उसी की है. सालभर होने वाले त्योहारों में बढि़याबढि़या पकवान बनाने की जिम्मेदारी उसी की है. शादी के बाद वंश बढ़ाने की जिम्मेदारी उस की है. पति की सेवा उसे करनी है. बच्चों की परवरिश उसे करनी है. सारे संस्कार उसे निभाने हैं.

ऐसे में एक पढ़ीलिखी महिला घर से निकल कर नौकरी करने और अपनी शिक्षा के सदुपयोग करने के बारे में सोच भी नहीं पाती. सिर्फ उन्हीं परिवारों की महिलाएं घर और बाहर दोनों जगहों पर काम करने की जिम्मेदारी उठाती हैं जहां पैसे की कमी होती है. तब वहां उन के पैरों में डाली गई धार्मिक बेडि़यों को थोड़ा ढीला कर दिया जाता है.

औरत को जिम्मेदारी से दूर रखना: बचपन से ही परिवार के लोग लड़कियों और लड़कों से अलगअलग व्यवहार करते हैं. लड़कों को पढ़ाई के लिए डांटाफटकारा जाता है. उन्हें यह एहसास कराया जाता है कि अगर अच्छे नंबर नहीं आए तो आगे चल कर अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी और तुम घर की जिम्मेदारी ठीक से नहीं उठा पाओगे. समाज में खानदान में क्या मुंह दिखाओगे?

लड़कों को इस भावना के साथ बड़ा किया जाता है कि परिवार को पालना उन का फर्ज है. मगर लड़की को कभी यह नहीं कहा जाता है कि तुम्हें परिवार की जिम्मेदारी उठानी है, इसलिए अच्छी तरह पढ़ाई करो ताकि अच्छी नौकरी मिलें. लड़कियों को इस भावना के साथ बड़ा किया जाता है और पढ़ाया जाता है कि उन की अच्छे परिवार में शादी हो जाए. लड़का और लड़की दोनों की पढ़ाई पर बराबर का खर्च करने के बावजूद लड़के की शिक्षा उत्पादन में बदल जाती है, मगर लड़की की शिक्षा बेकार चली जाती है.

औरत को आश्रित बनाए रखना: भारतीय समाज में धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष के अधीन रहने और उस पर आश्रित रहने के लिए मजबूर किया है. भारतीय परिवार अपनी बेटियों को बेटों के समान शारीरिक रूप से बलिष्ठ होने का अवसर नहीं देते हैं. वे उन्हें कसरत करने के लिए कभी उत्साहित नहीं करते. आउटडोर गेम्स में उन्हें हिस्सा नहीं लेने देते हैं, बल्कि वे लड़कियों को दुबलापतला, शर्मीला, संकोची, कम बोलने वाली, गऊ समान भोली और दबीढकी बनाना चाहते हैं ताकि ससुराल में वे तमाम जिम्मेदारियां उठाने और प्रताडि़त करने पर भी आवाज न निकालें बल्कि चुपचाप सबकुछ सहन करें.

औरत के काम को महत्त्व न देना: आदमी कोई छोटीमोटी नौकरी ही करता हो, कम कमाता हो, मगर जब वह शाम को घर लौटता है तो उस को टेबल पर चाय मिलती है, बनाबनाया खाना मिलता है, धुले कपड़े मिलते हैं और मांबाप गाते हैं कि उन का बेटा कितनी मेहनत करता है. वहीं घर की बहू जब दफ्तर से लौटती है तो कोई उस को एक गिलास पानी भी नहीं पूछता. घर लौट कर वह सब के लिए चायनाश्ता बनाती है, खाना बनाती है, पति और बच्चों के कपड़े प्रैस करती है आदिआदि अनेक काम निबटाती है, लेकिन उस की तारीफ में कोई एक शब्द नहीं कहता. कहने का मतलब यह कि भारतीय समाज, परिवार में औरत के काम को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है.

दोहरी जिम्मेदारी: जो महिलाएं पढ़लिख कर नौकरी करना चाहती हैं और कर रही हैं, वे अगर शादीशुदा हैं तो घर के कामों से और बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हैं. औफिस जाने से पहले और औफिस से आने के बाद घर के सारे काम उन्हें ही करने होते हैं. पति अगर पहले आ गया है तो उस से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह खाना बनाएगा या बच्चों का होमवर्क कराएगा. दोहरी जिम्मेदारी ढोने वाली वर्किंग वूमन एक समय के बाद औफिस के काम में पिछड़ने लगती है और कई बार नौकरी छोड़ देती है. इस तरह उस की पढ़ाई समाज को वह नहीं दे पाती जो देने का सपना उस ने देखा था.

‘नैशनल स्टैटिस्टिकल औफिस’ (एनएसओ) की ओर से हाल में जारी पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे जारी किया गया है. सर्वे के अनुसार देश में 15 वर्ष से ऊपर की कामकाजी जनसंख्या में महिलाओं की भागीदारी मात्र 28.7% है, जबकि पुरुषों की भागीदारी 73% है. यह स्थिति तब है जब सरकार की ओर से महिलाओं को कई तरह की सुविधाएं दी रही हैं. जैसे पेड मैटरनिटी लीव, सुरक्षा के साथ नाइट शिफ्ट में काम करने की अनुमति आदि.

भले औरतों को संविधान के तहत शिक्षा और काम का अधिकार मिला है पर उन की पढ़ाई का कोई फायदा देश या समाज को नहीं हो रहा है. उन की डिगरियां सिर्फ चूल्हा फूंकने के काम आ रही हैं. औरत की शिक्षा और उस की काबिलीयत का देश को फायदा तभी होगा जब उस के प्रति समाज की संकीर्ण सोच बदलेगी.

आइए, जानते हैं कि किन वजहों से महिलाओं का टाइम बरबाद होता है और उसे बरबाद होने से कैसे बचा सकते हैं:

बेकार के मुद्दों पर ध्यान देना: अकसर महिलाएं दूसरी महिलाओं की चुगली, ताकाझंकी या फिर बुराइयां करने में घंटों समय बरबाद कर देती हैं. संभ्रांत घर की महिलाएं अकसर अपना समय किट्टी पार्टी या फिर धार्मिक कार्यक्रमों को अटैंड करने जैसे गैरजरूरी कामों में बरबाद करती हैं. बेकार के मुद्दों के चक्कर में भी उन का बहुत सा टाइम बेकार चला जाता है और वे जरूरी और प्रोडक्टिव काम पर ध्यान नहीं दे पातीं.

पूजापाठ में समय की बरबादी: एक और चीज जिस में महिलाएं ही सब से ज्यादा समय बरबाद करती हैं या फिर यह कहिए कि उन से करवाया जाता है वह है पूजापाठ के तमाम तामझम. महीने में 10 दिन तो कोई न कोई व्रत ही रहता है. करीब 20 दिन कुछ न कुछ स्पैशल पूजा करनी होती है. कभी व्रत, कभी उपवास, कभी मंदिर जाना, कभी पंडित को खाना खिलाना, कभी घर में यज्ञ करवाना, कभी पारंपरिक तरीके से दिनभर की पूजा, कभी पूजा सामग्री ले कर आना, कभी पूजा की तैयारियां करनी और कभी पूजा में बैठना यानी इस पूजा के चक्कर में वे जीना या कुछ उपयोगी काम करना ही भूल जाती हैं.

कैसे बढ़ाएं प्रोडक्टिविटी

औफिस और घर के कामों को मैनेज करने में और अपनी प्रोडक्टिविटी बढ़ाने में ये टिप्स बेहद कारगर साबित होंगे:

तनावमुक्त रहें: तनाव में काम करने से हमारी प्रोडक्टिविटी क्वालिटी और क्वांटिटी दोनों मोरचों पर गिरती है. इसलिए जब भी काम करें तो तनावमुक्त रहें. अगर आप तनावमुक्त नहीं हो पा रही हैं तो काम से कुछ दिनों की छुट्टी ले लें.

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में साइकोलौजी के प्रोफैसर मैथू किलिंजवोर्थ कहते हैं कि दिमाग की शांति हमारे मूड से जुड़ी होती है. हमारा दिमाग जितना शांत रहेगा, हम उतने ही खुश रहेंगे. हम जितना खुश रहेंगे हमारी प्रोडक्टिविटी उतनी ही बेहतर होगी.

बेहतर होगा की महिलाएं घर के तनाव घर में ही छोड़ कर आएं और मन में किसी तरह की गिल्ट न रखें. आखिर बच्चों को बेहतर भविष्य देने और अपना कैरियर बनाने के लिए ही वे बाहर आई हैं तो उस समय का भरपूर उपयोग करें.

पहले से कर लें प्लानिंग: जीवन में आगे बढ़ने के लिए टाइम मैनेजमैंट बहुत जरूरी है. अपना वक्त कहीं भी जाया न करें और अपने काम और टारगेट पर ध्यान दें. वर्कप्लेस पर सोशल मीडिया या अपने साथियों के साथ बातों में ज्यादा समय न गंवाएं. इसी तरह घर में भी फालतू के सीरियल्स देखने, सहेलियों से फोन पर बातें करने या छोटीछोटी बातों पर तनाव लेने और लड़नेझगड़ने के बजाय दिमाग को काम पर फोकस रखें. आप टाइम मैनेजमैंट कर के अपने समय को बचा सकती हैं और अपनी प्रोडक्टिविटी बढ़ा सकती हैं.

जिम्मेदारियां बांटें: अपनी जिंदगी को आसान बनाने और औफिस में प्रेजैंटेबल रहने के लिए घर के काम और जिम्मेदारी को अपने पार्टनर के साथ बांट लें. सिर्फ पार्टनर ही नहीं घर के सभी सदस्यों में अपने काम खुद निबटाने की आदत डलवाएं. इस से आप पर काम का बोझ नहीं पड़ेगा, आप का काम बंट जाएगा और आप को कुछ समय खुद के लिए मिल जाएगा, साथ ही एकदूसरे की फिक्र का जज्बा आप को एकदूसरे के और करीब लाएगा.

जो जरूरी हो उसे पहले करें: जो काम बहुत जरूरी हो उसे पहले करें. अगर औफिस की ओर से कोई नया प्रोजैक्ट मिला हो तो इसे पहले अहमियत दें. यानी औफिस के काम के दबाव के बीच आप इस दिन समय बचाने के लिए खाना बाहर से और्डर कर सकती हैं. वहीं अगर घर में आप के बच्चे को आप की ज्यादा जरूरत है तो इस दिन आप औफिस से जल्दी छुट्टी ले कर घर आ सकती हैं.

विकल्प ढूंढें़: आज के समय में महिला चाहे तो किचन के काम करने और गप्प मारने के अलावा भी उन के पास अनगिनत काम हैं. नैट और टैक्नोलौजी का जमाना है. औनलाइन तरहतरह के कोर्स सीख सकती हैं, अपना बिजनैस शुरू कर सकती हैं, औनलाइन क्लासैज ले सकती हैं, जौब कर सकती हैं, घर बैठे पत्रिकाएं और किताबें पढ़ कर हर तरह का ज्ञान अर्जित कर सकती हैं. फोन पर या किसी सहेली के सामने दूसरों की निंदा, चुगली कर के मन की भड़ास निकालने और व्यर्थ गप्पें मार कर समय बरबाद करने से बेहतर है काम कर के इनकम बढ़ाना.

यही नहीं वे खुद के लिए समय निकाल सकती हैं. मनन, चिंतन और आत्मविश्लेषण से अपना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी सुधारा जा सकता है जो उन के जीवन को साधारण से असाधारण बनाने की दिशा में उत्तम कदम है. शौपिंग, गपशप और घूमना तो क्षणिक खुशी का साधन है. आजकल तो नैट के अलावा घर के आसपास ही दुनियाभर की दिलचस्प व सार्थक गतिविधियां होती रहती हैं. नजर और नजरिए का दायरा खोलने की ही तो देर है.

स्वावलंबी बनना है जरूरी

बढ़ती महंगाई और कोविड-19 ने सब को जता दिया कि नौकरी या व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनना आज के दौर में बहुत जरूरी है. महिलाएं आज उच्च शिक्षित और रोजगारपरक हो गई हैं, ऐसे में उन के सपनों को वे आत्मनिर्भर बन कर खुद को साबित करना चाहती हैं. इस में किसी तरह की दखलंदाजी उन्हें पसंद नहीं. इस के अलावा नौकरी करने वाली महिलाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से अप टू डेट रहती हैं. वे खुद का बेहतर खयाल शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से रख पाती हैं.

इतना ही नहीं आर्थिक रूप से सशक्त महिलाओं ने पुरुषों के महिलाओं के प्रति व्यवहार को भी काफी हद तक प्रभावित किया है और पुरुषों के पैसों की धौंस भी कम हुई है. घरेलू महिलाओं की तरह उन्हें अपनी पसंद की चीजें लेने में किसी तरह का कोई समझता नहीं करना पड़ता. आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होने की स्थिति में बहुत बार महिलाओं को परिवार का दुर्व्यवहार सहने के लिए विवश होना पड़ता है, जबकि नौकरी वाली महिलाएं ऐसे समय में सबल होती हैं और अपने जीवन का निर्णय खुद ले सकती हैं.

महिलाओं में उच्च शिक्षा

साइकोलौजिस्ट राशीदा कपाडिया इस बारे में कहती हैं कि अभी अधिकतर महिलाएं उच्च शिक्षित हो रही हैं, ऐसे में उन की भागीदारी समाज, परिवार और आर्थिक व्यवस्था पर काफी पड़ी है. आज विश्व की तुलना में भारत में सब से अधिक महिला पायलट हैं. इस के अलावा कई बड़ी कंपनियों में भी महिलाएं सीईओ की भूमिका सफलतापूर्वक निभा रही हैं. स्पेस में महिला जा चुकी हैं.

आज महिलाएं संपूर्ण रूप से आत्मनिर्भर हैं, लेकिन समस्या यह है कि अगर वे शादी करती हैं, तो उन पर परिवार की सारी जिम्मेदारी डाल दी जाती है. मेरे पास ऐसी कई क्लाइंट आती हैं, जो सफलता हासिल करना चाहती हैं, लेकिन घर में सासससुर, खाना बना कर काम पर जाने की सलाह देते हैं, जो काफी मुश्किल होता है. पूरा दिन औफिस में काम कर सुबह 5 बजे उठना संभव नहीं होता, थकान होती है.

अगर आप की कमाई अच्छी है, तो किसी की हैल्प लेने से परहेज नहीं करना चाहिए. इस से महिला अपने कैरियर पर अच्छी तरह से फोकस्ड रहती है. आज ट्रैंड बदला है, कई कार्यालयों में भी बेबी सिटर्स मिलते हैं. कौरपोरेट वर्ल्ड ने महिलाओं के कंट्रीब्यूशन को समझ है, इसलिए सारी सुविधाएं वे देने की कोशिश करते हैं और महिलाओं के काम करने पर ही तेजी से विकास संभव है क्योंकि उन के काम का स्टाइल पुरुषों से अलग होता है. महिलाओं में मल्टीटास्किंग स्किल्स, अंडरस्टैंडिंग, टीम वर्क, टफ टाइम में निर्णय लेना आदि कई बातें हैं, जो देश को एक वंडरफुल नेशन बनाने में सक्षम होती हैं.

क्या कहते हैं आंकड़े

अगर आज आर्थिक ग्रोथ में महिलाओं की भागीदारी की बात की जाए तो दुनियाभर के देशों में अभी भी भारत काफी पीछे है. लेकिन अब महिलाएं खुद को आगे बढ़ा रही हैं, जो काफी अच्छा कदम है. आंकड़ों के अनुसार यह भी पता चला है कि जब लड़कियों का कैरियर बनाने का समय होता है तब उन की शादी कर दी जाती है.

वर्ल्ड बैंक के मुताबिक भारत में महिलाओं की नौकरी छोड़ने की दर बहुत अधिक है और एक बार पारिवारिक कारणों से नौकरी छोड़ने के बाद वे दोबारा नौकरी नहीं कर पाती हैं. अगर भारत में महिलाएं आर्थिक ग्रोथ के मामले में पुरुषों के बराबर भागीदारी दे दें तो निश्चित रूप से भारत की जीडीपी में 27% तक की वृद्धि हो जाएगी.

मैकेंजी ग्लोबल इंस्टिट्यूट की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में आर्थिक स्तर पर बराबरी के बाद तो 2025 तक जीडीपी में 770 अरब डौलर की बढ़ोत्तरी होगी. लेकिन यह तभी संभव है जब महिलाएं खुद को आर्थिक मोरचे पर पुरुषों के बराबर ले कर आएंगी.

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