आधी आबादी लीडर भी निडर भी

किचन से कैबिनेट और घर की चारदीवारी से खेल के मैदान तक, गुपचुप घर में सिलाईबुनाई करती, पापड़बडि़यां तोड़ने से बोर्डरूम तक एक लंबा सफर तय करने वाली आधी आबादी ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि वह घर के साथसाथ बाहर का काम भी उतने ही बेहतर तरीके से संभाल सकती है. व्रतउपवास, कर्मकांड और उस के पांव में बेडि़यां डालने के लिए धर्म के माध्यम से फैलाए जा रहे अंधविश्वासों के घेरे से वह निकल सकती है, यह बात भी उस ने साबित कर दी है.

यह सही है कि किसी भी बड़े बदलाव के लिए जरूरी है समाज की सोच बदलना. बेशक अभी पुरुष समाज की सोच में 50% ही बदलाव आया हो, लेकिन महिलाओं ने अब ठान लिया है कि वे नहीं रुकेंगी और तमाम बाधाओं के बावजूद चलती रहेंगी. फिर चाहे वे शहरी महिला हो या किसी पिछड़े गांव की जो आज सरपंच बनने की ताकत रखती है और खाप व्यवस्था को चुनौती भी देती है.

बहुत समय पहले बीबीसी के एक कार्यक्रम में अभिनेत्री मुनमुन सेन ने कहा था कि महिलाएं किसी भी स्तर पर हों, किसी भी जाति या वर्ग से हों, वे एक ही होती हैं. उन के कुछ मसले एकजैसे होते हैं, उन में आपस में यह आत्मीयता होती है. आज वे मिलजुल कर अपने मसले जुटाने और अपनी पहचान की स्वीकृति पर मुहर लगाने में जुटी हैं, फिर चाहे कोई पुरुष साथ दे या न दे वे सक्षम हो चुकी हैं.

कर रही हैं निरंतर संघर्ष

यह समाज की विडंबना ही तो है कि घर हो या दफ्तर, राजनीति हो या देश, जब कभी और जहां भी महिलाओं को सशक्त बनाने, उन को मजबूत करने पर चर्चा होती है, तो ज्यादातर बात ही होती है, कोई कोशिश नहीं होती. लेकिन वे अपने स्तर पर कोशिश कर रही हैं और कामयाब भी हो रही हैं.

जिस देश की संसद में महिलाएं अब तक 33 फीसदी आरक्षण के लिए संघर्ष कर रही हैं, उसी देश के दूसरे कोनों में ऐसी भी महिलाएं हैं, जो अपने हिस्से का संघर्ष कर छोटीबड़ी राजनीतिक कामयाबी तक पहुंच रही हैं.

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी और अमेरिका की फर्स्ट लेडी होने के अलावा दुनियाभर में मिशेल ने अपनी एक अलग पहचान बनाई जो उन्होंने खुद अपने दम पर हासिल की. प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने के बाद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ला किया. सिडले और आस्टिसन के लिए काम करने के बाद मिशेल ने एक पब्लिलकएलाइजशिकागो ‘अमेरीकोर्प नैशनल सर्विस प्रोग्राम’ की स्थापना की.

उन का बचपन मुश्किलों भरा था, लेकिन मिशेल ने बहुत पहले ही यह सम झ लिया था कि उन्हें मुश्किलों के बीच से रास्ता बना कर जीत हासिल करनी है. मिशेल को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा था, इसलिए उन्होंने 2015 में ‘लेट गर्ल्सलर्न’ इनीशिएटिव की शुरुआत की, जहां उन्होंने अमेरिकी लोगों को उच्च शिक्षा में जाने के लिए प्रोत्साहित किया.

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पा ली है मंजिल

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आते ही औरतों की प्रगति, उन की समस्याओं, उन के साथ होने वाली हिंसा, अत्याचार, उन की असुरक्षा से घिरे प्रश्नों यानी उन से जुड़े हर तरह के सवालों की विवेचना व अवलोकन होना आरंभ हो जाता है. कहीं सेमीनार आयोजित किए जाते हैं तो कहीं नारीवादी संगठन फेमिनिज्म की बयार को और हवा देने के लिए नारेबाजी पर उतर आते हैं. इंटरनैशनल वूमंस डे की शुरुआत औरतों के काम करने के अधिकार, उन्हें समाज में सुरक्षा प्रदान करने के लक्ष्य के साथ हुई थी, लेकिन आज जब औरतों ने हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर लिया है और वे कामयाबी का परचम लहरा रही हैं.

आईटी, बीपीओ या बड़ीबड़ी कंपनियों में औरतों की उपस्थिति को देखा जा सकता है. वे मैनेजर हैं, बैंकर हैं, सीईओ हैं, फाउंडर है और प्रेसीडेंट भी है. आज बिजनैस के कार्यक्षेत्र में जैंडर को ले कर की जाने वाले भिन्नता के कोई माने नहीं रह गए हैं. वैसे भी अगर आर्थिक अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करना है तो औरतों की सक्रिय भूमिका को स्वीकारना ही होगा.

वास्तव में देखा जाए तो अब नकारने की स्थिति है भी नहीं. हर ओर से महिलाएं उठ खड़ी हुई हैं. ममता बनर्जी हों या सोनिया की पीढ़ी या फिर मलाला और ग्रेटा कम उम्र की युवतियां, बदलाव की आंधी हर ओर से चल रही है.

रख चुकी हैं हर पायदान पर कदम

बेहद प्रभावशाली भाषण से संयुक्त राष्ट्र की बोलती बंद करने वाली ग्रेटा थनबर्ग किसान आंदोलन के दौरान भारत के खिलाफ दुष्प्रचार करने के आरोप में विवादों में अवश्य हैं, पर संयुक्त राष्ट्र में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अपनी बातों से दुनियाभर के नेताओं का ध्यान आकर्षित करने वाली 16 वर्षीय स्वीडिश छात्रा ग्रेटा थनबर्ग को टाइम मैगजीन ने 2019 का ‘पर्सन औफ द ईयर’ घोषित किया.

मलाला विश्व की कम उम्र में शांति का नोबेल पुरस्कार पाने वाली पहली युवती है. पाकिस्तान में तालिबानी आतंकवादियों ने इस की हत्या का प्रयास किया क्योंकि मलाला लड़कियों को पढ़ाने का काम कर रही थी जबकि तालिबान ने पढ़ाई पर रोक लगाई हुई थी.

आज वह करोड़ों लड़कियों की प्रेरणा बन चुकी है. उस के सम्मान में संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक वर्ष 12 जुलाई को मलाला दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की.

जरमनी की चांसलर ऐंजेला मर्केल दुनिया की तीसरी सब से शक्तिशाली हस्ती हैं. उन्हें दुनिया की सब से शक्तिशाली महिला भी कहा जाता है. कमला हैरिस ने तो इतिहास ही रच दिया है. वे अमेरिका की पहली अश्वेत और पहली एशियाई अमेरिकी उप राष्ट्रपति हैं.

तोड़ रही हैं अंधविश्वासों की बेडि़यां

हर क्षेत्र में ऐसी महिलाओं के नामों की सूची इतनी लंबी है कि उन की उपस्थिति को सैल्यूट किए बिना नहीं रहा जा सकता है खासकर भारतीय समाज में जहां उन से केवल घर संभालने और धार्मिक कर्मकांडों में उल झे रहने की ही उम्मीद की जाती थी. सदियों से वे कभी पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखती आ रही हैं, कभी बच्चों की सलामती के लिए पूजा करती आ रही हैं तो कभी घर की सुखशांति के लिए हवन और भजन करती आ रही हैं.

उन की कंडीशनिंग इस तरह की गई कि वे घर के बाहर जा कर अपनी पहचान बनाने के बारे में सोचेंगी तो उन्हें पाप लगेगा. लेकिन उन्होंने तमाम मिथकों को तोड़ा, परंपराओं का उल्लंघन किया, अपने अस्तित्व को आकार दिया. इस सब के बावजूद घर को भी बखूबी संभाला और परिवार की डोर को भी थामे रखा. असफल होने के डर से खुद को बाहर निकाला और जो थोड़ा डर अभी भी धार्मिक कुरीतियों के कारण उन के भीतर व्याप्त है उसे भी वह सांप की केंचुल की तरह छोड़ने को तत्पर हैं.

सपोर्ट सिस्टम खड़ा करना होगा

समाजशास्त्री मानते हैं कि औरतों को सब से पहले अपनी असफलताओं को ले कर परेशान होना छोड़ देना चाहिए. उन्हें परिवार व कैरियर के बीच एक बैलेंस बनाए रखना होगा क्योंकि समाज में ऐसी ही सोच व्याप्त है. पर इस मुश्किल से उभरने के लिए उन्हें एक सपोर्ट सिस्टम खड़ा करना होगा. उन्हें बीच राह में प्रयास करना छोड़ नहीं देना चाहिए.

कई औरतें जब डिलिवरी के बाद दोबारा काम पर आती हैं तो उन्हें लगता है कि इतने दिनों में जो एडवांस्मैंट हो चुकी है, वह कहीं उन्हें पीछे न धकेल दे. अपडेट रहना तरक्की की पहली शर्त है, इसलिए तमाम व्यवधानों के बावजूद अगर वे पुन: कोचिंग लें तो उन्हें सहायता मिलेगी. किसी गाइड की मदद ली जा सकती है. ताकि इन्फोसिस जैसी कंपनियां अपने कर्मचारियों को किसी बाहरी गाइड से मदद लेने के लिए प्रोत्साहित करती हैं जिस से उन के मानसिक क्षितिज का विस्तार हो सके. कार्यक्षेत्र में उन के लिए एक सपोर्ट सिस्टम की जरूरत है.

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जमीन से जुड़ी महिलाएं

  सोनी सोढ़ी

(आदिवासी समाज की लीडर)

एक छोटे से स्कूल में बच्चों को पढ़ाने वाली सोनी की जिंदगी 2011 में हुई उस घटना के बाद से हमेशाहमेशा के लिए बदल गई.

इस आदिवासी युवती को उस के भाई की पत्रकारिता की कीमत चुकानी पड़ी. जेल, लगातार बलात्कार और मानसिक शोषण, यहां तक कि गुप्तांग में पत्थर डाल कर उसे निहायत शर्मनाक ढंग से प्रताडि़त किया गया. उसे नक्सली बनाने पर तुली छत्तीसगढ़ सरकार को आखिरकार उसे रिहा करना ही पड़ा. जेल से मर्मस्पर्शी पत्र लिख कर अपने समर्थकों का हौसला बनाए रखा. अपने पर किए हर अत्याचार को उस ने अश्रु की स्याही से न लिख कर हिम्मत और शक्ति की लेखनी से लोगों तक पहुंचाया.

सोनी बताती है कि जब ये सब उस के साथ हुआ तो उसे लगा कि अब वह खड़ी नहीं हो पाएगी. औरतों को सिखाया जाता है कि उन की इज्जत ही उन का सबकुछ है. मैं भी यही सोचती थी और जब मेरे साथ ये सब हुआ तो मु झे लगा कि मैं अब किसी काबिल नहीं रह गई हूं. पर उसे हिम्मत देने वाली भी दो औरतें ही थीं. जेल में उसे दो औरतें मिलीं, जिन्होंने उसे अपने स्तन दिखाए. उन के निपल काट दिए गए थे. तभी सोनी ने ठान लिया कि वह लड़ेगी. उन्होंने अपने गुरु को एक चिट्ठी लिखी और यहीं से शुरु हुई उन की लड़ाई. आज सोनी बस्तर में आदिवासियों के हक के लिए उठने वाली एक बुलंद आवाज है.

शहनाज खान

(युवा सरपंच)

राजस्थान के भरतपुर जिले में रहने वाली  25 साल की शहनाज वहां की कामां पंचायत से सरपंच चुनी गई है. वह राजस्थान की पहली महिला एमबीबीएस डाक्टर सरपंच है. वह कहती है, ‘‘मु झ से पहले मेरे दादाजी भी यहां से सरपंच थे. लेकिन उन के बाद यह बात उठी कि चुनाव में कौन खड़ा होगा. परिवार वालों ने मु झे चुनाव में खड़ा होने को कहा और मैं जीत गई.’’

शहनाज मानती है कि लोग आज भी अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजते हैं, इसलिए वह लड़कियों की शिक्षा पर काम करना चाहती है और उन सभी अभिभावकों के सामने अपना उदाहरण रखना चाहती है जो बेटियों को पढ़ने नहीं भेजते.

  सैक्सुअलिटी एक छोटा सा हिस्सा है

महिलाओं को आजादी व बराबरी का हक तभी सही मानों में मिल पाएगा जब स्त्री और पुरुष के बीच के अंतर को जरूरत से ज्यादा महत्त्व देना बंद कर दिया जाएगा. सैक्सुअलिटी जीवन का महज एक छोटा सा हिस्सा है. जैंडर का हमारे जीवन में रोल तो है पर यही सबकुछ नहीं है. यह हमारे जीवन का एक हिस्सा भर है. प्रजनन अंगों को हमारे जीवन में बस एक काम करना होता है, पर इसे पूरा जीवन तो नहीं माना जा सकता. लेकिन फिलहाल मानव आबादी इसी काम को पूरा जीवन बनाने में लगी है. 90 फीसदी आबादी के दिमाग में एक औरत का मतलब कामुकता है. इस सोच को बदलने के लिए ही आधी आबादी आज कटिबद्ध है.

महिलाओं और पुरुषों को 2 अलग प्रजातियां की तरह देखना ठीक नहीं है. अगर हम ने ऐसा किया तो आने वाले समय में अगर संघर्ष हुआ तो एक बार फिर से पुरुषों का वर्चस्व हो जाएगा. अगर फिर से युद्ध के हालात बने तो महिलाओं को चारदीवारी के भीतर जाना होगा.

यहां उन महिलाओं की जिम्मेदारी बढ़ जाती है जो समाज में किसी मुकाम पर पहुंच गई हैं. वे एक बदलाव ला सकती हैं. स्त्री और पुरुष की लड़ाई बनाने के बजाय आधी आबादी को समाज में अपनी काबिलीयत से पहचान बनानी होगी और वह इस में सफल भी हो गई है. कुछ कदम बेशक उसे और चलने हैं, उस के बाद मंजिल उस की मुट्ठी में होगी. महिलाओं ने खुद को सम झना शुरू कर दिया है. वे अपने अस्तित्व को जानने लगी हैं, अपनी शक्ति को पहचानने लगी हैं. नतीजतन समाज में बदलाव की हवा चलने लगी है.

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  बिना डरे बिना घबराए

दुनियाभर में हो रहीं रिसर्च बताती हैं कि औरतें मल्टीटास्किंग होती हैं. अब हर परीक्षा में लड़कियां लड़कों को पीछे छोड़ रही हैं. हर लिहाज से औरतें ज्यादा ताकतवर हैं, लेकिन यह भी एक कड़वी सचाई है कि दुनिया की फौर्च्यून 500 कंपनियों में सिर्फ 4 फीसदी महिलाएं सीईओ हैं. समान वेतन और समान अधिकार तथा काम करने के बेहतर माहौल जैसी चीजों के लिए महिलाएं संघर्ष कर रही हैं. हैरानी की बात है कि इन अधिकारों की बात करने वाली महिलाओं को फेमनिस्ट कह कर नकार दिया जाता है. जरा सोचिए अगर आधी आबादी भी पूरी क्षमता से काम करे तो क्या होगा? नुकसान आधी आबादी का नहीं, पूरी मानवता का हो रहा है.

महिलाएं अब पहले की तरह पुरुषों की परछाईं में दुबक नहीं रहीं बल्कि उस से बाहर  निकल कर नुमाइंदगी कर रही हैं, दिशा दिखा रही हैं और वह भी बिना डरे, बिना घबराए.

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