लॉकडाउन में किशोरों में बढ़ रही है घातक निष्क्रियता 

लॉकडाउन के इस चौथे चरण में काफी कुछ खुला हुआ है. दुकानें खुली हैं. बाजार खुले हैं. नियम के दायरे में आने जाने की भी छूट है. लेकिन स्कूल-काॅलेज अब भी बंद हैं. जिम अब भी बंद हैं. पार्कों में घूमने-फिरने और कसरत की तमाम गतिविधियां अब भी बंद हैं. खेल के मैदानों में खेल-कूद के आयोजन अब भी बंद हैं और सबसे बड़ी बात यह कि आपस में मिल जुलकर मटरगश्ती करने की अभी भी कतई छूट नहीं है. इस सबका नतीजा यह है कि देशभर में किशोर बेहद आलसी और निष्क्रिय हो गये हैं. इस बात की तस्दीक पिछले दिनों आया गैलप का सर्वे कर चुका है. इस सर्वे के निष्कर्षों और मौजूदा परिदृश्य को देखकर देश के फिटनेस विशेषज्ञों को चिंता है कि कहीं कोरोना का खौफ स्थायी रूप से हमारे किशोरों को निष्क्रियता की लत न लगा दे.

यह आशंका इसलिए भी पैदा हो रही है क्योंकि कोरोना के संकट के पहले भी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) भारतीय किशोरों के निरंतर निष्क्रिय होते जाने पर चिंता व्यक्त कर चुका है. यही नहीं डब्ल्यूएचओ भारत सहित इस तरह की समस्या से पीड़ित तमाम दूसरे देशों के युवाओं में फिजिकल एक्टिविटी को प्रोत्साहित करने के लिए एक नई ग्लोबल योजना ‘मोर एक्टिव पीपल फॉर अ हेल्दियर वल्र्ड’ (स्वस्थ संसार के लिए अधिक सक्रिय लोग) भी लांच कर चुका है, जिसका उद्देश्य साल 2030 तक विभिन्न आयु वर्गों में व्याप्त मौजूदा फिजिकल निष्क्रियता को 15 प्रतिशत तक कम करना है. शायद इस योजना को लांच करते समय डब्ल्यूएचओ ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसे जल्द ही आने वाले दिनों में लोगों को फिजिकल सक्रियता की बजाय घर में कैद रहने की सलाह देनी पड़ेगी.

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वैसे घर में कैद होने का निष्क्रिय होना नहीं है. लेकिन आमतौर पर हम भारतीय इतने आलसी और अनुशासनहीन हैं कि अगर हमें कहीं जाना न हो, हमारा एक नियमित रूटीन न हो तो हम ज्यादातर समय निष्क्रिय रहते हुए इंज्वाॅय करना चाहते हैं. शायद हमारी इन्हीं आदतों के चलते पिछले साल डब्ल्यूएचओ को हमारे लिए ‘मोर एक्टिव पीपल फॉर अ हेल्दियर वल्र्ड’ जैसी योजना लानी पड़ी थी, लेकिन पूरी दुनिया में फैले कोरोना संक्रमण और उसकी काट के लिए लगाये गये लॉकडाउन ने इस योजना को बेमतलब कर दिया है. इस लॉकडाउन संकट के पहले भी डब्ल्यूएचओ ने एक ताजा अध्ययन से यह चिंताजनक निष्कर्ष निकाले थे कि 2016 में ग्लोबली 81 प्रतिशत किशोर बहुत कम या फिर कहें कि जितना सक्रिय होना चाहिए, उससे कम शारीरिक रूप से सक्रिय थे.

डब्ल्यूएचओ ने कोरोना संक्रमण के पहले भी यह निष्कर्ष निकाला था कि भारत और हमारे जैसे ही दूसरे विकासशील देशों में औसतन 77.6 प्रतिशत लड़के असक्रिय हैं, जबकि इस संदर्भ में लड़कियों का प्रतिशत 84.7 है. यह सर्वे 146 देशों में 11 से 17 वर्ष के 16 लाख किशोर छात्रों पर किया गया था. हिंदुस्तान में डब्ल्यूएचओ के मुताबिक पहले से ही हर चार में से तीन किशोर पर्याप्त सक्रिय नहीं थे. कहने का मतलब यह कि वे रोजाना कम से कम एक घंटे शारीरिक रूप से सक्रिय नहीं थे. चूंकि पहले इस निष्क्रियता का सबसे बड़ा बहाना यही था कि हम सब बहुत व्यस्त हैं, इसके लिए हमारे पास वक्त नहीं हैं. मगर इस समय यह बहाना नहीं बनाया जा सकता. क्योंकि कम से कम कुछ और हो न हो इस समय हम सबके पास वक्त खूब है.

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लेकिन अपनी आलसी आदतों के कारण हमने लॉकडाउन को मानसिक के साथ साथ शारीरिक संकट में भी बदल दिया है. भारत में 73.9 प्रतिशत किशोर बहुत कम शारीरिक रूप से सक्रिय हैं, यह इस लॉकडाउन के पहले का डब्लूएचओ का निष्कर्ष था. अब शारीरिक रूप से निष्क्रिय रहने वाले किशोरों और युवाओं का प्रतिशत और ज्यादा बढ़ गया है. शारीरिक रूपसे पर्याप्त सक्रिय न होने के चलते सिर्फ हमारे चेहरे में ही कई परतें नहीं बनतीं बल्कि इसके चलते पैदा होने वाला मोटापा किसी को भी हृदय रोग, डायबिटीज, डिप्रेशन सहित तमाम शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के चक्रव्यूह में फंसा देता है. वैसे इस मामले में भारत की ही स्थिति खराब नहीं हैं, बांग्लादेश के किशोर हमारे किशोरों से भी कम सक्रिय हैं. दूसरे शब्दों में बांग्लादेशी किशोर भारतीयों से भी ज्यादा निष्क्रिय होते हैं.

लॉकडाउन के पहले भी हमारे ज्यादातर किशोर और युवा अपने स्मार्टफोन से चिपके रहते थे. लॉकडाउन के बाद यह स्थिति और गंभीर हो गई है. अब जबकि ज्यादातर समय घर में ही रहना होता है, तो भी हमारे किशोर और युवा लोग चैट और सैट में ही व्यस्त रहते हैं. पहले तो इसके लिए उलाहना भी था कि किशोर और युवा पार्कों में जाकर शारीरिक खेलकूद से बचते हैं, इन दिनों तो खैर इसकी मनाही ही है. अगर डब्ल्यूएचओ की मानें तो हमारे किशोरों को अधिक से अधिक एक्सरसाइज की जरूरत है. फिलहाल आउटडोर प्ले की पाबंदियों के कारण घरों में रहते हुए भी हम इन गतिविधियों को बढ़ा सकते हैं.

इस संबंध में आल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) ने भी गंभीरता से किशोरों और युवाओं में बढ़ते मोटापे के कारणों का पता लगाने की कोशिश की है और इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि इसके लिए स्लीप एपनिया भी जिम्मेदार है जो कि एक किस्म का अव्यवस्थित नींद संबंधी परेशानी है. इसके चलते सही से नींद नहीं आती. एम्स दिल्ली में इस संबंध में छात्रों का मोटापे, डायबिटीज, ह्रदय रोग के खतरे जैसे कोलेस्ट्रॉल व ब्लड प्रेशर के लिए स्क्रीन किया और पाया कि मोटापा दर प्राइवेट स्कूलों में कहीं अधिक है. जहां बच्चे ज्यादा सम्पन्न परिवारों से आते हैं. डाटा के विश्लेषण से मालूम होता है कि ये बच्चे स्क्रीन (स्मार्टफोन, टेबलेट, गेमिंग कंसोल, लैपटॉप व टीवी) पर अधिक समय गुजारते हैं. साथ ही फिजिकल एक्टिविटी में कम शामिल होते हैं. इसके अलावा ये जंक फूड का भी अधिक सेवन करते हैं.

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फिजिकल असक्रियता यूं तो कोरोना संकट के चलते पूरी दुनिया की एक बड़ी समस्या है. लेकिन भारत में लोगों ने इसे कुछ और ही बड़ी समस्या इसलिए बना दिया है, क्योंकि हमने तमाम निर्देशों और सूचनाओं के बाद भी लॉकडाउन को एक पिकनिक जैसा ही ले रहे हैं. इन दिनों जबकि लॉकडाउन की अवधि में करीब 2 महीने बीत रहे है, एक अनुमान के मुताबिक गैर लॉकडाउन दिनों के मुकाबले मध्यवर्गीय घरों में डेढ़ से दो गुना ज्यादा खाना खाया गया है. भले बाहर से फास्ट फूड इस बीच घर न आये हों, लेकिन सोशल मीडिया में लोगों द्वारा शेयर किये गये व्यंजनों को देखें तो पता चलता है कि लॉकडाउन में घरों में जबरदस्त पकवान बने हैं. वास्तव में इस समस्या का बड़ा कारण हम भारतीयों की यही अनुशासनहीनता है.

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