वास्तुशास्त्र : जातिवाद की दलदल

घर बनाना शुरू करने से पहले वास्तुशास्त्र के अनुसार जमीन में कुछ कीलें गाड़ने का विधान है, जिन के साथ सूत बांधा जाता था. ये कीलें किस जाति के लिए किस वृक्ष की होनी चाहिए इस बारे में ‘समरांगण सूत्रधार वास्तुशास्त्र’ में महाराजा भोजदेव ने लिखा  है कि जिन वृक्षों के नाम पुल्लिंग में हों, उन की लकड़ी की कीलें बनाई जानी चाहिए, न कि उन वृक्षों की जिन के नाम स्त्रीलिंग में हों :

‘पुन्नामानो द्रुमा: शस्ता:

स्त्रीनामानो विगर्हिता:.’

(समरांगणसूत्र. 21/3)

किस जाति के लिए कौन सी कील : समरांगण सूत्रधार में आगे कहा गया है कि ब्राह्मण के लिए पीपल और खैर की लकड़ी की कीलें वृद्धिकारक हैं और क्षत्रिय के लिए लाल चंदन एवं बांस की कीलें शुभ हैं. साल तथा शिरीष (सिरस) के पेड़ों की बनी कीलें वैश्यों के लिए शुभ हैं. इसी प्रकार तिनिश, धव और अर्जुन वृक्षों की कीलें शूद्र के लिए शुभ कही गई हैं :

‘अश्वत्थ: खदिरश्चैतौ

विप्राणां वृद्धिकारकौ,

रक्तचंदनवेणूत्थ-

कीलौ क्षत्रस्य पूजितौ.

कीलौ शालशिरीषोत्थौ

वैश्यानां कीर्तितौ शुभौ

शूद्रजातेस्तु तिनिश-

धवार्जुनसमुद्भवा:.’

(समरांगण सूत्र. 21/4-6)

किस जाति की कितनी लंबी कील : ब्राह्मण जाति की कील 32 अंगुल लंबी हो, क्षत्रिय जाति की 28, वैश्य की 24 और शूद्र जाति की 20 अंगुल. तभी हित होता है :

‘द्वात्रिंशदंगुला: कीला

विप्राणां स्यु: शुभावहा:,

क्षत्रियाणां पुनश्चाष्टा-

विंशत्यंगुलसम्मिता:.

चतुर्विंशत्यंगुलाश्च

वैश्यानां शुभदायिन:,

विंशत्याद्यंगुलै: कीला:

शूद्रजातेस्तु ते हिता:.

किस जाति की कील के कितने कोने : ब्राह्मण की कील चौकोर हो, क्षत्रिय की अठकोन अथवा षट्कोण हो तथा शूद्र की कील 6 अस्रों (किनारों) वाली हो :

ब्राह्मणक्षत्रियविशां वेदाष्टाश्रषडश्रय:

षडश्रयस्तु शूद्रस्य.

(समरांगण सूत्र. 21/12-13)

सूत्र और जाति : वास्तुशास्त्र कहता है कि घर बनाने के लिए जो फीता (सूत्र) हो वह भी हर जाति के लिए निश्चित सामग्री से बना होना चाहिए :

दार्भमौंजौर्णकार्पासं विप्रादीनां यथाक्रमम्.

(समरांगण सूत्र. 21/13)

(अर्थात, ब्राह्मण का सूत्र कुश का, क्षत्रिय का मूंज का, वैश्य का ऊन का और शूद्र का कपास का बना हुआ हो.)

लंबाई, चौड़ाई व जाति : ब्राह्मणों के घरों की लंबाई चौड़ाई से 10 अंश अधिक हो, क्षत्रिय के घर की लंबाई चौड़ाई से 8 अंश अधिक, वैश्य की 6 अंश और शूद्र की 4 अंश अधिक हो :

‘दशांशयुक्तो विस्तारा-

दायामो विप्रवेश्मनाम्,

अष्टषट्चतुरंशाढ्य

क्षत्रादित्रयवेश्मनाम्.’

जाति के अनुसार घर की सीमा : वास्तुशास्त्र कहता है कि शूद्रों के लिए साढ़े 3 तल वाला भवन कल्याणकारी होता है. इस से बढ़ कर यदि शूद्र का भवन होगा तो उस के कुल का नाश हो जाएगा:

‘सार्धत्रिभूमि शूद्राणां

वेश्म कुर्याद् विभूतये,

अतोऽधिकतरं यत् स्यात्

तत्करोति कुलक्षयम्.’

(समरांगण सूत्र. 35/21)

साढ़े 5 तल वाला भवन वैश्य की वृद्धि करता है. यदि वह इस से ज्यादा बड़ा बनाएगा तो उस के धन तथा बंधुओं का विनाश होगा :

‘वैश्यस्य वर्धयेद् गेहमर्धपंचमभूमिकम्,

अतिप्रमाणे तत्रास्य धनबन्धुपरिक्षय:.’

(समरांगण सूत्र. 35/22)

साढ़े 6 तल वाला क्षत्रिय का श्रेष्ठ घर संपत्ति, बल और समृद्धि करने वाला होता है. इस से ज्यादा बड़ा मकान संपत्ति व बल का नाश करता है. साढ़े 7 खंड वाला श्रेष्ठ मकान ब्राह्मण का होता है, इस से अधिक ऊंचा भयावह माना गया है :

‘परं विप्रस्य भवनमर्धसप्तमभूमिकम्,

अत्युच्चं तु भयावहम्.’

(समरांगण सूत्र. 35/24)

ऊंचाई बनाम जाति : शूद्र का घर 20 हाथ से ज्यादा ऊंचा नहीं होना चाहिए. वैश्य का घर 40 हाथ ऊंचा हो, क्षत्रिय का 60 हाथ और ब्राह्मण का 80 हाथ. इसी तरह ढाई खंड से कम ब्राह्मण का घर न हो, क्षत्रिय का 2 खंड से कम न हो, वैश्य का डेढ़ खंड से कम न हो और शूद्र का मकान एक खंड का हो:

‘साधारणेन हस्तेन

परं शूद्रस्य विंशति:. 29

चत्वारिंशद् विश: षष्टि:

क्षत्रियस्य प्रशस्यते,

अशीतिर्द्विजमुख्यस्य. 30

एकभौमादधो नैव

गृहं शूद्रस्य विद्यते. 32

वैश्यस्य भवनं कार्यम्

अधो नाध्यर्धभूमिकात्,

द्विभूमिकादध: कार्यं

क्षत्रियस्य न मंदिरम्. 33

सार्धद्विभौमाद् विप्रस्य. 34.’

(समरांगण सूत्र. अ. 35)

मिट्टी का रंग व जाति : घर बनाने के लिए किस जाति को किस रंग वाली भूमि चुननी चाहिए, कौन सा रंग किस जाति के लिए हितकारी है, इस बारे में कहा गया है:

‘सिता रक्ता च पीता च कृष्णा

चैव क्रमान्मही,

विप्रादीनां हि वर्णानां हिता.’

(समरांगण सूत्र. 10/48)

(सफेद रंग की भूमि ब्राह्मण के लिए, लाल क्षत्रिय के लिए, पीली वैश्य और काली शूद्र के लिए हितकारी है.)

परंतु वास्तुप्रदीप में ‘हरिद् वैश्या प्रकीर्तिता’ कहा है, जिस का अर्थ है कि हरे रंग वाली मिट्टी वैश्य जाति के लिए शुभ होती है.

फूल व जाति : जहां घर बनाना हो, वहां की जमीन किस जाति के लिए उपयुक्त है, यह जानने के लिए उस जमीन में एक गड्ढा खोद कर उस में ब्राह्मण की सफेद फूलों की, क्षत्रिय की लाल फूलों की, वैश्य की पीले फूलों की और शूद्र की काले फूलों की माला रखें. जिस रंग की माला न मुरझाए, उसी जाति का वहां घर बनना चाहिए :

खाते सितादिमाल्यानि

यस्यां निश्युषितानि च

यद्वर्णानि न शुष्यन्ति

सा तद्वर्णेष्टदा मही.

(समरांगण सूत्र. 10/49)

जाति और तिलों के अंकुर : शिल्पशास्त्र में कहा गया है कि यह जानने के लिए कि भूमि किस जाति के व्यक्ति के लिए घर बनाने के लिए उपयुक्त है, वहां तिलों की बुआई करनी चाहिए. यदि वहां 3 रातों के बाद तिल अंकुरित हो जाएं तो उस भूमि को ब्रह्मजाति (ब्राह्मण के लिए उपयोगी) की भूमि कहना चाहिए. यदि 5 रातों के बाद तिल अंकुरित हों तो उसे क्षत्रिय भूमि कहना चाहिए. यदि 7 रातों के बाद अंकुरित हों तो उसे वैश्य के लिए उपयोगी समझें तथा यदि 9 रातों के बाद तिल अंकुरित हों तो शूद्रा भूमि जानें:

तिलानां वपने तत्र

ज्ञातव्या भूमिजातय:,

त्रिरात्रेणांकुरो यत्र

ब्रह्मजाति: प्रकीर्तिता.

क्षत्रिया पंचमी रात्रै-

र्वैश्या स्यात् सप्तभिस्तथा,

नवरात्रैश्च शूद्राया

अंकुरो जायते ध्रुवम्.

(शिल्पशास्त्रम्, 1/8-9)

इस विषय को बृहत्संहिता में अन्य प्रकार से प्रस्तुत किया गया है :

मधुरा दर्भसंयुक्ता

घृतगंधा च या मही,

उत्तरप्रवणा ज्ञेया

ब्राह्मणानां च सा शुभा. 44

रक्तगंधा कषाया च

शारवीरेण संयुता,

रक्ता प्राक्प्रवणा ज्ञेया

क्षत्रियाणां च सा मही. 45

दक्षिणप्रवणा भूमि र्याऽम्ला

दूर्वाभिरन्विता,

अन्नगंधा च वैश्यानां

पीतवर्णा प्रशस्यते. 46

पश्चिमप्रवणा कृष्णा विकुण्ठा

काशसंयुता,

मद्यगंधा मही धन्या

शूद्राणां कटुका तथा. 47.

(वास्तुरत्नाकर पृ. 9 से उद्धृत)

अर्थात वह भूमि ब्राह्मण के लिए शुभ है, जिस के उत्तर में ढलान हो, जो मधुर हो, जिस से घी की महक आए, जिस पर कुशा नामक घास उगी हो तथा जिस का रंग सफेद हो.

वह भूमि क्षत्रिय के लिए शुभ है, जिस के पूर्व में ढलान हो, जिस का स्वाद कसैला हो, जिस से खून की बू आए, जिस पर शरपत (सरकंडा) उगा हो तथा जिस का रंग लाल हो.

वह भूमि वैश्य के लिए शुभ है, जिस के दक्षिण में ढलान हो, जिस का स्वाद तीखा (खट्टा) हो, जिस से अन्न की महक आती हो, जिस पर दूब उगी हो तथा जिस का रंग पीला हो.

वह भूमि शूद्र के लिए शुभ है, जिस के पश्चिम में ढलान हो, स्वाद कटु (कड़वा) हो, जिस से मद्य (शराब) की गंध आती हो, जिस पर काश नामक घास उगी हो तथा जिस का रंग काला हो.

परंतु शिल्प- शास्त्र में कहा गया है :

क्षारगंधा भवेत् वैश्या,

शूद्रा च पुरीषगंधजा

(शिल्पशास्त्रम्, 1/6)

अर्थात् क्षार (खट्टे पदार्थ) की गंध वाली भूमि वैश्य के लिए शुभ होती है और पुरीष (टट्टी, मल) की गंध वाली भूमि शूद्र के लिए शुभ होती है.

राजवल्लभवास्तुशास्त्रम् में कहा गया है कि तिल के तेल जैसी गंध वाली व खट्टे स्वाद वाली भूमि पर बना घर वैश्य के लिए शुभ है तथा काले रंग की उस भूमि पर घर बनाना शूद्र के लिए शुभ है जिस से मछली की सी गंध आती हो व जिस का काली मिर्च जैसा स्वाद हो :

स्वादेऽम्ला तिलतैलगंधिमुदिता

पीता च वैश्या मही,

कृष्णा मत्स्यगंधिनी च

कटुका शूद्रेति भूलक्षणम्.

(राजवल्लभमंडनम्. 1/13)

मूर्ति स्थापना व दिनों की जातियां : यदि देव मूर्ति की मंदिर में स्थापना करनी हो तो इस के लिए पहले यह जान लेना चाहिए कि किस जाति के लोगों के लिए कौनकौन सा दिन इस उद्देश्य के लिए शुभ है :

विप्राणां शुभदौ वारौ

स्थापने गुरुशुक्रयो:,

वारौ दिवाकरेन्दोश्च क्षत्रियाणां

सुखावहौ. 15

वैश्यानां बुधवार:

स्यात्सुरसंस्थापने शुभ:,

मंदवारस्तु शूद्राणां

प्रतिष्ठायां शुभावह:. 16.

(बृहद् वास्तुमाला, पृ. 174)

(अर्थात ब्राह्मणों के लिए गुरुवार, शुक्रवार क्षत्रियों के लिए रविवार, सोमवार, वैश्यों के लिए बुधवार और शूद्रों के लिए शनिवार मूर्ति प्रतिष्ठा के लिए शुभ होता है.)

जातियां नक्षत्रों की : वास्तुशास्त्र ने तारों (नक्षत्रों) की भी जातियां बना डाली हैं. उस के अनुसार ब्राह्मणों के लिए तीनों उत्तरा नक्षत्र, पुष्य नक्षत्र, क्षत्रियों के लिए श्रवण, हस्त, मूल, वैश्यों के लिए स्वाति, अनुराधा, रेवती और शूद्रों के लिए अश्विनी नक्षत्र देवमूर्ति की स्थापना के लिए शुभ होते हैं.

‘उत्तरात्रिकपुष्याश्च

ब्राह्मणानां शुभावहा:,

श्रवणा हस्तमूले च

क्षत्रिये शुभदा: स्मृता:. 19

वैश्यानां स्वातिमैत्रे

च पौष्ये चैव शुभावहा:,

शूद्राणामश्विनी श्रेष्ठा

तैतिलस्थापने शुभे.’ 20.

(बृहद् वास्तुमाला, पृ. 175)

घरों का माप बनाम जाति : राजा की सेवा में अलगअलग जातियों के लोग होते हैं. उन में कुछ खास होते हैं और कुछ सामान्य. परंतु जाति दोनों तरह के राजपुरुषों की होती है.

यदि खास राजपुरुष ब्राह्मण जाति का हो तो उस के पास 4 घर होंगे, जिन में से पहले घर की लंबाईचौड़ाई (गृहमान) 35×32 हाथ हो, यदि वह क्षत्रिय जाति का हो तो उस के पहले घर का गृहमान 31×28 हाथ, वैश्य जाति का हो तो उस के पहले घर का गृहमान 28×24 हाथ तथा यदि वह शूद्र जाति का हो तो उस के पहले घर का गृहमान 25×20 हाथ हो. 16 हाथ से कम चौड़ाई हीन जातियों (अछूतों आदि) के घरों की हो :

‘चातुर्वर्ण्यव्यासो

द्वात्रिंशत् स्याच्चतुश्चतुर्हीना:,

आषोडशादिति परं

न्यूनतरम्अतीवहीनानाम्.

सदशांशं विप्राणां

क्षत्रस्याष्टांशसंयुतं दैर्घ्यम्,

षड्भागयुतं वैश्यस्य भवति शूद्रस्य

पादयुतम्.’

(वास्तुसारसंग्रह, 24/11-12)

यदि ये राजपुरुष सामान्य हों तो उन की जाति के अनुसार उन के घरों की माप और संख्या बदल जाएगी. ब्राह्मण के पास 4 घर होंगे तथा पहले घर का गृहमान होगा 39×32 हाथ, क्षत्रिय के पास 3 घर होंगे तथा पहले घर का गृहमान होगा 36×30 हाथ, वैश्य के पास 3 घर होंगे तथा पहले का गृहमान होगा 32×28 हाथ, शूद्र के पास 2 घर होंगे तथा पहले का गृहमान होगा 28×26 हाथ.

जाति बनाम शैया : वास्तुशास्त्र ने शैया के माप तक के मामले को जाति से जोड़ा है. कहा है कि ब्राह्मण की शैया 76 अंगुल हो, क्षत्रिय की 74, वैश्य की 72 तथा शूद्र की 70 अंगुल होनी चाहिए :

‘तदनु युगलहीनं ब्राह्मणादे: प्रशस्तम्.’

(राजवल्लभमंडनम्, 8/1)

वेदिका जाति के अनुसार : वास्तुशास्त्र का आदेश है कि ब्राह्मण के घर में वेदिका (चबूतरा) 7 हाथ की हो, क्षत्रिय के घर में 6 हाथ की, वैश्य के घर में 5 हाथ की तथा शूद्र के घर में 3, 2 या 1 अथवा 4, 3 या 2 हाथ की वेदिका ही होनी चाहिए.

विप्रे सप्रकरा च भूपसदने

षट् पंच वैश्ये तथा,

कुर्याद् हस्तचतुष्टयं च वृषले

त्रिद्व्येकतो हीनके.

(राजवल्लभमंडलनम्, 8/17)

खिड़की में जाति : मानसार नामक वास्तुशास्त्रीय ग्रंथ कहता है कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों (राजाओं) के वातायन (खिड़की) में मध्य का स्तंभ नहीं होना चाहिए. उस के स्थान पर पट्टिका होनी चाहिए. परंतु वैश्यों तथा शूद्रों के वातायनों में मध्य का स्तंभ बनाना चाहिए. इस के मध्य में पट्टिका नहीं होनी चाहिए. हां, इस के स्थान पर मंच बनाया जा सकता है :

‘द्विजानां भूपतीनां च

मध्यस्तम्भं विसर्जयेत्

मध्यमं पट्टिकायुक्तं

कुर्याच्छिल्पविचक्षण:,

वैश्यानां शूद्रजातीनां

मध्ये स्तंभं प्रयोजयेत्.

न कुर्यात् पट्टिकामध्ये

चैकं मंचं शुभावहम्.’

(मानसार, 33/288-90)

द्वार और जाति : किस जाति के आदमी को घर का द्वार किस दिशा में बनाना चाहिए, इस बारे में वास्तुरत्नाकर में कहा गया है कि ध्वज आय वाले ब्राह्मण के घर का द्वार पश्चिम दिशा में शुभ होता है, सिंह आय वाले क्षत्रिय के मकान का द्वार उत्तर दिशा में, हाथी आय वाले शूद्र के मकान का द्वार दक्षिण दिशा में और बैल आय वाले वैश्य के घर का द्वार पूर्व दिशा में उत्तम होता है:

ध्वजे परास्यं विप्राणां

राज्ञां सिंहेप्युदङ्मुखम्,

गजे शूद्रस्य याम्यास्यं

विश: पूर्वमुखं वृषे. 7.

(वास्तुरत्नाकर, पृ. 80)

ब्राह्मण के लिए ध्वज आय; क्षत्रिय के लिए ध्वज, हाथी, बैल और मृग आय; वैश्य के लिए ध्वज, सिंह और हाथी आय तथा शूद्र के लिए ध्वज और मृग आदि आय शुभदायक हैं :

‘अग्रजानां ध्वजाय: स्याद्

ध्वजकुंजरगोमृगा:,

क्षत्रस्य ध्वजसिंहेभा

वैश्यस्य शुभदा स्मृता:. 27

ध्वजो मृगादि: शूद्राणाम्. 26.’

(वास्तुरत्नाकर, पृ. 46)

इस के विपरीत, एक दूसरे वास्तुशास्त्रीय ग्रंथ में कहा गया है कि ब्राह्मण की आय ध्वज है, क्षत्रिय की सिंह, वैश्य की बैल और शूद्र की हाथी :

‘ब्राह्मणाय ध्वजं दद्यात्

सिंहं दद्यात्तु क्षत्रिये,

वैश्यस्य तु वृषं दद्याद्

गजं शूद्रगृहेऽर्पयेत्.’

(वास्तुरत्नाकर, पृ. 46)

दोनों में से कौन सा श्लोक सही है और क्यों? इस का उत्तर कहीं भी नहीं दिया गया है.

राशियों की जातियां व द्वार : कर्क, वृश्चिक और मीन राशि वालों अर्थात ब्राह्मणों के लिए ध्वज आय है; मेष, सिंह और धनु राशि वालों अर्थात क्षत्रिय के लिए बैल आय है; तुला, मिथुन और कुंभ राशि वालों अर्थात वैश्य के लिए सिंह आय है और वृष, कन्या व मृग राशि वालों अर्थात शूद्र के लिए हाथी आय है व शुभदायक है :

‘कर्कवृश्चिकमीनानां

ध्वजाय: शुभदो मत:,

वृषभाय: शुभ: प्रोक्तो

मेषसिंहधनुर्भृताम्. 29

तुलामिथुनकुम्भानां

गजायो वांछितप्रद:,

वृषकन्यामृगाणां च

सिंहाय: शुभदो भवेत्. 30.’

(वास्तुरत्नाकर, पृ. 47)

गृहवास्तुप्रदीप नामक एक दूसरे वास्तुशास्त्रीय ग्रंथ के अनुसार वृष, कन्या और मकर राशि वाले वैश्य हैं तथा मिथुन, कुंभ एवं तुला राशि वाले शूद्र हैं :

‘वृषश्च कन्या मकरोऽथ वैश्या:,

शूद्रा: नृयुक्कुंभतुला: भवन्ति.’

(गृहवास्तुप्रदीप:, श्लोक 44)

गृहवास्तुप्रदीप के अनुसार ब्राह्मण राशि के घर का द्वार पूर्व दिशा में हो, क्षत्रिय राशि का उत्तर में, वैश्य राशि का दक्षिण में तथा शूद्र राशि का पश्चिम दिशा में होना चाहिए :

‘स्यात्प्राङ्मुखं, ब्राह्मणराशिसद्म

चोदङ्मुखं क्षत्रियराशिकानाम्,

वैश्यस्य तद् दक्षिणदिङ्मुखं हि

शूद्राभिधानामथ पश्चिमास्याम्.’

(गृहवास्तुप्रदीप:, श्लोक 45)

पर मत्स्य पुराण के अनुसार ब्राह्मण राशि वालों के घर का द्वार उत्तर में और क्षत्रिय राशि वालों का पूर्व में होना चाहिए.

इन भिन्न मतों का क्या मनमर्जी के सिवा कोई दूसरा आधार है? ये परस्पर विरोधी बातें हैं. एक ब्राह्मण के घर का द्वार पश्चिम में शुभ बताता है, दूसरा पूर्व में शुभ बताता है तथा तीसरा उत्तर में, यदि कोई चौथा होता तो वह दक्षिण में बताता. इस वास्तुशास्त्रीय ‘ज्ञान’ (अज्ञान?) में क्या छिपा है? यदि ब्राह्मण 4 में से 3 दिशाओं में द्वार बना सकता है तो इस में क्या कोई ‘रहस्य’ है?

तरंगें : जब वास्तु के जानकारों से पूछा जाता है कि इस तरह जाति के आधार पर हर चीज को अलगअलग बनाने का क्या कारण है तो वे छद्म विज्ञान बघारने लगते हैं. वे तथाकथित तरंगों की बात करते हैं जो कथित तौर पर हर घर (वास्तु) से निकलती हैं. जाति के अनुसार हर चीज को बांटने के पीछे इन तरंगों और घर में रहने वालों के शरीर की तरंगों में कथित तौर पर समन्वय स्थापित करने का महान उद्देश्य बताया जाता है.

जब से विज्ञान ने तरंगों, ऊर्जा आदि का संकल्प दिया है तब से एक वर्ग इन शब्दों के पैबंद लगा कर हर अंधविश्वास, कपोलकल्पना, मनगढ़ंत बात, निर्मूल कथन और बेसिरपैर की बात को ‘विज्ञान’ बना कर पेश करने लगा है, यद्यपि न किसी धर्मग्रंथ में और न किसी वास्तुशास्त्रीय ग्रंथ में ही इस का कहीं कोई उल्लेख है.

यह वर्ग चोटी (शिखर) को विद्युत चुंबकीय क्वाइल बताता है और पूर्णिमा के दिन रखे जाने वाले सत्यनारायण के व्रत के बारे में दावा करता है कि यह सूर्य और चंद्र की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का मुकाबला करने के लिए है तथा दीवाली के दिन जलाए जाने वाले दीपक उस शाम को धरती से निकलने वाली विषैली गैसों को जलाने के लिए हैं.

आज हिंदू समाज का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जो चोटी को तिलांजलि दे चुका है. इस से वह कथित विद्युत चुंबकीय क्वाइल भी विदा हो चुकी है. क्या इस से किसी हिंदू की सेहत पर कोई फर्क पड़ा है?

जो सत्यनारायण का व्रत नहीं रखते, उन्हें वह कथित गुरुत्वाकर्षण कहां ले जाता है? दुनिया में अरबों लोग ऐसे हैं जो सत्यनारायण का व्रत रखना तो दूर उस का नाम तक नहीं जानते. क्या गुरुत्वाकर्षण उन्हें निगल गया है?

रही बात दीवाली की रात को निकलने वाली गैसों की. क्या वे गैसें भारत में ही निकलती हैं और विदेशों में उसी जगह निकलती हैं जहांजहां हिंदू रहते हैं? क्या वे हमारे ही इन लालबुझक्कड़ों को दिखाई देती हैं, दुनिया के वैज्ञानिकों को नहीं?

वास्तु (घर) और जाति की कथित तरंगों के बारे में किस परीक्षण या यंत्र से पता चलता है? क्या पहचान है ब्राह्मणजातीय तरंगों की और शूद्रजातीय तरंगों की?

क्या वे कथित तरंगें केवल भारत की धरती, भारत के मकानों से ही निकलती हैं? जब मुसलिम आक्रमणों के समय मध्ययुग में हिंदू पिट रहे थे, लुट रहे थे, उन के गांव के गांव जलाए जा रहे थे, लाखों की संख्या में जब वे गुलाम व कैदी बनाए जा रहे थे, तब इन तथाकथित तरंगों ने उन के व उन के घरों के लिए क्या किया था? क्या ये तथाकथित अतिमानवीय तरंगें कथित समन्वय स्थापित कर के किसी एक हिंदू घर या हिंदू व्यक्ति को भी बचा सकीं? जो गुलाम बनाए गए लाखों हिंदू हिंदूकुश पर्वत पर सर्दी के कारण 1399 की एक रात को तड़पतड़प कर मर गए थे, उन की जातियों की तरंगें, उन के वास्तुओं की तरंगें कहां थीं? तब वास्तुशास्त्रीय वचन कहां थे? कथित समन्वय कहां था?

मध्यकाल में विदेशी मुसलमानों के हमलों के समय इन जातियों की तरंगों के वास्तु की तरंगों के साथ कथित समन्वय ने क्या एक भी हमले को विफल किया? क्या एक भी हिंदू के घर की खुशी की रक्षा की?

जब हिंदुओं के घर में कथित तरंगों का समन्वय था, तब वे गुलाम हो रहे थे और विदेशी बाजारों (गजनी) में पशुओं की तरह बिक रहे थे, परंतु जो विधर्मी (मुसलमान) इस सारे पाखंड से मुक्त थे, वे शासन कर रहे थे, साम्राज्य स्थापित कर रहे थे. उन के घरों की तरंगों ने उन्हें सबकुछ कैसे उपलब्ध करा दिया, जबकि उन्होंने न किसी वास्तुशास्त्र को कभी देखा था और न कभी उस का अनुपालन किया था?

हिंदू वास्तुशास्त्र का पालन कर के भी पिट गए, लुट गए और गुलाम हो गए जबकि उसी कथित शास्त्र की जरा भी परवा न करने वाले विदेशी हमलावर मुसलमान तरक्की कर शासक बने और साम्राज्य स्थापित करने में सफल हुए. ये ऐतिहासिक तथ्य क्या वास्तुशास्त्र के वचनों की व्यर्थता, निरर्थकता और अनर्थकता का प्रमाण उपस्थित नहीं करते?

वास्तुशास्त्र शूद्र और ब्राह्मण की शैया की माप बताता है. हमारा पूछना है कि यदि शूद्र की शैया ब्राह्मण से छोटी नहीं होगी तो क्या कथित तरंगों का पेट खराब हो जाएगा? क्या कथित तरंगें मनुस्मृति पढ़ कर अपना काम करती हैं? क्या किरणें, तरंगें आदि हिंदू वास्तुशास्त्र का अध्ययन कर के प्रतिक्रिया करती हैं?

हिंदू समाज को जाति के आधार पर जिस हद तक वास्तुशास्त्र ने आपस में बांटा है, उस हद तक तो मनुस्मृति भी नहीं गई थी. जो लोग हिंदू समाज की जातिवाद के लिए निंदा करते हैं, जो लोग शूद्रों की दुर्गति के लिए मनु को जिम्मेदार ठहराते हैं, उन्हें इस वास्तुशास्त्र रूपी छिपे दुश्मन की ओर भी समुचित ध्यान देना चाहिए क्योंकि यह जातिवाद को फिर से जीवित करने का गुप्त परंतु घातक एजेंडा है और यह मनुस्मृति का भी बाप है.

मध्यकाल में वास्तुशास्त्र ने जीवन के हर पहलू में जातिवाद का घुन लगा दिया था और देश सदियों तक गुलाम होने व नारकीय यातनाएं झेलने का पात्र बन गया. ऐसा अंदरबाहर से बिखरा समाज उन विदेशियों का सामना क्या कर सकता था, जिन में मानवीय एकता व समानता की भावना इसलाम ने कूटकूट कर भर रखी थी?

सदियों बाद जब देश आजाद हुआ तो लाखों हिंदू पाकिस्तान से भारत आए और लाखों मुसलमान भारत से पाकिस्तान गए. यहां आए हिंदू मुसलमानों द्वारा छोड़े गए उन मकानों में रहने को विवश हुए जो न तो वास्तुशास्त्रीय नियमों के अनुसार बने थे और न जातिवादी तरंगों के अनुसार. क्या वे हिंदू नष्ट हो गए या अपने पैरों पर खड़े होने में असफल हुए? क्या कथित तरंगों ने उन्हें करंट मारा या इन लोगों ने विपत्ति का अपने उद्यम से सामना कर वास्तुशास्त्र को मुंह चिढ़ाया? बताने की जरूरत नहीं.

इसी तरह पाकिस्तान गए मुसलमानों ने हिंदुओं के जिन घरों में निवास किया, उन की कथित तरंगों ने उन विधर्मी और जातिहीन लोगों को क्या करंट मार कर नष्ट कर दिया या उन लोगों ने अपने पुरुषार्थ से जीवन को सफल बनाया?

पाकिस्तान से लुट कर हिंदू भारत पहुंचे थे, उन्हें जो भी घर मिला, उन्होंने उस में सुख की सांस ली. प्रश्न उठता है, जब इन हिंदुओं के घर पाकिस्तान में वास्तुशास्त्र के अनुसार थे, घरों की तरंगों और उन में रहने वाली जातियों की तरंगों का आपस में पूर्ण समन्वय था तो वे आखिर टूटे क्यों और कैसे? वे उन समन्वय स्थापित हुए घरों से निकलने को क्यों विवश हो गए? वास्तु की तथाकथित दिव्य शक्ति उन घरों व उन के निवासियों को उजड़ने व बरबाद होने से बचा क्यों न सकी?

उदाहरण श्रीराम के घर का : जिस घर में राम रहते थे वह वास्तु के नियमों के अनुसार ही बना होगा, महाराजा दशरथ ने उसे वैसा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी होगी और वहां की तरंगों का क्षत्रिय तरंगों से घनिष्ठ समन्वय भी रहा होगा.

फिर भी उस घर में सौतें लड़ीं, राम को वनवास मिला, साथ ही लक्ष्मण व सीता भी वनवासी हुए, पिता दशरथ वियोग में मर गए, भाई भरत अलग से परेशान हुआ. वन में सीता का अपहरण हुआ. जब रावण से लड़ाई कर के और सीता को वापस ले कर अयोध्या के उसी घर में राम लौटे तो पत्नी को घर से निकालना पड़ा और बच्चे भी जंगल में वाल्मीकि के आश्रम में जन्मे व पले.

इस घर पर वास्तुशास्त्र की मार पड़ी या कर्मों की?

कर्मों की तो पड़ नहीं सकती थी क्योंकि वे ‘भगवान’ थे, जो कर्मों के चक्र से मुक्त कहे जाते हैं. यदि कर्मों की ही मार पड़ी तो वे फिर ‘भगवान’ नहीं थे.

महाभारत और पांडव : क्या महाभारत के नायक पांडवों का घर वास्तु के अनुसार नहीं था? वे महाराज धृतराष्ट्र के ही घर में रहते थे, उन्हीं के भतीजे थे. अत: साफ है कि जिस घर में वे रहते थे वह वास्तुशास्त्र के अनुसार ही बना होगा. फिर भी वे कभी जुए में हारते हैं, कभी वनवास भोगते हैं और कभी अपने ही बंधुओं का खून बहाते हैं. वास्तु के नियमों के पालन के बावजूद यह त्रासदी क्यों?

जिस घर में दूसरे ‘भगवान’ कृष्ण के मातापिता रहते थे, क्या वह भी वास्तु की दृष्टि से मनहूस था कि पहले तो उन्हें कैद कर लिया गया, उन का पुत्र ‘भगवान’ कैद में ही जन्मा, वे उस का पालनपोषण भी न कर पाए और उसे दूसरे के यहां पालने के लिए छोड़ना पड़ा तथा बाद में उन के सामने उन के यादव वंश का विनाश हो गया और उन्हें स्वयं शिकारी द्वारा पैर में तीर मारे जाने के बाद इस दुनिया को छोड़ने को विवश होना पड़ा.

यहां भी कर्मों का बहाना नहीं चल सकता, क्योंकि ‘भगवान’ को तो कर्मों के चक्र से परे माना जाता है.

ये उदाहरण इसी बात को रेखांकित करते हैं कि वास्तु की तथाकथित दिव्य शक्ति का न कोई अस्तित्व है और न यह भौतिक जगत की घटनाओं को किसी भी तरह प्रभावित कर सकती है.

दूसरे, वास्तुशास्त्र हिंदू समाज को कमजोर करने वाली सामाजिक बुराई जातिपांति को प्रोत्साहन देता है तथा जाति के नाम पर भेदभाव करता है जो भारत के संविधान का घोर उल्लंघन और अपराध है.

भारत के संविधान की धारा 15 जाति के आधार पर भेदभाव को खत्म करती है, परंतु हमारे वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थ इस संवैधानिक आदेश को मुंह चिढ़ाते हैं.

इस देश में 2 सत्ताएं नहीं चल सकतीं. देश का संविधान सर्वोपरि है. उस के विपरीत जाने वाली हर विधि, हर प्रथा, हर रिवाज, हर धार्मिक रस्म, हर व्यक्तिगत सनक, हर सामाजिक बुराई खत्म करने योग्य है और धारा 13 ऐसी ही घोषणा करती है.

हिंदू समाज को जातिवादी वास्तु के वहमों की नहीं बल्कि वास्तविक जगत को पहचानने, इस की चुनौतियों को स्वस्थ कौमों की तरह स्वीकारने और असली हिंदुत्व को व्यावहारिक रूप देने की जरूरत है, तभी यह विशाल समाज विश्व का एक अनुकरणीय व प्रतिष्ठित समाज बन सकता है.

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