Hindi Moral Tales : घुटघुट कर क्यों जीना

Hindi Moral Tales :  मुझे यह तो पता था कि वे कभीकभार थोड़ीबहुत शराब पी लेते हैं, पर यह नहीं पता था कि उन का पीना इतना बढ़ जाएगा कि आज मेरे साथसाथ बच्चों को भी उन से नफरत होने लगेगी.

मैं ने उम्रभर जोकुछ सहा, जोकुछ किया, वह बस अपने बच्चों के लिए ही तो था, मगर मैं ने कभी यह क्यों नहीं सोचा कि बड़े होने पर मेरे बच्चे ऐसे पिता को कैसे स्वीकारेंगे जो उन के लिए कभी एक आदर्श पिता बन ही नहीं पाए.

बात तब की है, जब मेरा घर कोलकाता में हुआ करता था. गरीब परिवार था. एक बहन और एक भाई थे, जिन के साथ बिताया बचपन बहुत ज्यादा यादगार था.

मुझे तालाब में गोते लगाने का बहुत शौक था. मैं पेड़ से आम तोड़ कर लाया करती थी. जिंदगी कितनी अच्छी थी उस वक्त. दिनभर बस खेलते ही रहना. स्कूल तो जाना होता नहीं था.

मम्मी ने उस वक्त यह कह कर स्कूल में दाखिला नहीं कराया था कि पढ़ाईलिखाई लड़कियों का काम नहीं है.

मैं 13 साल की थी, जब मम्मीपापा का बहुत बुरा झगड़ा हुआ था. मम्मी भाई को गोद में उठा कर अपने साथ ले गईं. कहां ले गईं, पापा ने नहीं बताया.

पापा के ऊपर अब मेरी और दीदी की जिम्मेदारी थी, वह जिम्मेदारी जिसे उठाने में न उन्हें कोई दिलचस्पी थी, न फर्ज लगता था.

वे मुझे गांव की एक कोठी में ले गए और वहां झाड़ूपोंछे के काम में लगा दिया. मुझे वह काम ज्यादा अच्छे से तो नहीं आता था, पर मैं सीख गई. दीदी भी किसी दूसरी कोठी में काम करती थीं.

हम जहां काम करती थीं, वहीं रहती भी थीं इसलिए हमारा मिलना नहीं हो पाता था. मुझे घर की याद आती थी. कभीकभी मन करता था कि घर भाग जाऊं, लेकिन फिर खयाल आता कि अब वहां अपना है ही कौन.

मम्मी ने तो पहले ही अपनी छोटी औलाद के चलते या कहूं बेटा होने के चलते भाई को थाम लिया था.

मुझे उस कोठी में काम करते हुए 2 महीने ही हुए थे जब बड़े साहब की बेटी दिल्ली से आई थीं. उन्होंने मुझे काम करते देखा तो साहब से कहा कि दिल्ली में अच्छी नौकरानियां नहीं मिलती हैं. इस लड़की को मुझे दे दो, अच्छा खिलापहना तो दूंगी ही.

बड़े साहब ने 2 मिनट नहीं लगाए और फैसला सुना दिया कि मैं अब शहर जाऊंगी.

मेरे मांबाप ने मुझे पार्वती नाम दिया था, शहर आ कर मेमसाहब ने मुझे पुष्पा नाम दे दिया. मुझे शहर में सब पुष्पा ही बुलाते थे. गांव में शहर के बारे में जैसा सुना था, यह बिलकुल वैसा ही था, बड़ीबड़ी सड़कें, मीनारों जैसी इमारतें, गाडि़यां और टीशर्ट पहनने वाली लड़कियां. सब पटरपटर इंगलिश बोलते थे वहां. कितनाकुछ था शहर में.

मेरी उम्र तब 17 साल थी. एक दिन जब मैं बरामदे में कपड़े सुखा रही थी, बगल वाले घर में काम करने वाली आंटी का बेटा मेमसाहब से पैसे मांगने आया था. वह देखने में सुंदर था, मेरी उम्र का ही था, गोराचिट्टा रंग और काले घने बाल.

मैं ने उस लड़के की तरफ देखा तो उस ने भी नजरें मेरी तरफ कर लीं. उस ने जिस तरह मुझे देखा था, उस तरह आज से पहले किसी और लड़के ने नहीं देखा था.

मेमसाहब के घर में सब बड़े मुझे बेटी की तरह मानते थे. उन के बच्चों की मैं ‘दीदी’ थी. घर में कोई मेहमान आता भी था तो मुझ जैसी नौकरानी पर किसी की नजर पड़ती भी तो क्यों? यह पहला लड़का था जिस का मुझे इस तरह देखना कुछ अलग सा लगा, अच्छा लगा.

अब वह रोज किसी न किसी बहाने यहां आया करता था. कभी आंटी को खाना देने, कभी कुछ सामान लेने या देने, कभी पैसे लौटाने और कभी तो अपने भाईबहनों की शिकायत ले कर. मैं उसे रोज देखा करती थी, कभीकभार तो मुसकरा भी दिया करती थी.

एक दिन मैं गेट के बाहर निकल कर झाड़ू लगा रही थी. तब वह लड़का मेरे पास आया और मुझ से मेरा नाम पूछा.

मैं ने उसे अपना नाम पुष्पा बताया. मैं ने उस का नाम पूछा तो उस ने अपना नाम पवन बताया.

‘हमारे नाम ‘प’ अक्षर से शुरू होते हैं,’ मुझे तो यही सोच कर मन ही मन खुशी होने लगी. उस ने मुझ से कहा कि उसे मैं पसंद हूं. मैं ने भी बताया कि मुझे भी वह अच्छा लगता है.

अब पवन अकसर मुझ से मिलने आया करता था. एक दिन जब वह आया तो साथ में एक अंगूठी भी लाया. वह सोने की अंगूठी थी. मेरी तो हवाइयां उड़ गईं. मेरे पास हर महीने मिलने वाली तनख्वाह के पैसों से खरीदी हुई एक सोने की अंगूठी थी और कान के कुंडल भी थे, लेकिन आज तक मेरे लिए इतना महंगा तोहफा कोई नहीं लाया था, कोई भी नहीं.

वैसे भी अपना कहने वाला मेरे पास था ही कौन? मेरी आंखों में आंसू थे. मैं रो पड़ी, तो उस ने मुझे गले से लगा लिया. मन हुआ कि बस इसी तरह, इसी तरह अपनी पूरी जिंदगी इन बांहों में गुजार दूं.

मैं ने पवन से शादी करने का मन बना लिया था. मेमसाहब को सब बताया तो वे भी बहुत खुश हुईं. मैं ने और पवन ने मंदिर में शादी कर ली. अब पवन मेरा सिर्फ प्यार नहीं थे, पति बन चुके थे.

हमारी शादी में उन का पूरा परिवार आया था और मेरे पास परिवार के नाम पर कोई नहीं था. मेमसाहब भी नहीं आई थीं. हां, उन्होंने कुछ तोहफे जरूर भिजवाए थे.

शादी को 2 हफ्ते ही बीते थे कि एक दिन पवन खूब शराब पी कर घर आए. उन की हालत सीधे खड़े होने की भी नहीं थी.

‘आप ने शराब पी है?’

‘हां.’

‘आप शराब कब से पीने लगे?’

‘हमेशा से.’

‘आप ने मुझे बताया क्यों नहीं?’

‘चुप हो जा… सिर मत खा. चल, अलग हट,’ कहते हुए पवन ने मुझे इतनी तेज धक्का दिया कि मैं जमीन पर जा कर गिरी. मेरी चूडि़यां टूट कर हाथ में धंस गईं.

मैं पूरी रात नहीं सो पाई. शराब पीने के बाद इनसान इनसान नहीं रहता है, यह मैं बखूबी जानती थी.

मैं ने अगली सुबह पवन से बात नहीं की तो वे शाम को भी शराब पी कर घर आए. मैं ने पूछा नहीं, पर उन्होंने खुद ही कह दिया कि मेरी मुंह फुलाई शक्ल से मजबूर हो कर पी है.

अगले दिन वे मेरे लिए गजरा ले आए. मैं थोड़ा खुश भी हुई थी, पर वह खुशी शायद मेरी जिंदगी में ठहरने के लिए कभी आई ही नहीं.

4 दिन बाद ही अचानक पवन ने काम पर जाना छोड़ दिया. कहने लगे कि मालिक ड्राइविंग के नाम पर सामान उठवाता है तो मैं काम नहीं करूंगा. एक हफ्ते अपने मांबाप के आगे गिड़गिड़ा कर पैसे मांगे और जब पैसे खत्म हो गए तो शुरू हुई हमारी लड़ाइयां.

‘मेरे पास पैसे नहीं हैं,’ पवन ने मेरी ओर देखते हुए कहा.

‘अब तो मालकिन के दिए पैसे भी नहीं हैं मेरे पास,’ मैं ने जवाब दिया.

‘मैं खुद को बेच सकता तो बेच  देता, क्या करूं मैं…’ पवन की आंखों में आंसू थे.

‘घर खर्च के लिए पैसे नहीं हैं तो क्या हुआ, मम्मीपापा दे देंगे हमें.’

‘बात वह नहीं है,’ पवन ने थोड़ा झिझकते हुए कहा.

‘फिर क्या बात है?’ मैं ने हैरानी  से पूछा.

‘वह… वह… मैं ने जुआ खेला है.’

‘जुआ…’ मैं तकरीबन चीख पड़ी.

‘हां, 10,000 रुपए हार गया मैं… कर्जदार आते ही होंगे. मुझे माफ कर दे पुष्पा, मुझे माफ कर दे. आज के बाद न मैं शराब पीऊंगा, न जुआ खेलूंगा, तेरी कसम.’

‘मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं,’ मैं ने बेबस हो कर कहा.

‘तुम्हारे कुंडल और अंगूठी तो हैं.’

एक पल को तो मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूं, लेकिन हैं तो वे मेरे पति ही, उन का कहा मैं कैसे झुठला सकती हूं. आखिर अब सिर पर परेशानी आई है तो बोझ भी तो दोनों को उठाना है. साथ भी तो दोनों को ही निभाना है.

मैं ने जिस खुशी से अपने कानों में वे कुंडल और उंगलियों में वे अंगूठियां पहनी थीं, उतने ही दुख से उन्हें उतार कर पवन के सामने रख दिया.

वे सुबह के घर से निकले थे, शाम को आए तो हाथ में मिठाई के 2 डब्बे थे. चाल डगमगाई हुई थी और मुंह से शराब की बू आ रही थी…

उस दिन पवन से जो मेरा विश्वास टूटा, वह शायद फिर कभी जुड़ नहीं पाया. मैं उन से कहती भी तो क्या… करती भी तो क्या… मेरी सुनने वाला था ही कौन.

शादी को 11 साल ही हुए थे और नमन और मीनू 10 और 8 साल के हो गए थे. पवन ने एक बार फिर काम करना शुरू तो कर दिया था, पर जो कमाते शराब और जुए में लुटा आते. मेरे हाथ में पैसों के नाम पर चंद रुपए आते जो बच्चों के लिए दूध लाने में निकल जाते.

मेरी सास कोठियों में बरतन मांजने का काम करती ही थीं, तो मैं ने सोचा कि मैं भी फिर यही काम करने लग जाती हूं. दोनों बच्चे स्कूल जाते और मैं काम पर. जिंदगी पवन के साथ कैसे बीत रही थी, यह तो नहीं पता, पर कैसे कट रही थी, यह अच्छी तरह पता था.

पवन के पिता ने अपनी गांव की जमीन बेच कर हमें दिल्ली में एक घर दिला दिया था. मैं ने काम करना भी छोड़ दिया. पवन ने पीना तो नहीं छोड़ा, पर कम जरूर कर दिया था. बच्चे भी नई जगह और नए माहौल में ढल गए थे.

हमारा गली के कोने में ही एक घर था. उस घर में रहने वाले मर्द कब पवन के दोस्त बन गए, पता नहीं चला. वे पवन के दोस्त बने तो उन की पत्नी मेरी दोस्त और उन के व हमारे बच्चे आपस में दोस्त बन गए.

वे लोग कुछ समय पहले तक बड़े गरीब थे. पर हाल के 2 सालों में उन के घर अच्छा खानापीना होने लगा. झुग्गी जैसा दिखने वाला घर अब मकान बन चुका था. वहीं दूसरी ओर पता नहीं क्यों, पर मेरे घर के हालात बिगड़ने लगे थे. पवन घर के खर्च में कटौती करने लगे थे. उन के और मेरे संबंध तो सामान्य थे, पर कुछ तो था जो अटपटा था.

एक दिन मैं गली की ही अपनी एक सहेली कमल की मम्मी के साथ बैठ कर मटर छील रही थी. हम दोनों यों ही अपनी बातों में लगी हुई थीं.

‘नमन की मम्मी, एक बात थी जो मैं कई दिनों से तुम्हें बताने के बारे में सोच रही हूं,’ कमल की मम्मी ने झिझकते हुए कहा.

‘हांहां, बोलो न, क्या हुआ?’

‘वह… मैं ने नमन के पापा को …वे उन के दोस्त हैं न जो कोने वाले घर में रहते हैं, वहां एक दिन पीछे से रात में जाते हुए देखा था.’

‘हां, तो किसी काम से गए होंगे.’

‘वह तो पता नहीं, पर मुझे कुछ ठीक सा नहीं लगा. तुम अपनी हो तो सोचा बता दूं.’

मैं ने कमल की मम्मी की बातों पर विश्वास तो नहीं किया, पर वह बात मेरे दिमाग से निकल भी नहीं रही थी.

एक हफ्ता बीत गया, पर मुझे कुछ गड़बड़ नहीं लगी और पवन से सामने से कुछ भी पूछना मुझे सही नहीं लगा. आखिर पवन जैसे भी थे, बेवफा नहीं थे, धोखेबाज नहीं थे. वे मुझे इतना प्यार करते थे, मैं सपने में भी ऐसा कुछ नहीं सोच सकती थी.

अगली सुबह घर से निकलते वक्त पवन ने कहा कि वे रात को घर नहीं आएंगे, काम ज्यादा है औफिस में ही रुकेंगे.

रात के 2 बज रहे थे. बच्चे पलंग पर मेरे साथ ही सो रहे थे. मेरे मन में पता नहीं क्या आया, मैं उठी और मेरे पैर अपनेआप ही उस घर की तरफ मुड़ गए, जहां हमारे वे पड़ोसी रहते थे.

मैं घबराई, डर लग रहा था, पर मन में बारबार यही था कि जो मेरे दिमाग में है, वह बस सच न हो.

मैं ने उस घर के बाहर जा कर दरवाजा खटखटाया. अंदर से कुछ आवाज आई, पर किसी ने दरवाजा नहीं खोला. मैं आगे वाले दरवाजे पर गई, फिर दरवाजा खटखटाया. इस बार दरवाजा खुल गया.

अंदर से वह औरत नाइटी पहने आई. उस के पति भी उस के साथ थे. मेरी जान में जान आ गई. जो मैं सोच रही थी, वह सच नहीं था.

‘क्या हुआ नमन की मम्मी, इतनी रात गए आप यहां? सब ठीक तो है न?’

‘हां, वह नमन के पापा घर पर नहीं थे. जरा उन्हें फोन कर के पूछ लीजिए, मुझे संतुष्टि हो जाएगी.’

‘जी, अभी करता हूं फोन,’ उन्होंने हिचकिचाते हुए कहा.

उन्होेंने फोन मिलाया तो मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई. फोन की घंटी की आवाज पिछले कमरे से आ रही थी. वे वहीं थे.

मैं तेजी से उस कमरे की तरफ गई. पवन अधनंगे मेरे सामने खड़े थे. मेरी आंखों से आंसू फूट पड़े. मेरी दुनिया उस एक पल में रुक सी गई.

‘यह क्या धंधा लगा रखा है यहां… यह है आप का काम… यहां जा रही है आप की सारी कमाई… यह है आप की ऐयाशी…’

मेरी हालत उस पल में क्या थी, यह तो शायद ही मैं बयां कर पाऊं, लेकिन जवाब में पवन ने जो कहा, वह सुन कर मुझ में बचाखुचा जो आत्मसम्मान था, जो जान थी, सब मिट्टी में मिल गए.

‘इस में गलत क्या है? तुझ में बचा ही क्या है. तुझे जाना है तो सामान बांध कर निकल जा मेरे घर से,’ पवन कपड़े पहनते हुए बोले.

मैं वहां से निकल गई. घर आई तो खुद पर अपने वजूद पर शर्म आई. मन तो किया कि सब छोड़छाड़ कर भाग जाऊं कहीं, मर जाऊं कहीं जा कर. पर बच्चों की शक्ल आंखों के सामने आ गई. उन्हें छोड़ कर मर गई तो वह कुलटा मेरे बच्चों को खा कर अपने बच्चों का पेट पालेगी. नहीं, मैं नहीं मरूंगी, मैं नहीं हारूंगी.

अगले दिन पवन घर आए तो न मैं ने उन से बात की और न उन्होंने. उन्हें खाना बना कर दिया जरूर, लेकिन वैसे ही जैसे घर की नौकरानी देती है.

अगले ही दिन जा कर मैं फिर से अपने काम पर लग गई. उस औरत का चक्कर तो पवन के मम्मीपापा के कानों तक पहुंचा तो उन्होंने छुड़वा दिया, लेकिन इस से मुझे क्या फर्क पड़ा,

पता नहीं.

शायद, मैं बहुत खुश थी क्योंकि पति तो आखिर पति ही है, वह चाहे कुछ भी करे. रिश्ते यों ही खत्म तो नहीं हो सकते न.

पवन ने मुझे से माफी मांगी तो मैं ने उन्हें कुछ दिनों में माफ भी कर दिया. जिंदगी पटरी पर तो आ गई थी, पर टूटी और चरमराई पटरी पर…

नमन और मीनू दोनों अब 22 साल और 24 साल के हैं. उन की मां आज भी कोठी मैं बरतन मांजती है. सिर के ऊपर अपनी छत नहीं है, क्योंकि बाप तो पहले ही उसे बेच कर खा गया. दोनों ने किसी तरह अपनी पढ़ाई पूरी की, यहांवहां से पैसे कमाकमा कर.

पवन की तो खुद की नौकरी का कोई ठिकाना तक नहीं है, कभी पी कर चले जाते हैं तो धक्के मार कर निकाल दिए जाते हैं. जिस उम्र में लोगों के बच्चे कालेज में पढ़ाई करते हैं, मेरे बच्चों को नौकरी करनी पड़ रही है. यह दुख मुझे खोखला करता है, हर दिन, हर पल.

हां, लेकिन मेरे बच्चे पढ़ेलिखे हैं. मेरा बेटा शराब या जुए का आदी नहीं है और न ही मेरी बेटी को कभी अपनी जिंदगी में किसी के घर में जूठे बरतन मांजने पड़ेंगे. वह मेरी तरह कभी रोएगी नहीं, घुटेगी नहीं उस तरह जिस तरह मैं घुटघुट कर जी हूं.

पवन एक जिम्मेदार बाप नहीं बन सके, मैं शायद जिम्मेदार मां बन गई. पवन से बैर करूं भी तो क्या, उन्होंने मुझे नमन और मीनू दिए हैं, जिस के लिए मैं उन की हमेशा एहसानमंद रहूंगी, लेकिन जिस जिंदगी के ख्वाब मैं देखा करती थी, वह हाथ तो आई, पर कभी मुंह न लगी.

‘‘सुन लिया तू ने. अब मैं सो जाऊं?’’

‘‘बस, एक सवाल और है.’’

‘‘पूछ…’’

‘‘आप ने जिंदगीभर इतना कुछ क्यों सहा? पापा को छोड़ क्यों नहीं दिया? मैं आप की जगह होती तो शायद ऐसे इनसान के साथ कभी न रहती.’’

‘‘मैं 12 साल की थी तो दुनिया से बहुत डरती थी, लेकिन ऐसे दिखाती थी कि चाहे शेर भी आ जाए तो मैं शेरनी बन कर उस से लड़ बैठूंगी. पर मैं अंदर ही अंदर बहुत डरती थी. तेरे पापा इस दुनिया के पहले इनसान थे जिन्होंने मेरे डर को जाना था.

‘‘जब मैं ने उन्हें जाना तो लगा कि इस भीड़ में कोई अपना मिल गया है. उन की आंखों में मेरे लिए जो प्यार था, वह कहीं और नहीं था.

‘‘जब मेरे सपने बिखरे, जब उन्होंने मुझे धोखा दिया, जब उन्होंने मुझे अनचाहा महसूस कराया, तो मैं फिर अकेली हो गई, डर गई थी मैं.

‘‘कभीकभी तो लगता था घुटघुट कर जीना है तो जीया ही क्यों जाए, पर जब तुम दोनों के चेहरे देखती तो लगता था, जैसे तुम ही हो मेरी हिम्मत और अगर मैं टूट गई तो तुम्हें कैसे संभालूंगी.

‘‘तुम दोनों मुझ से छिन जाते या मेरे बिना तुम्हें कुछ हो जाता, मैं यह बरदाश्त नहीं कर सकती थी. तो बस जिंदगी जैसी थी, उसे अपना लिया मैं ने.’’

Latest Hindi Stories : ताजपोशी

Latest Hindi Stories : मम्मी की मृत्यु के बाद पिताजी बहुत अकेले हो गए थे, रचिता के साथ राहुल मेरठ पहुंचा, तेरहवीं के बाद बच्चों का स्कूल और अपने बैंक आदि की बात कह कर जाने की जुगत भिड़ाने लगा.

‘‘पापा, आप भी हमारे साथ इंदौर चलें,’’ रचिता ने कह तो दिया किंतु उस का दिल आधा था, इंदौर में उन का 3 कमरों का फ्लैट था, उस में पापा को भी रखना एक समस्या थी.

‘‘मैं इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाऊंगा,’’ पापा ने जब अपना अंतिम फैसला सुनाया तो उन की जान में जान आई.

‘‘लेकिन पापा तो अस्वस्थ हैं, वे अकेले कैसे रहेंगे?’’ रचिता के प्रश्न ने राहुल को कुछ सोचने पर विवश कर दिया. उसे ननिहाल की रजनी मौसी की याद आई जो विधवा थीं, उन की एक लड़की थी किंतु ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया, भाईभावज ने भी खोजखबर न ली तो अपने परिश्रम से मजदूरी कर के अपना और अपनी बच्ची का पेट पालने लगी.

राहुल ने ननिहाल में एक फोन किया और 2 दिन के अंदर रजनी मौसी मय पुत्री मेरठ हाजिर हो गईं, कृशकाय, अंदर को धंसी आंखों वाली रजनी मौसी के चेहरे पर नौकरी मिल जाने का नूर चमक रहा था, वे लगभग 40 वर्ष की मेहनतकश स्त्री थीं, बोलीं, ‘‘मैं आप की मां को दीदी कहा करती थी, रिश्ते में आप की मौसी हूं, इस घर को अपना मानूंगी और जीजाजी की सेवा में आप को शिकायत का मौका नहीं दूंगी.’’

‘‘आप चायनाश्ता बनाएंगी, खाना, दवा, देखभाल आप करेंगी, महरी बाकी झाड़ूपोछा, बरतन कर ही लेगी, पगार कितनी लेंगी?’’ रचिता ने पूछा.

‘‘मौसी भी कह रही हैं और पगार पूछ कर शर्मिंदा भी कर रही हैं. हम मांबेटी को खानेरहने का ठौर मिल गया और क्या चाहिए. जो आप की इच्छा हो दे दीजिएगा.’’

रचिता चुप हो गई, बात जितने कम में तय हो उतना अच्छा, राहुल के चेहरे पर भी संतोष था. उस का कर्तव्य था पापा की सेवा करना किंतु वह असमर्थ था, अब कोई मामूली रकम में उस कर्तव्य की भरपाई कर रहा था. पापा गमगीन थे. एक तो पत्नी का शोक, ऊपर से बेटाबहू, बच्चे सब जा रहे थे.

रचिता ने धीरे से राहुल के कान में कहा, ‘‘मम्मी की अलमारी में साडि़यां, जेवर व दूसरे कीमती सामान रखें हैं, पापा अब अकेले हैं. घर में बाहर के लोग भी रहेंगे. सो हमें उस की चाबी ले लेनी चाहिए.’’

‘‘पापा, अलमारी की चाबी कभी नहीं देंगे. अचानक तुम्हें जेवर, कपड़ों की चिंता क्यों होने लगी, धैर्य रखो, सब तुम्हें ही मिलेगा,’’ राहुल मुसकरा कर बोला.

बीचबीच में आने की बात कह कर राहुल, रचिता इंदौर रवाना हो गए, इंदौर में भी वे पापा, घर, अलमारी, बैंक के रुपयों, प्रौपर्टी की बातें करते रहते, उन्हें चिंता होती. चिंताग्रस्त हो कर वे फिर मेरठ रवाना हो गए, लगभग डेढ़ महीने में यह उन की दूसरी यात्रा थी.

घर के बाहर लौन साफसुथरा था, सारे पौधों में पानी डाला गया था, कई नए पौधे भी लगाए गए थे, दरवाजा खुलने पर रजनी मौसी ने मुसकराते हुए स्वागत किया, ‘‘आइए, आप का, फोन मिला था.’’

कुछ ही देर में मिठाई, पानी लिए फिर हाजिर हुईं, पूरा घर साफसुथरा सुव्यवस्थित था, उस की लड़की ने चाय बनाने से पहले सूचित किया, ‘‘बड़े साहब सो रहे हैं.’’

रचिता ने मांबेटी का निरीक्षण किया. दोनों ने बढि़या कपड़े पहने थे, बाल भी सुंदर तरीके से सेट थे, रजनी ने चूडि़यों, टौप्स के साथ बिंदी वगैरह भी लगाई हुई थी.

‘‘तुम्हारी मौसी का तो कायाकल्प हो गया,’’ रचिता फुसफुसाई.

‘‘भूखे, नंगे को सबकुछ मिलने लगेगा तो कायाकल्प तो होगा ही,’’ राहुल ने मुंह बना कर कहा.

दोनों असंतुष्टों की तरह चाय पीते पापा के जगने का इंतजार करते रहे. पापा को देख कर उन्हें और आश्चर्य हुआ. वे पहले से अधिक स्वस्थ और ताजादम लग रहे थे. पहले के झुकेझुके से पापा अब सीधे तन कर चल रहे थे. मम्मी के जाने के बाद हंसना भूल गए पापा ने मुसकराते हुए पूछा, ‘‘बड़ी जल्दी मिलने चले आए?’’

‘‘अब आप अकेले हो गए हैं तो हम ने सोचा…’’

‘‘अकेले कहां, रजनी है, उस की लड़की सरला है, उस को यहीं इंटर कालेज में डाल दिया है, शाम को एक घंटा पढ़ा दिया करता हूं, तेज है.’’

पापा सरला का गुणगान करते रहे फिर उसे पढ़ाने बैठ गए. रजनी मौसी सब के चाय, नाश्ते के बाद रात के खाने में जुट गईं. सबकुछ ठीक चल रहा था किंतु राहुल, रचिता असंतुष्ट मुखमुद्रा में बैठे थे. वे पापा के किसी काम नहीं आ पा रहे थे और अब उन को इन की कोई जरूरत भी नहीं रही.

रात को पापा सीरियल्स देखते हुए रजनी से उस के बारे में पूछताछ करते खूब हंसते रहे. सरला से पढ़ाई संबंधी बातें भी करते रहे, जीवन से निराश पापा को जीने की वजह मिल गई थी. रात में खाना खाते समय सब चुपचाप थे. खाना स्वादिष्ठ और मिर्चमसालेरहित था. रजनी मौसी एकएक गरम रोटी इसरार से खिलाती रहीं, अंत में खीर परोसी गई. पापा संतुष्ट एवं खुश थे. राहुल, रचिता संदेहास्पद दृष्टि से रजनी को घूर रहे थे. रात में टीवी कार्यक्रम की चर्चा रजनी और सरला से करते पापा कई बार बेटेबहू की उपस्थिति ही भूल गए, नातीपोतों का हालचाल भी नहीं पूछा. रात में सोते समय राहुल बोला, ‘‘यदि हम उसी समय अपने साथ पापा को ले चलते तो आज वे इस तरह मांबेटी में इनवौल्व न होते.’’

‘‘अरे, यहां क्या बुरा है, स्वस्थ हट्टेकट्टे हैं, खुश हैं, वहां 3 कमरों के डब्बे में कहां एडजस्ट करते इन्हें,’’ रचिता बोली.

‘‘तुम मूर्ख हो. तुम से बहस करना बेकार है. अब मामला हमारे हाथ से निकल रहा है. मुझे ही बात आगे बढ़ानी होगी.’’

‘‘बात क्या बढ़ाओगे?’’

‘‘अरे, तुम ही न कहती थीं इस बंगले को बेच कर इंदौर में अपने फ्लैट के ऊपर एक शानदार फ्लैट बनाओगी और बाकी रुपया बच्चों के नाम फिक्स कर दोगी?’’

‘‘हां, हां, लेकिन अब यह कहां संभव है?’’

‘‘अब पापा दिनप्रतिदिन स्वस्थ होते जा रहे हैं, उन की मृत्यु की प्रतीक्षा में तो हमारी उम्र बीत जाएगी, उन्हें इंदौर ले चलते हैं.’’

‘‘जैसा तुम उचित समझो, मैं एडजस्ट कर लूंगी,’’ रचिता बोली. उसे सास की अलमारी की भी चिंता थी जिस में कीमती गहने और अन्य महंगे सामान थे. उसे उन्हें देखनेभालने की प्रचुर इच्छा थी किंतु सासूमां के रहते इच्छा पूरी नहीं हुई और अब भी स्थितियां प्रतिकूल हो रही थीं.

अगले दिन दोनों ने रजनी मौसी का सेवाभाव देखा, नाश्ता, खाना, पापा के सारे कपड़े, बैडशीट, तौलिया आदि धोना, पापा के पूरे शरीर और सिर की जैतून की तेल से घंटेभर मालिश करना. उस दौरान पापा के चेहरे पर अपरिमित सुखशांति छाई रहती थी. तुरंत गुनगुने पानी से स्नान जिस में मौसी पूरी मदद करतीं. फिर उन का हलका नाश्ता करना यानी चपाती, सब्जी, ताजा मट्ठा आदि. किंतु रजनी मौसी ने राहुलरचिता के लिए अलग से देशी घी का हलवा और पोहा बनाया था, सब ने मजे ले कर खाया.

राहुल समझ गया था कि पापा के स्वास्थ्य में निरंतर सुधार का कारण क्या है, वह उन की इतनी सेवा कभी कर ही नहीं सकता था तब भी हिम्मत जुटा कर उस ने शब्दों द्वारा पापा को बांधने का प्रयास किया, ‘‘पापा, आप यहां कब तक दूसरों की दया पर निर्भर रहेंगे, हमारे साथ इंदौर चलिए, वहां नातीपोतों का साथ मिलेगा, सब साथ रहेंगे.’’

‘‘मैं किसी की दया पर निर्भर नहीं हूं. रजनी काम करती है, उस का पैसा देता हूं. वहां तुम्हारा घर छोटा है, तुम लोग मुश्किल में पड़ जाओगे.’’

‘‘इसीलिए तो अपने फ्लैट के ऊपर एक और वैसा ही फ्लैट बनवाना चाहता हूं,’’ राहुल ने कहा.

‘‘बिलकुल बनवाओ,’’ पापा ने कहा.

‘‘इस बंगले को बेच कर जो रकम मिलती उसी से फ्लैट बनवाता यदि आप हम लोगों के साथ चल कर रहते.’’

‘‘मैं अपने जीतेजी यह बंगला नहीं बेचूंगा. तुम लोन ले कर अपने बलबूते पर फ्लैट बनवाओ. आखिर बैंक औफिसर हो, अच्छा कमाते हो?’’

‘‘लेकिन 2 घरों की देखभाल…’’

‘‘उस की चिंता तुम मत करो?’’

एक आशा खत्म होने पर राहुल व्यग्र हो गया, ‘‘कम से कम अलमारी की चाबी ही दे दीजिए, रचिता अपने साथ मम्मी के गहने और जेवर ले जाना चाहती है.’’

‘‘तुम्हारी पत्नी के पास कपड़ों, गहनों का अभाव तो नहीं है, कम से कम मेरे मरने की प्रतीक्षा करो.’’

राहुल, रचिता मायूस हो कर इंदौर लौट आए. रास्ते में रचिता बोली, ‘‘पापा कहीं रजनी मौसी से प्रेम का चक्कर तो नहीं चला रहे?’’

राहुल को रचिता की बातें स्तरहीन लगीं किंतु वह चुप रहा, अगली बार वे बच्चों सहित जल्दी ही मेरठ पहुंचे. वहां रजनी को मां की साड़ी और गले में सोने की जंजीर पहने देख उन्हें शक हुआ. अच्छे खानपान से शरीर भर गया था. वे सुंदर लग रही थीं, उन की लड़की अच्छी शिक्षादीक्षा के कारण संभ्रांत और सुरुचिपूर्ण लग रही थी.

‘‘आप में बड़ा परिवर्तन आया है रजनी मौसी?’’ राहुल बोला. उस वक्त पापा वहां न थे.

‘‘कैसा परिवर्तन, वैसी ही तो हूं,’’ रजनी ने विनम्रता से कहा.

‘‘आप कामवाली कम, घरवाली ज्यादा लग रही हैं.’’

‘‘ऐसा कह कर पाप का भागी न बनाएं, हम तो मालिक की सेवा में प्राणपण एक किए रहते हैं. सो, कभीकभी इनाम मिल जाता है,’’ रजनी मौसी ने उन के घृणास्पद आक्षेप को भी अपनी विनम्रता से ढकने का प्रयास किया,

राहुलरचिता के ईर्ष्या, संदेह से दग्ध हृदय को तनिक राहत मिली, किंतु पापा राहुल की स्वार्थपूर्ण योजनाओं, प्रौपर्टी, धन, संपत्ति की बातों से चिढ़ गए. बोले, ‘‘बेटा, बाप की मृत्यु के बाद ही तो बेटे की ताजपोशी होती है. तू तो मेरे जीतेजी ही व्यग्र हुआ जा रहा है.’’

राहुल कैसे कहता जीर्णशीर्ण, कुम्हलाए पापा को रजनी मौसी अपने परिश्रम से दिनोंदिन स्वस्थ, प्रसन्न करती जा रही हैं. सो, दूरदूर तक उन की मृत्यु के आसार नजर नहीं आ रहे थे और उस के गाड़ीवाड़ी, बैंक बैलेंस आदि के सपने धराशायी हो गए थे. पापा के जीवित रहते ही उन्हें हथियाना चाह रहा था तो पापा के अडि़यल रवैये से वह सब संभव नहीं लग रहा था. रात के खाने के बाद साधारण बातचीत ने झगड़े का रूप ले लिया. राहुल अपनी असलियत पर उतर आया, बोला, ‘‘पापा, कहीं आप दूसरी शादी के चक्कर में तो नहीं हैं? यदि ऐसा है तो इस से शर्मनाक कुछ हो ही नहीं सकता.’’

पापा की बोलती बंद हो गई. वे हक्केबक्के इकलौते पुत्र का मुंह देखते रह गए लेकिन फिर जल्दी ही संभल गए, बोले, ‘‘आज तुझे अपना पुत्र कहते लज्जा का अनुभव होता है. एक निस्वार्थ स्त्री, जिस ने तेरे मरते हुए बाप को आराम और सुख के दो पल दिए, उसे तू ने गाली दी. साथ ही, अपने जन्मदाता को शर्मसार किया. मैं तुझे एक पल यहां बरदाश्त नहीं कर सकता. सुबह होते ही अपने परिवार सहित यहां से कूच कर जाओ. ऐसे पुत्र से तो निसंतान होना बेहतर है.’’

पापा के रुख को देख कर राहुल की सिट्टीपिट्टी गुम हो गई. अगले ही दिन वे इंदौर लौट गए. फिर 1 वर्ष तक उस ने मेरठ का रुख नहीं किया. रजनी मौसी स्वयं फोन कर के पापा की खबर देती रहती थीं.

एक दिन पता चला, पापा बाथरूम में गिर गए हैं और उन के कूल्हे की हड्डी टूट गई है. राहुल एक दिन के लिए आया अवश्य किंतु कूल्हे की हड्डी के औपरेशन के कारण उन्हें हाई डोज एनीस्थीसिया दी गई थी, सो पापा से भेंट नहीं हुई. औपरेशन के बाद राहुल अगले ही दिन लौट आया, उस का एक वकील मित्र था मनमोहन, उस ने और रजनी मौसी ने बढ़चढ़ कर पापा की सेवा की इसलिए राहुल निश्ंिचत भी था. चूंकि मनमोहन पापा की प्रौपर्टी और धन की देखभाल करता था इसलिए राहुल उस से संपर्क बनाए रखता था.

पापा फिर बिस्तर से उठ नहीं पाए. वे बिस्तर के हो कर रह गए थे. रजनी, मनमोहन ने राहुल, रचिता को आने के लिए कहा किंतु उन्होंने बच्चों की परीक्षा और अन्य व्यस्तताओं का बहाना बनाया. अंत में उन्हें पापा की मृत्यु का समाचार मिला और राहुल, पत्नी व बच्चों सहित तुरंत मेरठ पहुंच गया.

वहां पिता के निस्पंद शरीर को देख कर उस की आंखों में आंसू नहीं आए. लोग रजनी मौसी की बहुत प्रशंसा कर रहे थे कि उस ने जितनी पापा की सेवा की वह घर का सदस्य नहीं कर सकता था. किंतु राहुल कुछ सुन नहीं रहा था. एक अजीब सा भाव उस के मनमस्तिष्क और शरीर में छाया था, गुरुत्तर भाव, सबकुछ मेरा. मैं इस घर, खेतखलिहान, बैंकबैलेंस सब का मालिक. मेरे ऊपर कोई नहीं, जो इच्छा हो, करो. कोई डांटडपट, आदेश, अवज्ञा नहीं. राहुल को लगा कि वह सिंहासन पर बैठा है और उस की ताजपोशी हो रही है. यह एहसास नया नहीं था, एक पीढ़ी के गुजर जाने के बाद दूसरी पीढ़ी के ‘बड़े’ को यह ‘सत्तासुख’ हमेशा ही ऐसा आनंदित करता है. तब बच्चे बुजुर्गों की मृत्यु से दुख नहीं वरन संतोष का अनुभव करते हैं. अचानक उस की वक्रदृष्टि रजनी मौसी पर पड़ी, उस ने धीरे किंतु विषपूर्ण स्वर में कहा, ‘‘तेरहवीं के बाद तुम मांबेटी को मैं एक क्षण यहां नहीं देखना चाहता.’’

इस तरह पिता की मृत देह की उपस्थिति में उस ने रजनी मौसी, जिस ने उस के और रचिता के कर्तव्यों का बखूबी निर्वाह किया था, का पत्ता काट दिया. मनमोहन ने कुछ बोलने का प्रयास किया किंतु उस ने इशारों से उसे चुप करा दिया. वह अंतिम संस्कार के पूर्व किसी प्रकार का ‘तमाशा’ नहीं चाहता था, रजनी चुपचाप रोती रहीं.

अंतिम संस्कार के बाद राहुल की महत्ता जैसे और बढ़ गई. पिता को मुखाग्नि दे कर वह समाज के संभ्रांत लोगों के बीच बैठा दीनदुनिया की बातें करता रहा. उन के जाते ही उस के भीतर शांत बैठा परिवार का मुखिया फिर जाग गया. वह मनमोहन से पिता की संपत्ति का ब्यौरा लेने लगा और रजनी मौसी को अगले ही दिन जाने का आदेश सुना दिया. मनमोहन ने उसे समझाया, ‘‘राहुल, रुक जाओ, तेरहवीं तो हो जाने दो.’’

‘‘बिलकुल नहीं, तुम्हें नहीं पता इस स्त्री के कारण ही मेरे पिता मुझ से दूर हो गए, मुझे अंतिम समय कुछ न कर पाने का पितृकर्ज चढ़ गया.’’

‘‘किंतु रजनी मौसी ने अथक परिश्रम तो किया. तो कम से कम तेरहवीं की रस्म…’’

‘‘कैसी तेरहवीं? उस के लिए हम फिर आएंगे, इतनी लंबी छुट्टी न मुझे मिलेगी न बच्चों को स्कूल से, पर उस के पूर्व मैं घर लौक कर के जाऊंगा, लौकर से गहने निकलवा लूंगा, रुपए अपने खाते में ट्रांसफर करवा लूंगा, घर, अलमारी के कीमती सामान ठिकाने लगा दूंगा.’’

‘‘किंतु तुम ऐसा नहीं कर सकते.’’

‘‘अच्छा, भला कौन रोकेगा मुझे?’’

‘‘तुम्हारे पिता की वसीयत. उन्होंने तेरहवीं के दिन मुझ से वसीयत पढ़ने को कहा था. किंतु तुम्हारी जल्दबाजी के कारण आज ही मुझे तुम को बताना है कि यह घर वे रजनी मौसी के नाम कर गए हैं, बैंक के रुपयों का 50 प्रतिशत वे किसी अनाथाश्रम को दे कर गए हैं और बाकी 50 प्रतिशत तुम्हारे बच्चों के नाम कर गए हैं जो उन्हें बालिग होने पर मिलेगा. अलमारी और लौकर के जेवर वे तुम्हारी पत्नी को दे कर गए हैं.’’

राहुल के पैरों तले जमीन खिसक गई, वह विस्मय से मुंह खोले मनमोहन को ताकता रहा.

‘‘स्त्रीपुरुष का केवल एक ही रिश्ता नहीं होता, तुम ने उन पर, एक वृद्ध व्यक्ति पर चरित्रहीनता का आक्षेप लगा कर अंतिम समय में उन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया जिस का तुम्हें पश्चात्ताप करना होगा,’’ मनमोहन ने अपनी वाणी को विराम दिया और उसे हिकारत से देखते हुए चला गया, सिसकसिसक कर रोती रजनी के सामने आंखें उठाने की हिम्मत नहीं रह गई थी राहुल में, वह वैसे ही सिर झुकाए बैठा रह गया.

Hindi Kahaniyan : किराएदार

Hindi Kahaniyan : ‘‘बस, यों समझो कि मकान जो खाली पड़ा था, तुम ने किराए पर उठा दिया है,’’ डाक्टर उसे समझा रही थी, लेकिन उस की समझ से कहीं ऊपर की थीं डाक्टर की बातें, सो वह हैरानी से डाक्टर का चेहरा देखने लगी थी.

‘‘और तुम्हें मिल जाएगा 3 या 4 लाख रुपया. क्यों, ठीक है न इतनी रकम?’’

वह टकटकी लगाए देखती रही, कुछ कहना चाहती थी पर कह न सकी, केवल होंठ फड़फड़ा कर रह गए.

‘‘हां, बोलो, कम लगता है? चलो, पूरे 5 लाख रुपए दिलवा दूंगी, बस. आओ, अब जरा तुम्हारा चैकअप कर लूं.’’

खिलाखिला चेहरा और कसी देहयष्टि. और क्या चाहिए था डा. रेणु को. उसे उम्मीद के मुताबिक सफलता दिखाई देने लगी.

अस्पताल से घर तक का रास्ता तकरीबन 1 घंटे का रहा होगा. पर यह फासला उस के कदमों ने कब और कैसे नाप लिया, पता ही न चला. वह तो रास्तेभर सपने ही देखती आई. सपना, कि पक्का घर हो जहां आंधीतूफानवर्षा में घोंसले में दुबके चूजों की तरह उस का दिल कांपे न. सपना, कि जब बेटी सयानी हो तो अच्छे घरवर के अनुरूप उस का हाथ तंग न रहे. सपना, कि उस के मर्द का भी कोई स्थायी रोजगार हो, दिहाड़ी का क्या ठिकाना? कभी हां, कभी ना के बीच दिखाई देते कमानेखाने के लाले न पड़ें.

भीतर कदम रखते ही देसी शराब का भभका बसंती के नथुनों से टकराया तो दिमाग चकरा गया, ‘‘आज फिर चढ़ा ली है क्या? तुम्हें तो बहाना मिलना चाहिए, कभी काम मिलने की खुशी तो कभी काम न मिलने का गम.’’

‘‘कहां से आ रही है छम्मकछल्लो, हुंह? और तेरी ये…तेरी मुट्ठी में क्या भिंचा है, री?’’

एकबारगी उस ने मुट्ठी कसी और फिर ढीली छोड़ दी. नोट जमीन पर फैल गए. चंदू ऐसे लपका जैसे भूखा भेडि़या.

‘‘हजारहजार के नोट? 1,2,3,4 और यह 5…यानी 5 हजार रुपए? कहां से ले आई? कहां टांका फिट करा के आ रही है?’’

उस ने गहरी नजरों से बसंती को नीचे से ऊपर तक निहारा. फिर अपने सिर पर हाथ फेरते हुए बोला, ‘‘बोल खोपड़ी, सही समय पर सही सवाल. तू बताती है कि मैं बताऊं, कहां से आई इतनी रकम?’’

‘‘डाक्टरनी मैडम ने दिए हैं.’’

‘‘क्या, क्या? पगला समझा है क्या? डाक्टर लोग तो रुपए लेते हैं, देने कब से लगे, री? तू मुझे बना रही है…मुझे? ये झूठी कहानी कोई और सुन सकता है, मैं नहीं. मुझे तो पहले ही शक था कि कोई न कोई चक्कर जरूर चला रखा है तू ने. कहीं वह लंबू ठेकेदार तो नहीं?’’

उस ने एक ही सांस में पूरी बोतल गटक ली, ‘‘मैं नहीं छोड़ूंगा. तुझे भी और उसे भी. किसी को नहीं,’’ कहते- कहते वह लड़खड़ा कर सुधबुध खो बैठा.

पूरी रात उधेड़बुन में बीती. बसंती सोचती रही कि वह किस दोराहे पर आ खड़ी हुई है. एक तरफ उस का देहधर्म है तो दूसरी ओर पूरे परिवार का सुनहरा भविष्य. और इन दोनों के बीच उस का दिल रहरह कर धड़क उठता कि आखिर कैसे वह किसी अनजान चीज को अपने भीतर प्रवेश होने देगी? पराए बीज को अपनी धरती में सिंचित करना. और फिर फसल बेगानों को सौंप देना. समय आने पर घर कर चुके किराएदार को अपने हाड़मांस से विलग कर सकेगी? अपने और पराए का फर्क क्या उस की कोख को स्वीकार्य होगा? अनुत्तरित प्रश्नों से लड़तीझगड़ती बसंती ने अपने और चंदू के बीच दीवार बना दी. सुरूर में जबजब चंदू ने कोशिश की तो तकिया ही हाथ आया. बसंती भावनाओं में बह कर सुनहरे सपनों को चकनाचूर नहीं होने देना चाहती थी. अलगाव की उम्र भी बरसभर से कम कहां होगी?

अपने मर्द के साथ बसंती ने डा. रेणु के क्लीनिक में प्रवेश किया तो डा. रेणु का चेहरा खिल उठा. डाक्टर ने परिचय कराया, ‘‘दिस इज बसंती…योर बेबीज सेरोगेट,’’ और फिर बसंती से मुखातिब हो कहने लगी, ‘‘ये ही वे ब्राउन दंपती हैं जिन्हें तुम दोगी हंसताखेलता बच्चा. तुम्हारी कोख से पैदा होने वाले बच्चे के कानूनी तौर पर मातापिता ये ही होंगे.’’

डाक्टर, बसंती के आगे सारी बातें खोल देना चाहती थी, ‘‘बच्चे से तुम्हारा रिश्ता जन्म देने तक रहेगा. बच्चा पैदा होने से अगले 3 महीने तक यानी अब से पूरे 1 साल तक का बाकायदा ऐग्रीमैंट होगा. जिस में ये सभी शर्तें दर्ज होंगीं. तुम्हारी हर जरूरत का खयाल ये रखेंगे और इन की जरूरत की हिफाजत तुम्हें करनी होगी. अपने से ज्यादा बच्चे की हिफाजत. समझ गईं न? कोई लापरवाही नहीं. सोनेजागने से खानेपीने तक मेरे परामर्श में अब तुम्हें रहना है और समयसमय पर चैकअप के लिए आना होगा. जरूरत पड़ी तो अस्पताल में ही रहना होगा.’’

डाक्टर की हर बात पर बसंती का सिर हिलाना चंदू को कुछ जंचा नहीं. वह बुदबुदाया, ‘बोल खोपड़ी, सही समय पर सही सवाल,’ और वह उठ खड़ा हुआ, ‘‘ये सब नहीं होगा, कहे देते हैं. इतने में तो बिलकुल नहीं, हां. यह तो सरासर गिरवी रखना हुआ न. तिस पर वो क्या कहा आप ने, हां किराएदार. पूरे एक बरस दीवार बन कर नहीं खड़ा रहेगा हम दोनों के बीच? आखिर कितना नुकसान होगा हमें, हमारे प्यार को, सोचा आप ने? इतने में नहीं, बिलकुल भी नहीं. डबल लगेगा, डबल. हम कहे देते हैं, मंजूर हो तो बोलो. नहीं तो ये चले, उठ बसंती, उठ.’’

‘‘हो, हो, ह्वाट ही से, ह्वाट? टेल मी?’’ ब्राउन ने जानने की उत्कंठा जाहिर की. डाक्टर को खेल बिगड़ता सा लगा तो वह ब्राउन की ओर लपकी, ‘‘मनी, मनी, मोर मनी, दे वांटेड.’’

‘‘हाऊमच?’’

‘‘डबल, डबल मनी वांटेड.’’

‘‘ओके, ओके. टैन लैख, आई एग्री. नथिंग मोर फौर अ बेबी. यू नो डाक्टर, इट इज मच चीपर दैन अदर कंट्रीज. टैन, आई एग्री,’’ ब्राउन ने दोनों हाथों की दसों उंगलियां दिखाते हुए चंदू को समझाने की कोशिश की और कोट की जेब से 50 हजार रुपए की गड्डी निकाल कर मेज पर पटक दी.

शुरूशुरू में तो बसंती को जाने  कैसाकैसा लगता रहा. एक लिजलिजा एहसास हर समय बना रहता. मानो, कुछ ऐसा आ चिपका है भीतर, जिसे नोच फेंकने की इच्छा हर पल होती. लेकिन बिरवे ने जाने कब जड़ें जमानी शुरू कर दीं कि उसे पता ही नहीं चला. अब पराएपन का एहसास मानो जाता रहा. सबकुछ अपनाअपना सा लगने लगा. डाक्टर ने पुष्टि कर दी कि उस के बेटा ही होगा तब से उसे अपनेआप पर अधिक प्यार आने लगा था.

लेकिन कभीकभी रातें उसे डराने लगी थीं. वह सपनों से चौंकचौंक जाती कि दूर कहीं जो बच्चा रो रहा है, वह उस का अपना बच्चा है. बिलखते बच्चे को खोजती वह जंगल में निकल जाती, फिर पहाड़ और नदीनालों को लांघती सात समुंदर पार निकल जाती. फिर भी उसे बच्चा दिखाई नहीं देता. लेकिन बच्चे का रुदन उस का पीछा नहीं छोड़ता और अचानक उस की नींद खुल जाती. तब अपनेआप जैसे वह निर्णय कर बैठती कि नहीं, वह बच्चा किसी को नहीं देगी, किसी भी कीमत पर नहीं.

सचाई यही है कि वह बच्चे की मां है. बच्चे को जन्म उसी ने दिया है, बच्चे का बाप चाहे कोई हो. उस का मन उसे दलीलें देता है कि एक बच्चे को अपनी मां से कोई छीन ले, अलग कर दे, ऐसा कानून धरती के किसी देश और अदालत का नहीं हो सकता. लिहाजा, बच्चा उसी के पास रहेगा. यदि फिर भी कुछ ऐसावैसा हुआ तो वह बच्चे को ले कर छिप जाएगी. ऐसेवैसे जाने कैसेकैसे सच्चेझूठे विचार उस का पीछा नहीं छोड़ते. और वह पैंडुलम की तरह कभी बच्चा देने और कभी न देने के निर्णय के बीच झूलती रहती.

आज और कल करतेकरते आखिर वह उन घडि़यों से गुजरने लगी जब कोई औरत जिंदगी और मौत की देहरी पर होती है. तब जब कोई मां अपने होने वाले बच्चे के जीवन की अरदास करती है, दुआ मांगती है कि या तो उस का बच्चा उस से दूर न होने पाए या फिर बच्चा मरा हुआ ही पैदा हो ताकि उस के शरीर का अंश उसी के देश और धरती में रहे, दफन हो कर भी. उस के न होने का विलाप वह कर लेगी…लेकिन…लेकिन देशदुनिया की इतनी दूरी वह कदापि नहीं सह सकेगी कि उम्रभर उस का मुंह भी न देख सके.

बेहोश होतेहोते उस के कान इतना सुनने में समर्थ थे कि ‘केस सीरियस हो रहा है. मां और बच्चे में से किसी एक को ही बचाया जा सकेगा. औपरेशन करना होगा, अभी और तुरंत.’

उस की आंख खुली तो नर्स ने गुडमौर्निंग कहते हुए बताया कि 10 दिन की लंबी बेहोशी के बाद आज वह जागी है. नर्स ने ही बताया कि उस ने बहुत सुंदरसलोने बेटे को जन्म दिया है. चूंकि उस का सीजेरियन हुआ है इसलिए उसे अभी कई दिन और करवट नहीं लेनी है.

‘‘बच्चा कैसा दिखता है?’’ उस ने पूछा तो नर्स उसे इंजैक्शन देती हुई कहने लगी, ‘‘नीली आंखों और गोल चेहरे वाला वह बच्चा सब के लिए अजूबा बना रहा. डाक्टर कह रही थी कि बच्चे की आंखें बाप पर और चेहरा मां पर गया है.

इंजैक्शन का असर था कि उस की आंखें फिर मुंदने लगी थीं. उस ने पास पड़े पालने में अपने बच्चे को टटोलना चाहा तो उसे लगा कि पालना खाली है. पालने में पड़े कागज को उठा कर उस ने अपनी धुंधलाती आंखों के सामने किया. चैक पर 9 लाख 45 हजार रुपए की रकम दर्ज थी.

शिथिल होते उस के हाथ से फिसल कर चैक जमीन पर आ गिरा और निद्रा में डूबती उस की पलकों से दो आंसू ढलक गए.

Famous Hindi Stories : आप कौन हैं सलाह देने वाले

Famous Hindi Stories :  अभी उस दिन एक बहुत पुरानी मित्र बाजार में मिल गई. हम दोनों अंबाला में साथसाथ रहे थे. पता चला, पिछले दिनों उन का तबादला भी इसी शहर में हो गया है.

उस दिन बाजार में भीड़भाड़ कुछ कम थी. मुझे देखते ही मीना सड़क के किनारे खींच ले गई और न जाने कितना सब याद करती रही. हम दोनों कुछ बच्चों की, कुछ घर की और कुछ अपनी कहतेसुनते रहे.

‘‘आप की बहुत याद आती थी मुझे,’’ मीना बोली, ‘‘आप से बहुत कुछ सीखा था मैं ने…याद है जब एक रात मेरी तबीयत बहुत खराब हो गई थी तब आप ने कैसे संभाला था मुझे.’’

‘‘मैं बीमार पड़ जाती तो क्या तुम न संभालतीं मुझे. जीवन तो इसी का नाम है. इतना तो होना ही चाहिए कि मरने के बाद कोई हमें याद करे…आज तुम किसी का करो कल कोई तुम्हारा भी करेगा.’’

मेरा हाथ कस कर पकड़े थी मीना. उम्र में मुझ से छोटी थी इसलिए मैं सदा उस का नाम लेती थी. वास्तव में कुछ बहुत ज्यादा खट्टा था मीना के जीवन में जिस में मैं उस के साथ थी.

‘‘याद है दीदी, वह लड़की नीता, जिस ने बुटीक खोला था. अरे, जिस ने आप से सिलाई सीखी थी. बड़ी दुआएं देती है आप को. कहती है, आप ने उस की जिंदगी बना दी.’’

याद आया मुझे. उस के पति का काम कुछ अच्छा नहीं था इसलिए मेरी एक क्लब मेंबर ने उसे मेरे पास भेजा था. लगभग 2 महीने उस ने मुझ से सिलाई सीखी थी. उस का काम चला या नहीं मुझे पता नहीं, क्योंकि उसी दौरान पति का तबादला हो गया था. वह औरत जब आखिरी बार मेरे पास आई थी तो हाथों में कुछ रुपए थे. बड़े संकोच से उस ने मेरी तरफ यह कहते हुए बढ़ाए थे:

‘दीदी, मैं ने आप का बहुत समय लिया है. यह कुछ रुपए रख लीजिए.’

‘बस, तुम्हारा काम चल जाए तो मुझे मेरे समय का मोल मिल जाएगा,’ यह कहते हुए मैं ने उस का हाथ हटा दिया था.

सहसा कितना सब याद आने लगा. मीना कितना सब सुनाती रही. समय भी तो काफी बीत चुका न अंबाला छोड़े. 6 साल कम थोड़े ही होते हैं.

‘‘तुम अपना पता और फोन नंबर दो न,’’ कह कर मीना झट से उस दुकान में चली गई जिस के आगे हम दोनों घंटे भर से खड़ी थीं.

‘‘भैया, जरा कलमकागज देना.’’

दुकानदार हंस कर बोला, ‘‘लगता है, बहनजी कई साल बाद आपस में मिली हैं. घंटे भर से मैं आप की बातें सुन रहा हूं. आप दोनों यहां अंदर बेंच पर बैठ जाइए न.’’

क्षण भर को हम दोनों एकदूसरे का मुंह देखने लगीं. क्या हम इतना ऊंचाऊंचा बोल रही थीं. क्या बुढ़ापा आतेआते हमें असभ्य भी बना गया है? मन में उठे इन विचारों को दबाते हुए मैं बोली, ‘‘क्याक्या सुना आप ने, भैयाजी. हम तो पता नहीं क्याक्या बकती रहीं.’’

‘‘बकती नहीं रहीं बल्कि आप की बातों से समझ में आता है कि जीवन का अच्छाखासा निचोड़ निकाल रखा है आप ने.’’

‘‘क्या निचोड़ नजर आया आप को, भाई साहब,’’ सहसा मैं भी मीना के पीछेपीछे दुकान के अंदर चली गई तो वह अपने स्टूल पर से उठ कर खड़ा हो गया.

‘‘आइए, बहनजी. अरे, छोटू…जा, जा कर 2 चाय ला.’’

पल भर में लगा हम बहुत पुराने दोस्त हैं. अब इस उम्र तक पहुंचतेपहुंचते नजर पढ़ना तो आ ही गया है मुझे. सहसा मेरी नजर उस स्टूल पर पड़ी जिस पर वह दुकानदार बैठा था. एक सवा फुट के आकार वाले स्टूल पर वह भारीभरकम शरीर का आदमी कैसे बैठ पाता होगा यही सोचने लगी. इतनी बड़ी दुकान है, क्या आरामदायक कोई कुरसी नहीं रख सकता यह दुकानदार? तभी एक लंबेचौड़े लड़के ने दुकान में प्रवेश किया. मीना कागज पर अपने घर का पता और फोन नंबर लिखती रही और मैं उस ऊंचे और कमचौड़े स्टूल को ही देखती रही जिस पर अब उस का बेटा बैठने जा रहा था.

‘‘नहीं भैयाजी, चाय मत मंगाना,’’ मीना मना करते हुए बोली, ‘‘वैसे भी हम बहुत देर से आप के कान पका रहे हैं.’’

‘‘बेटा, तुम इस इतने ऊंचे स्टूल पर क्या आराम से बैठ पाते हो? कम से कम 12 घंटे तो तुम्हारी दुकान खुलती ही होगी?’’ मेरे होंठों से सहसा यह निकल गया और इस के उत्तर में वह दुकानदार और उस का बेटा एकदूसरे का चेहरा पढ़ने लगे.

‘‘तुम्हारी तो कदकाठी भी अच्छी- खासी है. एक 6 फुट का आदमी अगर इस ऊंचे और छोटे से स्टूल पर बैठ कर काम करेगा तो रीढ़ की हड्डी का सत्यानाश हो जाएगा…शरीर से बड़ी कोई दौलत नहीं होती. इसे सहेजसंभाल कर इस्तेमाल करोगे तो वर्षों तुम्हारा साथ देगा.’’

बेटे ने तो नजरें झुका लीं पर बाप बड़े गौर से मेरा चेहरा देखने लगा.

‘‘मेरे पिताजी भी इसी स्टूल पर पूरे 50 साल बैठे थे उन की पीठ तो नहीं दुखी थी.’’

‘‘उन की नहीं दुखी होगी क्योंकि वह समय और था, खानापीना शुद्ध हुआ करता था. आज हम हवा तक ताजा नहीं ले पाते. खाने की तो बात ही छोडि़ए. हमारे जीने का तरीका वह कहां है जो आप के पिताजी का था. मुझे डर है आप का बेटा ज्यादा दिन इस ऊंचे स्टूल पर बैठ कर काम नहीं कर पाएगा. इसलिए आप इस स्टूल की जगह पर कोई आरामदायक कुरसी रखिए.’’

मैं और मीना उस दुकान पर से उतर आए और जल्दी ही पूरा प्रसंग भूल भी गए. पता नहीं क्यों जब भी कहीं कुछ असंगत नजर आता है मैं स्वयं को रोक नहीं पाती और अकसर मेरे पति मेरी इस आदत पर नाराज हो जाते हैं.

‘‘तुम दादीअम्मां हो क्या सब की. जहां कुछ गलत नजर आता है समझाने लगती हो. सामने वाला चाहे बुरा ही मान जाए.’’

‘‘मान जाए बुरा, मेरा क्या जाता है. अगर समझदार होगा तो अपना भला ही करेगा और अगर नहीं तो उस का नुकसान वही भोगेगा. मैं तो आंखें रहते अंधी नहीं न बन सकती.’’

अकसर ऐसा होता है न कि हमारी नजर वह नहीं देख पाती जो सामने वाली आंख देख लेती है और कभीकभी हम वह भांप लेते हैं जिसे सामने वाला नहीं समझ पाता. क्या अपना अहं आहत होने से बचा लूं और सामने वाला मुसीबत में चला जाए? प्रकृति ने बुद्धि दी है तो उसे झूठे अहं की बलि चढ़ जाने दूं?

‘‘क्या प्रकृति ने सिर्फ तुम्हें ही बुद्धि दी है?’’

‘‘मैं आप से भी बहस नहीं करना चाहती. मैं किसी का नुकसान होता देख चुप नहीं रह सकती, बस. प्रकृति ने बुद्धि  तो आप को भी दी है जिस से आप बहस करना तो पसंद करते हैं लेकिन मेरी बात समझना नहीं चाहते.’’

मैं अकसर खीज उठती हूं. कभीकभी लगने भी लगता है कि शायद मैं गलत हूं. कभी किसी को कुछ समझाऊंगी नहीं मगर जब समय आता है मैं खुद को रोक नहीं पाती हूं.

अभी उस दिन प्रेस वाली कपड़े लेने आई तो एक बड़ी सी गठरी सिर पर रखे थी. अपने कपड़ों की गठरी उसे थमाते हुए सहसा उस के पेट पर नजर पड़ी. लगा, कुछ है. खुद को रोक ही नहीं पाई मैं. बोली, ‘‘क्यों भई, कौन सा महीना चल रहा है?’’

‘‘नहीं तो, बीबीजी…’’

‘‘अरे, बीबीजी से क्यों छिपा रही है? पेट में बच्चा और शरीर पर इतना बोझ लिए घूम रही है. अपनी सुध ले, अपने आदमी से कहना, तुझ से इतना काम न कराए.’’

टुकुरटुकुर देखती रही वह मुझे. फिर फीकी सी हंसी हंस पड़ी.

‘‘पूरी कालोनी घूमती हूं, किसी ने इतना नहीं समझाया और न ही किसी को मेरा पेट नजर आया तो आप को कैसे नजर आ गया?’’

पता नहीं लोग देख कर भी क्यों अंधे बन जाते हैं या हमारी संवेदनाएं ही मर गई हैं कि हमें किसी की पीड़ा, किसी का दर्द दिखाई नहीं देता. ऐसी हालत में तो लोग गायभैंस पर भी तरस खा लेते हैं यह तो फिर भी जीतीजागती औरत है. कुछ दिन बाद ही पता चला, उस के घर बेटी ने जन्म लिया. धन्य हो देवी. 9 महीने का गर्भ कितनी सहजता से छिपा रही थी वह प्रेस वाली.

मैं ने हैरानी व्यक्त की तो पति हंसते हुए बोले, ‘‘अब क्या जच्चाबच्चा को देखने जाने का भी इरादा है?’’

‘‘वह तो है ही. सुना है पीछे किसी खाली पड़ी कोठी में रहती है. आज शाम जाऊंगी और कुछ गरम कपड़े पड़े हैं, उन्हें दे आऊंगी. सर्दी बढ़ रही है न, उस के काम आ जाएंगे.’’

‘‘नमस्कार हो देवी,’’ दोनों हाथ जोड़ मेरे पति ने अपने कार्यालय की राह पकड़ी.

मुझे समझ में नहीं आया, मैं कहां गलत थी. मैं क्या करूं कि मेरे पति भी मुझे समझने का प्रयास करें.

कुछ दिन बाद एक और समस्या मेरे सामने चली आई. इन के एक सहयोगी हैं जो अकसर परिवार सहित हमारे घर आते हैं. 1-2 मुलाकातों में तो मुझे पता नहीं चला लेकिन अब पता चल रहा है कि जब भी वह हमारे घर आते हैं, 1 घंटे में लगभग 4-5 बार बाथरूम जाते हैं. बारबार चाय भी मांगते हैं.

बाथरूम जाना या चाय मांगना मेरी समस्या नहीं है, समस्या यह है कि उन के जाने के बाद हमारा बाथरूम चींटियों से भर जाता है. सफेद बरतन एकदम काला हो जाता है. हो न हो इन्हें शुगर हो. पति से अपने मन की बात बता कर पूछ लिया कि क्या उन से इस बारे में बात करूं?

‘‘खबरदार, हर बात की एक सीमा होती है. किसी के फटे में टांग मत डाला करो. मैं ने कह दिया न.’’

‘‘एक बार तो पूछ लो,’’ मन नहीं माना तो पति से जोर दे कर बोली, ‘‘शुगर के मरीज को अकसर पता नहीं चलता कि उसे शुगर है और बहुत ज्यादा शुगर बढ़ जाए तभी पेशाब में आती है. क्या पता उन्हें पता ही न हो कि उन्हें शुगर हो चुकी है.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है और तुम ज्यादा डाक्टरी मत झाड़ो. दुनिया में एक तुम ही समझदार नहीं हो.’’

‘‘उन्हें कुछ हो गया तो… देखो उन के छोटेछोटे बच्चे हैं और कुछ हो गया तो क्या होगा? क्या उम्र भर हम खुद को क्षमा कर पाएंगे?’’

अपने पति से जिद कर मैं एक दिन जबरदस्ती उन के घर चली गई. बातोंबातों में मैं ने उन के बाथरूम में जाने की इच्छा व्यक्त की.

‘‘क्या बताऊं, दीदी, हमारा बाथरूम साफ होता ही नहीं. इतनी चींटी हैं कि क्या कहूं इतना फिनाइल डालती हूं कि पूछो मत.’’

‘‘आप के घर में किसी को शुगर तो नहीं है न?’’

‘‘नहीं तो, आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?’’

अवाक् रह गई थी वह. धीरे से अपनी बात कह दी मैं ने. रो पड़ी वह. मैं ने कहा तो मानो उसे भी लगने लगा कि शायद घर में किसी को शुगर है.

‘‘हां, तभी रातरात भर सो नहीं पाते हैं. हर समय टांगें दबाने को कहते हैं. बारबार पानी पीते हैं… और कमजोर भी हो रहे हैं. दीदी, कभी खयाल ही नहीं आया मुझे. हमारे तो खानदान में कहीं किसी को शुगर नहीं है.’’

उसी पल मेरे पति उन को साथ ले कर डाक्टर के पास गए. रक्त और पेशाब की जांच की. डाक्टर मुंहबाए उसे देखने लगा.

‘‘इतनी ज्यादा शुगर…आप जिंदा हैं मैं तो इसी पर हैरान हूं.’’

वही हो गया न जिस का मुझे डर था. उसी क्षण से उन का इलाज शुरू हो गया. मेरे पति उस दिन के बाद से मुझ से नजरें चुराने से लगे.

‘‘आप न बतातीं तो शायद मैं सोयासोया ही सो जाता…आप ने मुझे बचा लिया, दीदी,’’ लगभग मेरे पैर ही छूने लगे वह.

‘‘बस…बस…अब दीदी कहा है तो तुम्हारा नाम ही लूंगी…देखो, अपना पूरापूरा खयाल रखना. सदा सुखी रहो,’’ मैं उसे आशीर्वाद के रूप में बोली और अपने पति का चेहरा देखा तो हंसने लगे.

‘‘जय हो देवी, अब प्रसन्न हो न भई, तुम्हारा इलाज हफ्ता भर पहले भी शुरू हो सकता था अगर मैं देवीजी की बात मान लेता. आज भी यह जिद कर के लाई थीं. मेरा ही दोष रहा जो इन का कहा नहीं माना.’’

उस रात मैं चैन की नींद सोई थी. एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि उन पर मैं कोई कृपा, कोई एहसान कर के लौटी हूं. बस, इतना ही लग रहा था कि अपने भीतर बैठे अपने चेतन को चिंतामुक्त कर आई हूं. कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी निभा आई हूं.

अगले दिन सुबहसुबह दरवाजे पर एक व्यक्ति को खड़ा देखा तो समझ नहीं पाई कि इन्हें कहां देखा है. शायद पति के जानकार होंगे. उन्हें भीतर बिठाया. पता चला, पति से नहीं मुझ से मिलने आए हैं.

‘‘कौन हैं यह? मैं तो इन्हें नहीं जानती,’’ पति से पूछा.

‘‘कह रहे हैं कि वह तुम्हें अच्छी तरह पहचानते हैं और तुम्हारा धन्यवाद करने आए हैं.’’

‘‘मेरा धन्यवाद कैसा?’’ मैं कुछ याद करते हुए पति से बोली, ‘‘हां, कहीं देखा तो लग रहा है लेकिन याद नहीं आ रहा,’’ रसोई का काम छोड़ मैं हाथ पोंछती हुई ड्राइंगरूम में चली आई. प्रश्नसूचक भाव से उन्हें देखा.

‘‘बहनजी, आप ने पहचाना नहीं. चौक पर मेरी दुकान है. कुछ समय पहले आप और आप की एक सखी मेरी दुकान के बाहर…’’

‘‘अरे हां, याद आया. मैं और मीना मिले थे न,’’ पति को बताया मैं ने.

‘‘कहिए, मेरा कैसा धन्यवाद?’’

‘‘उस दिन आप ने मेरे बेटे से कहा था न कि वह ऊंचे स्टूल पर न बैठे. दरअसल, उसी सुबह वह पीठ दर्द की वजह से 7 दिन अस्पताल रह कर ही लौटा था. डाक्टरों ने भी मुझे समझाया था कि उस स्टूल की वजह से ही सारी समस्या है.’’

‘‘हां तो समस्या क्या है? आप कुरसी नहीं खरीद सकते क्या?’’

‘‘कुरसी तो लड़का 6 महीने पहले ही ले आया था, जो गोदाम में पड़ी सड़ रही है. मैं ही जिद पर अड़ा था कि वह स्टूल वहां से न हटाया जाए. वह मेरे पिताजी का स्टूल है और मुझे वहम ही नहीं विश्वास भी है कि जब तक वह स्टूल वहां है तब तक ही मेरी दुकान सुरक्षित है. जिस दिन स्टूल हट गया लक्ष्मी भी हम से रूठ जाएगी.’’

हम दोनों अवाक् से उस आदमी का मुंह देखते रहे.

‘‘मेरा बच्चा रोतापीटता रहा, मेरी बहू मेरे आगे हाथपैर जोड़ती रही लेकिन मैं नहीं माना. साफसाफ कह दिया कि चाहो तो घर छोड़ कर चले आओ, दुकान छोड़ दो पर वह स्टूल तो वहीं रहेगा.

‘‘मैं तो सोचता रहा कि लड़का बहाना कर रहा होगा. अकसर बच्चे पुरानी चीज पसंद नहीं न करते. सोचा डाक्टर भी जानपहचान के हैं, उन से कहलवाना चाहता होगा लेकिन आप तो जानपहचान की न थीं. और उस दिन जब आप ने कहा तो लगा मेरा बच्चा सच ही रोता होगा.

‘‘एक दिन मेरा बच्चा ही किसी काम का न रहा तो मैं लक्ष्मी का भी क्या करूंगा? पिताजी की निशानी को छाती से लगाए बैठा हूं और उसी का सर्वनाश कर रहा हूं जिस का मैं भी पिता हूं. मेरा बच्चा अपने बुढ़ापे में मेरी जिद याद कर के मुझे याद करना भी पसंद नहीं करेगा. क्या मैं अपने बेटे को पीठदर्द विरासत में दे कर मरूंगा.

‘‘उसी शाम मैं ने वह स्टूल उठवा कर कुरसी वहां पर रखवा दी. मेरे बेटे का पीठदर्द लगभग ठीक है और घर में भी शांति है वरना बहू भी हर पल चिढ़ीचिढ़ी सी रहती थी. आप की वजह से मेरा घर बच गया वरना उस स्टूल की जिद से तो मैं अपना घर ही तोड़ बैठता.’’

मिठाई का एक डब्बा सामने मेज पर रखा था. उस पर एक कार्ड था. धन्यवाद का संदेश उन महाशय के बेटे ने मुझे भेजा था. क्या कहती मैं? भला मैं ने क्या किया था जो उन का धन्यवाद लेती?

‘‘आप की वह सहेली एक दिन बाजार से गुजरी तो मैं ने रोक कर आप का पता ले लिया. फोन कर के भी आप का धन्यवाद कर सकता था. फिर सोचा मैं स्वयं ही जाऊंगा. अपने बेटे के सामने तो मैं ने अपनी गलती नहीं मानी लेकिन आप के सामने स्वीकार करना चाहता हूं, अन्याय किया है मैं ने अपनी संतान के साथ… पता नहीं हम बड़े सदा बच्चों को ही दोष क्यों देते रहते हैं? कहीं हम भी गलत हैं, मानते ही नहीं. हमारे चरित्र में पता नहीं क्यों इतनी सख्ती आ जाती है कि टूट जाना तो पसंद करते हैं पर झुकना नहीं चाहते. मैं स्वीकार करना चाहता हूं, विशेषकर जब बुढ़ापा आ जाए, मनुष्य को अपने व्यवहार में लचीलापन लाना चाहिए. क्यों, है न बहनजी?’’

‘‘जी, आप ठीक कह रहे हैं. मैं भी 2 बेटों की मां हूं. शायद बुढ़ापा गहरातेगहराते आप जैसी हो जाऊं. इसलिए आज से ही प्रयास करना शुरू कर दूंगी,’’ और हंस पड़ी थी मैं. पुन: धन्यवाद कर के वह महाशय चले गए.

पति मेरा चेहरा देखते हुए कहने लगे, ‘‘ठीक कहती हो तुम, जहां कुछ कहने की जरूरत हो वहां अवश्य कह देना चाहिए. सामने वाला मान ले उस की इच्छा न माने तो भी उस की इच्छा… कम से कम हम तो एक नैतिक जिम्मेदारी से स्वयं को मुक्त कर सकते हैं न, जो हमारी अपनी चेतना के प्रति होती है. लेकिन सोचने का प्रश्न एक यह भी है कि आज कौन है जो किसी की सुनना पसंद करता है. और आज कौन इतना संवेदनशील है जो दूसरे की तकलीफ पर रात भर जागता है और अपने पति से झगड़ा भी करता है.’’

पति का इशारा मेरी ओर है, मैं समझ रही थी. सच ही तो कह रहे हैं वह, आज कौन है जो किसी की सुनना या किसी को कुछ समझाना पसंद करता है?

Hindi Love Stories : प्रेम का दूसरा नाम – क्या हो पायी उन दोनों की शादी

Hindi Love Stories : दियाबाती कर अभी उठी ही थी कि सांझ के धुंधलके में दरवाजे पर एक छाया दिखी. इस वक्त कौन आया है यह सोच कर मैं ने जोर से आवाज दी, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं, रोहित, आंटी,’’ कुछ गहरे स्वर में जवाब आया.

रोहित और इस वक्त? अच्छा है जो पूर्वा के पापा घर पर नहीं हैं, यदि होते तो भारी मुश्किल हो जाती, क्योंकि रोहित को देख कर तो उन की त्यौरियां ही चढ़ जाती हैं.

‘‘हां, भीतर आ जाओ बेटा. कहो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, आंटी, सिर्फ यह शादी का कार्ड देने आया था.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी ही है,’’ कुछ शरमाते हुए वह बोला, ‘‘अगले रविवार को शादी और सोमवार को रिसेप्शन है, आप और अंकल जरूर आना.’’

आज तक हमेशा उसे शादी के लिए उत्साहित करने वाली मैं शादी का कार्ड हाथ में थामे मुंहबाए खड़ी थी.

‘‘चलूं, आंटी, देर हो रही है,’’ रोहित बोला, ‘‘कई जगह कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘हां बेटा, बधाई हो. तुम शादी कर रहे हो, आएंगे हम, जरूर आएंगे…’’ मैं जैसे सपने से जागती हुई बोली.

बहुत खुश हो कर कहा था यह सब पर ऐसा लगा कि रोहित मेरा अपना दामाद, मेरा अपना बेटा किसी और का हो रहा है. उस पर अब मेरा कोई हक नहीं रह जाएगा.

रोहित हमारी ही गली का लड़का है और मेरी बेटी पूर्वा के साथ बचपन से स्कूल में पढ़ता था. पूर्वा की छोटीछोटी जरूरतों का खयाल करता था. पेंसिल की नोंक टूटने से ले कर उसे रास्ता पार कराने और उस का होमवर्क पूरा कराने तक. बचपन से ही रोहित का हमारे घर आनाजाना था. बच्चों के बचपन की दोस्ती ?पर पूर्वा के पापा ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जैसे ही दोनों बच्चे जवानी की ओर कदम बढ़ाने लगे वह रोहित को देखते ही नाकभौं चढ़ा लेते थे. रोहित और पूर्वा दोनों ही पापा की इस अचानक उपजी नाराजगी का कारण समझ नहीं पाते थे.

पापा का व्यवहार पहले जैसा क्यों नहीं रहा, यह बात 12वीं तक जातेजाते वे अच्छी तरह से समझ गए थे क्योंकि उन के दिल में फूटा हुआ प्रेम का नन्हा सा अंकुर अब विशाल वृक्ष बन चुका था. पापा को उन का साथ रहना क्यों नहीं अच्छा लगता है, इस का कारण वे समझ गए थे. छिप कर पूर्वा रोहित के घर जा कर नोट्स लाती थी और रोहित का तो घर के दरवाजे पर आना भी मना था.

रोहित और पूर्वा ने एकदूसरे को इतना चाहा था कि सपने में भी किसी और की कल्पना करना उन के लिए मुमकिन न था. मेरे सामने ही दोनों का प्रेम फलाफूला था. अब इस पर यों बिजली गिरते देख कर वह मन मसोस कर रह जाती थी.

एक और कारण से पूर्वा के पापा को रोहित पसंद नहीं था. वह कारण उस की गरीबी थी. पिता साधारण सी प्राइवेट कंपनी में क्लर्क थे. घर में उस के एक छोटा भाई और एक बहन थी. 3 बच्चों का भरणपोषण, शिक्षा आदि कम आय में बड़ी मुश्किल से हो पाता था. इस कारण रोहित की मां भी साड़ी में पीकोफाल जैसे छोटेछोटे काम कर के घर खर्चे में पति का हाथ बंटाती थीं. हमारी कपड़ों की 2 बड़ीबड़ी दुकानें थीं. शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार की इकलौती बेटी पूर्वा राजकुमारी की तरह रहती थी.

रुई की तरह हलके बादलों के नरम प्यार पर जब हकीकत की बिजली कड़कड़ाती है तो क्या होता है? आसमान का दिल फट जाता है और आंसुओं की बरसात शुरू हो जाती है. मैं कभी यह समझ नहीं पाई कि दुनिया बनाने वाले ने दुनिया बनाई और इस में रहने वालों ने समाज बना दिया, जिस के नियमानुसार पूर्वा रोहित के लिए नहीं बनी थी.

तभी फोन की घंटी बजी. लंदन से पूर्वा का फोन था. फोन पर पूछ रही थी, मम्मी, कैसी हो? यहां विवेक का काम ठीक चल रहा है, सोहम अब स्कूल जाने लगा है. तुम कब आओगी? पापा की तबीयत कैसी है? और भी जाने क्याक्या.

मैं कहना चाह रही थी कि रोहित के बारे में नहीं पूछोगी, उस की शादी है, बचपन की दोस्ती क्या कांच के खिलौने से भी कच्ची थी जो पल में झनझना कर टूट गई…पर कुछ न कह सकी और न ही रोहित की शादी होने वाली है यह खुशखबरी उसे सुना सकी.

दामाद विवेक के साथ बेटी पूर्वा खुश है, मुझे खुश होना चाहिए पर रोहित की आंखों में जब भी गीलापन देखती थी, खुश नहीं हो पाती थी. विवेक लंदन की एक बड़ी फर्म में इंजीनियर है. अच्छी कदकाठी, गोरा रंग, उच्च कुल के साथसाथ उच्च शिक्षित, क्या नहीं है उस के पास. पहले पूर्वा जिद पर अड़ी थी कि शादी करेगी तो रोहित से वरना कुंआरी ही रह जाएगी. पर दुनिया की ऊंचनीच के जानकार पूर्वा के पापा ने खुद की बहन के घर बेटी को ले जा कर उस को कुछ ऐसी पट्टी पढ़ाई कि वह सोचने को मजबूर हो गई कि रोहित के छोटे से घर में रहने से बेहतर है विवेक के साथ लंदन में ऐशोआराम से रहना.

बूआ के घर से वापस आ कर जब पूर्वा ने शरमाते हुए मुझ से कहा कि मुझे विवेक पसंद है, तब मेरा दिल धक् कर रह गया था. मैं अपना दिल पत्थर का करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती और यह लड़की…मेरी अपनी लड़की सबकु छ भूल गई. लेकिन यह मेरी भूल थी.

लंदन में सबकुछ होते हुए भी वह रोहित के बेतहाशा प्यार को अभी भी भूल नहीं पाई थी.

पूर्वा के पापा आ गए थे. बोले, ‘‘क्या हुआ, आज बड़ी अनमनी सी लग रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ उन के हाथ से बैग लेते हुए मैं बोली, ‘‘पूर्वा की याद आ रही है.’’

‘‘तो फोन कर लो.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले ही तो उस का फोन आया था, आप को याद कर रही थी.’’

‘‘हां, सोचता हूं, अगले माह तक हम लंदन जा कर पूर्वा से मिल आते हैं. और यह किस की शादी का कार्ड रखा है?’’

‘‘रोहित की.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ जो वह शादी कर रहा है. हां, लड़की कौन है?’’

‘‘फैजाबाद की किसी मिडिल क्लास परिवार की लगती है.’’

‘‘अच्छा है, जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारने चाहिए.’’

मैं रसोई में जा कर उन के लिए थाली लगाने लगी. वह जाने क्याक्या बोल रहे थे. मेरा ध्यान रोहित की ओर गया, जिसे मैं बेटे से बढ़ कर मानती हूं. उस के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकती.

पूर्वा के विवाह वाले दिन वह कैसे सुन्न खड़ा था. मैं ने देखा था और देख कर आंखें भर आई थीं. कुछ और तो न कर सकी, बस, पीठ पर हाथ फेर कर मैं ने मूक दिलासा दिया था उसे.

उस का यह उदास रूप देख कर हाथ में रखी द्वाराचार के लिए सजी थाली मनों भारी हो गई थी, पैर दरवाजे की ओर उठ नहीं रहे थे. मैं पूर्वा की मां हूं, बेटी की शादी पर मुझे बहुत खुश होना चाहिए था पर भीतर से ऐसा लग रहा था कि जो कुछ हो रहा है, गलत हो रहा है. शादी के लिए जिस पूर्वा को जोरजबरदस्ती से तैयार किया था, वह जयमाला से पहले फूटफूट कर रो पड़ी थी. तब मैं ने उसे कलेजे से लगा लिया था.

बिदाई के समय पीछे मुड़मुड़ कर पूर्वा की आंखें किसे ढूंढ़ रही थीं वह भी मुझे मालूम था. उस समय दिल से आवाजें आ रही थीं :  पूर्वा, रूपरंग और दौलत ही सबकुछ नहीं होते, इस प्यार के सागर को ठुकराएगी तो उम्रभर प्यासी रह जाएगी.

पता नहीं ये आवाजें उस तक पहुंचीं कि नहीं, पर उस के जाने के बाद मानो सारा घरआंगन चीखचीख कर कह रहा था, मन के रिश्ते कोई और होते हैं, जो किसी को दिखाए नहीं जाते और निभाने के रिश्ते कोई और होते हैं जो सिर्फ निभाए जाते हैं. तब से जब भी रोहित को देखती हूं दिल फट जाता है.

पूर्वा की शादी को अब पूरे 7 बरस हो गए हैं और रोहित इन 7 वर्षों तक उस की याद में तिलतिल जलने के बाद अब ब्याह कर रहा है. कितने दिनों से उसे समझा रही थी कि अब नौकरी लग गई है. बेटा, तू भी शादी कर ले तो वह हंस कर टाल जाता था. पिता के रिटायर होने पर उन की जगह ही उसे काम मिला था और घर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है. उस से अच्छीखासी कमाई हो जाती है. 2 साल हुए उस ने छोटी बहन की अच्छे घर में शादी कर दी है और भाई को इंजीनियरिंग करवा रहा है. मां का काम उस ने छुड़वा दिया है और मुझे लगता है कि मां को आराम मिले इस के लिए ही उस ने शादी की सोची है.

रोहित जैसा गुणी और आज्ञाकारी पुत्र इस जमाने में मिलना कठिन है. मेरे तो बेटा ही नहीं है, उसे ही बेटे के समान मानती थी. उस की शादी फैजाबाद में थी. वहां जाना नहीं हो सकता था इसलिए बहू की मुंहदिखाई और स्वागत समारोह में जाना मैं ने उचित समझा.

रोहित के लिए सुंदर रिस्टवाच और बहू के लिए साड़ी और झुमके खरीदे थे. बहुत खुशी थी अब मन में. इन 7 वर्षों के अंतराल में रिश्ते उलटपुलट गए थे. रोहित, जिसे मैं दामाद मानती थी, बेटा बन चुका था. अब मेरी बहू आ रही थी. पता नहीं कैसी होगी बहू…पगले ने फोटो तक नहीं दिखाई.

स्वागत समारोह के उस भीड़- भड़क्के में रोहित ने पांव छू कर मुझे नमस्कार किया. उस की देखादेखी अर्चना भी नीचे झुकने लगी तो मैं ने उसे बांहों में भर झुकने से मना किया.

अर्चना सांवली थी पर तीखे नैननक्श के कारण भली लग रही थी. उपहार देते हुए मैं चंद पलों को उन्हें निहारती रह गई. परिचय कराते वक्त रोहित ने अर्चना से धीरे से कहा, ‘‘ये पूर्वा के मम्मीपापा हैं.

उस लड़की ने नमस्कार के लिए एक बार और हाथ जोड़ दिए. जेहन में फौरन सवाल उभरा, ‘क्या पूर्वा के बारे में सबकुछ रोहित ने इसे बता दिया है.’ मैं असमंजस में पड़ी खड़ी थी. तभी रोहित की मां हाथ पकड़ कर खाना खिलाने के लिए लिवा ले गईं.

अर्चना ने रोहित का घर खूब अच्छे से संभाल लिया था. अपनी सास को तो वह किसी काम को हाथ नहीं लगाने देती थी. कभीकभी मेरे पास आती तो पूर्वा के बारे में ही बातें करती रहती थी. न जाने कितने प्रकार के व्यंजन बनाने की विधियां मुझ से सीख कर गई और बड़े प्रयत्नपूर्वक कोई नया व्यंजन बना कर कटोरा भर मेरे लिए ले आती थी.

पूर्वा के पापा का ब्लडप्रेशर पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था, अत: हमारा लंदन जाने का कार्यक्रम स्थगित हो चुका था. अब की सितंबर में पूर्वा आ रही थी. विवेक को छुट्टी नहीं थी. पूर्वा और सोहम दोनों ही आ रहे थे. जिस रोहित से पूर्वा लड़तीझगड़ती रहती थी, जिस पर अपना पूरा हक समझती थी, अब उसे किसी दूसरी लड़की के साथ देख कर उस पर क्या बीतेगी, मैं यही सोच रही थी.

रोहित की शादी के बारे में मैं ने उसे फोन पर बताया था. सुन कर उस ने सिर्फ इतना कहा था कि चलो, अच्छा हुआ शादी कर ली और कितने दिन अकेले रहता.

अभी पूर्वा को आए एक दिन ही बीता था. रोहित और अर्चना तैयार हो कर कहीं जा रहे थे. मैं ने पूर्वा को खिड़की पर बुलाया तो रोहित के बाजू में अर्चना को चलते देख मानो उस के दिल पर सांप लोट रहा था. मैं ने कहा, ‘‘वह देख, रोहित की पत्नी अर्चना.’’

अर्चना को देख कर पूर्वा ने मुंह बना कर कहा, ‘‘ऊंह, इस कालीकलूटी से ब्याह रचाया है.’’

‘‘ऐसा नहीं बोलते, अर्चना बहुत गुणी लड़की है,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘हूं, जब रूप नहीं मिलता तभी गुण के चर्चे किए जाते हैं,’’ उपेक्षित स्वर में पूर्वा बोली.

‘‘छोड़ यह सब, चल, सोहम को नहला कर खाना खिलाना है,’’ मैं ने उस का ध्यान इन सब बातों से हटाने के लिए कहा.

पर अर्चना को देखने के बाद पूर्वा अनमनी सी हो गई थी. दोपहर को बोली, ‘‘मम्मी, मुझे रोहित से मिलना है.’’

‘‘शाम 6 बजे के बाद जाना, तब तक वह आफिस से आ जाता है. हां, पर भूल कर भी अर्चना के सामने कुछ उलटासीधा न कहना.’’

‘‘नहीं, मम्मी,’’ पूर्वा मेरे गले में हाथ डाल कर बोली, ‘‘पागल समझा है मुझे.’’

मैं, सोहम और पूर्वा शाम को रोहित के घर गए. गले में फंसी हुई आवाज के साथ पूर्वा उसे विवाह की बधाई दे पाई. रोहित ने कुछ देर को उस के और विवेक के बारे में पूछा फिर सोहम के साथ खेलने लगा. इतने में अर्चना चायनाश्ता बना लाई. मैं, अर्चना और रोहित की मां बातें करने लगे.

खेलखेल में सोहम ने रोहित की जेब से पर्स निकाल कर जब हवा में उछाल दिया तो नोटों के साथ कुछ गिरा था. वह रोहित और पूर्वा के बचपन की तसवीर थी जिस में दोनों साथसाथ खडे़ थे.

तसवीर देख कर हम मांबेटी भौचक्के रह गए पर अर्चना ने पैसों के साथ वह तसवीर भी वापस पर्स में रख दी और हंस कर कहा, ‘‘पूर्वा दीदी, बचपन में कटे बालों में आप बहुत सुंदर दिखती थीं. रोहित को देख कर तो मैं बहुत हंसती हूं…इस ढीलेढाले हाफ पैंट में जोकर नजर आते हैं.’’

बात आईगई हो गई पर हम समझ चुके थे कि अर्चना पूर्वा के बारे में सब जानती है. पूर्वा जिस दिन लंदन वापस जा रही थी, अर्चना उपहार ले कर आई थी.

‘‘लो, दीदी, मेरी ओर से यह रखो. आप रोहित का पहला प्यार हैं, मैं जानती हूं, वह अभी तक आप को नहीं भूले हैं. वह आप को बहुत चाहते हैं और मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. इसलिए वह जिसे चाहते हैं मैं भी उसे बहुत चाहती हूं.’’

उस की यह सोच पूर्वा की समझ से बाहर की थी. पूर्वा ने धीरे से ‘थैंक्यू’ कहा.

आज तक रोहित पर अपना एकाधिकार जताने वाली पूर्वा समझ चुकी थी कि प्रेम का दूसरा नाम त्याग है. आज अर्चना के प्रेम के समक्ष उसे अपना प्रेम बौना लग रहा था.

लेखक- ज्योति गजभिये

Latest Hindi Stories : उसी दहलीज पर बारबार – क्या था रोहित का असली चेहरा

Latest Hindi Stories : घड़ी की तरफ देख कर ममता ने कहा, ‘‘शकुन, और कोई बैठा हो तो जल्दी से अंदर भेज दो. मुझे अभी जाना है.’’

और जो व्यक्ति अंदर आया उसे देख कर प्रधानाचार्या ममता चौहान अपनी कुरसी से उठ खड़ी हुईं.

‘‘रोहित, तुम और यहां?’’

‘‘अरे, ममता, तुम? मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यहां इस तरह तुम से मुलाकात होगी. यह मेरी बेटी रिया है. 6 महीने पहले इस की मां की मृत्यु हो गई. तब से बहुत परेशान था कि इसे कैसे पालूंगा. सोचा, किसी आवासीय स्कूल में दाखिला करा दूं. किसी ने इस स्कूल की बहुत तारीफ की थी सो चला आया.’’

‘‘बेटे, आप का नाम क्या है?’’

‘‘रिया.’’

बच्ची को देख कर ममता का हृदय पिघल गया. वह सोचने लगी कि इतना कुछ खोने के बाद रोहित ने कैसे अपनेआप को संभाला होगा.

‘‘ममता, मैं अपनी बेटी का एडमिशन कराने की बहुत उम्मीद ले कर यहां आया हूं,’’ इतना कह कर रोहित न जाने किस संशय से घिर गया.

‘‘कमाल करते हो, रोहित,’’ ममता बोली, ‘‘अपनी ही बेटी को स्कूल में दाखिला नहीं दूंगी? यह फार्म भर दो. कल आफिस में फीस जमा कर देना और 7 दिन बाद जब स्कूल खुलेगा तो इसे ले कर आ जाना. तब तक होस्टल में सभी बच्चे आ जाएंगे.’’

‘‘7 दिन बाद? नहीं ममता, मैं दोबारा नहीं आ पाऊंगा, तुम इसे अभी यहां रख लो और जो भी डे्रस वगैरह खरीदनी हो आज ही चल कर खरीद लेते हैं.’’

‘‘चल कर, मतलब?’’

‘‘यही कि तुम साथ चलो, मैं इस नई जगह में कहां भटकूंगा.’’

‘‘रोहित, मेरा जाना कठिन है,’’ फिर उस ने बच्ची की ओर देखा जो उसे ही देखे जा रही थी तो वह हंस पड़ी और बोली, ‘‘अच्छा चलेंगे, क्यों रियाजी?’’

शकुन आश्चर्य से अपनी मैडम को देखे जा रही थी. इतने सालों में उस ने ऐसा कभी नहीं देखा कि प्रधानाचार्या स्कूल का जरूरी काम टाल कर किसी के साथ जाने को तैयार हुई हों. उस के लिए तो सचमुच यह आश्चर्य की ही बात थी.

‘‘मैडम, खाना?’’ शकुन ने डरतेडरते पूछा.

‘‘ओह हां,’’ कुछ याद करती हुई ममता चौहान बोलीं, ‘‘देखो शकुन, कोई फोन आए तो कह देना, मैं बाहर गई हूं. और खाना भी लौट कर ही खाएंगे. हां, खाना थोड़ा ज्यादा ही बना लेना.’’

मेज पर फैली फाइलों को रख देने का शकुन को इशारा कर ममता चौहान उठ गईं और रोहित व रिया को साथ ले कर गेट से बाहर निकल गईं.

‘‘रुको, रोहित, जीप बुलवा लेते हैं,’’ नर्वस ममता ने कहा, ‘‘पर जीप भी बाजार के अंदर तक नहीं जाएगी. पैदल तो चलना ही पड़ेगा.’’

यद्यपि रिया उन के साथ चल रही थी पर कोई भी बाल सुलभ चंचलता उस के चेहरे पर नहीं थी. ममता ने ध्यान दिया कि रोहित का चेहरा ही नहीं बदन  भी कुछ भर गया है. पूरे 8 साल के बाद वह रोहित को देख रही थी. अतीत में उस के द्वारा की गई बेवफाई के बाद भी ममता का दिल रोहित के लिए मानो प्रेम से लबालब भरा हुआ था.

ममता को विश्वविद्यालय के वे दिन याद आए जब सुनसान जगह ढूंढ़ कर किसी पेड़ के नीचे वे दोनों बैठे रहते थे. कभीकभी वह भयभीत सी रोहित के सीने में मुंह छिपा लेती थी कि कहीं उस के प्यार को किसी की नजर न लग जाए.

जीप अपनी गति से चल रही थी. अतीत के खयालों में खोई हुई ममता रोहित को प्यार से देखे जा रही थी. उसे 8 साल बाद भी रोहित उसी तरह प्यारा लग रहा था जैसे वह कालिज के दिनों में लगताथा.

ममता ने रोहित को भी अपनी ओर देखते पाया तो वह झेंप गई.

‘‘तुम आज भी वैसी ही हो, ममता, जैसी कालिज के दिनों में थीं,’’ रोहित ने बेझिझक कहा, ‘‘उम्र तो मानो तुम्हें छू भी नहीं सकी है.’’

तभी जीप रुक गई और दोनों नीचे उतर कर एक रेडीमेड कपड़ों की दुकान की ओर चल दिए. ममता ने रिया को स्कूल डे्रस दिलवाई. वह जिस उत्साह से रिया के लिए कपड़ों की नापजोख कर रही थी उसे देख कर कोई भी यह अनुमान लगा सकता था कि मानो वह उसी की बेटी हो.

दूसरी जरूरत की चीजें, खानेपीने की चीजें ममता ने स्वयं रिया के लिए खरीदीं. यह देख कर रोहित आश्वस्त हो गया कि रिया यहां सुखपूर्वक, उचित देखरेख में रहेगी.

ममता बाजार से वापस लौटी तो उस का तनमन उत्साह से लबालब भरा था. उस के इस नए अंदाज को शकुन ने पहली बार देखा तो दंग रह गई कि जो मैडमजी मुसकराती भी हैं तो लगता है उन के अंदर एक खामोशी सी है, वह आज कितना चहक रही हैं लेकिन उन का व्यक्तित्व ऐसा है कि कोई भी कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता.

कौन है यह व्यक्ति और उस की छोटी बच्ची… क्यों मैडम इतनी खुश हैं, शकुन समझ नहीं पा रही थी.

ममता ने चाहा था कि कम से कम 2 दिन तो रोहित उस के पास रुके, लेकिन वह रुका नहीं… रोती हुई रिया को गोद में ले कर ममता ने ही संभाला था.

‘‘मैडमजी, इस बच्ची को होस्टल में छोड़ दें क्या?’’

‘‘अरी, पागल हो गई है क्या जो खाली पड़े होस्टल में बच्ची को छोड़ने की बात कह रही है. बच्चों को होस्टल में आने तक रिया मेरे पास ही रहेगी.’’

शकुन सोच रही थी कि सोमी मैडम भी घर गई हैं वरना वह ही कुछ बतातीं. जाने क्यों उस के दिल में उस अजनबी पुरुष और उस के बच्चे को ले कर कुछ खटक रहा था. उसे लग रहा था कि कहीं कुछ ऐसा है जो मैडमजी के अतीत से जुड़ा है. वह इतना तो जानती थी कि ममता मैडम और सोमी मैडम एकसाथ पढ़ी हैं. दोनों कभी सहेली रही थीं, तभी तो सोमी मैडम बगैर इजाजत लिए ही प्रिंसिपल मैडम के कमरे में चली जाती हैं जबकि दूसरी मैडमों को कितनी ही देर खड़े रहना पड़ता है.

दूसरे दिन सुबह शकुन उठी तो देखा मैडम हाथ में दूध का गिलास लिए रिया के पास जा रही थीं. प्यार से रिया को दूध पिलाने के बाद उस के बाल संवारने लगीं. तभी शकुन पास आ कर बोली, ‘‘लाओ, मैडम, बिटिया की चोटी मैं गूंथे दे रही हूं. आप चाय पी लें.’’

‘‘नहीं, तुम जाओ, शकुन… नाश्ता बनाओ…चोटी मैं ही बनाऊंगी.’’

चोटी बनाते समय ममता ने रिया से पूछा, ‘‘क्यों बेटे, तुम्हारी मम्मी को क्या बीमारी थी?’’

‘‘मालूम नहीं, आंटी,’’ रिया बोली, ‘‘मम्मी 4-5 महीने अस्पताल में रही थीं, फिर घर ही नहीं लौटीं.’’

एक हफ्ता ऐसे ही बीत गया. रिया भी ममता से बहुत घुलमिल गई थी. लड़कियां होस्टल में आनी शुरू हो गई थीं. सोमी भी सपरिवार लौट आई थी. शकुन ने ही जा कर सोमी को सारी कहानी सुनाई.

सोमी ने शकुन को यह कह कर भेज दिया कि ठीक है, शाम को देखेंगे.

शाम को सोमी ममता से मिलने उस के घर आई तो ममता ने बिना किसी भूमिका के बता दिया कि रिया रोहित की बेटी है और उस की मां का पिछले साल निधन हो गया है. रोहित हमारे स्कूल में अपनी बच्ची का दाखिला करवाने आया था.

‘‘रोहित को कैसे पता चला कि तुम यहां हो?’’ सोमी ने पूछा.

‘‘नहीं, उस को पहले पता नहीं था. वह भी मुझे देख कर आश्चर्य कर रहा था.’’

थोड़ी देर बैठ कर सोमी अपने घर लौट गई. उसे कुछ अच्छा नहीं लगा था यह ममता ने साफ महसूस किया था. वह बिस्तर पर लेट गई और अतीत के बारे में सोचने लगी. ममता और रोहित एक- साथ पढ़ते थे और वह उन से एक साल जूनियर थी. इन तीनों के ग्रुप में योगेश भी था जो उस की क्लास में था. योगेश की दोस्ती रोहित के साथ भी थी, उधर रोहित और ममता भी एक ही क्लास में पढ़ने के कारण दोस्त थे. फिर चारों मिले और उन की एकदूसरे से दोस्ती हो गई.

ममता का रंग गोरा और बाल काले व घुंघराले थे जो उस के खूबसूरत चेहरे पर छाए रहते थे.

रोहित भी बेहद खूबसूरत नौजवान था. जाने कब रोहित और ममता में प्यार पनपा और फिर तो मानो 2-3 साल तक दोनों ने किसी की परवा भी नहीं की. दोनों के प्यार को एक मुकाम हासिल हो इस प्रयास में सोमी व योगेश ने उन का भरपूर साथ दिया था.

ममता और रोहित ने एम.एससी. कर लिया था. सोमी बी.एड. करने चली गई और योगेश सरकारी नौकरी में चला गया. यह वह समय था जब चारों बिछड़ रहे थे.

रोहित ने ममता के घर जा कर उस के मातापिता को आश्वस्त किया था कि बढि़या नौकरी मिलते ही वे विवाह करेंगे और उस के बूढ़े मातापिता अपनी बेटी की ओर से ऐसा दामाद पा कर आश्वस्त हो चुके थे.

ममता की मां तो रोहित को देख कर निहाल हो रही थीं वरना उन के घर की जैसी दशा थी उस में उन्होंने अच्छा दामाद पा लेने की उम्मीद ही छोड़ दी थी. पति रिटायर थे. बेटा इतना स्वार्थी निकला कि शादी करते ही अलग घर बसा लिया. पति के रिटायर होने पर जो पैसा मिला उस में से कुछ उन की बीमारी पर और कुछ बेटे की शादी पर खर्च हो गया.

एक दिन रोहित को उदास देख कर ममता ने उस की उदासी का कारण पूछा तो उस ने बताया कि उस के पापा उस की शादी कहीं और करना चाहते हैं. तब ममता बहुत रोई थी. सोमी और योगेश ने भी रोहित को बहुत समझाया लेकिन वह लगातार मजबूर होता जा रहा था.

आखिर रोहित ने शिखा से शादी कर ली. इस शादी से जितनी ममता टूटी उस से कहीं ज्यादा उस के मातापिता टूटे थे. एक टूटे परिवार को ममता कहां तक संभालती. घोर हताशा और निराशा में उस के दिन बीत रहे थे. वह कहीं चली जाना चाहती थी जहां उस को जानने वाला कोई न हो. और फिर ममता का इस स्कूल में आने का कठोर निर्णय रोहित की बेवफाई थी या कोई मजबूरी यह वह आज तक समझ ही नहीं पाई.

इस अनजाने शहर में ममता का सोमी से मिलना भी महज एक संयोग ही था. सोमी भी अपने पति व दोनों बच्चों के साथ इसी शहर में रह रही थी. दोनों गले मिल कर खूब रोई थीं. सोमी यह जान कर अवाक्  थी… कोई किसी को कितना चाह सकता है कि बस, उसी की यादों के सहारे पूरी जिंदगी बिताने का फैसला ले ले.

सोमी को भी ममता ने स्कूल में नौकरी दिलवा दी तो एक बार फिर दोनों की दोस्ती प्रगाढ़ हो गई.

स्कूल ट्रस्टियों ने ममता की काबिलीयत और काम के प्रति समर्पण भाव को देखते हुए उसे प्रिंसिपल बना दिया. उस ने भी प्रिंसिपल बनते ही स्कूल की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और उस की देखरेख में स्कूल अनुशासित हो प्रगति करने लगा.

अतीत की इन यादों में खोई सोमी कब सो गई उसे पता ही नहीं चला. जब उठी तो देखा दफ्तर से आ कर पति उसे जगा रहे हैं.

‘‘ममता, तुम जानती हो, रिया रोहित की लड़की है. इतना रिस्पांस देने की क्या जरूरत है?’’ एक दिन चिढ़ कर सोमी ने कहा.

‘‘जानती हूं, तभी तो रिस्पांस दे रही हूं. क्या तुम नहीं जानतीं कि अतीत के रिश्ते से रिया मेरी बेटी ही है?’’

अब क्या कहती सोमी? न जाने किस रिश्ते से आज तक ममता रोहित से बंधी हुई है. सोमी जानती है कि उस ने अपनी अलमारी में रोहित की बड़ी सी तसवीर लगा रखी है. तसवीर की उस चौखट में वह रोहित के अलावा किसी और को बैठा ही नहीं पाई थी.

ममता को लगता जैसे बीच के सालों में उस ने कोई लंबा दर्दनाक सपना देखा हो. अब वह रोहित के प्यार में पहले जैसी ही पागल हो उठी थी.

पापा की मौत हो चुकी थी और मां को भाई अपने साथ ले गया था. जब उम्र का वह दौर गुजर जाए तो विवाह में रुपयों की उतनी आवश्यकता नहीं रह जाती जितना जीवनसाथी के रूप में किसी को पाना.

विधुर कर्नल मेहरोत्रा का प्रस्ताव आया था और ममता ने सख्ती से मां को मना कर दिया था. स्कूल के वार्षिकोत्सव में एम.पी. सुरेश आए थे, उन की उम्र ज्यादा नहीं थी, उन्होंने भी ममता के साथ विवाह का प्रस्ताव भेजा था. इस प्रस्ताव के लिए सोमी और उस के पति ने ममता को बहुत समझाया था. तब उस ने इतना भर कहा था, ‘‘सोमी, प्यार सिर्फ एक बार किया जाता है. मुझे प्यारहीन रिश्तों में कोई विश्वास नहीं है.’’

प्यार और विश्वास ने ममता के भीतर फिर अंगड़ाई ली थी. रोहित आया तो उस ने आग्रह कर के उसे 3-4 दिन रोक लिया. पहले दिन रोहित, ममता और सोमी तीनों मिल कर घूमने गए. बाहर ही खाना खाया.

सोमी कुछ ज्यादा रोहित से बोल नहीं पाई… क्या पता रोहित ही सही हो… वह ममता की कोमल भावनाएं कुचलना नहीं चाहती थी. अगर ममता की जिंदगी संवर जाए तो उसे खुशी ही होगी.

अगले दिन ममता रोहित के साथ घूमने निकली. थोड़ी देर पहले ही बारिश हुई थी. अत: ठंड बढ़ गई थी.

‘‘कौफी पी ली जाए, क्यों ममता?’’ उसे रोहित का स्वर फिर कालिज के दिनों जैसा लगा.

‘‘हां, जरूर.’’

रेस्तरां में लकड़ी के बने लैंप धीमी रोशनी देते लटक रहे थे. रोहित गहरी नजरों से ममता को देखे जा रहा था और वह शर्म के मारे लाल हुई  जा रही थी. उस को कालिज के दिनों का वह रेस्तरां याद आया जहां दोनों एकदूसरे में खोए घंटों बैठे रहते थे.

‘‘कहां खो गईं, ममता?’’ इस आवाज से उस ने हड़बड़ा कर देखा तो रोहित का हाथ उस के हाथ के ऊपर था. सालों बाद पुरुष के हाथ की गरमाई से वह मोम की तरह पिघल गई.

‘‘रोहित, क्या तुम ने कभी मुझे मिस नहीं किया?’’

‘‘ममता, मैं ने तुम्हें मिस किया है. शिखा के साथ रहते हुए भी मैं सदा तुम्हारे साथ ही था.’’

रोहित की बातें सुन कर ममता भीतर तक भीग उठी.

पहाड़ खामोश थे… बस्ती खामोश थी… हर तरफ पसरी खामोशी को देख कर ममता को नहीं लगता कि जिंदगी कहीं है ही नहीं… फिर वह क्यों जिंदगी के लिए इतनी लालायित रहती है. वह भी उम्र के इस पड़ाव पर जब इनसान व्यवस्थित हो चुका होता है. वह क्यों इतनी अव्यवस्थित सी है और उस के मन में क्यों यह इच्छा होती है कि यह जो पुरुष साथ चल रहा है, फिर पुराने दिन वापस लौटा दे?

ममता ने महसूस किया कि वह अंदर से कांप रही है और उस ने शाल को सिर से ओढ़ लिया, फिर भी ठंड गई नहीं. उस पर रोहित ने जब उस  का हाथ पकड़ा तो वह और भी थरथरा उठी. गरमाई का एक प्रवाह उस के अंदर तिरोहित होने लगा तो वह रोहित से और भी सट गई. रोहित उस के कंधे पर हाथ रख कर उसे अपनी ओर खींच कर बोला, ‘‘कांप रही हो तुम तो,’’ और फिर रोहित ने उसे समूचा भींच लिया था.

ममता को लगा कि बस, ये क्षण… यहीं ठहर जाएं. आखिर इसी लमहे व रोहित को पाने की चाहत में तो उस ने इतने साल अकेले बिताए हैं.

शकुन इंतजार कर के लौट गई थी. मेज पर खाना रखा था. उस ने ढीलीढाली नाइटी पहन ली और खाना लगाने लगी. फायरप्लेस में बुझती लकडि़यों में उस ने और लकडि़यां डाल दीं.

दोनों चुपचाप खाना खाते रहे. अचानक ममता ने पूछा, ‘‘अब क्या रुचि है तुम्हारी, रोहित? कुछ पढ़ते हो या… बस, गृहस्थी में ही रमे रहते हो?’’

‘‘अरे, अब कुछ भी पढ़ना कहां संभव हो पाता है, अब तो जिंदगी का यथार्थ सामने है. बस, काम और काम, फिर थक कर सो जाना.’’

बहुत देर तक दोनों बातें करते रहे. फायरप्लेस में लकडि़यां डालने के बाद ममता अलमारी खोल कर वह नोटबुक निकाल लाई जिस में कालिज के दिनों की ढेरों यादें लिखी थीं. रोहित को यह देख कर आश्चर्य हुआ, ममता की अलमारी में उस की तसवीर रखी है.

नोटबुक के पन्ने फड़फड़ा रहे थे. अनमनी सी बैठी ममता का चेहरा रोहित ने अपने हाथों में ले कर अधरों का एक दीर्घ चुंबन लिया. ममता ने आंखें बंद कर लीं. उस के बदन में हलचल हुई तो उस ने रोहित को खींच कर लिपटा लिया. बरसों का बांध कब टूट गया, पता ही नहीं चला.

‘‘क्या आज ही जाना जरूरी है, रोहित?’’ सुबह सो कर उठने के बाद रात की खामोशी को ममता ने ही तोड़ा था.

‘‘हां, ममता, अब और नहीं रुक सकता. वहां मुझे बहुत जरूरी काम है,’’ अटैची में कपड़े भरते हुए रोहित ने कहा.

ममता ने रिया को बुलवा लिया था. जाने का क्षण निकट था. रिया रो रही थी. ममता की आंखें भी भीगी हुई थीं. उस के मन में विचार कौंधा कि क्या अब भी रोहित से कहना पड़ेगा कि मुझे अपनालो… अकेले अब मुझ से नहीं रहा जाता. तुम्हारी चाहत में कितने साल मैं ने अकेले गुजारे हैं. क्या तुम इस सच को नहीं जानते?

सबकुछ अनकहा ही रह गया. रोहित लगातार खामोश था. उस को गए 5 महीने बीत गए. फोन पर वह रिया का हालचाल पूछ लेता. ममता यह सुनने को तरस गई कि ममता, अब बहुत हुआ. तुम्हें मेरे साथ चलना होगा.

वार्षिक परीक्षा समाप्त हो गई थी. सभी बच्चे घर वापस जा रहे थे. रोहित का फोन उस आखिरी दिन आया था जब होस्टल बंद हो रहा था.

‘‘रिया की मौसी आ रही हैं. उन के साथ उसे भेज देना.’’

‘‘तुम नहीं आओगे, रोहित?’’

‘‘नहीं, मेरा आना संभव नहीं होगा.’’

‘‘क्यों?’’ और उस के साथ फोन कट गया था. कानों में सीटी बजती रही और ममता रिसीवर पकड़े हतप्रभ रह गई.

दूसरे दिन रिया की मौसी आ गईं. होस्टल से रिया उस के घर ही आ गई थी क्योंकि होस्टल खाली हो चुका था.

‘‘रोहित को ऐसा क्या काम आ पड़ा जो अपनी बेटी को लेने वह नहीं आ सका?’’ ममता ने रिया की मौसी से पूछा.

‘‘सच तो यह है ममताजी कि शिखा दीदी की मौत के बाद रोहित जीजाजी के सामने रिया की ही समस्या है क्योंकि वह अब जिस से शादी करने जा रहे हैं, वह उन की फैक्टरी के मालिक की बेटी है. लेकिन वह रिया को रखना नहीं चाहती और मेरी भी पारिवारिक समस्याएं हैं, क्या करूं… शायद मेरी मां ही अब रिया को रखेंगी. एक बात और बताऊं, ममताजी कि रोहित जीजाजी हमेशा से ही उच्छृंखल स्वभाव के रहे हैं. शिखा दीदी के सामने ही उन का प्रेम इस युवती से हो गया था… मुझे तो लगता है कि शिखा दीदी की बीमारी का कारण भी यही रहा हो, क्योंकि दीदी ने बीच में एक बार नींद की गोलियां खा ली थीं.’’

इतना सबकुछ बतातेबताते रिया की मौसी की आवाज तल्ख हो गई थी और उन के चुप हो जाने तक ममता पत्थर सी बनी बिना हिलेडुले अवाक् बैठी रह गई. याद नहीं उसे आगे क्या हुआ. हां, आखिरी शब्द वह सुन पाई थी कि रोहित जीजाजी ने जहां कालिज जीवन में प्यार किया था, वहां विवाह न करने का कारण कोई मजबूरी नहीं थी बल्कि वहां भी उन का कैरियर और भारी दहेज ही कारण था.

तपते तेज बुखार में जब ममता ने आंखें खोलीं तो देखा रिया उस के पास बैठी उस का हाथ सहला रही है और शकुन माथे पर पानी की पट्टियां रख रहीहै.

ममता ने सोमी की तरफ हाथ बढ़ा दिए और फिर दोनों लिपट कर रोने लगीं तो शकुन रिया को ले कर बाहर के कमरे में चली गई.

‘‘सोमी, मैं ने अपनी संपूर्ण जिंदगी दांव पर लगा दी, और वह राक्षस की भांति मुझे दबोच कर समूचा निगल गया.’’

सोमी ने उस का माथा सहलाया और कहा, ‘‘कुछ मत बोलो, ममता, डाक्टर ने बोलने के लिए मना किया है. हां, इस सदमे से उबरने के लिए तुम्हें खुद अपनी मदद करनी होगी.’’

ममता को लगा कि जिन हाथों की गरमी से वह आज तक उद्दीप्त थी वही स्पर्श अब हजारहजार कांटों की तरह उस के शरीर में चुभ रहे हैं. काश, वह भी सांप के केंचुल की तरह अपने शरीर से उस केंचुल को उतार फेंकती जिसे रोहित ने दूषित किया था… कितना वीभत्स अर्थ था प्यार का रोहित के पास.

‘‘सोमी,’’ वह टूटी हुई आवाज में बोली, ‘‘मैं रिया के बगैर कैसे रहूंगी,’’ और उस ने अपनी आंखें बंद कर लीं. एक भयावह स्वप्न देख घबरा कर ममता ने आंखें खोलीं तो देखा सोमी फोन पर बात कर रही थी, ‘‘रोहित, तुम ने जो भी किया उस के बारे में मैं तुम से कुछ नहीं कहूंगी, लेकिन क्या तुम रिया को ममता के पास रहने दोगे? शायद ममता से बढ़ कर उसे मां नहीं मिल सकती…’’

रिया की मौसी ने रिया को ला कर ममता की गोद में डाल दिया और बोली, ‘‘मैं सब सुन चुकी हूं. सोमीजी… रिया अब ममता के पास ही रहेगी, इन की बेटी की तरह, इसे स्वीकार कीजिए.’’

Hindi Moral Tales : आंधी से बवंडर की ओर

Hindi Moral Tales :  फन मौल से निकलतेनिकलते, थके स्वर में मैं ने अपनी बेटी अर्पिता से पूछा, ‘‘हो गया न अप्पी, अब तो कुछ नहीं लेना?’’

‘‘कहां, अभी तो ‘टी शर्ट’ रह गई.’’

‘‘रह गई? मैं तो सोच रही थी…’’

मेरी बात बीच में काट कर वह बोली, ‘‘हां, मम्मा, आप को तो लगता है, बस थोडे़ में ही निबट जाए. मेरी सारी टी शर्ट्स आउटडेटेड हैं. कैसे काम चला रही हूं, मैं ही जानती हूं…’’

सुन कर मैं निशब्द रह गई. आज की पीढ़ी कभी संतुष्ट दिखती ही नहीं. एक हमारा जमाना था कि नया कपड़ा शादीब्याह या किसी तीजत्योहार पर ही मिलता था और तब उस की खुशी में जैसे सारा जहां सुंदर लगने लगता.

मुझे अभी भी याद है कि शादी की खरीदारी में जब सभी लड़कियों के फ्राक व सलवारसूट के लिए एक थान कपड़ा आ जाता और लड़कों की पतलून भी एक ही थान से बनती तो इस ओर तो किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि लोग सब को एक ही तरह के कपड़ों में देख कर मजाक तो नहीं बनाएंगे…बस, सब नए कपड़े की खुशी में खोए रहते और कुछ दिन तक उन कपड़ों का ‘खास’ ध्यान रखा जाता, बाकी सामान्य दिन तो विरासत में मिले कपड़े, जो बड़े भाईबहनों की पायदान से उतरते हुए हम तक पहुंचते, पहनने पड़ते थे. फिर भी कोई दुख नहीं होता था. अब तो ब्रांडेड कपड़ों का ढेर और बदलता फैशन…सोचतेसोचते मैं अपनी बेटी के साथ गाड़ी में बैठ गई और जब मेरी दृष्टि अपनी बेटी के चेहरे पर पड़ी तो वहां मुझे खुशी नहीं दिखाई पड़ी. वह अपने विचारों में खोईखोई सी बोली, ‘‘गाड़ी जरा बुकशौप पर ले लीजिए, पिछले साल के पेपर्स खरीदने हैं.’’

सुन कर मेरा दिल पसीजने लगा. सच तो यह है कि खुशी महसूस करने का समय ही कहां है इन बच्चों के पास. ये तो बस, एक मशीनी जिंदगी का हिस्सा बन जी रहे हैं. कपड़े खरीदना और पहनना भी उसी जिंदगी का एक हिस्सा है, जो क्षणिक खुशी तो दे सकता है पर खुशी से सराबोर नहीं कर पाता क्योंकि अगले ही पल इन्हें अपना कैरियर याद आने लगता है.

इसी सोच में डूबे हुए कब घर आ गया, पता ही नहीं चला. मैं सारे पैकेट ले कर उन्हें अप्पी के कमरे में रखने के लिए गई. पूरे पलंग पर अप्पी की किताबें, कंप्यूटर आदि फैले थे…उन्हीं पर जगह बना कर मैं ने पैकेट रखे और पलंग के एक किनारे पर निढाल सी लेट गई. आज अपनी बेटी का खोयाखोया सा चेहरा देख मुझे अपना समय याद आने लगा…कितना अंतर है दोनों के समय में…

मेरा भाई गिल्लीडंडा खेलते समय जोर की आवाज लगाता और हम सभी 10-12 बच्चे हाथ ऊपर कर के हल्ला मचाते. अगले ही पल वह हवा में गिल्ली उछालता और बच्चों का पूरा झुंड गिल्ली को पकड़ने के लिए पीछेपीछे…उस झुंड में 5-6 तो हम चचेरे भाईबहन थे, बाकी पासपड़ोस के बच्चे. हम में स्टेटस का कोई टेंशन नहीं था.

देवीलाल पान वाले का बेटा, चरणदास सब्जी वाले की बेटी और ऐसे ही हर तरह के परिवार के सब बच्चे एकसाथ…एक सोच…निश्ंिचत…स्वतंत्र गिल्ली के पीछेपीछे, और यह कैच… परंतु शाम होतेहोते अचानक ही जब मेरे पिता की रौबदार आवाज सुनाई पड़ती, चलो घर, कब तक खेलते रहोगे…तो भगदड़ मच जाती…

धूल से सने पांव रास्ते में पानी की टंकी से धोए जाते. जल्दी में पैरों के पिछले हिस्से में धूल लगी रह जाती…पर कोई चिंता नहीं. घर जा कर सभी अपनीअपनी किताब खोल कर पढ़ने बैठ जाते. रोज का पाठ दोहराना होता था…बस, उस के साथसाथ मेडिकल या इंजीनियरिंग की पढ़ाई अलग से थोड़ी करनी होती थी, अत: 9 बजे तक पाठ पूरा कर के निश्ंिचतता की नींद के आगोश में सो जाते पर आज…

रात को देर तक जागना और पढ़ना…ढेर सारे तनाव के साथ कि पता नहीं क्या होगा. कहीं चयन न हुआ तो? एक ही कमरे में बंद, यह तक पता नहीं कि पड़ोस में क्या हो रहा है. इन का दायरा तो फेसबुक व इंटरनेट के अनजान चेहरे से दोस्ती कर परीलोक की सैर करने तक सीमित है, एक हम थे…पूरे पड़ोस बल्कि दूरदूर के पड़ोसियों के बच्चों से मेलजोल…कोई रोकटोक नहीं. पर अब ऐसा कहां, क्योंकि मुझे याद है कि कुछ साल पहले मैं जब एक दिन अपनी बेटी को ले कर पड़ोस के जोशीजी के घर गई तो संयोगवश जोशी दंपती घर पर नहीं थे. वहीं पर जोशीजी की माताजी से मुलाकात हुई जोकि अपनी पोती के पास बैठी बुनाई कर रही थीं. पोती एक स्वचालित खिलौना कार में बैठ कर आंगन में गोलगोल चक्कर लगा रही थी, कार देख कर मैं अपने को न रोक सकी और बोल पड़ी…

‘आंटी, आजकल कितनी अच्छी- अच्छी चीजें चल गई हैं, कितने भाग्यशाली हैं आज के बच्चे, वे जो मांगते हैं, मिल जाता है और एक हमारा बचपन…ऐसी कार का तो सपना भी नहीं देखा, हमारे समय में तो लकड़ी की पेटी से ही यह शौक पूरा होता था, उसी में रस्सी बांध कर एक बच्चा खींचता था, बाकी धक्का देते थे और बारीबारी से सभी उस पेटी में बैठ कर सैर करते थे. काश, ऐसा ही हमारा भी बचपन होता, हमें भी इतनी सुंदरसुंदर चीजें मिलतीं.’

‘अरे सोनिया, सोने के पिंजरे में कभी कोई पक्षी खुश रह सका है भला. तुम गलत सोचती हो…इन खिलौनों के बदले में इन के मातापिता ने इन की सब से अमूल्य चीज छीन ली है और जो कभी इन्हें वापस नहीं मिलेगी, वह है इन की आजादी. हम ने तो कभी यह नहीं सोचा कि फलां बच्चा अच्छा है या बुरा. अरे, बच्चा तो बच्चा है, बुरा कैसे हो सकता है, यही सोच कर अपने बच्चों को सब के साथ खेलने की आजादी दी. फिर उसी में उन्होंने प्यार से लड़ कर, रूठ कर, मना कर जिंदगी के पाठ सीखे, धैर्य रखना सीखा. पर आज इसी को देखो…पोती की ओर इशारा कर वे बोलीं, ‘घर में बंद है और मुझे पहरेदार की तरह बैठना है कि कहीं पड़ोस के गुलाटीजी का लड़का न आ जाए. उसे मैनर्स नहीं हैं. इसे भी बिगाड़ देगा. मेरी मजबूरी है इस का साथ देना, पर जब मुझे इतनी घुटन है तो बेचारी बच्ची की सोचो.’

मैं उन के उस तर्क का जवाब न दे सकी, क्योंकि वे शतप्रतिशत सही थीं.

हमारे जमाने में तो मनोरंजन के साधन भी अपने इर्दगिर्द ही मिल जाते थे. पड़ोस में रहने वाले पांडेजी भी किसी विदूषक से कम न थे, ‘क्वैक- क्वैक’ की आवाज निकालते तो थोड़ी दूर पर स्थित एक अंडे वाले की दुकान में पल रही बत्तखें दौड़ कर पांडेजी के पास आ कर उन के हाथ से दाना  खातीं और हम बच्चे फ्री का शो पूरी तन्मयता व प्रसन्न मन से देखते. कोई डिस्कवरी चैनल नहीं, सब प्रत्यक्ष दर्शन. कभी पांडेजी बोट हाउस क्लब से पुराना रिकार्ड प्लेयर ले आते और उस पर घिसा रिकार्ड लगा कर अपने जोड़ीदार को वैजयंती माला बना कर खुद दिलीप कुमार का रोल निभाते हुए जब थिरकथिरक कर नाचते तो देखने वाले अपनी सारी चिंता, थकान, तनाव भूल कर मुसकरा देते. ढपली का स्थान टिन का डब्बा पूरा कर देता. कितना स्वाभाविक, सरल तथा निष्कपट था सबकुछ…

सब को हंसाने वाले पांडेजी दुनिया से गए भी एक निराले अंदाज में. हुआ यह कि पहली अप्रैल को हमारे महल्ले के इस विदूषक की निष्प्राण देह उन के कमरे में जब उन की पत्नी ने देखी तो उन की चीख सुन पूरा महल्ला उमड़ पड़ा, सभी की आंखों में आंसू थे…सब रो रहे थे क्योंकि सभी का कोई अपना चला गया था अनंत यात्रा पर, ऐसा लग रहा था कि मानो अभी पांडेजी उठ कर जोर से चिल्लाएंगे और कहेंगे कि अरे, मैं तो अप्रैल फूल बना रहा था.

कहां गया वह उन्मुक्त वातावरण, वह खुला आसमान, अब सबकुछ इतना बंद व कांटों की बाड़ से घिरा क्यों लगता है? अभी कुछ सालों पहले जब मैं अपने मायके गई थी तो वहां पर पांडेजी की छत पर बैठे 14-15 वर्ष के लड़के को देख समझ गई कि ये छोटे पांडेजी हमारे पांडेजी का पोता ही है…परंतु उस बेचारे को भी आज की हवा लग चुकी थी. चेहरा तो पांडेजी का था किंतु उस चिरपरिचित मुसकान के स्थान पर नितांत उदासी व अकेलेपन तथा बेगानेपन का भाव…बदलते समय व सोच को परिलक्षित कर रहा था. देख कर मन में गहरी टीस उठी…कितना कुछ गंवा रहे हैं हम. फिर भी भाग रहे हैं, बस भाग रहे हैं, आंखें बंद कर के.

अभी मैं अपनी पुरानी यादों में खोई, अपने व अपनी बेटी के समय की तुलना कर ही रही थी कि मेरी बेटी ने आवाज लगाई, ‘‘मम्मा, मैं कोचिंग क्लास में जा रही हूं…दरवाजा बंद कर लीजिए…’’

मैं उठी और दरवाजा बंद कर ड्राइंगरूम में ही बैठ गई. मन में अनेक प्रकार की उलझनें थीं… लाख बुराइयां दिखने के बाद भी मैं ने भी तो अपनी बेटी को उसी सिस्टम का हिस्सा बना दिया है जो मुझे आज गलत नजर आ रहा था.

सोचतेसोचते मेरे हाथ में रिमोट आ गया और मैंने टेलीविजन औन किया… ब्रेकिंग न्यूज…बनारस में बी.टेक. की एक लड़की ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कामर्स पढ़ना चाहती थी…लड़की ने मातापिता द्वारा जोर देने पर इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया था. मुझे याद आया कि बी.ए. में मैं ने अपने पिता से कुछ ऐसी ही जिद की थी… ‘पापा, मुझे भूगोल की कक्षा में अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि मेरी सारी दोस्त अर्थशास्त्र में हैं. मैं भूगोल छोड़ रही हूं…’

‘ठीक है, पर मन लगा कर पढ़ना,’ कहते हुए मेरे पिता अखबार पढ़ने में लीन हो गए थे और मैं ने विषय बदल लिया था. परंतु अब हम अपने बच्चों को ‘विशेष कुछ’ बनाने की दौड़ में शामिल हो कर क्या अपने मातापिता से श्रेष्ठ, मातापिता साबित हो रहे हैं, यह तो वक्त बताएगा. पर यह तो तय है कि फिलहाल इन का आने वाला कल बनाने की हवस में हम ने इन का आज तो छीन ही लिया है.

सोचतेसोचते मेरा मन भारी होने लगा…मुझे अपनी ‘अप्पी’ पर बेहद तरस आने लगा. दौड़तेदौड़ते जब यह ‘कुछ’ हासिल भी कर लेगी तो क्या वैसी ही निश्ंिचत जिंदगी पा सकेगी जो हमारी थी… कितना कुछ गंवा बैठी है आज की युवा पीढ़ी. यह क्या जाने कि शाम को घर के अहाते में ‘छिप्पीछिपाई’, ‘इजोदूजो’, ‘राजा की बरात’, ‘गिल्लीडंडा’ आदि खेल खेलने में कितनी खुशी महसूस की जा सकती थी…रक्त संचार तो ऐसा होता था कि उस के लिए किसी योग गुरु के पास जा कर ‘प्राणायाम’ करने की आवश्यकता ही न थी. तनाव शब्द तो तब केवल शब्दकोश की शोभा बढ़ाता था… हमारी बोलचाल या समाचारपत्रों और टीवी चैनलों की खबरों की नहीं.

अचानक मैं उठी और मैं ने मन में दृढ़ निश्चय किया कि मैं अपनी ‘अप्पी’ को इस ‘रैट रेस’ का हिस्सा नहीं बनने दूंगी. आज जब वह कोचिंग से लौटेगी तो उस को पूरा विश्वास दिला दूंगी कि वह जो करना चाहती है करे, हम बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करेंगे. मेरा मन थोड़ा हलका हुआ और मैं एक कप चाय बनाने के लिए रसोई की ओर बढ़ी…तभी टेलीफोन की घंटी बजी…मेरी ननद का फोन था…

‘‘भाभीजी, क्या बताऊं, नेहा का रिश्ता होतेहोते रह गया, लड़का वर्किंग लड़की चाह रहा है. वह भी एम.बी.ए. हो. नहीं तो दहेज में मोटी रकम चाहिए. डर लगता है कि एक बार दहेज दे दिया तो क्या रोजरोज मांग नहीं करेगा?’’

उस के आगे जैसे मेरे कानों में केवल शब्दों की सनसनाहट सुनाई देने लगी, ऐसा लगने लगा मानो एक तरफ कुआं और दूसरी तरफ खाई हो…अभी मैं अपनी अप्पी को आजाद करने की सोच रही थी और अब ऐसा समाचार.

क्या हो गया है हम सब को? किस मृगतृष्णा के शिकार हो कर हम सबकुछ जानते हुए भी अनजान बने अपने बच्चों को उस मशीनी सिस्टम की आग में धकेल रहे हैं…मैं ने चुपचाप फोन रख दिया और धम्म से सोफे पर बैठ गई. मुझे अपनी भतीजी अनुभा याद आने लगी, जिस ने बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहे अपने एक सहकर्मी से इसलिए शादी की क्योंकि आज की भाषा में उन दोनों की ‘वेवलैंथ’ मिलती थी. पर उस का परिणाम क्या हुआ? 10 महीने बाद अलगाव और डेढ़ साल बाद तलाक.

मुझे याद है कि मेरी मां हमेशा कहती थीं कि पति के दिल तक पेट के रास्ते से जाया जाता है. समय बदला, मूल्य बदले और दिल तक जाने का रास्ता भी बदल गया. अब वह पेट जेब का रास्ता बन चुका था…जितना मोटा वेतन, उतना ही दिल के करीब…पर पुरुष की मूल प्रकृति, समय के साथ कहां बदली…आफिस से घर पहुंचने पर भूख तो भोजन ही मिटा सकता है और उस को बनाने का दायित्व निभाने वाली आफिस से लौटी ही न हो तो पुरुष का प्रकृति प्रदत्त अहं उभर कर आएगा ही. वही हुआ भी. रोजरोज की चिकचिक, बरतनों की उठापटक से ऊब कर दोनों ने अलगाव का रास्ता चुन लिया…ये कौन सा चक्रव्यूह है जिस के अंदर हम सब फंस चुके हैं और उसे ‘सिस्टम’ का नाम दे दिया…

मेरा सिर चकराने लगा. दूर से आवाज आ रही थी, ‘दीदी, भागो, अंधड़ आ रहा है…बवंडर न बन जाए, हम फंस जाएंगे तो निकल नहीं पाएंगे.’ बचपन में आंधी आने पर मेरा भाई मेरा हाथ पकड़ कर मुझे दूर तक भगाता ले जाता था. काश, आज मुझे भी कोई ऐसा रास्ता नजर आ जाए जिस पर मैं अपनी ‘अप्पी’ का हाथ पकड़ कर ऐसे भागूं कि इस सिस्टम के बवंडर बनने से पहले अपनी अप्पी को उस में फंसने से बचा सकूं, क्योंकि यह तो तय है कि इस बवंडर रूपी चक्रव्यूह को निर्मित करने वाले भी हम हैं…तो निकलने का रास्ता ढूंढ़ने का दायित्व भी हमारा ही है…वरना हमारे न जाने कितने ‘अभिमन्यु’ इस चक्रव्यूह के शिकार बन जाएंगे.

Interesting Hindi Stories : हिमशैल – क्या सगे भाई विजय और अजय के आपसी रिश्तों में मधुरता आ पाई?

Interesting Hindi Stories :  ‘‘अजय, अब केवल तुम्हारे लिए हम चाचाजी के परिवार को तो छोड़ नहीं सकते. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाएंगे ही.’’

बड़े भाई विजय के पिघलते शीशे से ये शब्द अजय के कानों से होते हुए सीधे दिलोदिमाग तक पहुंच कर सारी कोमल भावनाओं को पत्थर सा जमाते चले गए थे, जो आज कई महीने बाद भी उन के पारिवारिक सौहार्द को पुनर्जीवित करने के प्रयास में शिलाखंड से राह रोके पड़ेथे.

आपसी भावनाओं के सम्मान से ही रिश्तों को जीवित रखा जा सकता है पर जब दूसरे का मान नगण्य और अपना हित ही सर्वोपरि हो जाए तो रिश्तों को बिखरते देर नहीं लगती. अजय ने अपने स्वाभिमान को दांव पर लगाने के बजाय संयुक्त परिवार से निर्वासन स्वीकार कर लिया था.

धीरेधीरे नेहा की गोदभराई की तिथि नजदीक आती जा रही थी पर दोनों भाइयों के बीच की स्थिति ज्यों की त्यों थी और जब आज सुबह से ही विजय के घर में लाउडस्पीकर पर ढोलक की थापों की आवाज रहरह कर कानों में गूंजने लगी तो अजय की पत्नी आरती न चाहते हुए भी पुरानी यादों में खो सी गई.

वक्त कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता. पता तब चलता है जब वह अपने पूरे वजूद के साथ सामने आता है. कल तक छोटी सी नेहा उस के आगेपीछे चाचीचाची कह कर भागती रहती थी. उस का कोई काम चाची के बिना पूरा ही नहीं होता था और आज वह एक नई जिंदगी शुरू करने जा रही है तो एक बार भी उसे अपनी चाची की याद नहीं आई. शायद अब भी उस की मां ने उसे रोक लिया हो पर एक फोन तो कर ही सकती थी…ऊंह, जब उन लोगों को ही उस की याद नहीं आती तो वह क्यों परेशान हो. उस ने सिर झटक कर पुरानी यादों को दूर करना चाहा, पर वे किसी हठी बालक की तरह आसपास ही मंडराती रहीं. उस ने ध्यान हटाने के लिए खुद को व्यस्त रखना चाहा पर वे शरारती बच्चे की तरह उंगली पकड़ कर उसे फिर अतीत में खींच ले गईं.

तीनों भाइयों, विजय, अजय व कमल में कितना प्यार था. उस के ससुर रायबहादुर पत्नी के न होने की कमी महसूस करते हुए भी उन के द्वारा लगाई फुलवारी को फलताफूलता देख खुशी से भर उठते थे. उच्चपदासीन बेटे, आज्ञाकारी बहुएं व पोतेपोतियों से भरेपूरे परिवार के मुखिया अपने छोटे भाई के परिवार को भी कम मान व प्यार नहीं देते थे. जो उसी शहर में कुछ ही दूरी पर रहते थे.

हर तीजत्योहार पर दोनों परिवार जब एकसाथ मिल कर खुशियां मनाते तो घर की रौनक ही अलग होती थी. उन के खानदानी आपसी प्यार का शहर के लोग उदाहरण दिया करते थे पर न तो समय सदैव एक सा रहता है और न ही एक हाथ की पांचों उंगलियां बराबर होती हैं.

रायबहादुर के छोटे भाई भी उन्हीं की तरह सज्जन थे परंतु कलेक्टर पति के पद के मद में डूबी उन की पत्नी जानेअनजाने अपने बच्चों में भी अहंकार भर बैठी थीं. पिता के पद का दुरुपयोग उन्हें घर में विलासिता व कालिज में यूनियन का नेता तो बना गया पर न तो पढ़ाई में अव्वल बना सका और न ही मानवीय मूल्यों की इज्जत करने वाला संस्कारशील स्वभाव दे सका. जीवन में आगे बढ़ने के अवसर, व्यर्थ के कामों में समय गंवा कर वे खुद ही अपना रास्ता अवरुद्ध करते गए. बीता समय तो लौट कर आता नहीं, आखिर मन मार कर उन्हें साधारण नौकरियों पर ही संतोष करना पड़ा.

संतान ही मांबाप का सिर गर्व से ऊंचा कराती है. जब कलेक्टर की बीवी अपने जेठ रायबहादुर के परिवार पर निगाह डालतीं तो अपने बच्चों के साधारण भविष्य का एहसास उन्हें मन ही मन कुंठित कर देता पर उन्होंने इसे कभी जाहिर नहीं होने दिया था. उन जैसे लोग अपने सुख से इतना सुखी नहीं होते जितना कि दूसरे के सुख से दुखी. उन के अंदर के ईर्ष्यालु भाव से अनजान रायबहादुर की दोनों बहुएं आरती व भारती, जो देवरानीजेठानी कम, बहनें ज्यादा लगती थीं, अपनी सास की कमी चचिया सास की निकटता पा कर भूल जाती थीं. यद्यपि विवाह के कुछ वर्ष बाद ही आरती को चचिया सास का वैमनस्य से भरा व्यवहार उलझन में डालने लगा था. चाचीजी अकसर उस के कामों में कोई न कोई कमी निकाल कर उसे शर्म्ंिदा करने का बहाना ढूंढ़ती रहती थीं और हर झिड़की के साथ वह यह जरूर कहती थीं, ‘अजय अपनी पसंद की लड़की ब्याह तो लाया है, देखते हैं कितना निभाती है. इतनी अच्छी लड़की बताई थी पर जरा कान नहीं दिया.’

अपनी बात न रखे जाने का मलाल वाणी से स्पष्ट झलकता था. शायद इसीलिए वह चाची की आंख में सदैव कांटा सी खटकती रही. चोट खाए अहं के कारण ही शायद चाची कभी किसी बात के लिए उस की प्रशंसा न कर सकीं. घर में शांति बनाए रखने के लिए व्यर्थ के वादविवाद में न पड़ कर, छोटीछोटी बातों को नजरअंदाज कर के वह उन के मनमुताबिक ही कर देती.

आरती जितनी झुकती गई उतना ही वे अजय व आरती के खिलाफ जहर घोलते हुए एक कूटनीति के तहत विजय व भारती के प्रति प्रेमप्रदर्शन करती गईं. दूध चाहे कितना ही शुद्ध क्यों न हो, विष की एक बूंद ही उसे विषैला बनाने के लिए काफी होती है. शुरू में तो भारती व आरती एकदूसरे का सुखदुख बांट लेती थीं पर विजय व भारती का चाची के परिवार के प्रति बढ़ता झुकाव, साथ ही अपने सगे भाई अजय व पिता की उपेक्षा से उन के आपसी रिश्तों में दूरियां आने लगीं.

अच्छाई से अधिक बुराई अपना असर जल्दी दिखाती है. उन के इस पक्षपातपूर्ण रवैए का असर घर के निर्मल वातावरण को भी दूषित करने लगा था. आपसी प्यार का स्थान प्रतिस्पर्धा ने ले लिया. चचिया सास के प्रपंच से अनजान उन की आंखों का तारा बनी भारती को भी अब अजय व आरती की हर बात में स्वार्थ ही नजर आता. उन के भले के लिए कही गई सही बात भी गलत लगती.

कई कलाओं की जानकार आरती के पास जब जेठानी के बच्चे नेहा, नीतू व शिशिर अपने स्कूल की हस्तकला प्रतियोगिता के लिए वस्तुएं बनाना सीख रहे होते तो खुद को उपेक्षित समझ भारती इसे अपना अपमान समझती. अपने बच्चों का उन लोगों के प्रति स्नेह भी उसे आरती का षड्यंत्र ही लगता.

‘अब तो हर चीज बाजार में मिलती है, खरीद कर दे देना. समय क्यों खराब कर रहे हो तुम लोग, उठो यहां से और पढ़ने जाओ,’ कहती हुई भारती बच्चों को स्वयं कुछ करने या सीखने की प्रेरणा से विलग करती जा रही थी.

रायबहादुर घर में आए इस बदलाव को महसूस तो कर रहे थे पर कारण समझने में असमर्थ थे इसलिए केवल मूकदर्शक ही बन कर रह गए थे. इनसान बाहर के दुश्मनों से तो लड़ सकता है किंतु जब घर में ही कोई विभीषण हो तो कोई क्या करे. अपनों से धोखा खाना बेहद सरल है. कहते हैं कि औरत ही घर बनाती है और वही बिगाड़ती भी है. यदि परिवार में एक भी स्त्री गलत मंतव्य की आ जाए तो विनाश अवश्यंभावी है.

उम्र बढ़ने के साथसाथ आरती की चचिया सास के निरंकुश शासन का साम्राज्य भी बढ़ता रहा. इस बात का तकलीफदेह अनुभव तब हुआ जब चाचीजी के सौतेले भाई ने अपने बेटे के विवाह में बहन की नाराजगी के डर से अजय व रायबहादुर को विवाह का आमंत्रणपत्र ही नहीं भेजा. लोगों द्वारा उन के न आने का कारण पूछने पर उन का पैसों का अहंकार प्रचारित कर दिया गया. हालांकि चाचाजी ने इस का विरोध किया था किंतु तेजतर्रार चाची के सामने उन की आवाज नक्कारखाने में तूती बन कर रह गई थी.

मृतप्राय रिश्तों के ताबूत में आखिरी कील उन्होंने तब ठोंक दी जब अजय के बेटे अंशुल के जन्मदिन की पार्टी में रायबहादुर द्वारा सानुरोध सपरिवार आमंत्रित होेने के बाद भी केवल चाचाजी थोड़ी देर के लिए आ कर रस्म अदायगी कर गए. केवल लोकलाज के लिए रिश्तों को ढोते रहने का कोई अर्थ नहीं रह गया था. इसीलिए सगी भतीजी नेहा के विवाह आमंत्रण पर अजय ने साफ कह दिया कि यदि चाचाजी के परिवार को बुलाया गया तो हमारा परिवार नहीं जाएगा.

हमेशा की तरह बिना कारण पूछे विजय छूटते ही बोला, ‘अजय, तुम तो लड़ने का बहाना ढूंढ़ते रहते हो, इसीलिए सब तुम से दूर होते जा रहे हैं.’

‘अपने दूर क्यों हो रहे हैं, यह आप नहीं समझ सकते क्योंकि समझना ही नहीं चाहते. मैं न किसी से लड़ने जाता हूं और न अहंकारी हूं. हां, साफ कहने का माद्दा रखता हूं और गलत बात बरदाश्त नहीं करता. मुझे तो भाई आश्चर्य इस बात का है कि जब वे आप को गलत नहीं लगे तो मैं क्यों लग रहा हूं या तो आप को पूरी बातें पता ही नहीं हैं या मेरी इज्जत आप के लिए कोई माने नहीं रखती है. कोई हो या न हो पर पिताजी मेरे साथ हैं और यही मेरे लिए काफी है,’ अजय एक सांस में बोल गया.

‘तुम्हीं लोगों को शिकायतें रहती हैं. पिताजी तो मेरे यहां हर फंक्शन पर आते हैं और चाचाजी व अन्य सब से ठीक से बोलते भी हैं.’

‘संतान का मोह ही उन्हें खींच कर ले जाता है. संतान चाहे कितना भी दुख दे मांबाप का प्यार तो निस्वार्थ होता है. आप ने कभी उन का दर्द महसूस ही नहीं किया. रही बात चाचाजी से पिताजी के बोलने की, तो हम लोग उस स्तर तक असभ्य नहीं हो सकते कि कोई बात करे तो जवाब न दें या अपने घर फंक्शन पर बुला कर खाने तक के लिए न पूछें. क्या आप के लिए चाचाजी, सगे भाई व पिता की खुशी से भी ज्यादा बढ़ कर हैं?’

‘जो भी हो…पर अजय…अब केवल तुम्हारे लिए मैं चाचाजी के पूरे परिवार को तो नहीं छोड़ सकता. उन्हें तो अपनी बेटी नेहा के विवाह में बुलाऊंगा ही,’ विजय जैसे कुछ सुननेसमझने को तैयार ही न था.

‘तो ठीक है, हमें ही छोड़ दीजिए,’ भारी मन से कह अजय सब के बीच से उठ कर चला गया था. पर इस एक पल में अंदर कितना कुछ टूट गया, कौन जान सका. एक क्षण को विजय अपने ही शब्दों की चुभन से आहत हो उठा था. किंतु बंदूक से निकली गोली और मुंह से निकली बोली तो वापस नहीं हो सकती.

उस दिन का व्याप्त सन्नाटा आज तक नहीं टूट पाया था. तभी महरी की आवाज से आरती की तंद्रा भंग हो गई.

‘‘बीबीजी, आप नहीं जाएंगी नेहा बिटिया की गोदभराई पर?’’ आंखों में कुटिल भाव लिए पल्लू से हाथ पोंछती महरी ने पूछा था.

‘‘तुम्हें इस से क्या मतलब है…जाओ, अपना काम करो,’’ उस की चुगलखोरी की आदत से अच्छी तरह परिचित आरती ने उसे झिड़क दिया. वह मुंह बनाती हुई चली गई. आरती ने जा कर दरवाजा बंद कर लिया. मन की थकान से तन भी क्लांत हो उठा था. वह कुरसी पर अधलेटी सी आंखें बंद कर बैठ गई.

घर में फैले तनाव को भांप कर दोनों बच्चे अंशुल व आकांक्षा स्कूल से आ कर चुपचाप खाना खा कर अपने कमरे में पढ़ने का उपक्रम कर रहे थे. अजय के आने में देर थी. विजय का बेटा शिशिर जब बुलाने आया तो पिताजी न चाहते हुए भी उस के साथ नेहा की गोदभराई में चले गए थे. घर के एकांत में लाउडस्पीकर पर गानों की आवाज से ज्यादा पुरानी यादों की गूंज थीं.

आपसी रिश्तों में ख्ंिचाव व नया मकान बन जाने पर अजय अपने परिवार व पिता के साथ पुश्तैनी मकान, जिस में विजय का परिवार भी रहता था, छोड़ कर पास ही बने अपने नए बंगले में शिफ्ट हो गया था. दिलों में एकदूसरे के प्रति प्यार होते हुए भी न जाने कौन सी अदृश्य शक्ति उन के संबंधों को पुन: मधुर बनने से रोकती रही. स्थान की दूरी तो इनसान तय कर सकता है पर दिलों के फासले दूर करना इतना आसान नहीं है.

तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. अन्यमनस्क सी आरती ने उठ कर द्वार खोला तो सगे देवर कमल व उस की पत्नी पूजा को आया देख सुखद आश्चर्य से भर उठीं.

‘‘आइए, अंदर आइए, कमल भैया. पूजा…कब आए लंदन से?’’ अपनों से मिलने की प्रसन्नता आंखें नम कर गई.

‘‘भाभी, बस, अभी 2 घंटे पहले ही पहुंचे हैं. पर यह सब हम क्या सुन रहे हैं. आप लोग सगाई में शरीक नहीं होंगे?’’

अंदर आ कर कमल और पूजा ने आरती को पेर छूते हुए पूछा तो अनायास ही उस की आंखें भर आईं. पूजा को उठा कर गले से लगाती हुई बोली, ‘‘लोग तो अपने देश में रह कर भी आपसी सभ्यता व संस्कार याद नहीं रखते. तुम लोग विदेश जा कर भी भूले नहीं हो.’’

‘‘हां, भाभी, विदेश में सबकुछ मिलता है. हर चीज पैसों से खरीदी जा सकती है पर बड़ों का आशीर्वाद और प्यार बाजार में नहीं बिकता. सच, आप सब की वहां बहुत याद आती है. चलिए, तैयार हो जाइए. ऐसा भी कहीं हो सकता है, घर में शादी है और आप लोग यहां अकेले बैठे हैं,’’ पूजा मनुहार करती सी बोली.

आरती के चेहरे पर कई रंग आ कर चले गए. तभी अजय भी आ गए. बरसों बाद मिले सब एकदूसरे का सुखदुख बांटते रहे. आखिर, कमल के बहुत पूछने पर अजय ने उन को अपने न जाने की वजह बता दी.

‘‘यहां इतना कुछ हो गया और आप लोगों ने हमें कुछ बताया ही नहीं. उन सब की ज्यादतियों का हिसाब तो हम लोग ले ही लेंगे पर अभी तो आप लोग चलिए वरना हम भी नहीं जाएंगे और आप खुद को अकेला न समझें भैया. मैं हूं न आप के साथ,’’ कमल उत्तेजित हो कर बोला.

‘‘जहां इज्जत न हो वहां न जाना ही बेहतर है. यह हमारा अहंकार या जिद नहीं स्वाभिमान है. हद तो यह है कि चाचीजी के भाई सौतेले हो कर भी उन की गलत बात मान लेते हैं और हम अपने सगे भाइयों से सही बात मानने की आशा न रखें. वे मुझे ही गलत समझते हैं. और तो और पिताजी की इच्छा का भी उन के लिए कोई महत्त्व नहीं है,’’ उदासी अजय की आवाज से साफ झलक उठी थी. एक नजर सब पर डाल वह फिर कहने लगे, ‘‘इस निर्णय तक मुझे पहुंचने में तकलीफ तो बहुत हुई पर अब कोई दुख नहीं है. इसी बहाने मुझे अपने और बेगानों की पहचान तो हो गई.’’

‘‘हम लोगों के जाने न जाने से वहां किसी को क्या फर्क पड़ रहा है? एक बार भी किसी को इस परिवार की याद आई?’’ आरती कह ही रही थी कि…उस के कानों में नेहा के ये शब्द पड़े, ‘‘चाचीजी मुझे तो आप की बहुत याद आ रही थी…आना तो मैं बहुत पहले ही चाहती थी पर…बस…सोचती ही रह गई…अब तो जल्द ही मैं यह घर छोड़ कर चली जाऊंगी. मुझ से कैसी शिकायत?’’ नेहा की आवाज सुन कर सब चौंक कर दरवाजे की तरफदेखने लगे.

सितारों जड़ी गुलाबी साड़ी में सजी नेहा बेहद सुंदर लग रही थी. अचानक उसे यों अपनी छोटी बहन के साथ आया देख सब हतप्रभ रह गए थे.

‘‘पगली…तुझ से कैसी शिकायत. तुम तो हमारी बच्ची ही हो. पर तुम इस समय यहां…घर में तुम्हारी ससुराल वाले आते ही होंगे,’’ आरती ने प्यार से नेहा को अंदर ला कर सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘नहीं, चाचीजी, उन को बता कर आई हूं, सब आप लोगों का ही इंतजार कर रहे हैं. पापा अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकते तो मैं भी अपने चाचाचाची को नहीं छोड़ सकती. जब तक आप लोग नहीं आएंगे, मैं भी गोदभराई पर नहीं बैठूंगी,’’ नेहा ने अपना निर्णय सुनाते हुए पास ही खड़े छोटे चचेरे भाईबहन को गले से लगा लिया, ‘‘और तुम भी तैयार हो जाओ. फेरों पर जीजाजी के जूते नहीं चुराओगी?’’

आकांक्षा व अंशुल आशा भरी नजरों से अजय व आरती को देखने लगे जो असमंजस में थे. तभी कमल उत्साहित हो कर बोल उठा, ‘‘ये हुई न बात. अब तो भैया आप को चलना ही होगा.’’

नेहा के प्यार व अपनत्व ने सब के दिलों को झकझोर दिया था. एकाएक नेहा कितनी समझदार व बड़ी लगने लगी थी. उस के आत्मविश्वास व प्यार भरे अधिकार ने एकबारगी सब को अभिभूत कर दिया था, कोई भी नफरत की दीवार अपनों के रिश्तों के प्यार से ज्यादा मजबूत नहीं होती, ढह ही जाती है. जरूरत केवल समय पर एक ईमानदार प्रयास करने की होती है. वर्षों तक हिमाच्छादित हिमखंड के अंदर बहते निर्मल जल के सोते जैसे अचानक राह मिलते ही बह निकलते हैं, यत्नपूर्वक अब तक रोके गए बहते आंसू ही उन के प्यार की अभिव्यक्ति बन गए थे.

‘‘हां, तुम लोगों को आना ही

होगा,’’ तभी दरवाजे से अंदर आते चाचाजी का स्वर सुनाई दिया, ‘‘जाने- अनजाने तुम लोगों के साथ बहुत अन्याय हुआ है. मुझे इस का दुख है. खैर, अब दिल में कुछ न रखो. यह सबकुछ ठीक नहीं हो रहा है. याद रखो. बंद मुट्ठी ही सवा लाख की होती है.’’

‘‘मुझे माफ कर दो, बहू,’’ चचिया सास पश्चात्ताप भरे स्वर में कह रही थीं, ‘‘नेहा ने मेरी आंखें खोल दी हैं. ईर्ष्या ने मुझे विवेकहीन बना दिया था…कहो तो मैं तुम दोनों के पैर भी…’’

सकपका कर आरती पीछे हट गई, ‘‘अरे, अरे, आप यह क्या कर रही हैं. आप तो हमारी बड़ी हैं.’’

‘‘हां, बड़ी तो हैं पर इन्हें बड़ों के फर्ज नहीं केवल अधिकार ही याद रहे,’’ पहली बार सब ने चाचाजी को गरजते सुना, ‘‘बड़प्पन बनाए रखने के लिए आचरण भी तो मर्यादित होना चाहिए.’’

चाचाजी के और अधिक उग्र क्रोध का लक्ष्य बनने से चाचीजी को बचाते हुए अजय बोला, ‘‘अब छोडि़ए भी, चाचाजी. पश्चात्ताप का एक आंसू ही सारे गिलेशिकवे दूर कर देता है. अपनी गलती का एहसास कर के क्षमाप्रार्थी होना ही सब से बड़ा बड़प्पन है. आप लोगों ने मेरे लिए इतना सोच लिया यही पर्याप्त है.’’

शाम का अंधेरा घिर आया था. कुरसी से जल्दी उठ कर उस ने स्विच आन किया तो कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा. रात्रि के 9 बज रहे थे. बाहर शाम से चीख रहे लाउडस्पीकर शांत हो चुके थे. सपनों की दुनिया से यथार्थ के धरातल पर आने में उसे कुछ ही पल लगे थे. तब तक टेलीविजन देख रहे बच्चों ने दरवाजा खोल दिया था. अजय अंदर आते हुए उसे उनींदा सा देख पूछ रहे थे, ‘‘क्या हुआ…सो रही थीं?’’

‘‘हां…शायद झपकी सी आ गई थी…पर अब जाग गई हूं. आइए, खाना लगाती हूं.’’

रसोई की तरफ बढ़ती आरती सोच रही थी कि अवचेतन ने स्वप्न में उन की आशाओं को मूर्तरूप तो दे दिया था पर यथार्थ कितने कठोर होते हैं…बिलकुल हिमशैल की तरह जिस का केवल एकचौथाई भाग ही नजर आता है, शेष जलमग्न रहता है. जिंदगी स्लेट पर लिखी इबारत तो नहीं जिसे पसंद न आने पर मिटा कर पुन: लिख दें. यह तो अमिट शिलालेख है, जिसे चाहते न चाहते हुए भी हमें पढ़ना ही है.

Hindi Fiction Stories : भोर – राजवी को कैसे हुआ अपनी गलती का एहसास

Hindi Fiction Stories : उस दिन सवेरे ही राजवी की मम्मी की किट्टी फ्रैंड नीतू उन के घर आईं. उन की कालोनी में उन की छवि मैरिज ब्यूरो की मालकिन की थी. किसी की बेटी तो किसी के बेटे की शादी करवाना उन का मनपसंद टाइमपास था. वे कुछ फोटोग्राफ्स दिखाने के बाद एक तसवीर पर उंगली रख कर बोलीं, ‘‘देखो मीरा बहन, इस एनआरआई लड़के को सुंदर लड़की की तलाश है. इस की अमेरिका की सिटिजनशिप है और यह अकेला है, इसलिए इस पर किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं है. इस की सैलरी भी अच्छी है. खुद का घर है, इसलिए दूसरी चिंता भी नहीं है. बस गोरी और सुंदर लड़की की तलाश है इसे.’’

फिर तिरछी नजरों से राजवी की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘उस की इच्छा तो यहां हमारी राजवी को देख कर ही पूरी हो जाएगी. हमारी राजवी जैसी सुंदर लड़की तो उसे कहीं भी ढूंढ़ने से नहीं मिलेगी.’’ यह सब सुन रही राजवी का चेहरा अभिमान से चमक उठा. उसे अपने सौंदर्य का एहसास और गुमान तो शुरू से ही था. वह जानती थी कि वह दूसरी लड़कियों से कुछ हट कर है.

चमकीले साफ चेहरे पर हिरनी जैसी आंखें और गुलाबी होंठ उस के चेहरे का खास आकर्षण थे. और जब वह हंसती थी तब उस के गालों में डिंपल्स पड़ जाते थे. और उस की फिगर व उस की आकर्षक देहरचना तो किसी भी हीरोइन को चैलेंज कर सकती थी. इस से अपने सौंदर्य को ले कर उस के मन में खुशी तो थी ही, साथ में जानेअनजाने में एक गुमान भी था. मीरा ने जब उस एनआरआई लड़के की तसवीर हाथ में ली तो उसे देखते ही उन की भौंहें तन गईं. तभी नीतू बोल पड़ीं, ‘‘बस यह लड़का यानी अक्षय थोड़ा सांवला है और चश्मा लगाता है.’’

‘लग गई न सोने की थाली में लोहे की कील,’ मीरा मन में ही भुनभुनाईं. उन्हें लगा कि मेरी राजवी शायद इसे पसंद नहीं करेगी. पर प्लस पौइंट इस लड़के में यह था कि यह नीतू के दूर के किसी रिश्तेदार का लड़का था, इसलिए एनआरआई लड़के के साथ जुड़ी हुई मुसीबतें व जोखिम इस केस में नहीं था. जानापहचाना लड़का था और नीतू एक जिम्मेदार के तौर पर बीच में थीं ही.

फिर कुछ सोच कर मीरा बोलीं, ‘‘ओह, बस इतनी सी बात है. आजकल ये सब देखता कौन है और चश्मा तो किसी को भी लग सकता है. और इंडियन है तो रंग तो सांवला होगा ही. बाकी जैसा तुम कहती हो लड़का स्मार्ट भी है, समझदार भी. फिर क्या चाहिए हमें… क्यों राजवी?’’

अपने ही खयालों में खोई, नेल पेंट कर रही राजवी ने कहा, ‘‘हूं… यह बात तो सही है.’’

तब नीतू ने कहा, ‘‘तुम भी एक बार फोटो देख लो तो कुछ बात बने.’’

‘‘बाद में देख लूंगी आंटी. अभी तो मुझे देर हो रही है,’’ पर तसवीर देखने की चाहत तो उसे भी हो गई थी.

मीरा ने नीतू को इशारे में ही समझा दिया कि आप बात आगे बढ़ाओ, बाकी बात मैं संभाल लूंगी. मीरा और राजवी के पापा दोनों की इच्छा यह थी कि राजवी जैसी आजाद खयाल और बिंदास लड़की को ऐसा पति मिले, जो उसे संभाल सके और समझ सके. साथ में उसे अपनी मनपसंद लाइफ भी जीने को मिले. उस की ये सभी इच्छाएं अक्षय के साथ पूरी हो सकती थीं.

नीतू ने जातेजाते कहा, ‘‘राजवी, तुम जल्दी बताना, क्योंकि मेरे पास ऐसी बहुत सी लड़कियों की लिस्ट है, जो परदेशी दूल्हे को झपट लेने की ख्वाहिश रखती हैं.’’

नीतू के जाने के बाद मीरा ने राजवी के हाथ में तसवीर थमा दी, ‘‘देख ले बेटा, लड़का ऐसा है कि तेरी तो जिंदगी ही बदल जाएगी. हमारी तो हां ही समझ ले, तू भी जरा अच्छे से सोच लेना.’’

पर राजवी तसवीर देखते ही सोच में डूब गई. तभी उस की सहेली कविता का फोन आया. राजवी ने अपने मन की उलझन उस से शेयर की, तो पूरे उत्साह से कविता कहने लगी, ‘‘अरे, इस में क्या है. शादी के बाद भी तो तू अपना एक ग्रुप बना सकती है और सब के साथ अपने पति को भी शामिल कर के तू और भी मजे से लाइफ ऐंजौय कर सकती है. फिर वह तो फौरेन कल्चर में पलाबढ़ा लड़का है. उस की थिंकिंग तो मौडर्न होगी ही. अब तू दूसरा कुछ सोचने के बजाय उस से शादी कर लेने के बारे में ही सोचना शुरू कर दे…’’

कविता की बात राजवी समझ गई तो उस ने हां कह दिया. इस के बाद सब कुछ जल्दीजल्दी होता गया. 2 महीने बाद नीतू का दूर का वह भतीजा लड़कियों की एक लिस्ट ले कर इंडिया पहुंच गया. उसे सुंदर लड़की तो चाहिए ही थी, पर साथ में वह भारतीय संस्कारों से रंगी भी होनी चाहिए थी. ऐसी जो उसे भारतीय भोजन बना कर प्यार से खिलाए. साथ ही वह मौडर्न सोच और लाइफस्टाइल वाली हो ताकि उस के साथ ऐडजस्ट हो सके. पर उस की लिस्ट की सभी मुलाकात के बाद एकएक कर के रिजैक्ट होती गईं. तब एक दिन सुबह राजवी के पास नीतू का फोन आया, ‘‘शाम को 7 बजे तक रेडी हो जाना. अक्षय के साथ मुलाकात करनी है. और हां, मीरा से कहना कि वे तुझे अच्छी सी साड़ी पहनाएं.’’

‘‘साड़ी, पर क्यों? मुझ पर जींस ज्यादा सूट करती है,’’ कहते हुए राजवी बेचैन हो गई.

‘‘वह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. तुम साड़ी यही समझ कर पहनना कि उसी में तुम ज्यादा सुंदर और अटै्रक्टिव लगती हो.’’

नीतू आंटी की बात पर गर्व से हंस पड़ी राजवी, ‘‘हां, वह तो है.’’

और उस दिन शाम को वह जब आकर्षक लाल रंग की डिजाइनर साड़ी पहन कर होटल शालिग्राम की सीढि़यां चढ़ रही थी, उस की अदा देखने लायक थी. होटल के मीटिंग हौल में राजवी को दाखिल होता देख सोफे पर बैठा अक्षय उसे देखता ही रह गया. नीतू ने जानबूझ कर उसे राजवी का फोटो नहीं भेजा था, ताकि मिलने के बाद ही अक्षय उसे ठीक से जान ले, परख ले. नीतू को वहीं छोड़ कर दोनों होटल के कौफी शौप में चले गए.

‘‘प्लीज…’’ कह कर अक्षय ने उसे चेयर दी. राजवी उस की सोच से भी अधिक सुंदर थी. हलके से मेकअप में भी उस के चेहरे में गजब का निखार था. जैसा नाम वैसा ही रूप सोचता हुआ अक्षय मन ही मन में खुश था. फिर भी थोड़ी झिझक थी उस के मन में कि क्या उसे वह पसंद करेगी?

ऐसा भी न था कि अक्षय में कोई दमखम न था और अब तो कंपनी उसे प्रमोशन दे कर उस की आमदनी भी दोगुनी करने वाली थी. फिर भी वह सोच रहा था कि अगर राजवी उसे पसंद कर लेती है तो वह उस के साथ मैच होने के लिए अपना मेकओवर भी करवा लेगा. मन ही मन यह सब सोचते हुए अक्षय ने राजवी के सामने वाली चेयर ली. अक्षय के बोलने का स्मार्ट तरीका, उस के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक और उस का धीरगंभीर स्वभाव राजवी को प्रभावित कर गया. उस की बातों में आत्मविश्वास भी झलकता था. कुल मिला कर राजवी को अक्षय का ऐटिट्यूड अपील कर गया.

Interesting Hindi Stories : चाय – गायत्री की क्या इच्छा थी?

Interesting Hindi Stories :  गायत्री को अभी तक होश नहीं आया था. वैसे रविकांत गायत्री के लिए कभी परेशान ही नहीं हुए थे. उस की ओर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया था. बस, घर सुचारु रूप से चलता आ रहा था. घर से भी ज्यादा उन के अपने कार्यक्रम तयशुदा समय से होते आ रहे थे. सुबह वे सैर को निकल जाते थे, शाम को टैनिस जरूर खेलते, रात को टीवी देखते हुए डिनर लेते और फिर कोई पत्रिका पढ़तेपढ़ते सो जाते. उन की अपनी दुनिया थी, जिसे उन्होंने अपने इर्दगिर्द बुन कर अपनेआप को एक कठघरे में कैद कर लिया था. उन का शरीर कसा हुआ और स्वस्थ था.

रविकांत ने कभी सोचने की कोशिश ही नहीं की कि गायत्री की दिनचर्चा क्या है.? दिनचर्या तो बहुत दूर की बात, उन्हें तो उस का पुराना चेहरा ही याद था, जो उन्होंने विवाह के समय और उस के बाद के कुछ अरसे तक देखा था. सामने अस्पताल के पलंग पर बेहोश पड़ी गायत्री उन्हें एक अनजान औरत लग रही थी.

रविकांत को लगा कि अगर वे कहीं बाहर मिलते तो शायद गायत्री को पहचान ही न पाते. क्या गायत्री भी उन्हें पहचान नहीं पाती? अधिक सोचना नहीं पड़ा. गायत्री तो उन के पद्चाप, कहीं से आने पर उन के तन की महक और आवाज आदि से ही उन्हें पहचान लेती थी. कितनी ही बार उन्हें अपनी ही रखी हुई चीज न मिलती और वे झल्लाते रहते. पर गायत्री चुटकी बजाते ही उस चीज को उन के सामने पेश कर देती.

पिछले कई दिनों से रविकांत, बस, सोचविचार में ही डूबे हुए थे. बेटे ने उन से कहा था, ‘‘पिताजी, आप घर जा कर आराम कीजिए, मां जब भी होश में आएंगी, आप को फोन कर दूंगा.’’

बहू ने भी बहुतेरा कहा, पर वे माने नहीं. रविकांत का चिंतित, थकाहारा और निराश चेहरा शायद पहले किसी ने भी नहीं देखा था. हमेशा उन में गर्व और आत्मविश्वास भरा रहता. यह भाव उन की बातों में भी झलकता था. वे अपने दोस्तों की हंसी उड़ाते थे कि बीवी के गुलाम हैं. पत्नी की मदद करने को वे चापलूसी समझते.

रविकांत सोच रहे थे कि गायत्री से हंस कर बातचीत किए कितना समय बीत चुका है. बेचारी मशीन की तरह काम करती रहती थी. उन्हें कभी ऐसा क्यों नहीं महसूस हुआ कि उसे भी बदलाव चाहिए?

एक शाम जब वे क्लब से खेल कर लौटे, तो देखा कि घर के बाहर एंबुलैंस खड़ी है और स्ट्रैचर पर लेटी हुई गायत्री को उस में चढ़ाया जा रहा है. उस समय भी तो अपने खास गर्वीले अंदाज में ही उन्होंने पूछा था, ‘एंबुलैंस आने लायक क्या हो गया?’

फिर बेटेबहू का उतरा चेहरा और पोते की छलछलाती आंखों ने उन्हें एहसास दिलाया कि बात गंभीर है. बहू ने हौले से बताया, ‘मांजी बैठेबैठे अचानक बेहोश हो गईं. डाक्टर ने नर्सिंगहोम में भरती कराने को कहा है.’

तब भी उन्हें चिंता के बजाय गुस्सा ही आया, ‘जरूर व्रतउपवास से ऐसा हुआ होगा या बाहर से समोसे वगैरह खाए होंगे.’

यह सुन कर बेटा पहली बार उन से नाराज हुआ, ‘पिताजी, कुछ तो खयाल कीजिए, मां की हालत चिंताजनक है, अगर उन्हें कुछ हो गया तो…?’

13 वर्षीय पोता मनु अपने पिता को सांत्वना देते हुए बोल रहा था, ‘नहीं पिताजी, दादी को कुछ नहीं होगा,’ फिर वह अपने दादा की ओर मुड़ कर बोला, ‘आप को यह भी नहीं पता कि दादी बाजार का कुछ खाती नहीं.’

उस समय उन्होंने पोते के चेहरे पर खुद के लिए अवज्ञा व अनादर की झलक सी देखी. उस के बाद कुछ भी बोलने का रविकांत का साहस न हुआ. उन का भय बढ़ता जा रहा था. डाक्टर जांच कर रहे थे. एकदम ठीकठीक कुछ भी कहने की स्थिति में वे भी नहीं थे कि गायत्री की बेहोशी कब टूटेगी. इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं था.

कुछ बरस पहले गायत्री के घुटनों में सूजन आने लगी थी. वह गठिया रोग से परेशान रहने लगी थी. दोपहर 3 बजे उसे चाय की तलब होती. वह सोचती कि कोई चाय पिला दे तो फिर उठ कर कुछ और काम कर ले. बहू दफ्तर से शाम तक ही आती. एक दिन असहनीय दर्द में गायत्री ने रविकांत से कहा, ‘मुझे अच्छी सी चाय बना कर पिलाइए न, अपने ही हाथ की पीपी कर थक गई हूं.’

रविकांत झल्लाते हुए बोले, ‘और भेजो बहू को दफ्तर. वह अगर घर संभालती तो तुम्हें भी आराम होता.’

हालांकि रविकांत अच्छी तरह जानते थे कि अब महिलाओं को केवल घर से बांध कर रखने का जमाना नहीं रहा, पर अपनी गलत बात को भी सही साबित करने से ही तो उन के अहं की पुष्टि होती थी.

कुछ माह पूर्व रात को सब साथ बैठ कर खाना खा रहे थे. रविकांत हमेशा की तरह अपना खाना जल्दीजल्दी खत्म कर हाथ धो कर वहीं दूसरी कुरसी पर बैठ गए और टीवी देखने लगे. अचानक मनु ने पूछा, ‘दादाजी, क्या आप दादीजी में कुछ फर्क देख रहे हैं?’

रविकांत ने टीवी पर से आंखें हटाए बिना पूछा, ‘कैसा फर्क?’

‘पहले दादीजी को देखिए न, तब तो पता चलेगा.’

बेचारी गायत्री अपने में ही सिमटी जा रही थी. रविकांत ने एक उड़ती नजर उस पर डाली और बोले, ‘नहीं, मुझे तो कोई फर्क नहीं लग रहा है.’

‘आप ठीक से देख ही कहां रहे हैं, फर्क कैसे महसूस होगा?’ मनु निराशा से बोला. इस बीच बहूबेटा मुसकराते रहे.

‘पिताजी, बोलिए न, दादाजी को बता दूं?’ मनु ने लाड़ से पूछा.

फिर वह गंभीर स्वर में बोला, ‘दादाजी, दादी को दोपहर की चाय कौन बना कर पिलाता है, बता सकते हैं?’

दादाजी कुछ बोलें, उस से पहले ही छाती तानते हुए वह बोला, ‘और कौन, सिवा मास्टर मनु के…’

‘तू चाय बना कर पिलाता है?’ रविकांत अविश्वास से हंसते हुए बोले.

‘क्यों, मैं क्या अब छोटा बच्चा हूं? दादीजी से पूछिए, उन की पसंद की कितनी बढि़या चाय बनाता हूं.’

उस समय रविकांत को लगा था कि पोते ने उन्हें मात दे दी. उन के बेटे ने उन से कभी खुल कर बात नहीं की थी. उन का स्वाभिमान, भले ही वह झूठा हो, उन्हें बाध्य कर रहा था कि मनु के बारे में वही खयाल बनाएं जो अन्य पुरुषों के बारे में थे. उन्हें लगा, मनु भी बस अपनी बीवी की मदद करते हुए ही जिंदगी बिता देगा. ऐसे लोगों के प्रति उन की राय कभी भी अच्छी नहीं रही.

अस्पताल में बैठेबैठे न जाने क्यों उन्हें ऐसा लग रहा था कि अब चाय बनाना सीख ही लें. गायत्री को होश आते ही अपने हाथ की बनी चाय पिलाएं तो उसे कितना अच्छा लगेगा. अपनी सोच में आए इस क्रांतिकारी परिवर्तन से वे खुद भी आश्चर्य से भर गए.

एक दिन रविकांत मनु से बोले, ‘‘आज जब भी तू चाय बनाए तो मुझे बताना कि कितना पानी, कितनी चीनी और दूध वगैरह कब डालना है. सब बताएगा न?’’

‘‘ठीक है, जब बनाऊंगा, आप खुद ही देख लीजिएगा. आजकल तो केवल आप के लिए बनती है. वैसे दादी की और मेरी चाय में दूध और चीनी कुछ ज्यादा होती है.’’

‘‘तुम नहीं पियोगे?’’

‘‘जब से दादी अस्पताल गई हैं, मैं ने चाय पीनी छोड़ दी है,’’ कहतेकहते मनु की आंखों में आंसू भर आए.

‘‘आज से हम दोनों साथसाथ चाय पिएंगे. आज मैं बनाना सीख लूंगा तो कल से खुद बनाऊंगा.’’

मनु सुबकसुबक कर रोने लगा, ‘‘नहीं दादाजी, जब तक दादीजी ठीक नहीं हो जाएंगी, मैं चाय नहीं पिऊंगा.’’

रविकांत को पहली बार लगा कि गायत्री की घर में कोई हैसियत है, बल्कि हलकी सी ईर्ष्या भी हुई कि उस ने बहू व पोते पर जादू सा कर दिया है. मनु को गले लगाते हुए वे बोले, ‘‘तुम अपनी दादी को बहुत चाहते हो न?’’

‘‘क्यों नहीं चाहूंगा, मेरे कितने दोस्तों की दादियां दिनभर ‘चिड़चिड़’ करती रहती हैं. घर में सब को डांटती रहती हैं, पर मेरी दादी तो सभी को केवल प्यार करती हैं और मुझे अच्छीअच्छी कहानियां सुनाती हैं. मालूम है, मुझे उन्होंने ही कैरम व शतरंज खेलना सिखाया. मां भी हमेशा दादी की तारीफ करती हैं. बिना दादीजी के तो हम लोग उन के प्यार को तरस जाएंगे.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा मत बोल. तेरी दादी को जल्दी ही होश आ जाएगा. फिर हम तीनों साथसाथ चाय पिएंगे,’’ पहली बार रविकांत को अपनी आवाज में कंपन महसूस हुआ.

उस दिन उन्होंने चाय बनानी सीख ही ली. मनु को खुश करने को उन्हें अचानक एक तरकीब सूझी, ‘‘क्यों न ऐसा करें, हम रोज दोपहर की चाय बना कर अस्पताल ले जाएं, किसी दिन तो तुम्हारी दादी होश में आएंगी, फिर तीनों साथसाथ चाय पिएंगे.’’

मनु उन की बात से बहुत उत्साहित तो नहीं हुआ, पर न जाने क्यों दिल उन की बात मानने को तैयार हो रहा था.

अगले दिन दोपहर को अस्पताल से फोन आया, बहू बोल रही थी, ‘‘पिताजी, मांजी होश में आ गई हैं, आप मनु को ले कर तुरंत आ जाइए.’’

रविकांत बच्चों की तरह उत्साह से भर उठे. जल्दीजल्दी चाय बना कर थर्मस में भर कर साथ ले गए. वहां गायत्री पलंग पर लेटी जरूर थी, पर डाक्टरों, नर्सों और दूसरे कर्मचारियों के खड़े रहने से दिख नहीं पा रही थी. मनु किसी तरह पलंग के पास पहुंच कर दादी की नजर पड़ने का इंतजार करने लगा.

रविकांत के मन में बस एक ही बात थी कि थर्मस में से अपने हाथ की बनी चाय पिला कर गायत्री को चकित कर दें, उन्होंने यह भी नहीं देखा कि वह वास्तव में होश में आ गई है या नहीं और डाक्टर क्या कह रहे हैं? बस, कप में चाय भर कर गायत्री के पास खड़े हो गए. गायत्री मनु को देख रही थी और मनु उस के हाथ को सहला रहा था.

डाक्टर ने रविकांत को देखा, ‘‘यह आप कप में क्या लाए हैं?’’

‘‘जी, इन्हें पिलाने के लिए चाय लाया हूं,’’ रविकांत की इच्छा हो रही थी कि कहें, ‘अपने हाथ की बनी,’ पर संकोच आड़े आ रहा था.

‘‘नहीं, अब आप को इन का बहुत खयाल रखना पड़ेगा. मैं पूरा डाइट चार्ट बना कर देता हूं. उसी हिसाब और समय से इन्हें वही चीजें दें, जो मैं लिख कर दूं. चीनी, चावल, आलू, घी, वसा सब एकदम बंद. शक्कर वाली चाय तो इन के पास भी मत लाइए.’’

रविकांत चाय का प्याला हाथ में लिए बुत की तरह खड़े रहे. मनु नर्स द्वारा लाया गया सूप छोटे से चम्मच से बड़े जतन से दादी के मुंह में डाल रहा था.

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