ऐंडोमैट्रिओसिस से बढ़ता बांझपन का खतरा

ऐंडोमैट्रिओसिस गर्भाशय से जुड़ी एक समस्या है. यह समस्या महिलाओं की प्रजनन क्षमता को सर्वाधिक प्रभावित करती है, क्योंकि गर्भधारण करने और बच्चे को जन्म देने में गर्भाशय की सब से महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. कई महिलाओं में यह समस्या अत्यधिक गंभीर हो शरीर के दूसरे अंगों को भी प्रभावित करती है. वैसे आधुनिक दवा और उपचार के विभिन्न विकल्पों ने दर्द और बांझपन दोनों से राहत दिलाई है. ऐंडोमैट्रिओसिस का यह अर्थ नहीं है कि इस से पीडि़त महिलाएं कभी मां नहीं बन सकतीं, बल्कि यह है कि इस के कारण गर्भधारण करने में समस्या आती है.

क्या है ऐंडोमैट्रिओसिस

ऐंडोमैट्रिओसिस गर्भाशय की अंदरूनी परत की कोशिकाओं का असामान्य विकास होता है. यह समस्या तब होती है जब कोशिकाएं गर्भाशय के बाहर विकसित हो जाती हैं. इसे ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट कहते हैं. ये इंप्लांट्स आमतौर पर अंडाशय, फैलोपियन ट्यूब्स, गर्भाशय की बाहरी सतह पर या आंत और पैल्विक गुहा की सतह पर पाए जाते हैं. ये वैजाइना, सरविक्स और ब्लैडर पर भी पाए जा सकते हैं. बहुत ही कम मामलों में ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट्स पैल्विस के बाहर लिवर पर या कभीकभी फेफड़ों अथवा मस्तिष्क के आसपास भी हो जाते हैं.

ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण

ऐंडोमैट्रिओसिस महिलाओं को उन के प्रजनन कालके दौरान प्रभावित करता है. इस के ज्यादातर मामले 25 से 35 वर्ष की महिलाओं में देखे जाते हैं. लेकिन कई बार 10-11 साल की लड़कियों में भी यह समस्या होती है. मेनोपौज की आयु पार कर चुकी महिलाओं में यह समस्या बहुत कम होती है. विश्व भर में करोड़ों महिलाएं इस से पीडि़त हैं. जिन महिलाओं को गंभीर पैल्विक पेन होता है उन में से 80% ऐंडोमैट्रिओसिस से पीडि़त होती हैं. इस के वास्तविक कारण पता नहीं हैं. हां, कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि ऐंडोमैट्रिओसिस की समस्या उन महिलाओं में अधिक है, जिन का बौडी मास इंडैक्स (बीएमआई) कम होता है. बड़ी उम्र में मां बनने वाली या कभी मां न बनने वाली महिलाओं में भी यह समस्या हो सकती है. इस के अलावा जिन महिलाओं में पीरियड्स जल्दी शुरू हो जाते हैं या मेनोपौज देर से होता है, उन में भी इस का खतरा बढ़ जाता है. इस के अलावा आनुवंशिक कारण भी इस में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

ऐंडोमैट्रिओसिस के लक्षण

ज्यादातर महिलाओं में ऐंडोमैट्रिओसिस का कोई लक्षण दिखाई नहीं देता, लेकिन जो लक्षण दिखाई देते हैं उन में पीरियड्स के समय अत्यधिक दर्द होना, पीरियड्स या अंडोत्सर्ग के समय पैल्विक पेन ऐंडोमैट्रिओसिस का एक लक्षण है. लेकिन यह सामान्य महिलाओं में भी हो सकता है. इस दर्द की तीव्रता हर महीने बदल सकती है और अलगअलग महिलाओं में अलगअलग हो सकती है.

पैल्विक क्षेत्र में दर्द होना यानी पेट के निचले भाग में दर्द होना और यह दर्द कई दिनों तक रह सकता है. इस से कमर और पेट में दर्द भी हो सकता है. यह पीरियड शुरू होने से पहले हो सकता है और कई दिनों तक चल सकता है. मल त्यागने और यूरिन पास करने के समय दर्द हो सकता है. यह समस्या अधिकतर पीरियड्स के समय अधिक होती है. पीरियड्स के समय अत्यधिक रक्तस्राव होना, कभीकभी पीरियड्स के बीच में भी रक्तस्राव होना, यौन संबंध के दौरान या बाद में दर्द होना, डायरिया, कब्ज और अत्यधिक थकान होना. छाती में दर्द या खांसी में खून आना अगर ऐंडोमैट्रिओसिस फेफड़ों में है, सिरदर्द और चक्कर आना अगर ऐंडोमैट्रिओसिस मस्तिष्क में है.

रिस्क फैक्टर

कई कारक ऐंडोमैट्रिओसिस की आशंका बढ़ा देते हैं जैसे:

  1. कभी बच्चे को जन्म न दे पाना.
  2. 1 या अधिक निकट संबंधियों (मां, मौसी, बहन) को ऐंडोमैट्रिओसिस होना.
  3. कोई और मैडिकल कंडीशन जिस के कारण शरीर से मैंस्ट्रुअल फ्लो का सामान्य मार्ग बाधित होता है.
  4. यूरिन की असामान्यता.

ऐंडोमैट्रिओसिस और इनफर्टिलिटी

जिन महिलाओं को ऐंडोमैट्रिओसिस है, उन में से 35 से 50% महिलाओं को गर्भधारण करने में समस्या होती है. इस के कारण फैलोपियन ट्यूब्स बंद हो जाती हैं, जिस से अंडाणु और शुक्राणु का निषेचन नहीं हो पाता है. कभीकभी अंडे या शुक्राणु को भी नुकसान पहुंचता है. इस से भी गर्भधारण नहीं हो पाता. जिन महिलाओं में यह समस्या गंभीर नहीं होती है. उन्हें गर्भधारण करने में अधिक समस्या नहीं होती है. डाक्टर सलाह देते हैं कि जिन महिलाओं को यह समस्या है उन्हें बच्चे को जन्म देने में देर नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्थिति समय के साथ अधिक खराब हो जाती है.

पहली बार ऐंडोमैट्रिओसिस का पता ही तब चला जब कुछ महिलाएं बांझपन का उपचार करा रही थीं. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार 25 से 50% बांझ महिलाएं ऐंडोमैट्रिओसिस की शिकार होती हैं, जबकि 30 से 50% महिलाएं, जिन्हें ऐंडोमैट्रिओसिस होता है वे बांझ होती हैं. सामान्य तौर पर संतानहीन दंपतियों में से 10% का कारण ऐंडोमैट्रिओसिस होता है. बांझपन की जांच करने के लिए किए जाने वाले लैप्रोस्कोपिक परीक्षण के समय ऐंडोमैट्रिअल इंप्लांट का पता चलता है. कई ऐसी महिलाओं में भी इस का पता चलता है, जिन्हें कोई दर्द अनुभव नहीं होता. ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण महिलाओं की प्रजनन क्षमता क्यों प्रभावित होती है, यह पूरी तरह समझ में नहीं आया है, लेकिन संभवतया ऐनाटोमिकल और हारमोनल कारणों के कारण यह समस्या होती है. संभवतया हारमोन और दूसरे पदार्थों के कारण अंडोत्सर्ग, निषेचन और गर्भाशय में भू्रण के इंप्लांट पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

ऐंडोमैट्रिओसिस और कैंसर

कुछ अध्ययनों के अनुसार जिन महिलाओं को ऐंडोमैट्रिओसिस होता है उन में अंडाशय का कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है. यह खतरा उन महिलाओं में अधिक होता है जो बांझ होती हैं या कभी मां नहीं बन पाती हैं.

अभी तक ऐंडोमैट्रिओसिस और ओवेरियन ऐपिथेलियल कैंसर के मध्य संबंधों के स्पष्ट कारण का पता नहीं है. कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि ऐंडोमैट्रिओसिस इंप्लांट ही कैंसर में बदल जाता है. यह भी मानना है कि ऐंडोमैट्रिओसिस आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारणों से भी संबंधित हो सकता है. ये महिलाओं में अंडाशय का कैंसर होने की आशंका भी बढ़ा देते हैं.

डायग्नोसिस

ऐंडोमैट्रिओसिस का पता लगाने के लिए ये टैस्ट किए जाते हैं:

  1. पैल्विक ऐग्जाम: इस में डाक्टर हाथ से पैल्विक का परीक्षण करता है कि कोई असामान्यता तो नहीं है.
  2. अल्ट्रासाउंड: इस से ऐंडोमैट्रिओसिस होने का पता तो नहीं चलता है, लेकिन उस से जुड़े सिस्ट की पहचान हो जाती है.
  3. लैप्रोस्कोपी: यह सुनिश्चित करने के लिए कि ऐंडोमैट्रिओसिस है एक छोटी सी सर्जरी की जाती है, जिसे लैप्रोस्कोपी कहते हैं. इस में ऊतकों के सैंपल भी लिए जाते हैं, जिन की बायोप्सी से पता चल जाता है कि ऐंडोमैट्रिओसिस कहां स्थित है.

उपचार

पीरियड्स के दौरान होने वाले रक्तस्राव और दर्द भरे संभोग को गंभीरता से लें. स्थिति और अधिक गंभीर होने से पहले फर्टिलिटी विशेषज्ञ से मिलें. इस के उपचार के लिए दवा और सर्जरी का उपयोग किया जाता है. हारमोन थेरैपी भी इस के उपचार के लिए उपयोग की जाती है, क्योंकि मासिकधर्म के दौरान होेने वाले हारमोन परिवर्तन के कारण भी यह समस्या हो जाती है. हारमोन थेरैपी ऐंडोमैट्रिओसिस के विकास को धीमा करती है और ऊतकों के नए इंप्लांट्स को रोकती है. ऐंडोमैट्रिओसिस के कारण होने वाले दर्द की समस्या के लिए डाक्टर सर्जिकल उपचार बेहतर मानते हैं तथा बांझपन की समस्या के लिए आईवीएफ तकनीक की सलाह दी जाती है ताकि सामान्य से अधिक नुकसान होने से पहले संतान प्राप्ति की जा सके.

Mother’s Day Special: जीवन पर हावी तो नहीं बांझपन

कुछ महिलाओं में अचानक प्रैगनैंसी जैसे लक्षण नजर आने लगते हैं जैसे माहवारी चक्र का बाधित होना, स्तनों में दूध बनना, कामेच्छा कम होना आदि. असल में इस का संबंध एक ऐसी स्थिति से होता है, जिसे हाइपरप्रोलैक्टिनेमिया कहा जाता है. इस में खून में प्रोलैक्टिन हारमोन का स्तर सामान्य से अधिक हो जाता है. ऐस्ट्रोजन के प्रोडक्शन में बड़े स्तर पर हस्तक्षेप होने से माहवारी चक्र में बदलाव आने लगता है.

प्रोलैक्टिन का मुख्य काम गर्भावस्था के दौरान स्तनों को और विकसित करने, दूध पिलाने के लिए उन्हें उभारने और दूध बनाने का होता है. वैसे किसी महिला के प्रैगनैंट न होने के दौरान भी यह हारमोन कम मात्रा में खून में घुला रहता है. लेकिन प्रैगनैंसी खासतौर से बच्चे के जन्म के बाद इस का स्तर काफी बढ़ जाता है. इस स्थिति में 75% से ज्यादा महिलाएं प्रैगनैंट न होने के बावजूद दूध उत्पन्न करने लगती हैं.

पुरुषों में भी प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने से कामवासना में कमी, नपुंसकता, लिंग में पर्याप्त तनाव न आना और स्तनों का आकार बढ़ना जैसी समस्याएं सामने आने लगती हैं. टेस्टोस्टेरौन का स्तर कम होना भी इसी स्थिति के बाद का एक परिणाम है. अगर ऐसी स्थिति में इलाज न कराया जाए, तो शुक्राणुओं की गुणवत्ता घटने लगती है और वे ज्यादा देर जीवित भी नहीं रह पाते हैं. इस के चलते उन के निर्माण में गड़बड़ी भी आने लगती है.

प्रसव या गर्भधारण करने की उम्र में महिलाओं में यह ज्यादा प्रचलित है. हालांकि इस में महिलाओं की प्रासंगिक स्थिति सामान्य ही बनी रहती है. ऐसी महिलाएं, जिन का ओवेरियन रिजर्व अच्छा हो, उन्हें भी माहवारी में अनियमितता का सामना करना पड़ सकता है और यह एक तरह से इस डिसऔर्डर के आगमन का संकेत होता है.

बांझपन का कारण

खून में प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने से प्रजनन क्षमता पर असर पड़ता है. इस में या तो पिट्यूटरी स्टाक कंप्रैस हो जाती है या फिर डोपामाइन का स्तर घट जाता है अथवा प्रोलैक्टिनोमा (पिट्यूटरी ऐडीनोमा का एक प्रकार) का जरूरत से ज्यादा प्रोडक्शन होने लगता है, जो हाइपोथैलेमस से गोनाडोट्रोपिन को रिलीज करने वाले हरमोरन (जीएनआरएच) के स्राव को रोकता है.

गोनाडोट्रोपिन को रिलीज करने वाले हरमोन (जीएनआरएच) के स्तर में कमी आने की वजह से ल्यूटीनाइजिंग हारमोन (एलएच) और फौलिकल स्टिम्युलेटिंग हारमोन (एफएसएच) के स्राव में भी कमी आने लगती है. परिणामस्वरूप बां झपन का सामना करना पड़ता है.

बांझपन की स्थिति

एक बार जब प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ जाता है, तो महिलाओं में माहवारी कम होने लगती है और खून में ऐस्ट्रोजन का स्तर घटने से अनियमितता के साथसाथ बां झपन की स्थिति भी पैदा होने लगती है. कुछ मामलों में माहवारी के प्रवाह में बदलाव इमेनोरिया के रूप में भी देखने को मिलता है, जिस में प्रजनन क्षमता वाली उम्र में भी माहवारी कम होने लगती है. कई बार तो प्रैगनैंट न होने या किसी मैडिकल हिस्ट्री की वजह से भी स्तनों में दूध बनाने लगता है और उन में दर्द भी महसूस होता है क्योंकि प्रोलैक्टिन का स्तर बढ़ने और कामेच्छा की कमी होने के साथ ही योनी में सूखापन आने से स्तनों के टिशू भी चेंज होने लगते हैं.

महिलाओं के उलट पुरुषों में माहवारी जैसा कोई भरोसेमंद लक्षण नजर नहीं आने की वजह से इस के वास्तविक कारण का पता लगाना बेहद मुश्किल होता है. उन में धीरेधीरे कामेच्छा की कमी आने, लिंग में पर्याप्त तनाव न आने, प्रजनन क्षमता में कमी आने और स्तनों का आकार बढ़ने जैसे लक्षण जरूर नजर आ सकते हैं. मगर कई बार ये कारक भी आसानी से नजर नहीं आते और उस की वजह से वास्तविक कारणों की पहचान नहीं हो पाती है.

महिलाओं में इस के संबंधित परिणाम

इस स्थिति में जैसे ही अंडाशय से ऐस्ट्रोजन का प्रोडक्शन प्रभावित होता है, बां झपन की संभावना बढ़ने के साथ ही ऐस्ट्रोजन की कमी के कारण बोन मिनरल डैंसिटी बीएमडी भी घटने लगती है और ओस्टियोपोरोसिस होने का खतरा भी बढ़ जाता है. ऐस्ट्रोजन हार्ट को बीमारियों से बचाने में भी बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इसलिए इस के स्तर में असंतुलन पैदा होने से आगे चल कर हार्ट से जुड़ी बीमारियां होने का खतरा भी पैदा हो जाता है. पिट्यूटरी ट्यूमर की वजह से प्रोलैक्टिन का जरूरत से ज्यादा प्रोडक्शन होने के कारण सिर में तेज दर्द और नजर कमजोर होने के साथसाथ अन्य हारमोंस के प्रोडक्शन में भी कमी आ जाती है, जिस के चलते हाइपरथायरोडिज्म हो सकता है, जो बां झपन के एक और कारण के रूप में सामने आता है.

कैसे करें डायग्नोज

इस कंडीशन को डाइग्नोज करने के लिए सब से पहले तो मरीज की मैडिकल हिस्ट्री देख कर यह पता लगाया जाता है कि कहीं उसे पहले से ही अस्पष्ट कारणों के चलते स्तनों से दूध का स्राव होने या स्तनों का आकार बढ़ने की समस्या तो नहीं रही है या फिर अनियमित माहवारी अथवा बां झपन की समस्या पहले से तो नहीं रहती है.

पुरुषों में यह पता लगाना जरूरी होता है कि उन की सैक्सुअल फंक्शनिंग कहीं पहले से तो खराब नहीं रही है और स्तनों से दूध का स्राव होने की समस्या कहीं पहले से तो नहीं है. अगर मैडिकल हिस्ट्री से हाइपरप्रोलैक्टिनेमिया के होने का पता चलता है, तो सब से पहले ब्लड टैस्ट के जरीए यह पता लगाया जाता है कि सीरम प्रोलैक्टिन का स्तर कितना है. इस में खाली पेट खून की जांच कराने को प्राथमिकता दी जाती है. अगर सीरम प्रोलैक्टिन का स्तर ज्यादा है, तो फिर आगे अन्य जरूरी टैस्ट करवाए जाते हैं.

आमतौर पर माहवारी न होने की स्थिति में सब से पहले प्रैगनैंसी टैस्ट कराया जाता है. इस के अलावा थायराइड हारमोन के स्तर का पता लगाने के लिए थायराइड के टैस्ट करवाए जाते हैं ताकि यह साफ हो जाए कि मरीज को हाइपरथायरोडिज्म तो नहीं है. अगर प्रोलैक्टिन का स्तर बहुत ज्यादा है, तो उस की वजह से ट्यूमर होने की आशंका भी पैदा हो जाती है. ऐसे में ब्रेन और पीयूष ग्रंथियों का एमआरआई कराने की सलाह भी दी जाती है, जिस में हाई फ्रीक्वैंसी रेडियो तरंगों के जरीए टिशू की इमेज ली जाती है और ट्यूमर के आकार का पता लगाया जाता है.

क्या इलाज संभव है

इलाज का पहला कदम उन प्रमुख कारणों का पता लगाना है, जिन के चलते यह स्थिति पैदा हुई. ये कारण शारीरिक भी हो सकते हैं. कुछ विशेष प्रकार की दवा लेने की वजह से भी ऐसा हो सकता है. इस के अलावा थायराइड या हाइपोथैलिमिक डिसऔर्डर या पिट्यूटरी ट्यूमर या फिर किसी सिस्टेमिक डिजीज की वजह से भी ऐसा हो सकता है.

एक बार जब बीमारी की वास्तविक वजह का पता चल जाता है और किसी ट्यूमर के होने की संभावना खत्म हो जाती है, तो ऐसी दवा के जरीए उपचार शुरू किया जाता है, जो शरीर में प्रोलैक्टिन के स्तर में कमी लाती है. इस से एफएसएच, एलएच और ऐस्ट्रोजन का स्तर फिर से सामान्य होने लगता है. नतीजतन प्रजनन क्षमता फिर से पहले की तरह कायम हो जाती है और माहवारी भी नियमित रूप से होने लगती है.

   -डा. तनु बत्रा

आईवीएफ ऐक्सपर्ट, इंदिरा आईवीएफ हौस्पिटल, जयपुर. 

बांझपन का इलाज है न, पढ़ें खबर

जब गर्भनिरोधक के बिना 1 वर्ष तक कोशिश करने के बाद भी स्वाभाविक रूप से कोई विवाहित जोड़ा गर्भधारण करने में अक्षम रहता है तो उसे बां झपन कहा जाता है. भारत में 10 से 15% जोड़े बां झपन से पीडि़त हैं. यह कई कारणों से हो सकता है जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, थायराइड, मोटापा, हारमोनल समस्याएं और पौलिसिस्टिक  अंडाशय सिंड्रोम पीसीओएस.

इस के अलावा गलत लाइफस्टाइल की आदतें जैसे तंबाकू, शराब और खराब भोजन का सेवन और बिना शारीरिक मेहनत के जीवन जीने के परिणामस्वरूप होता है. यहां यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि बां झपन के कुल मामलों में एकतिहाई मामलों को महिला साथी, एकतिहाई मामलों में पुरुष साथी और बाकी मामलों में दोनों साथी इस में बराबर के भागीदार होते हैं. इसलिए यह सम झना आवश्यक है कि बां झपन सिर्फ एक महिला से जुड़ा मुद्दा नहीं है जैसाकि समाज अभी भी सोचता है.

अकसर देखा गया है कि पुरुष साथी में कई समस्याएं जैसे इरैक्टाइल डिस्फंक्शन यानी नपुंसकता और एजोस्पर्मिया यानी शुक्राणुओं की अनुपस्थिति होती है जिस से बां झपन की स्थिति आ जाती है. कुछ जोड़े समस्या की गहराई में पहुंचे बिना बच्चे पैदा करने की कोशिश करते रहते हैं. उन में से कई बाबाओं से भी संपर्क करते हैं और उन के समाधान के लिए  झाड़फूंक का सहारा लेते हैं.

सर्वोत्तम समाधान का विकल्प

बां झपन एक मैडिकल समस्या है और इसे दूर करने के लिए चिकित्सकीय समाधान की आवश्यकता होती है. दुनिया में 25 जुलाई, 1978 को पहला ‘टैस्ट ट्यूब बेबी,’ लुईस ब्राउन, पैदा हुई थी. लुईस का जन्म इनविट्रो फर्टिलाइजेशन या आईवीएफ प्रक्रिया से हुआ था. ‘इनविट्रो’ शब्द का अर्थ ‘किसी के शरीर के बाहर’ है और फर्टिलाइजेशन या निषेचन वह प्रक्रिया है जहां मादा का अंडा और पुरुष के शुक्राणु को जीवन बनाने के लिए एकसाथ फ्यूज किया जाता है. इस प्रकार अंडा और शुक्राणु शरीर के बाहर महिला के गर्भाशय के बजाय एक लैब में मिलते हैं और इसे बाद में गर्भाशय में डाल दिया जाता है.

यहीं से असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलौजी यानी एआरटी का भी जन्म हुआ. आईवीएफ, एआरटी की कई विधियों में से सिर्फ एक प्रक्रिया है. पिछले 44 वर्षों में दुनिया तकनीकी रूप से काफी आगे निकल चुकी है जिस से कई और एआरटी विकल्प उपलब्ध हुए हैं जिन में इंट्रासाइटोप्लाज्मिक स्पर्म इंजैक्शन (आईसीएसआई) और इंट्रायुटराइन इनसेमिनेशन (आईयूआई) शामिल हैं.

आइए इन चिकित्सा समाधानों को सम झते हैं ताकि विवाहित लोग अपनी बां झपन की समस्याओं के सर्वोत्तम समाधान का विकल्प चुन सकें.

जब एक दंपती 1 वर्ष से अधिक समय से स्वाभाविक रूप से बच्चा पैदा करने में असमर्थ रहें तो सर्वप्रथम उन्हें एक बां झपन विशेषज्ञ से परामर्श करना चाहिए. हालांकि यहां यह ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि कुछ जोड़े अपने जीवन में अपनी इच्छा से बाद में गर्भधारण करना चाहते हैं, इसलिए 1 वर्ष की अवधि सभी जोड़ों के लिए लागू नहीं होती है. इस काउंसलिंग के दौरान दंपती से मैडिकल इतिहास पर चर्चा की जाती है. यहां यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि बां झपन उपचार 100% सफलता की गारंटी नहीं देता है, इसलिए जोड़ों को इस प्रक्रिया के किसी भी जोखिम और दुष्प्रभावों को पहले ही जानना चाहिए.

ब्लड टैस्ट अल्ट्रासाउंड

इस के बाद विवाहित दंपती की समस्या की जड़ को सम झने के लिए रक्त परीक्षण (ब्लड टैस्ट) और स्कैन किए जाते हैं ताकि मधुमेह, उच्च रक्तचाप या थायराइड जैसी किसी भी पूर्व मौजूदा स्थिति को सम झा जा सके. हारमोन के स्तर और अल्ट्रासाउंड की जांच के लिए ब्लड टैस्ट भी किया जाता है ताकि यह जांचा जा सके कि महिला के गर्भाशय और अंडाशय में पीसीओएस, फाइब्रौएड्स या ऐंडोमिट्रिओसिस जैसी कोई वृद्धि है या नहीं. इस से यह पता लगाने में भी मदद मिलती है कि क्या महिला के अंडाशय में अंडे हैं जिन का उपयोग इलाज के लिए किया जा सकता है?

वीर्य विश्लेषण

वीर्य तरल पदार्थ है जिस में शुक्राणु होते हैं. शुक्राणुओं की संख्या, उन के आकार और उन की गति की जांच के लिए पुरुष साथी के वीर्य का विश्लेषण किया जाता है क्योंकि ये तीनों एक जोड़े की प्रजनन क्षमता के लिए आवश्यक हैं.

फौलोअप कंसल्टेशन

इन परीक्षणों के परिणाम घोषित होने के बाद विशेषज्ञ के साथ एक फौलोअप कंसल्टेशन फिक्स की जाती है. इस में निष्कर्षों पर चर्चा की जाती है जिस के बाद उपचार पर चर्चा होती है. इस में एक सामान्य चिकित्सक या ऐंडोक्राइनोलौजिस्ट के साथ फौलोअप शामिल हो सकती है जिस में किसी भी मौजूदा बीमारी के लिए दवा शुरू करने के लिए जो प्रजनन में बाधा उत्पन्न कर रही है पर चर्चा की जाती है.

ऐसा इसलिए है क्योंकि कई मामलों में अन्य बीमारियों के ठीक होने से दंपती जोड़े स्वाभाविक रूप से ही गर्भधारण कर लेते हैं. अन्यथा रोगियों के साथ एआरटी उपचार योजना पर चर्चा की जाती है, उन की सहमति ली जाती है और फिर उपचार शुरू होता है. कुछ मामलों में रोगियों को अधिक परीक्षण कराने के लिए भी कहा जा सकता है.

अंडाशय औषधि प्रयोग

इलाज के अंतर्गत महिला साथी को हारमोनल इंजैक्शन लेने की आवश्यकता होती है. एक सामान्य मासिकधर्म चक्र में हर महीने एक निश्चित संख्या में अंडा निकलता है. चूंकि एआरटी प्रक्रिया के लिए अधिक अंडों की उपलब्धता की आवश्यकता होती है, इसलिए हारमोनल इंजैक्शन द्वारा औषधि का प्रयोग यह सुनिश्चित करता है कि कई अंडे विकसित हों. महिला साथी को नियमित रूप से रक्त परीक्षण और अल्ट्रासाउंड की मदद से देखा जाता है कि दवाओं ने उसे कैसे प्रभावित किया है. फिर एक ट्रिगर इंजैक्शन दिया जाता है ताकि अंडे परिपक्व हो जाएं.

अंडा संग्रह/डिंब पिक और वीर्य संग्रह

अंडा संग्रह के दौरान मादा को ऐनेस्थीसिया के तहत रखा जाता है. अंडे की कल्पना करने के लिए योनि के माध्यम से एक अल्ट्रासाउंड छड़ी डाली जाती है जिस के बाद उन्हें सूई के साथ एकत्र किया जाता है. उसी दिन पुरुष साथी अपने वीर्य का नमूना प्रदान करता है. इस के बाद उन की गुणवत्ता की जांच की जाती है और अगले चरण के लिए केवल सर्वश्रेष्ठ वीर्य का ही उपयोग होता है.

फर्टिलाइजेशन और भू्रण स्थानांतरण

आईवीएफ और आईसीएसआई में फर्टिलाइजेशन की प्रक्रिया अलगअलग होती है. आईवीएफ में कई अंडों और शुक्राणुओं को फर्टिलाइजेशन के लिए एक इनक्यूबेटर में रखा जाता है.

आईसीएसआई में एक अच्छे शुक्राणु को अंडे में डाला जाता है. किसी भी प्रक्रिया में इस प्रकार बनने वाले भू्रण को 5-6 दिन यानी तब तक विकसित होने दिया जाता है जब तक कि वे ब्लास्टोसिस्ट नामक चरण तक नहीं पहुंच जाते. इन ब्लास्टोसिस्ट्स को प्रीइंप्लांटेशन जेनेटिक टैस्टिंग (पीजीटी) का उपयोग कर के उन के आनुवंशिक मेकअप के लिए जांचा जाता है जो किसी भी आनुवंशिक रूप से असामान्य ब्लास्टोसिस्ट को हटाने में मदद करता है.

ऐसा ही एक ब्लास्टोसिस्ट भू्रण स्थानांतरण नामक प्रक्रिया की मदद से गर्भाशय में स्थानांतरित किया जाता है. यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि एकसाथ कई भू्रण स्थानांतरित न हों वरना वे गर्भावस्था की जटिलताओं का कारण बन सकते हैं.

गर्भावस्था परीक्षण

स्थानांतरण के 12 दिनों के बाद गर्भावस्था परीक्षण किया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि इस के परिणामस्वरूप गर्भावस्था हुई है या नहीं.

इंट्रायूटराइन इनसेमिनेशन (आईयूआई) आईवीएफ और आईसीएसआई के लिए आईयूआई चरण सही है. हालांकि आईयूआई के लिए प्रक्रिया थोड़ी अलग है. अंतर्गर्भाशयी गर्भाधान वह प्रक्रिया है जिस में अंडे को निषेचित करने के लिए सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले शुक्राणुओं को गर्भाशय में इंजैक्ट किया जाता है. यहां उद्देश्य शुक्राणुओं को जितना हो सके अंडे के करीब लाना है. यह आईवीएफ और आईसीएसआई से अलग है क्योंकि अंडाणु और शुक्राणु दोनों को बाहरी वातावरण में संभाला जाता है.

आईयूआई आमतौर पर तब किया जाता है जब महिला साथी को ऐंडोमिट्रिओसिस, ग्रीवा संबंधी समस्याएं होती हैं, पुरुष बां झपन का अनुभव करता है या युगल अस्पष्टीकृत बां झपन का अनुभव करता है. यहां वीर्य का नमूना लिया जाता है जिसे सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले शुक्राणुओं का चयन करने और मलबे और वीर्य द्रव को हटाने के लिए धोया जाता है.

ओव्यूलेशन का समय (जब हर महीने महिला के अंडाशय से अंडा निकलता है) अल्ट्रासाउंड और रक्त परीक्षण की मदद से महिला साथी की बारीकी से निगरानी की जाती है. कुछ मामलों में रोगी प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने के लिए प्रजनन क्षमता की दवा भी ले सकता है. स्थानांतरण के 12 दिनों के बाद एक गर्भावस्था परीक्षण लिया जाता है ताकि यह देखा जा सके कि इस के परिणामस्वरूप गर्भावस्था हुई है या नहीं.

सैल्फ साइकिल एवं डोनर साइकिल

जब एआरटी प्रक्रिया महिला और पुरुष भागीदारों के अंडों और शुक्राणुओं की मदद से की जाती है तो इसे सैल्फ साइकिल कहा जाता है. कुछ जोड़ों में या तो एक या दोनों फिर साथी पर्याप्त शुक्राणु या अंडे का उत्पादन नहीं कर सकते हैं. ऐसे मामलों में डोनर की आवश्यकता होती है.

यहां या तो अंडे या शुक्राणु या फिर दोनों ही डोनर से लिए जाते हैं, जैसा भी मामला हो, उस के अनुसार प्रक्रिया की जाती है. यह एक डोनर साइकिल है. इन विकल्पों पर बां झपन विशेषज्ञ द्वारा चर्चा की जाती है और इलाज शुरू करने से पहले रोगियों की सहमति ली जाती है.

-डा. क्षितिज मुर्डिया

सीईओ और सह संस्थापक, इंदिरा आईवीएफ.

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