शहीद सैनिकों पर राजनीति

नरेंद्र मोदी के हजार भाषणों में दावों के बावजूद जम्मू कश्मीर में आतंकवादी समाप्त नहीं हुए हैं और धारा-370 चाहे ढीली हो चुकी हो जम्मू कश्मीर में आतंकवादी ढीले नहीं पड़े हैं. नवंबर के अंतिम सप्ताह में आतंकवादियों के हमले जारी हैं और उन्होंने पैराट्रूपर सचिन लौर और कैप्टन एम वी प्रांजल, कैप्टन शुभम गुप्ता, हवलदार अब्दुल मजीद और लांस नायक संजय बिष्ट को अपना निशाना बना डाला.

सरकार की संविधान की धारा-370 से छेड़छाड़ तो तब सफल मानी जाती जब देश का कोई सैनिक आतंकवादियों के हाथों नहीं मर रहा होता. ये मौतें तो सैनिकों की हुई हैं कुछ दिनों में पर आतंकवादी अकसर आम लोगों को निशाना बना रहे हैं. बस फर्क है कि मोदीमय मीडिया इस तरह की खबरों को दिखाने की जगह सिर्फ इसराईल और गाजा युद्ध दिखाता रहता है या चुनावी सभाओं में भीड़ के अंश दिखाता रहता है.

ज्यादा अफसोस यह है कि हर सैनिक की दुखद मृत्यु पर भाजपा नेता उसे भुनाने के लिए फोटोग्राफरों का जत्था ले कर शहीद के घर चैक ले कर पहुंच जाते हैं और मरने वालों का दुख और गहरा अपनी पब्लिसिटी के नाम पर कर आते हैं. वे जबरन मरने वाले की पत्नी या मां या बहन को चैक दिखाते हुए फोटो खिंचाने में लग जाते हैं ताकि जनता को यह संदेश दे सकें कि उन्होंने किस तरह मृत सैनिकों को इस्तेमाल किया है.

2-4 महीनों के बाद मृत सैनिकों के परिवारों के साथ क्याक्या होता है, यह तो पता ही नहीं चलता क्योंकि सैनिक दफ्तरों में कानूनशाही तो अपने ढर्रे पर चलती है.

बड़ी बात तो यह है कि धारा-370 के हटने के बाद भी आखिर आतंकवादी हैं क्यों? भारतीय जनता पार्टी ने हमेशा प्रचार किया है कि आतंकवाद की जड़ में तो यह धारा-370 है पर इसे हटाने के बाद भी अगर मांओं के बेटे जा रहे हैं, पत्नियों के पति जा रहे हैं, बहनों के भाई जा रहे हैं तो दोष उस सारे प्रचारतंत्र का भी है जिसे बड़े साजियाना ढंग से बनाया गया था.

सेना में नौकरी पर जाने वाला हर जना जान हथेली पर ले कर चलता है पर वह यह भी चाहता है कि उस की सरकार उसे सही समर्थन दे और उस की मौत पर लोग आंसू बहाएं पर उसे प्रचार का साधन न बनाएं. जब जोरशोर से हल्ला मचाया जाता है कि आतंकवादी समाप्त कर दिए गए हैं क्योंकि राज्य में नई तरह की सरकार आ गई है, तो सैनिकों के घर वाले संतुष्ट हो जाते हैं. मगर उन्हें झटका तब लगता है जब सच कुछ और ही निकलता है.

कैप्टन शुभम गुप्ता की मां को भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेता किस तरह चैक पकड़ाने की कोशिश कर रहे थे और कैमरों को देख कर कोशिश कर रहे थे कि उन का चेहरा पूरा दिखे, वायरल हो रहा था क्योंकि यह एक शहीद के जाने का गम नहीं दर्शाता, अपनी राजनीति चमकाने का खुला व भद्दा प्रयास दिखता है.

हमेशा राजा सैनिकों को अपने हितों के लिए मरवाते रहे हैं. धर्म उस से भी आगे है. धर्म तो आम आदमी को उकसा देता है कि चलो धर्म की रक्षा के लिए मारने पर लग जाओ. न राजा न धर्म असल में जनता को सुरक्षा देते हैं. वह तो उसे डंडा संभाले कांस्टेबल से मिलती है.

चीन को सबक सिखाना है…तो पकड़नी होगी उसकी गर्दन

भारत और चीन के बीच हुए 1962 के युद्ध में लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा तब ब्रिगेडियर रैंक के थे. उन्होंने न सिर्फ उस युद्ध में आमने सामने के मोर्चे में हिस्सा लिया था बल्कि इस युद्ध की तमाम तैयारियों की प्लानिंग में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. जनरल अरोड़ा यूं तो अपनी उस तस्वीर के लिए पूरी दुनिया में मशहूर हैं, जिसमें पाकिस्तान के जनरल नियाजी उनके सामने लिखित युद्ध समर्पण पर दस्तखत करते हैं. लेकिन 1990 से 1998 के बीच जब वो राजधानी दिल्ली की न्यू फ्रेंडस कालोनी में रहते थे, मैंने उनसे कई बार इंटरव्यू किये.

मेरा उनसे किया गया एक ऐतिहासिक इंटरव्यू भारत की आजादी के 50 सालों पर अलग अलग क्षेत्रों की हस्तियों के साथ किये गये विशिष्ट संवाद की किताब ‘मुलाकात-50’ में संकलित है. इस इंटरव्यू में ज्यादातर सवाल 1962 के भारत-चीन युद्ध से संबंधित ही हैं. हालांकि जनरल अरोड़ा से ज्यादातर लोग 1971 के भारत-पाक के युद्ध पर ज्यादा बातें किया करते थे. लेकिन मैंने महसूस किया था कि वह हमेशा भारत-चीन के बीच हुए 1962 के युद्ध के बारे में बात करने के ज्यादा इच्छुक होते थे.

शायद पूर्व रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस की तरह वह भी हम भारतीयों को चीन के बारे में बहुत कुछ बताना चाह रहे थे. वे जब भी 1962 के भारत चीन युद्ध के बारे बात करते थे, हमेशा उनकी आवाज में एक कसक का कब्जा हो जाता था. उन्हें कई शिकायतें थीं, अपने राजनेताओं से, अपने  डिफेंस स्टेब्लिसमेंट से. लेकिन उनके पास चीनी सैनिकों और सैन्य अधिकारियों के बारे में बताने की भी बहुत बातें होती थीं. लगता था उन्होने युद्ध के दौरान चीनी सेना का बहुत गहराई से साइकोलाॅजिकल आब्जर्वेशन किया था और वह चाहते थे कि भारतीय इस बात को गहराई से समझें.

जनरल अरोड़ा चीन के चरित्र पर हमेशा एक बात कहा करते थे कि चीन एक ऐसा दुश्मन है, अगर उससे डरोगे तो वह आपको डराने में क्रूरता की इंतहा तक जायेगा. इसलिए उनके मन में हमेशा होता था कि हम चीन को ही अपना दुश्मन नंबर एक मानकर तैयारी करें और हमेशा चीन के साथ मुकाबले के लिए तैयार रहें. वो चाहते थे कि जब भी चीन कोई हरकत करे तो हम उसे सवा सेर होकर जवाब देने की कोशिश करें. हालांकि एक सैनिक का सोचना और सरकारों के सोचने में फर्क होता है. यही वजह है कि 1962 के बाद से चाहे अनचाहे चीन के साथ हमारे जितने भी राजनीतिक रिश्ते रहे, उनमें से एक झिझक, एक दब जाने की बार बार दोहरायी गई गलती हमेशा शामिल रही है.

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चीन इसी का फायदा उठाता रहा और अब वह इस स्थिति में आ गया है कि अपनी जरूरत के हिसाब से ही वह हमसे पंगे लेता है, पंगा न हो तो उसे पैदा कर लेता है और अपनी जरूरत का उनसे नतीजा निकाल लेता है. 5 मई 2020 को जब चीन की पीपुल्स आर्मी के 200 से ज्यादा जवान, पूर्वी लद्दाख स्थित पैगोंग झील के पास भारतीय सैनिकों से टकराये तो यह टकराहट न तो अंजाने में हुई थी और न ही यह कोई रूटीन टकराहट थी. वास्तव में चीनी सैनिक जानबूझकर भारतीय सैनिकों से टकराव मोल लिया था. शायद चीनी सैनिकों को यह लग रहा था कि भारतीय सैनिक उनके सामने में आने पर इधर उधर करके निकल जाएंगे,उनसे टकराएंगे नहीं और इस तरह चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों पर अपना मनौवैज्ञानिक दबदबा कायम कर लेंगे.

लेकिन ऐसा नहीं हुआ. भारत के सैनिकों ने न सिर्फ चीन के सैनिकों के साथ आंखों में आंख डालकर सामना किया बल्कि उन्हें पूरी ताकत से पीछे हटने के लिए कहा. इस पर चीन के सैनिक खिसिया गये और जिद पर उतर आये. पूरी रात दोनो ही देशों के सैनिक आमने सामने रहे, पर चूंकि चीनी सैनिकों ने योजनाबद्ध ढंग से यह झड़प आयोजित की थी, इसलिए उन्होंने पीछे से अपनी सप्लाई लाइन बढ़ा दी. इसलिए सुबह होते होते चीन के सैनिकों की संख्या काफी ज्यादा बढ़ गई. बावजूद इसके भारत के सैनिक एक इंच भी टस से मस नहीं हुए. इस तरह पैगोंग झील के पास दोनो ही देशों के सैनिकों का बिना गोली बारूद वाला मोर्चा खुल गया. 1987 के बाद से भारत और चीन के बीच कभी किसी तरह का हथियार सहित सैन्य टकराव नहीं हुआ. साल 2017 में डोकलाम में लंबे समय तक दोनो देशों के सैनिक भयानक मुद्रा में आमने सामने जरूर रहे, लेकिन 1987 के बाद के सैन्य हथियारों का न इस्तेमाल करने का संयम दोनो तरफ से बना रहा.

लेकिन डोकलाम में भी चीन ने अंत में भारत से इसलिए चिढ़ी चिढ़ी कसक के साथ तनाव खत्म किया; क्योंकि उसे सपने में भी आशंका नहीं थी कि भारत भूटान के लिए चीन के सामने खड़ा हो जायेगा. इसीलिए 5 मई 2020 को चीन ने अकेले पैगोंग झील के पास की मुठभेड़ नहीं की बल्कि बड़े ही शातिर तरीके से 9 मई 2020 को उत्तरी सिक्किम में नाकू ला सेक्टर में एक और मोर्चा खोल दिया. यहां मोर्चा खोलना इतना आसान नहीं था; क्योंकि नाकू ला सेक्टर में जहां भारत और चीन की फौजें आमने सामने हैं, वह जगह समुद्र से 16000 फीट की ऊंचाई पर है. यहां पर भी चीन ने अपने षड़यंत्रपूर्ण तरीके से भारत के सैनिकों के साथ टकराव मोल लिया.

9 मई को जब दोनो ही देशों के सैनिक अपने अपने क्षेत्र में गस्त कर रहे थे, तभी कुछ चीनी सैनिक, भारतीय सैनिकों की तरफ लपके और उन पर मुक्के बरसाने लगे. यकायक के इस हमले से कुछ मिनटों के लिए तो भारतीय सैनिक अवाक रह गये. उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि चीनी जानबूझकर टकराव मोल ले रहे हैं. बहरहाल कुछ ही देर में भारतीय सैनिकों ने उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से दिया. इससे दोनो ही तरफ के कई सैनिक घायल हो गये. ठीक इसी दिन चीन ने लद्दाख के लाइन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल यानी एलएसी में अपने हैलीकाफ्टर भेज दिये. हालांकि चीनी हैलीकाफ्टरों ने भारतीय सीमा पार नहीं की, लेकिन भारत ने चीन की इस हरकत के विरूद्ध लेह एयरबेस से अपने सुखोई-30 एमकेआई फाइटर प्लेन का बेड़ा और बाकी लड़ाकू विमान रवाना कर दिये. चीन के लिए यह हैरानी का विषय था. चीन कल्पना ही नहीं कर रहा था कि उसकी हरकत का हिंदुस्तान इतना कड़ा प्रतिवाद करेगा.

भारत की इस तरह की प्रतिक्रिया पहली बार सामने आयी. इससे चीन बौखला गया है और 16 जून को जब दोनो ही देशों की सेनाएं आपस में हुए समझौते के चलते डी-एस्केलेशन कर रही थीं, तभी चीनी सैनिक भारतीय सैनिकों पर पत्थरों, लाठियों और धारदार चीजों से हमला कर दिया. इससे जो शुरुआती रिपोर्ट हिंदुस्तान आयी, उसके मुताबिक तीन भारतीय सैनिक शहीद हो गये, जिनमें एक कमांडिंग अफसर, एक हवलदार और एक सिपाही था. गौरतलब है कि उस जगह चीन ने धोखेबाजी दिखायी थी, जहां 1962 की जंग में 33 भारतीय शहीद हुए थे.

1962 के बाद से पहला यह ऐसा मौका था जब दोनो देशों के बीच इतने बड़े पैमाने पर सैन्य झड़प हुई और सैनिक हताहत हुए. देर रात तक ये तीन भारतीय सैनिक बीस शहीद सैनिकों में बदल गये. अगर सेना द्वारा इंटरसेप्ट की गई बात की मानें तो चीन ने इस मुठभेड़ में 43 सैनिक गंवाये हैं. लेकिन चीन के लोग अपने मारे गये सैनिकों की वास्तविकता को कभी नहीं जान पाएंगे; क्योंकि चीन में मीडिया स्वतंत्र नहीं है. इसलिए न कोई इस चुपी के विरूद्ध सवाल उठाने वाला और न ही किसी तरह की बैचेनी होने वाली है.

सवाल है चीन पर काबू करने के लिए भारत क्या करे? निश्चित रूप से हमें वही करना होगा जो जनरल अरोड़ा कभी साफ शब्दों में कभी इशारे के जरिये कहा करते थे कि चीन को झुकाना है तो उसकी गर्दन पकड़ लो. भारत आज इस स्थिति में है कि अगर हम यह जोखिम लें कि चीन की गर्दन उसके सतर्क होने के पहले ही पकड़ लें तो चीन काबू में आ जायेगा. चीन को हमें उसी की भाषा में जवाब देना होगा, जैसा कि हमेशा जार्ज फर्नांडिस कहा करते थे. जार्ज चाहते थे कि भारत हमेशा तिब्बत के मुद्दे को जिंदा बनाये रखे और समय समय पर उसके जरिये चीन को घेरने की कोशिश भी करे. चीन के खिलाफ इस समय जबरदस्त अंतर्राष्ट्रीय माहौल है.

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भारत अगर दो कदम आगे बढ़कर इस माहौल को एक सांगठनिक शक्ल देना चाहे तो दे सकता है. यह चीन को पिछले पांव में ला सकता है. भारत की नैवी चीन से बेहतर है और हिंद महासागर में भारत के साथी चीन से ज्यादा हैं. इसलिए अगर भारत नैवी के जरिये चीन को घेरे तो यह संभव है. एक और बड़ा विकल्प है कि भारत अब कमर कसकर चीन के साथ आर्थिक और कारोबारी रिश्तों को या तो अपने पक्ष में करे या तोड़ दे. निश्चित रूप से इसमें बहुत मुश्किलें आयेंगी, क्योंकि हमारा तात्कालिक तकनीकी ढांचा चीन की तकनीकी और इंफ्रास्ट्रक्चर पर ही टिका हुआ है. लेकिन अगर मोदी एक बार लालबहादुर शास्त्री की तरह देश में यह भावना भर दें कि उपवास कर लेंगे लेकिन अमरीका का पीएल 480 गेंहूं नहीं लेंगे, तो भारत एक झटके में चीन के विरूद्ध अपनी कमजोरियों से उबर जायेगा और फिर चीन की हिम्मत नहीं होगी कि वह हमें आंख दिखा दे.

न करें सेना का इस्तेमाल

लड़ाई की लाठियां बजाना आसान है पर देशों के लिए लड़ाई उतनी ही महंगी होती है जितनी 2 किसानों के लिए जो खेत की हदबंदी पर झगड़ रहे हों. भारतीय सेना पर देश को भरोसा है पर यह भरोसा तभी तक कायम रह सकता है जब तक देश सेना को खासा पैसा देता रहे. खाली पेटों से लड़ाइयां नहीं लड़ी जातीं. देश की जातिप्रथा का छिपा मतलब हमेशा यही रहा है कि पिछड़ों व दलितों को हमेशा खाली हाथ रखो ताकि वे कभी भी पंडों, बनियों, राजपूतों के खिलाफ न खड़े हो सकें.

भारत पाकिस्तान दोनों की सेनाओं के साथ यही हाल है. पाकिस्तान के पास भारत से कम पैसा है पर उसे लगातार अमेरिका, सऊदी अरब, चीन से पैसा मिलता आया है. भारत के नेताओं की अकड़ कुछ ज्यादा रही है और इसलिए सैनिक सहायता हमेशा न के बराबर मिली है. सेना के लिए देश को पेट काट कर सामान खरीदना पड़ा है और अगर राफेल हवाई जहाज यूपीए सरकार ने पहले नहीं खरीदे और मोदी सरकार ने भी आखिर में फैसला किया तो इसलिए कि पैसा दिख नहीं रहा था.

सेना की अपनी जानकारी के हिसाब से पिछले 1 साल में वायु सेना ने अरबों रुपए की लागत के 16 हवाईजहाज दुर्घटनाओं में तकनीकी खराबियों की वजह से खो दिए. इन में 2 मिग बाइसन, 2 जगुआर, 2 मिग 27, मिराज हैलीकौप्टर, 2 हौक, कई ट्रांसपोर्ट हवाईजहाज शामिल हैं. इतने हवाईजहाजों का गिरना और उन में सैनिकों का बिना युद्ध के मरना एक खतरे की घंटी है. मिगों को तो उड़ते ताबूत कहा जाने लगा है. ये रूसी विमान बनावट में ही कमजोर हैं पर चूंकि दूसरे देशों से अच्छे मिल ही नहीं रहे, इन्हें खरीदना पड़ रहा है.

भारत पुराने हवाई जहाज कैरियर व पनडुब्बियां ही खरीद पा रहा है. अब पुराने मिग 29 खरीदने की बात चल रही है. सैनिकों की राइफलें पुरानी हैं. अभी अमेठी में राइफल कारखाने का उद्घाटन करते हुए नरेंद्र मोदी ने यह बात मानी है. सैनिकों के वेतनों व पैंशनों का मामला अटका रहता है. उन्हें अच्छा खाना नहीं मिल पाता. छावनियों की शक्लों को देखें तो पता लग जाएगा कि ज्यादातर बिल्डिंगें अंगरेजों के जमाने की हैं.

एक गरीब देश के लिए सेना पर खर्चा करना आसान नहीं है. उत्तर कोरिया ने इसी वजह से अमेरिका से समझौता किया. जर्मनी और जापान ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जम कर विकास किया क्योंकि सेना पर खर्च नहीं किया. हमारे यहां सोशल मीडिया पर हल्ला मचाया जा रहा है मार दो, जला दो, खात्मा कर दो, बिना यह सोचे कि इस की कीमत क्या है. मोदी कहते हैं घर में घुसघुस कर मारेंगे, पर किसलिए और किस कीमत पर.

हम देश में गाय को बचाने पर ज्यादा खर्च करने लगे हैं, मंदिरों, कुंभों, आश्रमों, पूजाओं पर भयंकर खर्च कर रहे हैं पर सेना के लिए जेब खाली है. अगर जेब में पैसे नहीं, जो पाकिस्तान के पास भी नहीं, तो लोगों का खयाल रखें. उन्हें लड़ाई के लिए न उकसा कर काम के लिए तैयार करें. सरकार अपनी फाइलों की सुरक्षा करे, धर्म की सुरक्षा के नाम पर सेना का इस्तेमाल करना बंद कर दे तो ठीक रहे.

उत्तर प्रदेश, बिहार और लोकसभा चुनाव साल 2019 के आम चुनाव बिहार व उत्तर प्रदेश के लिए काफी अहमियत रखते हैं. देश के सब से ज्यादा गरीब यहीं बसते हैं और गंगा नदी के बावजूद सदियों से उन की बीमारी, गरीबी, भूख, टूटे मकानों में कोई फर्क नहीं आया है. पगपग पर बिखरे मंदिरों के बावजूद यहां के लोगों की फटेहाल हालत दूर से दिख जाती है.

अगर रेल से सफर कर रहे हों तो गांव के बाद गांव और शहर के बाद शहर कूड़े के बीच बेतरतीब मकान दिखेंगे और उन के बीच आदमी जानवरों की तरह रहते दिखेंगे. ये राज्य वही हैं जहां से मुगलों ने 250 साल राज किया. इन्हीं 2 राज्यों का गुणगान हर शास्त्र में है पर इन की गरीबी यहां से आने वाले प्रधानमंत्रियों, मंत्रियों, राष्ट्रपतियों के होते दूर नहीं हुई. वजह साफ है. ये दोनों राज्य गलत नेताओं को चुनते रहे हैं और जब भी उन्होंने सही नेता चुन लिया तो वह बिगड़ते देर नहीं लगाता.

नरेंद्र मोदी ने गुजरात छोड़ कर यों ही बनारस को चुनाव लड़ने के लिए नहीं अपनाया है. यहीं तो बिहार व उत्तर प्रदेश का दिल है जो आज भी पुरानी सोच, जातिवाद, पाखंड का जहरीला खून दोनों राज्यों में बहाता है. न भाजपा, न कांग्रेस इस सोच या इस तरह की राजनीति को बदलने की बात भी कर रही हैं जो यहां के लोगों को बदबूदार दलदल से निकालने की हो. उलटे भाजपा तो फिर अयोध्या में राम मंदिर का मामला उठा कर दलदल में धकेलने की बात कर रही है.

इन दोनों राज्यों ने पिछले 20-25 सालों में कई तरह की सरकारें देखी हैं पर सब का रवैया एक ही सा है. इन्हीं दोनों राज्यों के लोग दुनियाभर में जा कर नाम और पैसा कमाते हैं पर यहां अपने देश, अपने राज्य में नेताओं की सड़ी सोच की वजह से सड़ी जिंदगी जीने को मजबूर हैं. ये नेता लखनऊ और पटना में ही नहीं हैं, हर गांव में हैं. एक और चुनाव इन दोनों राज्यों की हालत नहीं बदलेगा. अगर यही लोग रहे तो पक्का है कि तीर्थों का उद्धार होगा, जनता को पाताल में ही जगह मिलेगी.

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