अगर यह लक्षण दिख रहे हैं तो आपको भी हो सकता है राजा बेटा सिंड्रोम

“आशु बेटा किचन में क्या कर रहा है ?यह तेरा काम नहीं। चल बाहर आ मैं बना कर देती हूं तुझे मैगी”, सीमा ने अपने बेटे से कहा.

सीमा के पास ही बैठी उसकी बचपन की सखी ने हैरानी से सीमा की तरफ देखा और टोका,” क्या कर रही है यह तू? अगर वह किचन में अपने लिए मैगी बना रहा है तो बनाने दो इसमें हर्ज क्या है?”

दरअसल हर मां बाप अपने बच्चे से बहुत ज्यादा प्रेम करते हैं. लेकिन जैसा कि हम सब जानते हैं कि अति हर चीज की बुरी होती है. वैसे ही आपका प्यार भी आपके बच्चे के लिए नुकसानदायक हो सकता है. खासकर मां का लगाव बेटे से कुछ ज्यादा ही होता है. अगर आप अपने बच्चे के सारे काम खुद करती हैं और उन्हें हल्की सी भी आंच नहीं आने देती हैं तो इसका मतलब है आपको भी राजा बेटा सिंड्रोम हो गया है. आइए जानते हैं इस सिंड्रोम के कुछ लक्षण.

आप उसे हर लग्जरी प्रदान कर रही हैं

ऐसी मां अपने बेटे की इच्छाओं और जिद्द से इनकार नहीं कर सकतीं. वे अपने बच्चे को खुश रखने के लिए हर मुमकिन कोशिश करती है- चाहे उसके लिए महंगे से महंगे खिलौने खरीदना हो या फिर देर रात उसका पसंद का खाना सिर्फ इसलिए बनाना हो क्योंकि वह ऐसा चाहता है. ऐसी मां अपने बेटे के लिए हर काम करती हैं चाहे फिर वह कमरे को अच्छी तरह रखना हो या कुछ भी और शायद ही उसे घर के किसी काम को करने के लिए परेशान करती हों.

 बच्चे को किचन में नहीं जाने देती हैं

ऐसी मां के बेटों को रसोई घर में जाने की जरूरत नहीं है. इस वजह से वह कुछ भी बनाना नहीं सीखते हैं। वे इंडिपेंडेंट होने से काफी दूर रहते हैं और हमेशा भोजन के लिए अपनी माँ या फिर अपनी पत्नी पर निर्भर रहते हैं. अगर वे खाना पकाने को बुरा या फिर ये समझे कि ये काम सिर्फ लेडीज का है तो आश्चर्य नहीं होगा.

 अपने बेटे के वैवाहिक जीवन में दखल देना

ऐसी मां अपने बेटे को अपने से अलग नहीं देख पाती हैं – भले ही वह विवाहित क्यों न हो। वे अपनी बहू से पूछती रहती होंगी कि क्या उनके बेटे को लंच भोजन के समय पर खिलाया गया था या नहीं, उसे खाने के लिए क्या दिया और इसी तरह के ढेरों सवालों से वह अपनी बहु को असुरक्षित महसूस करवाती हैं. ऐसा भी हो सकता है कि वे अपनी बहू की भूख के बारे में उतना ध्यान न दें जितना अपने बेटे पर देती हैं.

 उसकी गलतियों या बुरे कामों को नज़रअंदाज़ करना

सभी बच्चे गलतियाँ करते हैं कुछ बच्चे ऐसी गलतियां करते हैं जो उनके आसपास दूसरों को चोट पहुँचा सकती हैं. यह माता-पिता की एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वे अपने बच्चे को इतना हमदर्द होना सिखाएं कि वह  केवल अपने बारे में ही नहीं बल्कि दूसरों के बारे में भी सोचे. लेकिन, यदि मां अपने बेटे के गलत व्यवहार को नजरंदाज करती हैं, तो आप केवल उसे और गलतियां जारी रखने के लिए प्रेरित करेंगी और बच्चा इस बात की परवाह नहीं करेगा कि वह किसी और की भावनाओं को ठेस पहुँचा रहा है या नहीं.

 वह अपने फैसले खुद नहीं ले पाएगा

ऐसे बच्चों की माताओं के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होता है कि उनका छोटा लड़का अब बड़ा हो गया है और इतना स्मार्ट है कि वह खुद की देख रेख खुद कर सके और जब चीजें मुश्किल हों तो खुद की रक्षा कर सके. इसका रिज़ल्ट, वे हमेशा इस बारे में चिंता करती रहती है  कि वह कहां है और हो सकता है कि वे हर समय उसे फोन करती रहें. यदि वह उनकी बुद्धिमता के लिए उनसे सलाह किए बिना कोई फैसला लेता है तो वे नाराज हो सकती हैं. जरूरत से ज्यादा प्यार और दुलार भी बच्चे को बिगाड़ सकता है. इसलिए ऐसी स्थिति में खुद को फंसाने से बचें.

आखिर क्यों आत्महत्या कर रहे हैं हमारे स्टूडेंट्स

भारत में हर घंटे एक स्टूडेंट आत्महत्या कर रहा है. हम उन देशो में से एक हैं जिनमें 15 से 29 साल के लोगो के बीच आत्महत्या की दर अधिकतम हैं. मुख्यतः भारत में इन आत्महत्याओं की वजह शिक्षा से संबधित तनाव को पाया गया हैं.

हाल ही में आई आई टी हैदराबाद के एक स्टूडेंट मार्क एंड्रू चार्ल्स ने पढ़ाई में खराब प्रदर्शन और नौकरी न मिलने के डर से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. मार्क ने आत्महत्या से पहले एक आठ पन्नो का सुसाइड नोट छोड़ा है जिसमें उन्होंने अपनी आत्महत्या की वजह खराब नंबर और अच्छी नौकरी न मिलने के डर को बताया है. आई आई टी हैदराबाद में स्टूडेंट द्वारा आत्महत्या का यह इस साल का दूसरा मामला हैं .

हमारे देश के लगभग हर राज्य से स्टूडेंट्स द्वारा आत्महत्या की घटनाएं सामने आ रही हैं. सन 2016 में सभी राज्यों और यूनियन प्रदेशों द्वारा होम मिनिस्ट्री को भेजे गए एक लेटेस्ट डाटा के मुताबिक 9474 बच्चो द्वारा आत्महत्या कि गयी. जिसमें महाराष्ट्र और बंगाल जैसे राज्यों में स्टूडेंट्स द्वारा आत्महत्या करने का आकड़ा अधिक पाया गया.

गौर से अगर आप हमारी शिक्षा व्यवस्था और आत्महत्याओं के इन आकड़ो को देखेंगे तो पाएंगे कि यह सुसाइड नोट्स जो हमे प्रति घंटे देश के लगभग हर राज्य से प्राप्त हो रहे है. यह सुसाइड नोट्स नहीं बल्कि स्टूडेंट्स द्वारा संपूर्ण समाज को शिक्षा के प्रति स्टूडेंट्स पर असहनीय दबाव और बिगड़ती शिक्षा व्यवस्था कि तरफ एक संकेत पत्र हैं.

भारतीय शिक्षा व्यवस्था और समाज में अगर कोई बच्चा आई आई टी या एम्स जैसे बड़े संस्थानों में दाखिला नहीं ले पाता है तो उसे कमजोर या हारा हुआ माना जाता है . इस बात के चलते बच्चो पर पेरेंट्स द्वारा अच्छे नंबर लाने का दबाव प्राइमरी कक्षा से ही शुरू हो जाता हैं . अच्छे नम्बरो कि चाहत और आई आई टी, एम्स जैसे संस्थानों में दाखिला कराने के लिए पेरेंट्स अपने बच्चो को छोटी कक्षाओं से ही तैयार करने के लिए प्राइवेट कोचिंग भेजना शुरू कर देते हैं. जिस वजह से बच्चो को खेलने और ठीक से खाने तक का समय भी नहीं मिल पाता हैं .

महाराष्ट्र राज्य के मुंबई शहर में रहने वाले 9 वि कक्षा के स्टूडेंट सर्वेश मोघे बताते है कि कुछ बच्चो के घर से कोचिंग सेंटर्स बहुत दूर होने की वजह से वो अपने साथ स्कूल जाते समय ही तीन या चार टिफ़िन लेकर जाते है. क्यूंकि सुबह 7 बजे जब वो अपने घर से स्कूल  के लिए निकलते  है तो फिर रात 9 या 9: 30 तक घर पहुंचते है. आई  आई  टी जैसे कौलेज में भी अपने सहपाठियों से अव्वल आने के लिए और अंत में एक अच्छी जौब पाने कि होड़ में स्टूडेंट्स को १४ – १४ घंटे तक पढ़ना पड़ता  हैं . यह समय किसी कौर्पोरेट ऑफिस में कार्यरत व्यक्ति के काम करने के समय से भी ज्यादा है. इस तरह के शेड्यूल और वातावरण का स्टूडेंट के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर होता हैं .

पिछले कुछ सालो में सेंटर फौर द स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटी के एक सर्वे के मुताबिक भारत में 10 में से 4 स्टूडेंट अवसाद ग्रस्त हैं . पेरेंट्स कि इछाओ का दबाव, अपने सहपाठियों से कम्पटीशन और इस नम्बरो कि अंतहीन दौड़ में भागते हुए स्टूडेंट्स कई बार अपने तनाव और डर को किसी से भी नहीं बाँट पाते और आत्महत्या का रास्ता चुन लेते हैं .

हमारे शिक्षण संस्थानों और यहां तक कि समाज में भी मानसिक स्वस्थ्य को बहुत ही काम महत्व दिया जाता है . जिसकी वजह से बच्चे उनके सामाजिक जीवन में आने वाली चुनौतियों का सामना नहीं कर पाते है. लगभग हर घर में बच्चो पर अधिक से अधिक नंबर लाने और अच्छी से अच्छी नौकरी को पाने का दबाव बनाया जाता हैं . अगर कभी पेरेंट्स को बच्चे के मनोवैज्ञानिक रोग से ग्रस्त होने का पता चलता हैं तब भी वे समाज के डर से बहुत समय तक अपने बच्चे को मनोवैज्ञानिक उपचार नहीं देते और उसके मानसिक स्वास्थ्य को छुपाते रहते है . इस से भी स्टूडेंट्स का मानसिक स्वास्थ्य और बिगड़ता जाता हैं .

प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था देश के विकास में रीढ़ कि हड्डी मानी जाती थी, जिसमे मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक तीनो बातो पर ध्यान दिया जाता था . आज भी हमारे कौलेज एवं शिक्षण संस्थानों को इसके लिए उचित प्रयास करने चाहिए ताकि बच्चो को उनके शिक्षण संसथान में ही मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ वातावरण मिल पाए . बच्चो के पेरेंट्स और प्रशासन को भी स्टूडेंट के मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूक हो कर कदम उठाने होंगे .

जौब के विषय में प्लेसमेंट कंपनियों को अपने प्लेसमेंट क्राइटेरिया को सिर्फ अच्छे नम्बरो तक ही सिमित नहीं देखकर उनकी योग्यता को आधार बनाना चाहिए . यू एस के कई राज्यों में स्टूडेंट से उसकी पिछली सैलरी और ग्रेड्स पूछना क़ानूनी अपराध के अंतर्गत आता है . भारत में भी इसी तरह के कदम उठाये जा सकते है. जिस से स्टूडेंट्स में तनाव कम हो और वो निश्चिन्त होकर अपनी योग्यता के आधार पर जौ   ब पा सके.

आशा है कि भविष्य में सावधानी बरतते हुए ऐसे ही कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाकर, हम भारत के भविष्य को एक चिंतामुक्त और खुशहाल जीवन जीने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करेंगे.

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