Film Review Tarla: कैसी है हुमा कुरैशी और शारिब हाशमी की ‘तरला’

लेखक व निर्देषक को इस बात की जानकारी नही है कि सत्तर से नब्बे के दर्शक में किस तरह पितृसत्तात्मक सोच ने महिलाओं के पैरो में बेड़ियां डाल रखी थीं. इसी वजह से वह फिल्म में तरला की पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ लड़ाई व उनके पति नलिन दलाल के सपोर्ट को रेखांकित करने में पूरी तरह से विफल रहे हैं.

रेटिंग: पांच में से ढाई स्टार

निर्माताः अर्थस्काय पिक्चर्स, आरएसवीपी मूवीज

लेखकः गौतम वेद और पियूष गुप्ता

निर्देशकः पियूष गुप्ता

कलाकारः हुमा कुरेशी, शारिब हाशमी,पूर्णेंदु भट्टाचार्य, वीना नायर, भारती आचरेकर और अन्य

अवधिः दो घंटे सात मिनट

ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5

इन दिनों हर होटल में जो मुख्य रसोइया होता है,उसे ‘षेफ’ कहा जाता है.इन दिनों ‘षेफ’ एक अति प्रचलित षब्द हो गया है. पर आज से पचास साल पहले इस षब्द का इजाद नहीं हुआ था. उस दौर में एक साधारण महिला तरला दलाल ने कुछ करने के मकसद से कूकिंग क्लास लेनी शुरू की. उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. फिर उनकी रेसिपी की किताबें बिकने लगीं. सत्तर से नब्बे के दशक में तरला दलाल ने रसोई के व्यंजनों /रेसिपी को लेकर जिस तरह से अपने कैरियर को अंजाम दिया कि हर कोई अचंभित रह गया. उन्होने अपने काम से पितृसत्तात्मक सोच को भी धराषाही कर दिया. यहां तक कि उनके पति नलिन दलाल भी उनकी मदद किया करते थे. तरला दलाल इंडियन फूड राइटर, शेफ, कुकबुक राइटर और कुकिंग शो की होस्ट रह चुकी हैं. वह पहली भारतीय थीं, जिन्हें 2007 में खाना पकाने की कला में पद्मश्री से सम्मानित किया गया था.

उनके ‘देसी नुस्खे‘ आज भी हर भारतीय के घर में चर्चा का विषय होते हैं. तरला दलाल ऐसी शेफ थीं, जिन्हें आज भी शाकाहारी खाने को नया रूप व स्वाद देने के लिए क्रेडिट दिया जाता है. 2013 में 77 वर्ष की उम्र में निधन हो गया था. वह 17 हजार से अधिक रेसिपी देकर गयी हैं. ऐसी ही तरला दलाल की बायोपिक  फिल्म ‘‘तरला’’ लेकर फिल्मकार पियूष गुप्ता आए हैं,जो कि सात जुलाई से ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘जी 5’’पर स्ट्रीम हो रही है.

कहानी

फिल्म की कहानी शाकाहारी भोजन बनाने की कला को आसान बनाने वाली तरला दलाल की है. स्कूल में जब षिक्षक उन्हे पढ़ा रही होती थी,तब वह कुछ करने के सपने देखती रहती थीं. वह कुछ करने के लिए शादी नही करना चाहती थीं. लेकिन उनके माता पिता ने कम उम्र में यह कह कर शादी कर दी कि ‘ जो मन में आए शादी के बाद कर लेना‘. पर तरला शादी नही करना चाहती थी. इसलिए जब पेशे से इंजीनियर नलिन दलाल (शारिब हाशमी) उनके घर आते हैं,तो  तो तरला (हुमा कुरेशी) इतनी नाराज हो जाती है कि वह नलिन को लाल मिर्च मिला हुआ हलवा परोस देती हैं. जिसे नलिन एक खेल की तरह लेते हुए शादी के लिए हां कह देते हैं.

तरला शादी कर घरेलू कामकाज में व्यस्त हो जाती हैं.उनके तीन बच्चे हो जाते हैं. पति नलिन के टिफिन लेकर फैक्ट्री जाने के बाद तरला के पास खाना बनाने,सफाई करने, अपने तीन बच्चों की देखभाल करने का ही काम रहता है. ऐसा तब तक चलता रहता है जब तक उसे अहसास नही होता कि उसे स्टोव पर भोजन पकाने के अपने कौशल को अन्य युवा महिलाओं तक पहुंचाकर उनकी जल्द शादी होने में योगदान देना है. फिर वह कूकिंग क्लास लेने लगती हैं. पर सोसायटी एतराज करती है. उधर नलिन की नौकरी चली जाती है. तब नलिन प्रकाशक बनकर तरला की कूकिंग रेसिपी की किताब छापता है.पहले किताबे नही बिकती. मगर फिर कमाल हेा जाता है. फिर तरला का टीवी कायकम आने लगात है. और एक दिन नलिन को अहसास होता है कि लोग तरला के साथ ही उसके भी प्रषंसक है क्योकि उसने पितृसत्तात्मक सोच के विपरीत जाकर अपनी पत्नी को कुछ करने में अपना योगदान दिया.

लेखन व निर्देशन

कई वर्ष तक फिल्मकार नितेश तिवारी के साथ जुड़े रहे पियूष गुप्ता की बतौर निर्देशक यह पहली फिल्म है,पर उन्होने दृष्यों को सुंदरता से फिल्माया है. मगर पटकथा लेखक गौतम वेद इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी हैं. इसके चलते फिल्म प्रभाव छोड़ने में असफल रहती है. लेखक व निर्देशक को इस बात की जानकारी नही है कि सत्तर से नब्बे के दषक में किस तरह पितृसत्तात्मक सोच ने महिलाओं के पैरो में बेड़ियां डाल रखी थीं.

इसी वजह से वह फिल्म में तरला की पितृसत्तात्मक सोच के खिलाफ लड़ाई व उनके पति नलिन दलाल के सपोर्ट को रेखांकित करने में पूरी तरह से विफल रहे हैं. भोजन के इर्द-गिर्द घूमने वाली इस  फिल्म में एक भी तत्व ऐसा नहीं है,जो इंसान के अंदर सुरूचिकर भोजन के प्रति जिज्ञासा पैदा करे. इतना ही नही फिल्म में एक भी यादगार दृश्य नहीं है.सब कुछ बड़ा बनावटी सा लगता है. यहां तक कि नलिन दलाल का किरदार भी ठीक से नहीं उभर पाया,जो कि खुद को प्रगतिषील मानता है,मगर हर मोड़ पर वह अपनी प्रषंसा का भूखा भी है,पर न मिलने पर उसके अंदर एक अजीब सी बेचैनी व जलन भी होती है.फिल्म के अंत में महज दो चार मिनट के दृष्य में इस बात को चित्रित कर लेखक व निर्देशक ने इतिश्री कर ली.इसकी मूल वजह यह हे कि नई पीढ़ी के लेखक गौतम वेद और निर्देषक से पियूष गुप्ता को सत्तर से नब्बे के दषक के समाज  की समझ नही है. इन दोनो ने उसे समझने का भी प्रयास नही किया. पीयूष ने तरला की कहानी को स्लाइस-ऑफ-लाइफ शैली में बेहतर तरीके से पेष किया है,मगर कमजोर पटकथा व कई तरह की नासमझी वाली गलतियों के चलते फिल्म मजेदार नही बन पाती. इतना ही नही फिल्म की गति काफी धीमी है.

मध्यम वर्गीय परिवार में लैंगिक असमानता,सफल कामकाजी महिला के प्रति समाज के दृष्टिकोण को भी फिल्मकार सही ढंग से  चित्रित नही कर पाए.माना कि निर्देशक एक महिला की सहानुभूति को गरिमापूर्ण तरीके से उजागर करने के लिए काफी संवेदनशील नजर आते हैं.

तरला अपने टीवी कार्यक्रम को लेकर इस कदर व्यस्त हो जाती हैं कि घर पर रसोइया रख देती हैं.नलिन नौकरी की तलाष में व्यस्त हैं. डाइनिंग टेबल पर पिता व तीन छोटे बच्चे खाना खा रहे हैं.छोटा बेटा बीच में उठकर खाना कचरे के डिब्बे में फेंक कर आता है और पिता की समझ में कुछ न आए,यह कैसे हो सकता है? यहां तक कि जब डाक्टर बताता है कि बेटे की बीमारी की वजह यह है कि उसने तीन दिन से भोजन नही किया है. तब जिस तरह से तरला व नलिन के बीच बातचीत होनी चाहिए थी,उसे भी लेखक व निर्देषक नहीं गढ़ पाए. लेखक व निर्देषक भूल गए कि किसी की बायोपिक बनाते हुए सिर्फ उसका महिमामंडन नही किया जाता.फिल्म में इस तरह की तमाम गलतियां हैं. फिल्मकार भूल गए कि कोई भी इंसान बिना असाधारण उतार चढ़ाव के बड़ा नही बन पाता.

अभिनय

कमजोर पटकथा के बावजूद तरला के किरदार को हुमा कुरेशी ने अपनी तरफ से मेहनत तो की, पर बात नही बनी. मशहूर रेस्टारेंट ‘सलीम’ के मालिक की बेटी होने के चलते हुमा कुरेशी इस किरदार में अपनी तरफ से कई आयाम जोड़ सकती थीं,पर ऐसा कुछ नही हुआ. तरला मूलतः गुजराती हैं, पर हुमा कुरेशी के मंुह से संवाद सुनकर लगता है कि यह कोई पुणे में रहने वाली महाराष्ट्यिन हैं. कई जगह उनके चेहरे पर वह भाव नही आते,जो आने चाहिए.जब डाक्टर से तरला को पता चलता है कि  उसके तीन दिन से खाना न खाने के चलते उनका बेटा बीमार हुआ है,तो मां के रूप में उनके चेहरे पर जो भाव आने चाहिए थे,वह नजर नही आते.इतना ही नही उस वक्त मां और सफल कामकाजी मां के बीच की जो कश्मकश होती है,वह भी हुमा कुरेशी के चेहरे पर नजर नही आती.‘महारानी’ या ‘मोनिका ओह माय डार्लिंग ’ से उनकी जिस अभिनय प्रतिभा के लोग दीवाने हुए थे,उसका अभाव यहां नजर आता है.

‘फिल्मिस्तान’ व ‘फुल्लूू’ के बाद ‘तरला’ में पुरूष नायक  के तौर पर नलिन दलाल के किरदार को निभाकर शारिब हाशमी ने साबित कर दिया कि वह फिल्म में हीरो बनने लायक अभिनय क्षमता रखते हैं,जिसकी अनदेखी फिल्मकार करते रहते हैं.शारिब ने अपने अभिनय से तरला को यादगार बनाने में अहम भूमिका निभायी है,जबकि लेखक ने उनके किरदार को सही ढंग से  लिखा नही है.अपनी पत्नी के ‘कुछ’करने की इच्छाषक्ति को बेहिचक बढ़ावा देने वाले पति,पत्नी की रेसिपी को टाइपकर उसकी किताब छापने तक नलिन के उत्साह को शारिब हाशमी ने अपने अभिनय से परदे पर उभारा है.माफी मांगने वाले लंबे मोनो लॉग में षारिब का अभिनय यादागर बनकर रह जाता है.छोटे किरदार में भारती आचरेकर अपनी छाप छोड़ जाती हैं.

 

अभिनेत्री हुमा कुरैशी से जानें मानसून में उनकी खास पसंद, पढ़ें इंटरव्यू

मॉडलिंग से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री हुमा कुरैशी दिल्ली की है. स्पष्टभाषी और खुबसूरत हुमा को अभिनय पसंद होने की वजह से उन्होंने दिल्ली में पढाई पूरी कर थिएटर ज्वाइन किया और कई डॉक्युमेंट्री में काम किया.

एक विज्ञापन की शूटिंग के लिए वह मुंबई आई. उस दौरान निर्देशक अनुराग कश्यप ने उसके अभिनय की बारीकियों को देखकर फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के लिए साइन किया. फिल्म हिट हुई और हुमा को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा. इसके बाद फिल्म ‘एक थी डायन, डी-डे, बदलापुर, डेढ़ इश्कियां, हाई वे, जॉली एल एल बी आदि के अलावा उन्होंने वेब सीरीज भी की है.

हुमा ने हॉलीवुड फिल्म ‘आर्मी ऑफ़ द डेड’ भी किया है. हुमा जितनी साहसी और स्पष्टभाषी दिखती है, रियल लाइफ में बहुत इमोशनल और सादगी भरी है. उनकी फिल्म ‘तरला’ रिलीज पर है, उनसे हुई बातचीत के अंश इस प्रकार है.

 

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सवाल – इस फिल्म को करने की खास वजह क्या रही?

जवाब – कहानी अच्छी तरह से लिखी गई है, एक प्रेरणादायक कहानी, जो एक मास्टर शेफ की है, उन्होंने रेसिपी बुक भी लिखी है और एक महिला होकर इतनी कामयाबी पाई है. उनकी कहानी सबको पता होनी चाहिए.

सवाल – किस तरह की तैयारिया की है?

जवाब – खाने की मैंने अधिक प्रैक्टिस नहीं की है, क्योंकि मैं खाना बना सकती हूँ, फ़ूड स्टाइलिस्ट ने ही सबकुछ किया है, लेकिन इसमें खाने को अधिक महत्व नहीं दिया गया है. इसमें घर का खाना जो माँ के हाथ का बना होता है, जिसमे फैंसी तरीके से सजावट नहीं होती, पर उसका स्वाद बहुत अलग होता है. उसे दिखाने की कोशिश की गई है.

सवाल – बायोपिक में किसी व्यक्ति को दर्शाते हुए उस व्यक्ति की बारीकियों को पर्दे पर उतारने की जरुरत होती है, नहीं तो कंट्रोवर्सी होती है, आपने इस बात का कितना ख्याल रखा?

जवाब – ये सही है कि बायोपिक में मेहनत अधिक करनी पड़ती है, इसमें मैंने तरला दलाल की बहुत सारी इंटरव्यू देखी, वह जिस तरीके से बात करती थी, उसे अडॉप्ट किया, मसलन वह गुजराती थी, पर मराठी लहजे में बात करती थी, बहुत सारे शब्द अंग्रेजी में बोलती थी. उनके बात करने का तरीका ‘लेडी नेक्स्ट डोर’ की तरह था, जो बहुत सुंदर था.

सवाल – तरला दलाल की कहानी आज की महिलाओं के लिए कितना सही है?

जवाब – आज भी तरला की कहानी प्रासंगिक है, क्योंकि आज भी किसी लड़की को पहले शादी करने की सलाह दी जाती है, बाद में उन्हें जो करना है, उसे करने को कह दिया जाता है, जिसे शादी के बाद करना आसान नहीं होता, पर तरला ने उसे कर दिखाया.

सवाल – परिवार का सहयोग किसी महिला की कामयाबी में कितना जरुरी होता है?

जवाब – तरला दलाल का जीने का तरीका संजीदगी से भरा हुआ करता था. वह एक सॉफ्ट स्पोकेन महिला थी. उस ज़माने घर से निकल कर काम करना, पति और परिवार का ध्यान रखना आदि सब करना आसान नहीं था. उस समय की वह मार्गदर्शन करने वाली पहली महिला है और उन्होंने बता दिया कि परिवार के साथ भी बहुत कुछ किया जा सकता है, जो आज की महिलाये भी कर सकती है. इसे बहुत ही प्यार भरी तरीके से उन्होंने किया है, जिसे सबको जानना आवश्यक है. मेरे यहाँ तक पहुँचने में भी मेरे परिवार का बहुत बड़ा सहयोग है, मेरे पेरेंट्स, मेरा भाई सबका सहयोग रहा है, अकेले इंसान कुछ भी नहीं कर पाता.

 

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सवाल – दिल्ली से मुंबई आना और एक्टिंग के कैरियर को स्टाब्लिश करना कितना मुश्किल रहा?

जवाब – दिल्ली से मुंबई आने के बाद मैंने विज्ञापनों में काम करना शुरू कर दिया था, एक एड में मेरे साथ अभिनेता आमिरखान थे, जिसे अनुराग कश्यप डायरेक्ट कर रहे थे, इसके बाद अनुराग कश्यप ने मुझे गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में काम करने का ऑफर दिया, जो 2012 में रिलीज हुई, ये एक छोटी सी मेरी शुरूआती जर्नी रही, जिसके बाद लोगों ने मुझे फिल्मों में काम करते हुए देखा और आगे काम मिलता गया.

सवाल – आपने इंडस्ट्री में करीब 10 साल बिता चुकी है और बॉलीवुड, हॉलीवुड और साउथ की फिल्मों में काम किया है, आप इस जर्नी को कैसे देखती है?

जवाब – ये सही है कि मैंने एक सपना देखा है और अब वह धीरे-धीरे पूरा हो रहा है. मैंने हमेशा से अभिनेत्री बनना चाहती थी, लेकिन कैसे होगा पता नहीं था. समय के साथ-साथ मैं आगे बढ़ती गयी. मैं चंचल दिल की लड़की हूँ और अपने काम से अधिक संतुष्ट नहीं रहती. मैं कलाकार के रूप में हर नयी किरदार को एक्स्प्लोर करना पसंद करती हूँ.

सवाल – किसी फिल्म को चुनते समय किस बात का ख़ास ध्यान रखती है?

जवाब – कहानी अच्छी हो, अच्छी तरह से लिखी हुई हो, अच्छे लोगों के साथ फिल्म बन रही हो और जो फिल्म बना रहे है, वे इमानदारी से फिल्म को पूरा करें. कहानी और स्क्रिप्ट अच्छी हो और मुझे एक्साइट करती हो, तो जोनर कोई भी हो, उसे करने में मजा आता है.

सवाल – इंडस्ट्री की कोई ऐसी फ्रेंड जिससे आप मिलना-जुलना पसंद करती है?

जवाब – मेरा इंडस्ट्री में कोई फ्रेंड नहीं है, मैं अकेले रहती हूँ. सुबह शूटिंग पर जाती हूँ, इसके ख़त्म होने के बाद सीधे घर आती हूँ. खाना खाती हूँ और सो जाती हूँ.

सवाल – मानसून में आप खुद को फिट कैसे रखती है?

जवाब – हर मौसम में समय पर खाना और समय से सोना ये दो चीज मैं नियमित करती हूँ, इसके अलावा वर्कआउट और योगा भी करती हूँ. मानसून में पकौड़े खाना पसंद है, जो किसी दूसरे मौसम में अच्छा नहीं लगता.

सवाल – ऐसी कोई फ़ूड जिसे आप खुद को खाने से रोक न सकें?

जवाब – चाट

सवाल – कोई ऐसी व्यंजन जिसे आप अच्छा बना लेती है?

जवाब – कीमा अच्छा बना लेती हूँ, जिसे सभी पसंद करते है.

सवाल – कोई सुपर पॉवर मिलने पर क्या बदलना चाहती है?

जवाब – मैं लोगों की थॉट्स पढ़ना चाहती हूँ.

REVIEW: बौडी शेमिंग जैसे संवेदनशील मुद्दे का मजाक बनाती ‘डबल एक्स एल’

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः साकिब सलीम , टीसीरीज

लेखकः मुदस्सर अजीज

निर्देशकः सतराम रमानी

कलाकारः सोनाक्षी सिन्हा, हुमा कुरेशी, शोभा खोटे, कंवलजीत सिंह,  जहीर इकबाल, महत राघवेंद्र,  डौली सिंह व अन्य

अवधिः दो घंटे 12 मिनट

युवा पीढ़ी में बौडी शेमिंग बहुत बड़ी समस्या है. इसी मुद्दे पर बोल्ड फिल्म ‘हेलमेट’ फेम निर्देशक सतराम रमानी फिल्म ‘‘डबल एक्सएल’’ लेकर आए हैं, जिसका निर्माण फिल्म की एक नायिका हुमा कुरेशी के भाई व अभिनेता साकिब सलीम ने किया है. फिल्मकार इस फिल्म के माध्यम से दर्शकों को बताना चाहते हैं कि सपनों को पूरा करने के लिए शरीर की साइज मायने नही रखता. लेकिन अफसोस उन्होने इतनी बुरी फिल्म बनायी है कि उनका संदेश दर्शकों तक पहुंच ही नही पाता.  इतना ही नही फिल्म देखकर एक सवाल उठता है कि क्या साकिब सलीम व हुमा कुरेशी ने अपने पैतृक रेस्टारेंट ‘‘सलीम किचन’’ के प्रचार के लिए यह फिल्म बनायी है. पूरी फिल्म ‘स्वस्थ रहने‘ की आड़ में मोटे होने का महिमामंडन करती है. खासकर चिकन कबाब खाने का प्रचार.

कहानीः

फिल्म की कहानी शुरूआत उस दृश्य से होती है, जब राजश्री त्रिवेदी (हुमा कुरैशी) गहरी नींद में क्रिकेटर शिखर धवन के साथ डांस करने का मीठा सपना देख ही रही होती है कि मां( अलका कौशल )  हल्ला करके बेटी को जगा देती है. मां बेटी की शादी की चिंता में आधी हुई जा रही है. बेटी 30 पार कर चुकी है,  मगर उसकी शादी नहीं हो रही और मां इसकी वजह बेटी का मोटापा मानती है, जबकि दादी( शुभा खोटे) और पिता(कंवलजीत)की नजर में बेटी हष्ट-पुष्ट है. उधर राजश्री को शादी का कोई शौक नहीं. राजश्री त्रिवेदी का सपना एक टीवी स्पोर्ट्स प्रेजेंटर बनना है. अपने सपने को पूरा करने के लिए राजश्री त्रिवेदी अपने पिता,  मां और दादी की इच्छा के खिलाफ जाने पर आमादा हैं. राजश्री के माता पिता चाहते है कि वह शादी करके अपना घर बसा ले, लेकिन यह बात राजश्री को मान्य नही है. उधर दिल्ली निवासी सायरा खन्ना (सोनाक्षी सिन्हा) एक जिम वाले को डेट कर रही है,  लेकिन उनका दिल अपना खुद का डिजाइनर लेबल बनाने को बेताब है. एक चैनल में इंटरव्यू देने के लिए राजश्री त्रिवेदी दिल्ली जाती है, जहंा रिजेक्ट हो जाने के बाद वाशरूम में रोेते हुए उनकी मुलाकात  सायरा खन्ना से हो जाती है. दोनों वॉशरूम में रोते हुए अपने जीवन में गड़बड़ी के लिए अपने ‘डबल एक्सएल‘ शरीर को दोष देते हैं. सायरा खन्ना को लंदन जाकर कुछ निवेशकों के लिए एक फैशन यात्रा वृत्तांत का वीडियो बनाना है, मगर उनके पास निर्देशक नही है. तो राजश्री त्रिवेदी निर्देशक बन जाती हैं. क्योकि उन्होेने कुछ इंस्टाग्राम रील्स बनायी हैं. कैमरामैन के रूप में श्रीकांत (महत राघवेंद्र) आ जाते हैं. यह तीनों लंदन रवाना होते हैं. एअरपोर्ट पर जोई (जहीर इकबाल) इन्हे लेने आता है. जो कि इन दोनों को अपने सपनों को पूरा करने में मदद करता है. कपिल देव से जोई झूठ बोलकर राजश्री त्रिवेदी को कपिल देव से इंटरव्यू करने का अवसर दिलाता है. जिसे देखकर राजश्री त्रिवेदी को नौकरी मिल जाती है.  सायरा खन्ना का अपना फैशन लेबल शुरू हो जाता है.

लेखन व निर्देशनः

बौलीवुड में बौडी शेमिंग पर ‘फन्ने खां और ‘दम लगा के हईशा’ जैसी बेहतरीन फिल्में पहले भी बन चुकी हैं. तो वहीं बंगला अभिनेत्री रिताभरी चक्रवर्ती ने भी इसी मुद्दे पर एक बंगला फिल्म ‘‘फटाफटी’’ बना रखा है. कम से कम फिल्मकार को इन पर गौर कर लेना चाहिए था. लेकिन फिल्म देखकर अहसास होता है कि फिल्मकार ने कंगना रानौट की सफल फिल्म ‘क्वीन’ सहित कई फिल्मों का कचूमर परोसते हुए केवल ‘सलीम किचन’ के प्रचार पर ही पूरा ध्यान रखा. इसी के चलते मोटापा बढ़ने पर शरीर को होने वाले नुकसान का जिक्र तक नही किया गया है. ‘‘हैप्पी भाग जाएगी’’ फेम मुदस्सर अजीज से ऐसी उम्मीद नही थी. फिल्म में किसी भी किरदार को ‘फैट फोबिया’ भी नही है. लेखक मुदस्सर अजीज व निर्देशक सतराम रमानी बौडी शेमिंग जैसे जरूरी मुद्दे वाले विषय की परतों को पूरी तरह से उकेरने में असफल रहे हैं. इतना ही नही पूरी फिल्म नारी स्वतंत्रता व आत्मनिर्भर नारी के खिलाफ गढ़ी गयी है. राजश्री त्रिवेदी इतनी आत्मनिर्भर है कि उसे लड़कियों या औरतों से किस तरह बात की जानी चाहिए, इसकी समझ नही है. तो वहीं सायरा पूरी तरह से पुरूष पर निर्भर नजर आती है.

इंटरवल से पहले फिल्म काफी धीमी गति से चलती है. इंटरवल पर अहसास होता है कि अब फिल्म में कोई रोचकता आएगी. मगर ऐसा नही होता. इंटरवल के बाद फिल्म पूरी तरह से विखर जाती है. बौडी शेमिंग के मुद्दे को जिस तरह की  संवेदन शीलता की उम्मीद थी, उस पर भी लेखक व निर्देशक दोेनों खरे नही उतरे.

अभिनयः

फिल्म के किसी भी कलाकार का अभिनय प्रभावशाली नही है. दोनो नायिकाओं, हुमा कुरेशी और सोनाक्षी सिन्हा ने महज अपना वजन 15 किलो बढ़ाकर किरदार में फिट होने की इतिश्री कर ली. हुमा कुरेशी और सोनाक्षी सिन्हा की केमिस्ट्री भी नही जमी. श्रीकांत के किरदार में महत राघवेंद्र अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हैं. जहीर इकबाल को बेहतर अभिनेता बनने के लिए अभी काफी मेहनत करनी पड़ेगी. अलका कौशल 30 पार कर चुकी अनब्याही बेटी की मां के दर्द को बखूबी बयान करती हैं.  छोटे किरदार में शुभा खोटे याद रह जाती है.  कंवलजीत के हिस्से करने को कुछ आया ही नही.

FILM REVIEW: जानें कैसी हैं अक्षय कुमार की फिल्म ‘Bellbottom’

रेटिंगः तीन स्टार

निर्माताः वासु भगनानी, जैकी भगनानी, दीपशिखा देशमुख, निखिल अडवाणी, मनिषा अडवाणी व मधू भोजवानी

निर्देशकः रंजीत एम तिवारी

कलाकारः अक्षय कुमार, वाणी कपूर,  लारा दत्ता , हुमा कुरेशी, आदिल हुसेन,  डेंजिल स्मिथ, अनिरूद्ध दवे व अन्य.

अवधिः दो घंटे तीन मिनट

भारत देश में तमाम ‘अनसंग हीरो’’ हैं, जिनकी प्रेरक कथाओं के संबंध कम लोग ही जानते हैं. और खास कर देश की रॉ एजंसी से जुड़े लोग तो सदैव गुमनाम ही रहते हैं. इनके कारनामें हमेशा फाइलों में ही बंद रहते हैं. ऐसे ही ‘अनसंग हीरो’की कहानी को ‘‘लखनउ सेंट्ल’फेम फिल्मकार रंजीत एम तिवारी अपनी अति रोमांचक फिल्म ‘‘बेलबॉटम’’में लेकर आए हैं, जो कि 19 अगस्त से सिनेमाघरों में देखी जा सकती है. यह कहानी 1984 में इंडियन एअर लाइंस की उड़ान संख्या आई सी 421 के अपहरण@हाईजैक के सत्यघटनाक्रम पर आधारित है.

कहानीः 

यह कहानी एक रॉ एजेंट की जांबाजी,  सूझ-बूझ और साहस की है, जिसके चलते अपहृत प्लेन के न केवल सभी यात्री जीवित बचाए जाते हैं, बल्कि उस प्लेन को अगवा करने वाले आतंकवादियों को भी पकड़ लिया जाता है. फिल्म की पृष्ठ्भूमि अस्सी के दशक की है, जब देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (लारा दत्ता ) हुआ करती थीं. यह वह दौर था, जब 1971 की हार के बाद पाकिस्तान ने भारत के साथ दोस्ती का ढोंग रचा था. पर अस्सी के दशक में सात वर्ष में पांच भारतीय हवाईजहाज अपहृत हुए थे और हर बार अपहृत हवाई जहाज पाकिस्तान के लाहौर शहर ले जाए जाते थे. हर बार किसी न किसी भारतीय संगठन का ही नाम आता था. हर बार पाक समझौता कराते हुए कुछ आतंक वादियों को छुड़वाने के साथ ही उन आतंकवादियों को करोड़ों रूपए दिलवाता था. जबकि भारत को लगता था कि पाक सरकार ने मदद की. ऐसे ही एक अपहृत हवाई जहाज को इसी तरह पाक छुड़वा तो देता है, मगर हर काम करने में माहिर अंशुल मल्होत्रा (अक्षय कुमार)को अपनी मां (डॉली अहलूवालिया)को खोना पड़ा था. अंशुल का यही दर्द उसे रॉ एजेंट बना देता है. जबकि वह तो राधिका (वाणी कपूर) से प्रेम विवाह करने के बाद खुशहाल जिंदगी जीते हुए यूपीएससी की परीक्षा पास करने की सोच रहा था. उसकी पत्नी राधिका एमटीएनएल में नौकरी कर रही थी. लेकिन रॉ के मुखिया ने अंशुल के दर्द को ही उसकी ताकत बनाने की सोचकर अपने अंदाज में अंशुल को ‘रॉ’का एजेंट बनने के लिए तैयार कर लेते हैं और ‘रॉ’में उसका कोडनेम ‘बेल बॉटम‘होता है. वह देश की सुरक्षा का बीड़ा उठाकर अपने अंदाज से जांच कर अपहृत हवाई जहाजों के पीछे पाकिस्तान के इंटेलिजेंस ब्यूरो आइएएस की भूमिका का पर्दाफाश करने का प्रण लेता है.

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24 अगस्त 1984 को पुनः 210 यात्रियों वाले विमान का  अपहरण हो जाता है. पहले अपहरणकर्ता इस विमान को अमृतसर में उतारते हैं, पर कुछ समय के अंतराल में वह इसे लाहौर ले जाते हैं. विमान अपहरण की खबर दिल्ली पहुंचने में ज्यादा देर नहीं लगती. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (लारा दत्ता) तुरंत उच्च अधिकारियों व मंत्रिायों के साथ बैठक करती हैं. सरकार के मंत्री पुनः पाकिस्तान के माध्यम से नेगोशिएट करने की सलाह देते हैं. मगर रॉ अध्किारी(आदिल हुसेन)प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को सलाह देते हैं कि एक बार वह रॉ एजेंट बेलबॉटम अंशुल (अक्षय कुमार) से मिल लें. इंदिरा गांधी,  बेलबॉटम को बुलाती हैं. अक्षय कुमार की सलाह पर वह पाक के प्रधानमंत्री जिया उल हक से कह देती है कि वह अपहरण कर्ताओं से बात न करें. इससे पाक नाराज होकर प्लेन को दुबई भिजवा देता है, क्योंकि अपहरणकर्ता तो आई एएस के ही बंदे हैं. मंत्रियों के विरोध क बावजूद इंदिरा गांधी इस बार 210 यात्रियों की जिंदगी बचाने की जिम्मेदारी बेलबॉटम को सौंपती है. बेलबॉटम अपने चार सहयोगी रॉ एजेंटों की मदद से इस पर काम शुरू करता है. जहां वह दुबई में एक महिला(हुमा कुरेशी)की मदद लेता है. पर यह मिशन काफी पेचीदा निकलता है. कहानी में कई मोड़ आते हैं.

लेखन व निर्देशनः

असीम अरोड़ा व परवेज शेख की सशक्त पटकथा पर रंजीत एम तिवारी ने अपने निर्देशन कौशल का बेहतरीन परिचय दिया है. मगर इस फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी हैं इंदिरा गांधी का किरदार निभाने वाली अदाकारा लारा दत्ता. मगर इसके लिए कुछ हद तक निर्देशक भी जिम्मेदार हैं. इंदिरा गांधी के लुके के लिए लारा दत्ता का प्रोस्थेटिक मेकअप करते समय पूरी टीम ने ‘नाक’पर ही ध्यान केंद्रित रखा. समग्र लुक को तवज्जो नही दे पाए. दूसरी बात इंदिरा गांधी की आवाज में जो दम व रूतबा था, उसका भी अभाव नजर आता है. इंदिरा गांधी अपने मंत्रियो या अधिकारियों के साथ जिस तरह से बात करती थीं, उसे भुला दिया गया. इंटरवल से पहले फिल्म थोड़ी सी कमजोर है, मगर इंटरवल के बाद काफी बेहतर है. फिल्म के कुछ चुटीले संवाद दर्शकों को अपनी तरफ खींचते हैं. निर्देशक ने रोमांच को अंत तक बरकरार रखा. राधिका यानी कि वाणी कपूर के किरदार का जो मोड़ फिल्म के ंअंत में दिखाया है, वह कमाल का है. फिल्म का संगीत भी एक कमजोर कड़ी है. पर फिल्म देखी जा सकती है. कोरोना महामारी के चलते परेशान लोगों को भी ‘बेलबॉटम’ देखकर कुछ तो आनंद मिलेगा.

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अभिनयः

अंशुल मल्होत्रा यानी कि बेलबॉटम के किरदार में अक्षय कुमार ने शानदार काम किया है. अपनी पिछली कुछ फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी अक्षय कामर ‘देशभक्ति के पोस्टर ब्वॉय’हैं, मगर इसमें देशभक्ति के नारे नही लगाए. इतना ही नही अक्षय कुमार ने अंशुल मल्होत्रा के किरदार को एक अलग अंदाज में ही पेश किया है. पर्दे पर रॉ एजेंट बेलबॉटम के रूप में वह परदे पर रोमांच पैदा करने में सफल रहते हैं. रॉ अधिकारी के रूप में अभिनेता आदिल हुसेन एक बार फिर दर्शकों को अपने अभिनय का कायल बना देते हैं. आदिल हुसैन और अक्षय कुमार की केमिस्ट्री जबरदस्त है.  प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की भूमिका में लारा दत्ता नही जमती. वैसे कुछ दृश्यों में लारा दत्ता ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाव भाव व चाल ढाल को पकड़ा है. राधिका के छोटे किरदार में भी वाणी कपूर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में सफल रहती हैं. हुमा कुरैशी के हिस्से भी ज्यादा कुछ करने को नही रहा, पर इस फिल्म में उनका अभिनय कमतर ही रहा. पर्दे पर ज्यादा स्क्रीन स्पेस नहीं मिला,  मगर इसके बावजूद वे छाप छोड़ जाती हैं. आतंकी के किरदार में जैन खान दुर्रानी ठीक ठाक हैं.

Father’s day Special: जानें हुमा कुरैशी को अपने पिता से क्या सीख मिली

मॉडलिंग से अपने कैरियर की शुरुआत करने वाली अभिनेत्री हुमा कुरैशी दिल्ली की है. हुमा को अभिनय पसंद होने की वजह से उन्होंने दिल्ली में पढाई पूरी कर थिएटर ज्वाइन किया और कई डॉक्युमेंट्री में काम किया. वर्ष 2008 मेंएक फ्रेंड के कहने पर हुमा फिल्म ‘जंक्शन’ की ऑडिशन के लिएमुंबई आई,लेकिन फिल्म नहीं बनी. इसके बाद उन्हें कई विज्ञापनों का कॉन्ट्रैक्ट मिला. एक मोबाइल कंपनी की शूटिंग के दौराननिर्देशक अनुराग कश्यप ने उनके अभिनय की बारीकियों को देखकर फिल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ के लिए साइन किया. उन्होंने इस फिल्म की पार्ट 1 और 2 दोनों में अभिनय किया. फिल्म हिट हुई और हुमा को पीछे मुड़कर देखना नहीं पड़ा. हुमा की कुछ प्रसिद्ध फिल्में ‘एक थी डायन, डी-डे, बदलापुर, डेढ़ इश्कियां, हाई वे, जॉली एल एल बी आदि है. हुमा ने आजतक जितनी भी फिल्मे की है, उनके अभिनय को दर्शकों और आलोचकों ने सराहा है, जिसके फलस्वरूप उन्हें कई पुरस्कार भी मिले है. हिंदी फिल्म के अलावा हुमा ने हॉलीवुड फिल्म ‘आर्मी ऑफ़ द डेड’ भी किया है.

हुमा जितनी साहसी और स्पष्टभाषी दिखती है, रियल लाइफ में बहुत इमोशनल और सादगी भरी है. हुमा की दोस्ती सभी बड़े स्टार और निर्देशक से रहती है. हुमा को केवल एक फिल्म करने की इच्छा थी, लेकिन अब कई फिल्मों और वेब सीरीज उनकी जर्नी में शामिल हो चुकी है. हुमा की वेब सीरीज ‘महारानी’ ओटीटी प्लेटफॉर्म सोनी लाइव पर रिलीज हो चुकी है, जिसमें हुमा ने ‘रानी भारती’ की भूमिका निभाई है, जो बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव की पत्नी राबड़ी देवी से प्रेरित है. इस वेब सीरीज की सफलता पर हुमा ने बात की, पेश है कुछ खास अंश.

सवाल-सफलता को हमेशा ही सेलिब्रेट किया जाता है, लेकिन इस कोविड महामारी में हर व्यक्ति अपने भविष्य को लेकर चिंतित है, आप इस माहौल में सफलता को कैसे सेलिब्रेट करना चाहती है?

सफलता और असफलता को मैं अपने जीवन में अधिक महत्व नहीं देती, क्योंकि सफलता के मूल में मैं वही लड़की हूँ, जो दिल्ली से अभिनय के लिए आई और सफल नहीं थी. मैं कोशिश करती हूँ कि मैं कभी न बदलूँ, जैसा पहली थी, अभी भी वैसी ही रहना चाहती हूँ. वेब सीरीज के सफल होने के पीछे अच्छी टीम, सही कहानी,सही निर्देशक,सही कैमरामैन,सही स्क्रिप्ट राइटर आदि सबकी समय और मेहनत का नतीजा है, जिसके फलस्वरूप कहानी में रियलिटी दिखी, जिसे दर्शक पसंद कर रहे है.

सवाल-इस भूमिका को निभाने में कितनी तैयारियां करनी पड़ी?

इसकी स्क्रिप्ट बहुत अच्छी तरह से लिखी गयी थी, इसलिए इसे पढ़ा, समझा और इसे छोटे-छोटे पार्ट में तैयारी की, क्योंकि ये महिला गांव की है और वहां से वह कभी पटना भी नहीं गयी है. गांव में वह कभी स्कूल नहीं गयी, साइन नहीं की है, काम में हमेशा फंसी रहती है. देखा जाय तो मेरी निजी जिंदगी इस भूमिका से बहुत दूर है. मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती जिसे आप जानते हो,उसे अभिनय में अनभिज्ञ रहने से था. मसलन मुझे हस्ताक्षर करना आता है, लेकिन अभिनय में कोशिश करने पर भी हस्ताक्षर नहीं कर पा रही हूँ. इस दृश्य को करना मेरे लिए बहुत चुनौती थी.

सवाल-क्या राजनीति में आपको आने की इच्छा है?

नहीं, मुझे कभी भी राजनीति पसंद नहीं. मैं दिल्ली की गार्गी कॉलेज में पढ़ती थी, जो लड़कियों की है. उस कॉलेज ने मुझे महिला सशक्तिकरण का सही अर्थ में सिखाया, क्योंकि लड़कियों से दोस्ती करना, उनके व्यवहार को समझना, फिमेल बोन्डिंग को देखना आदि सब महिला कॉलेज में अलग होता है. मुझे बेसिक ह्यूमैनिटी समझ में आती है, पर पॉलिटिक्स नहीं समझ में आती. कॉलेज में मैं ड्रामा सोसाइटी की प्रेसिडेंट थी, लेकिन उसमें कोई चुनाव नहीं होता था. (हंसती हुई) मैं कॉलेज की थोड़ी गुंडी अवश्य थी.

सवाल-कोविड महामारी में फिल्म इंडस्ट्री को बहुत अधिक लॉस हुआ है,थिएटर बंद है,ऐसे में ओटीटी प्लेटफॉर्म अच्छा साबित हो रही है, क्योंकि इस पर वेब सीरीज के साथ-साथ फिल्में भी रिलीज हो रही है, पर ओटीटी पर एक या डेढ़ घंटे की फिल्म को भी दर्शक देखना नहीं चाहते, जबकि वेब सीरीज, लंबी होने पर भी दर्शक उसे देखना पसंद करते है, इस बारें में आपकी सोच क्या है?

ये सही है कि कोरोना ख़त्म होने पर और सारे लोगों को वैक्सीन लगने के बाद ही हॉल खुल सकते है. थिएटर हॉल खुलने में अभी देर है, ऐसे में ओटीटी ही मनोरंजन का एकमात्र माध्यम रह गया है. ये सही है कि दर्शकों को आगे चलकर थिएटर हॉल में लाना मुश्किल होगा, लेकिन जिस तरह से माँ के हाथ का खाना सबको पसंद होता है, लेकिन कभी- कभी परिवार, दोस्तों और बॉय फ्रेंड के साथ, तैयार होकर बाहर जाने में भी अच्छा लगता है. असल में ये सब अलग-अलग अनुभव है, जो लाइफ में होना जरुरी है और लोग इसे एन्जॉय भी करते है. वैसे ही कभी घर पर बैठकर फिल्में देखना या कभी बाहर जाकर फिल्में देखने का अनुभव अलग होता है. दोनों ही अनुभव हमारे जीवन में अहमियत रखते है. मैं भी थिएटर हॉल खुलने का रास्ता देख रही हूँ, बड़े स्क्रीन पर एक बड़ा सा पॉपकॉर्न हाथ में लेकर खाते हुए बहुत सारे लोगों के साथ फिल्म देखने का मज़ा ही कुछ और है.

दो घंटे की फिल्म में कहानी के मुख्य पात्र को ऊपर-ऊपर से दिखाया जाता है. हीरो, हिरोइन दोनों मिले, गाना गाया, प्यार हो गया, मारपीट कुछ ऐसा ही चलता रहता है, लेकिन फिल्म के बाकी चरित्र, रीजन, कल्चर आदि को समझने का समय नहीं होता. सीरीज मजेदार लगने की वजह कहानी की भाषा, सहयोगी पात्र, संस्कृति, कलाकारों के भाव आदि सब दिखाने के लिए समय होता है. मसलन मैंने महारानी वेब सीरीज में वहां की रीतिरिवाज, संस्कृति, दही चिवडा आदि को मैंने नजदीक से देखा और अभिनय किया. असल में ऐसे किसी भी दृश्य से जब दर्शक खुद को जोड़ लेते है, तो उसे वह कहानी अच्छी लगने लगती है.

सवाल-आपने इंडस्ट्री में करीब 10 साल बिता चुकी है और बॉलीवुड, हॉलीवुड और साउथ की  फिल्मों में काम किया है, आप इस जर्नी को कैसे देखती है?

ये सही है कि मैंने एक सपना देखा है और अब वह धीरे-धीरे पूरा हो रहा है. मैंने हमेशा से अभिनेत्री बनना चाहती थी, लेकिन कैसे होगा पता नहीं था. समय के साथ-साथ मैं आगे बढ़ती गयी. मैं चंचल दिल की लड़की हूँ और अपने काम से अधिक संतुष्ट नहीं हूँ. मैं कलाकार के रूप में हर नयी किरदार को एक्स्प्लोर करना चाहती हूँ.

सवाल-क्या ओटीटी की वजह से आपको अधिक मौके मिल रहे है?

अभी तो थिएटर बंद है, ऐसे में ओटीटी ही एकमात्र माध्यम है. आगे मेरी फिल्में भी डिजिटल मिडिया पर रिलीज होंगी, क्योंकि अभी फिल्म बनाया जा सकता है, लेकिन थिएटर न खुलने से वह बेकार हो जाती है. मैंने दो सीरीज ही की है. लैला और महारानी, दोनों को करने में मुझे मज़ा बहुत आया. मुझे ही नहीं सभी कलाकारों को काम मिल रहा है.

सवाल-किसी भी महिला राजनेत्री अगर कम पढ़ीलिखी या अनपढ़ हो, तो उसे पुरुषों के मजाक कापात्र बनना पड़ता है, उनके काम को अधिक तवज्जों नहीं दी जाती,ऐसा आये दिन हर जगह महिलाओं के साथहोता रहता है, इसकी वजह क्या समझती है?

मेरे हिसाब से महिलाएं,चाहे किसी भी क्षेत्र में काम करती हो, पर्दे के सामने या पर्दे के पीछे हो, भेदभाव है, एक ग्लास सीलिंग है, सभी उसे तोड़ने की लगातार कोशिश कर रही है. कई बार ऐसा करने से समाज और दोस्त रोक देते है, तो कई बार महिला खुद अपनी सफलता से डर जाती है. ये एक प्रकार की कंडीशनिंग ही तो है. महिलाओं को ग्रो करने के लिए कहा जाता है, लेकिन एक दायरे के बाद उन्हें रोक दिया जाता है. वजह कुछ भी नहीं होती, लेकिन चल रहा है. वुमन एम्पावरमेंट में पुरुष और महिला में भेदभाव न करना,लड़के और लड़की को समान समझना आदि के बारें में बात की जाती है, लेकिन रिजल्ट कुछ खास नहीं दिखता. हालाँकि पहले से अभी कुछ सुधार हुआ है, लेकिन अभी और अधिक सुधार की जरुरत है. सभी महिलाएं यहाँ अपनी दादीयां, माँ, बहन, पड़ोसन आदि की वजह से ही आगे बढ़े है. मेरी जिंदगी में बहुत सारी औरतों ने मेरा साथ दिया है. महारानी शब्द को भी लोग. चिड में लड़की या महिला कहते है और ये नार्मल बात होती है.

 

सवाल-फादर डे के मौके पर पिता के साथ बिताये कुछ पल को शेयर करे, उनका आपके साथ बोन्डिंग कैसी रही?

मेरे पिता सलीम कुरैशी बहुत ही अच्छे सज्जन है, उन्होंने हमेशा मेहनत कर आगे बढ़ने की सलाह दी है. उन्होंने 4 साल पहले 10 रेस्तरां की श्रृंखला (Saleem’s) दिल्ली में खोला है. उन्होंने अपना व्यवसाय एक छोटे से ढाबे से शुरू किया था,लेकिन उनकी मेहनत और लगन से वह बड़ी हो चुकी है. उनके उस छोटे ढाबे की विश्वसनीय मुगलई पाकशैली सबको हमेशा पसंद आती थी. इन रेस्तरां की मुगलई भोजन आज भी प्रसिद्ध है.मेरी माँअमीना कुरैशी हाउसवाइफ है, लेकिन उन्होंने हमारे हर काम में सहयोग दिया है. मैंने अपनी पिता से कठिन श्रम, पैशन और अपने काम पर फोकस्ड रहने की सीख ली है.

सवाल-आपने दिल्ली में एक टेम्पररी हॉस्पिटल कोविड पेशेंट के लिए खोला है,ताकि कोरोना पेशेंट को सुविधा हो, उसके बारें में बतायें और एक नागरिक होने के नाते देश को क्या सीख मिली?

एक महीने पहले बहुत सारे लोग बीमार पड़ रहे थे और मुझे कईयों के फ़ोन बेड और ऑक्सीजन के लिए आ रहे थे, मैंने फंड इकठ्ठा किया और दिल्ली के तिलक नगर में 100 बेड कोरोना रोगियों के लिए और 70 ऑक्सीजन कंसन्ट्रेटर की व्यवस्था की है. अभी 50 प्रतिशत ही पैसा इकठ्ठा हुआ और कोशिश की जा रही है. इसके अलावा मैं वहां 40 बेड की एक सेटअप बच्चों के लिए करना चाहती हूँ, ताकि तीसरी लहर में बच्चों को सुरक्षित रखा जाय. मेरी समझ से मेडिकल के क्षेत्र में अब इन्वेस्ट करना चाहिए, ताकि जो लोग अस्पताल के बाहर एक बेड और ऑक्सीजन के लिए तड़प रहे थे, वो दृश्य वापस हमें देखने को न मिले.

महामारी जब आती है, तब वह पैसा, अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच आदि कुछ नहीं देखती, ऐसे में देश को अपने लोगों को सुरक्षित रखने के लिए हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर और वैज्ञानिक शिक्षा पर इन्वेस्ट करने की जरुरत है. इसके लिए एक प्लानिंग के द्वारा इन्वेस्ट करना चाहिए. इसके अलावा इस महामारी में अनाथ हुए बच्चों को सही तरह से एस्टाब्लिश करना है, ताकि उनकी शिक्षा और हेल्थ का ध्यान रखा जा सकें.

REVIEW: जानें कैसी है हुमा कुरेशी की वेब सीरीज ‘महारानी’

रेटिंगः ढाई स्टार

निर्माताः नरेन कुमार और डिंपल खरबंदा

क्रिएटिव निर्देशकः सुभाष कपूर

निर्देशकः करण शर्मा

कलाकारः हुमा कुरेशी, सोहम शाह, अमित सियाल, प्रमोद पाठक व अन्य.

अवधिः लगभग सात घंटे, 45 से 52 मिनट की अवधि के दस एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः सोनी लिव

भारत में बिहार राज्य की गिनती सर्वाधिक पिछड़े राज्य के रूप में होती है. बिहार में गरीबी,  अशिक्षा, गुंडागर्दी, हिंसा, भ्रष्टाचार आदि का बोलबाला है. जातिगत हिंसा,  भेदभाव, वीर सेना व लाल सेना यानी कि नक्सलवाद के साथ ही राजनीति के जिस कुत्सित चेहरे के बारे में लोग सुनते रहे हैं, उसकी एक झलक  वेब सीरीज ‘महारानी’का हिस्सा है. देश की युवा पीढ़ी शायद 1997 से 1999 तक की राजनीति से पूरी तरह वाकिफ नही है. मगर उसी काल में पशुचारा घोटाले में नौ सौ अट्ठावन करोड़ के घोटाले के आरोप के बाद बिहार के मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव ने त्यागपत्र दिया था, मगर नए मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अपनी अशिक्षित पत्नी व पूरी तरह से घरेलू महिला राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया था. सुभाष कपूर ने ‘‘बिहार के इतिहास में दर्ज इसी तरह की राजनीति के एक स्याह अध्याय’’ से प्रेरित होकर एक काल्पनिक राजनीतिक घटनाक्रम वाली वेब सीरीज ‘‘महारानी’’लेकर आए हैं, . इस वेब सीरीज के क्रिएटिब डायरेक्टर होने के साथ ही सुभाष कपूर मुख्य लेखक भी हैं.

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कहानीः

कहानी की शुरूआत बिहार के मोरैना गॉंव में निचले तबके के दिलीप( हिमांशु मेहता)द्वारा उच्च जाति के घर पर अपनी पत्नी के काम करने से इंकार करने से होती है. दिलीप कहता है कि अब उंची जाति वालों को याद रखना चाहिए कि प्रदेश के मुख्यमंत्री भीमा भारती(सोहम शाह )हैं. दिलीप जिस भाषा में बातें करते हैं, उसी वजह से दिलीप को गोली से भून दिया जाता है. इधर अपने लाव लश्कर के साथ मुख्यमंत्री अपने पैतृक गांव मनुपुर, गोपालगंज पत्नी रानी (हुमा कुरेशी ) व बेटो तथा बेटी रोशनी(सिद्धि मालवीय ) से मिलने पहॅुचते हैं. वह बामुश्किल अपनी पत्नी का गुस्सा ठंडा कर पाते हैं. इसी बीच लालसेना के शंकर महतो (हरीश खन्ना ) अपने गैंग के साथ मुरैना गांव में सामूहिक नरसंहार को अंजाम देते हैं. तब मुख्यमंत्री बनने से वंचित रह गए व स्वास्थ्यमंत्री नवीन कुमार (अमित सियाल )अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठकर मुख्यमंत्री से इस्तीफा मांगते हैं. उन्हे अपनी पार्टी यानी कि राष्ट्रीय जन पार्टी के राज्य अध्यक्ष गौरी शंकर पांडे (विनीत कुमार)  का वरदहस्त हासिल है. तभी छठ का पर्व आ जाता है और छठ पर्व के दिन जब मुख्यमंत्री भीमा भारती अपनी पत्नी रानी का व्रत पूर्ण करवाने की क्रिया के लिए गांव की ही नदी पर पहुंचते हैं, तब उन पर दो हमलावर गोली चला देते हैं. घायल अवस्था में उन्हे पटना मेडीकल कालेज में भर्ती कराया जाता है. अब रानी बच्चो के साथ पटना स्थित मुख्यमंत्री आवास पहुंच जाती हैं. इस घटनाक्रम से गौरीशंकर पांडे,  नवीन कुमार व प्रेम कुमार (मोहम्मद आशिक हुसेन )खुश हैं. पर भीमा के के निजी सहायक मिश्रा जी(प्रमोद पाठक)राजनीति को भांपते हुए अस्पताल के सीएमओ डा. डी डी शर्मा (रिजु बजाज)पर भीमा भारती को मुख्यमंत्री आवास में ही भेजने के लिए कहते हैं और उनसे कहते हैं कि वह मेडिकल बुलेटीन जारी कर कह दें कि अब मुख्यमंत्री खतरे से बाहर हैं, इसलिए उन्हे घर भेज दिया गया. ऐसा ही किया जाता है. मगर डॉ. शर्मा सारा सच नवीन कुमार को बता देते हैं कि अभी छह सात माह तक मुख्यमंत्री ठीक नही हो पाएंगे. नवीन कुमार, प्रेम कुमार व गौरीशंकर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामजीवन बोरा (सुधनवा देशपांडे )को बुलाकर मुख्यमंत्री आवास पहुंच जाते हैं, जहंा बोरा, भीमा भारती त्यागपत्र देने का दबाव बनाते हैं. भीमा दावा करते हैं कि बहुमत उनके साथ हैं, इसलिए उनकी पसंद का व्यक्ति ही मुख्यमंत्री बनेगा. बोरा पार्टी के अंदर जांच करने का ऐलान कर देते है कि बहुमत किसके साथ हैं. नवीन कुमार को भरोसा हो जाता है कि अब वही मुख्यमंत्री बनेंगें, मगर अंतिम समय में भीमा के पक्ष में अधिक विधायक जुटते हैं और भीमा भारती अपनी पत्नी रानी भारती(हुमा कुरेशी)को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा देते है, जो कि अनपढ़ हैं, अपना नाम तक नहीं लिख सकती. कुछ पढ़ नही सकती. नवीन कुमार अपने विधायको के साथ विपक्षी दल में शामिल हो जाते हैं. राज्यपाल गोवर्धनदास (अतुल तिवारी)उन्हे बामुश्किल शपथ दिलाते हैं. अब नवीन कुमारअपने मौसा व महामहिम राज्यपाल से कहते हैं कि वह रानी भारती को सदन में विश्वासमत हासिल करने के लिए कहें. विश्वासमत के दौरान अपने संबंध में नवीन कुमार के मुंह से कड़वा सच सुनकर रानी भारती तिलमिला जाती हैं. उसके बाद वह ऐसा जवाब देती है कि विश्वासमत हासिल करने में सफल हो जाती हैं. उसके बाद धीरे धीरे मुख्यमंत्री रानी भारती अपनी देहाती समझ के अनुसार ऐसे कदम उठाती हैं कि बहुत कुछ गडमड हो जाता है.

उधर शंकर महतो और वीर सेना के रामेश्वर मुखिया(आलोक चटर्जी ) अपने अंदाज में नरसंहार करते रहते हैं, धीरे धीरे लोगं की समझ में आता है कि इनसे राज्य के मंत्री मिले हुए हैं. तो वहीं मचान बाबा(तरूण कुमार) का अपना खेल चलता रहता है.

मुख्यमंत्री के आदेश पर वित्त सचिव परवेज आलम(इनामुल हक)जांचकर पशुपालन विभाग में 958 करोड़ की चोरी पकड़ते हैं. मुख्यमंत्री रानी , पशुपालन मंत्री प्रेम कुमार को बर्खास्त कर देती हैं. उसके बाद काफी राजनीतिक उठापटक होती है.

लेखनः

सुभाष कपूर ने बिहार की राजनीति के नब्बे के दशक के स्याह अध्याय को काल्पनिक कथा के नाम पर गढ़ने का असफल प्रयास किया है. उनके लेखन में काफी खोखलापन है. कई दृश्यों को देखकर इस बात का अहसास होता है कि सुभाष कपूर इसकी कथा पटकथा लिखते हुए काफी डरे हुए थे और उनकी पूरी कोशिश रही है कि हर पक्ष को खुश किया जाए. बिहार राज्य के अंदर सामाजिक स्तर पर जातिगत भेदभाव को भी बहुत उथला ही पेश किया गया है. वेब सीरीज में कुछ जटिलताएं जरुर रोमांचित करती हैं, मगर दृश्य नही करते, यह लेखन की कमजोर कड़ी है. वेब सीरीज की शुरूआत ही  जातिगत भेदभाव की तरफ इशारा करते हुए होती है, लेकिन बहुत जल्द सुभाष कपूर के लेखन की गाड़ी पटरी से उतर जाती है. सुभाष कपूर ने ‘महारानी’ की कहानी का केंद्र मुख्यमंत्री रानी भारती के इर्द गिर्द रखते हुए एक अंगूठा छाप अशिक्षित मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के सागर में पवित्रता की मूर्ति बताकर पूरी बिहार की राजनीतिक सत्यता को ही उलट पुलट कर एक नए सत्य को लोगों से कबूल करवाने का असफल प्रयास किया है. एक संवाद है, जब रानी भारती अपने पति भीमा भारती व मिश्राजी से कहती हैं-‘‘हम सच जानना चाहते हैं और आप सरकार बचाना चाहते हैं?’’लेकिन लेखक इस बात के लिए बधाई के पात्र है कि उन्होेने रानी को एक ऐसी महिला के रूप में पेश किया है, जो मानती है कि अशिक्षित होने के कारण वह पढ़लिख नही सकती, मगर अपने जीवन के अनुभवांे के आधार पर उसकी जो समझ है, वह उसके लिए काफी मायने रखती है.

लेखक की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी यह है कि मुख्यमंत्री भीमा भारती क्यों अपनी पत्नी रानी भारती को अपने साथ रखने की बजाय गांव में ही रखते हैं, इस पर उनकी कलम चुप रह गयी?क्या भीमा अपनी अशिक्षित पत्नी की वजह से ख्ुाद को हीन ग्रंथि का शिकार समझते हैं. गॉंव की रहने वाली, पति की सेवा, अपने बच्चों व अपनी गाय की देखभाल के प्रति समर्पित रानी भारती मुख्यमंत्री बनते ही दो एपीसोड के अंदर ही जिस कुटिल राजनेता की तरह आदेश देना शुरू करती हैं, उसका यह परिवर्तन भी अविश्वसनीय लगता है. रानी को इंसान के तौर पर विकसित करने के लिए मुख्यमंत्री बनते ही उनके समक्ष बाधाओं का अंबार लगा दिया जाता है, मगर वह बिना पति व राजनीतिज्ञ भीमा भारती की सलाह के सारे निर्णय लेती रहती है. यह सब कहीं न कहीं लेखकीय कमजोरी है, भले ही इसके पीछे लेखक की मंशा नारी शक्ति का चित्रण करना ही क्यों न रहा हो,  मगर उसका आधार तो सशक्त होना चाहिए. पर लेखक बुरी तरह से मात खा गए हैं. कई जगह बेवजह अश्लील गालियों का समावेश है.  राजनीति में धर्म गुरूओं के प्रभाव की लेखक ने हल्की झलक ही पेश की है, जबकि राजनीति व धर्म का मिलाप कई निराले खेल करता रहा है और आज भी कर रहा है. वेब सीरीज में धर्म को बेचने का भी प्रयास है.

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इसमें चरित्रगत विसंगतियां भी हैंं. मसलन एक दृश्य में मुख्यमंत्री रानी भारती पुरूष विधायको व मंत्रियो द्वारा विवाहित महिला यानी कि उन्हें फूल मालाएं देने का विरोध करती हैं,  तो कुछ एपीसोड के बाद एक दृश्य में वह बड़ी सहजता से स्वीकार करती हैं. यह चरित्र में बदलाव? इतना ही नही एक दृश्य में मिश्राजी जब उसकी बांह पकड़कर बरामदे में उनके पति के पास ले जाते हैं, तो यह वह कैसे स्वीकार कर लेती है?

लेखक ने लाल सेना (नक्सलवाद)और वीर सेना के संग राजनेताओं के गठबंधन का भी चित्रण किया है. मगर नक्सलवाद या वीर सेना क्यो पूरे गॉंव के गॉंव का नरसंहार करते हैं, इसकी वजह व इन दोनो के वजूद को लेकर कोई बात नही करती. शुरूआती एपीसोडों में यह संवाद जरुर है-‘‘पिछड़ो ने अपने सम्मान की रक्षा के लिए एक हाथ में लाल झंडा और दूसरे हाथ में बंदूक उठा ली है. ’’पर अहम सवाल यह है कि क्या वीर सेना या नक्सलवाद के पीछे महज जातिगत समीकरण ही हैं?ऐसे में नरंसहार?

बिहार के स्याह इतिहास में1995 की बिहार बाढ़,  बड़ा नरसंहार जहां माओवादियों ने भूमिहारों को मार गिराया था,  और लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार जहां एक भूमिहार उग्रवादी समूह ने अनुसूचित जाति के लोगों को गोली मार दी थीआदि का भी समावेश है, मगर इसे फिल्मकार सही ढंग से चित्रित नही कर पाए. जो कुछ दिखाया, वह प्रभाव नही डालता.

लेखक व क्रिएटिब निर्देशक सुभाष कपूर तथा निर्देशक करण शर्मा इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि बिना अश्लील दृश्यों के भी वह राजनीति के अंदर व्याप्त ‘सेक्स’व नारी शोषण का चित्रण करने में सफल रहे हैं.

 

निर्देशनः

बतौर निर्देशक करण शर्मा  भी इस राजनीतिक घटनाक्रम वाली ‘महारानी’के साथ पूरा न्याय नही कर पाए. वेब सीरीज में अचानक  कहीं भी सामूहिक नरसंहार होने लगता है, तो अचानक बाबाजी का प्रवचन शुरू हो जाता है. अचानक भोजपुरिया आइटम सॉंग आ जाता है. दृश्यों के बीच सही तालमेल ही नही है. इतना ही नही लेखक के साथ साथ निर्देशक को भी नही पता है कि 1998 में मोबाइल नही था. मगर चैथे एपीसोड में रॉंची के डीएम माणिक गुप्ता(राजीव रंजन) से जब परवेज आलम कहते है कि छोटे लाल(मुरारी कुमार )को फोन कीजिए, तो डीएम साहब अपनी जेब से मोबाइल निकालकर छोटे लाल(मुरारी कुमार) को फोन करते हैं.

इतना ही नही कुछ दृश्यों में संवाद और किरदारो के चलते ओंठ मेल नही खाते हैं. यह तकनीकी गड़बड़ी है.

कैमरामैन अनूप सिंह बधाई के पात्र हैं. उन्होने कई दृश्यों को अपने कैमरे से इस तरह से कैद किया है कि सब कुछ जीवंत हो जाता है.

अभिनयः

सोहम शाह ने एक चतुर व कुटिल राजनीतिज्ञ भीमा भारती को जिस तरह से अपने अभिनय से उकेरा है, उसके लिए वह प्रशंसा बटोर ले जाते हैं. अपनी पत्नी रानी के मुख्यमंत्री बनने के बाद उसकी हरकतो से भीमा को अपनी ही चाल पर संदेह होता है, इस बात को सोहम ने बड़ी सहजता से निभाया है. एक दृश्य में भीमा अपनी पत्नी व मुख्यमंत्री रानी से धीरे से कहते हैं-‘‘मुझे नहीं पता कि मुझे किसने अधिक चोट पहुंचाई है।‘‘ ‘‘हत्यारे ने या आप . . ?‘‘ उस वक्त उनकी भाव भंगिमाएं कमाल की हैं. रानी भारती के किरदार में हुमा कुरेशी ने अपनी तरफ से बेहतरीन अभिनय किया है. गॉंव में रह रही घरेलू रानी के किरदार में दर्शक पहचान ही नही पाता कि यह हुमा कुरेशी हैं. मगर कई जगह उन्हे पटकथा से आपेक्षित मदद नही मिली, तो कई जगह निर्देशक की अपनी गलतियों की वजह से वह मात खा गयी हैं. एक ही संवाद में हुमा कुरेशी ‘स्कूल’और‘इस्कूल’कहती है. यह कलाकार की नहीं, निर्देशक की कमजोरी का प्रतीक है. मिश्राजी के किरदार को प्रमोद पाठक ने अपने उत्कृष्ट अभिनय से जीवंतता प्रदान करने मे सफल रहे हैं. नवीन कुमार का किरदार काफी हद तक बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार से प्रेरित नजर आता है. नवीन कुमार के किरदार में अभिनेता अमित सियाल का अभिनय बहुत सहज है. वैसे उन्हे अपनी प्रतिभा को निखारने के कई अवसर मिले हैं. सदन में विश्वासमत के दौरान विपक्ष के नेता के तौर पर उन्ळे काफी अच्छे संवाद भी मिले, पर उन संवादों के साथ वह ठीक से खेल नही पाए. वित्त सचिव  परवेज आलम के किरदार में अभिनेता इनामुल हक अपने अभिनय से छाप छोड़ जाते हैं. विनीत कुमार, कानन अरूणाचलम, कनि कुश्रुति, , ज्योति दुबे, अतुल तिवारी,  सुशील पांड ने भी ठीक ठाक अभिनय किया है.

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