हम तो हैं ही इसी लायक: साहब को किसने ठगा था

उन्होंने पूरी गंभीरता से टीवी पर ओपनली कहा कि उन की पुत्रबटी बेटावेटा कुछ नहीं देती, उस का तो कोरा शास्त्रीय नाम पुत्रजीवक है. अब समझने वाले जो समझ कर उन की दवाई खाते रहें. उसे खा देश के तमाम बेटे की चाह रखने वाले इस भ्रम में न रहें कि यह दवाईर् खाने वालों के बेटा होगा. चांस नो प्रतिशत.

मित्रो, यह सुन कर मेरे तो पैरोंतले से जमीन खिसक गई है. इतने ज्ञानी होने के बाद भी वे हम जैसों के साथ कैसे छल कर सकते हैं? सिर के ऊपर छत तो पहले ही नहीं थी, जो बचाखुचा आसमान था, अब तो वह भी सरक गया है. सिर और पैर दोनों ही जगह से आधारहीन हो कर रह गया हूं. इन्होंने तो विपक्ष वालों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए हड़बड़ाहट में सच कह दिया पर मेरे तो हाथपांव ही नहीं, मैं तो पूरा ही फूल गया हूं. यह तो कोई बात नहीं होती कि साहब, बस कह दिया, सो कह दिया. पर पैसे डूबे किस के? मेरे जैसों के ही न. और आप तो जानते हैं कि हर वर्ग के बंदे के लिए पैसे से अधिक कुछ प्यारा नहीं होता. फिर मैं तो ठहरा मिडल क्लास का बंदा. चाय के 5 रुपए भी 10 बार गिन कर देता हूं. चमड़ी चली जाए, पर दमड़ी न जाए.

कम से कम एक जिम्मेदार सिटिजन होने के नाते जनाब से यह उम्मीद कतई न थी कि आप मेरे जैसे लाखों आंखों के अंधों को बेटे का सपना दिखा हम से दवाई की डाउन पेमैंट ले राह चलते को बेटे का हाथ अंधेरे में थमाएंगे. बेटे का बाप बनाने के लालच दे हमें हरकुछ खिलाएंगे. वह भी डब्बे पर छपी पूरी कीमत पहले ले कर.

जनाब, बेटे के लिए हरकुछ ही खाना होता तो अपने महल्ले के खानदानी दवाखाने वाले से ही शर्तिया बेटा होने की दवाई क्यों न ले लेता, जो बेटा होने के बाद ही दवाई की पूरी पेमैंट लेता है, वह भी आसान किस्तों में, जितने की किस्त ग्राहक को बिठानी हो, अपनी सुविधा से बिठा ले. चाहे तो पैसे बेटा दे जब वह कमाने लग जाए. वह भी बिना किसी ब्याज के.

बेटे के नाम पर दवाई की डोज कम या अधिक लेने पर बेटी हो तो कोई पेमैंट नहीं. सारी की सारी खुराकों की पेमैंट माफ. सरकार भी ऐसा नहीं कर सकती. वह तो थोड़ीबहुत टोकन मनी लेता है, उसे भी 2 रुपया सैकड़ा की दर से बेटी होने पर ब्याज सहित सादर वापस कर देता है. पर आप के बंदों ने तो मुझ जैसों को जो भ्रम की दवाई खिलाई उस ने दिमाग का चैन भी छीना और जेब का भी. पर उस ने महल्ले के जिनजिन बापों को बेटा होने की दवाई दी, उन के, जिस की भी दया से हुए हों, बेटे ही हुए.

साहब, आप का तो जो कुछ भी होगा, भला ही होगा, पर अब मेरा क्या होगा, बाबा. मैं तो इस आस में आप की दवाई की डोज बिना नागा पूरी ईमानदारी से ले रहा था कि इधर मेरे बेटा हुआ और उधर अच्छे दिनों का द्वार खुला. पर आप ने तो मेरे लिए बुरे दिनों का द्वार भी बंद कर दिया. मैं तो पूरी आस्था से आप के डाक्टरों द्वारा बताए जाने पर एक साल से रोटी के बदले भी ये दवाई प्रसाद समझ खा रहा था.

आप भी कमाल के बंदे हो जनाब. माना आप हमारे ग्रुप के नहीं, पर फिर भी हम केवल बेटे की चाह रखने वाले मानसिक रोगियों से आप मजाक कैसे कर सकते हैं? हम बेटे की चाह रखने वाले तो समाज में हरेक के मजाक का शिकार होते रहते हैं. अपने घर में ही हमें हमारी बीवियां मजाक की दृष्टि से देखती हैं. पर एक हम ही आप जैसे के भरोसे चलने वाले हैं, जो नहीं मानते, तो नहीं मानते. आज की डेट में माना बंदा पैसे दे कर सबकुछ खरीदता है पर कम से कम मजाक तो नहीं खरीदता. मजाक तो बिन पैसे लिए सरकार हम बंदों के साथ काफी कर लेती है.

साहब, हम तो वे बंदे हैं जो दिन में बीसियों बार हर रोज किसी न किसी के हाथों ठगे जाते हैं. अब तो उस दिन हमें नींद नहीं आती जिस रोज हम ठगे न गए हों. ऐसे में, एक ठगी और सही. आखिर, हम तो हैं ही इसी लायक.

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