लकीरें- सुमित का नजरिया

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आजाद हूं मैं, आजाद हैं मेरे ख्वाब, खुश रहने में कोई खराबी तो नहीं, जिंदगी जीने का कोई तयशुदा मार्ग तो नहीं.

कैसा लगता है आप को जब रातदिन मेहनत कर के भी कुछ न कर पाओ. मैं किसी के साथ अपनी तुलना नहीं करता पर यह समाज, क्या यह भी ऐसा ही सोचता है? महिला की मरजी होती है कि वह विवाह के बाद नौकरी करे या नहीं. मुझे भी शिखा के घर पर रहने से कोई समस्या नहीं है, पर जब मेरा व्यापार नुकसान में चल रहा है तो क्या एक पत्नी की तरह उस का कोई फर्ज नहीं बनता कि वह भी घर खर्च में हाथ बंटाए?

मेरे घर वाले मुझ से ज्यादा शिखा को प्यार करते हैं. किसी ने मेरे से बिना बात करे मुझे मुजरिम करार कर दिया और मैं सुमित अपने परिवार को ले कर रोहतक से फरीदाबाद आ गया जैसेकि जगह बदलने से सब कुछ बदल जाएगा.

आप ने कभी सुना है कि कोई रिश्ता जगह या शहर बदलने से बदल गया हो?

रिश्ते की बुनियाद तो विश्वास पर टिकी होती है, पर शिखा के दिल में तो एक बात घर कर गई है कि मैं कभी भी कुछ ठीक नहीं कर सकता. कैसा लगता है आप को जब आप की पत्नी ही आप को नाकामयाब माने. भले ही वह मुंह से कुछ न बोले पर उस की आंखों में छिपा डर सब बयां कर दे?

यह डर किसी भी पुरुष को तोड़ने के लिए काफी होता है कि उस की जीवनसंगिनी ही उस को नाकामयाब मानती है. मैं तो जिंदगी की सब से बड़ी बाजी वैसे ही हार गया हूं फिर क्या फर्क पड़ता है यदि मैं व्यापार में हर चाल गलत चल रहा हूं?

जिंदगी की घनी धूप में अगर भावना एक ठंडे साए की तरह मेरे करीब आई तो इस में क्या गलत है? मैं कोई अपनी जिम्मेदारियों से भाग तो नहीं रहा. भावना मेरे साथ बिना किसी स्वार्थ के निहित है. वह मुझे जानती ही नहीं समझती भी है. उस के अलावा सब मुझे गलत समझते हैं तो समझते रहें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. शिखा को यह बात क्यों समझ नहीं आती कि मेरे और उस के बीच की दूरियों का कारण भावना नहीं, वह खुद है?

पहले ऐसा नहीं था पर उस के परिवार ने मेरे प्रति उस के दिल में इतनी नकारात्मकता भर दी है कि मैं अगर सही भी करूं तो उसे गलत ही लगेगा. उसे कैसे यकीन दिलाऊं कि मैं पुरुष होने के साथसाथ एक इंसान भी हूं, मेरे सीने में भी दिल धड़कता है, मुझे भी बुरा लग सकता है.

कल की ही बात है मैं अपना आपा खो बैठा. शिखा ने मेरे हाथ से मोबाइल छीन लिया और भावना को बुराभला कहा. क्या सोच रही होगी भावना मेरे और शिखा के बारे में.

लकीर कोई और खींचता है और फिर मैं जीतोड़ कोशिश करता हूं उस लकीर को छोटा करने की. पर अब तो इस खेल को खेलते हुए मैं थक गया हूं, बाहर आना चाहता हूं पर आ नहीं पा रहा.

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शिखा को इतना ऐशोआराम चाहिए तो खुद भी कोशिश करे न, जिंदगी की चक्की में मैं ही क्यों अकेला पिसूं? आज उस से ऐसे बात करते हुए अच्छा तो नहीं लगा पर क्या करूं, मेरे सब्र का बांध टूट गया था.

कुछ दिनों तक मेरे और उस के बीच अबोला बना रहेगा पर फर्क किसे पड़ता है?

शायद अन्वी को, पर वह भी तो अपनी मां की ही बेटी है. अगर मैं इतना गलत हूं तो भावना ने क्यों कभी मुझे इस बात का एहसास नहीं कराया है?

शिखा पिछले कुछ दिनों से नौकरी की तलाश कर रही है पर शादी के बाद 4 साल का फासला एक लंबी खाई की तरह बढ़ गया है. उसे समझ नहीं आ रहा कि कैसे शुरुआत करे, कहां चूक हो गई है उस से?

पर यह बात तो तय है कि एक परजीवी की तरह अब वह जीवनयापन नहीं कर सकती.

आज सुमित का परिवार आया था और आते ही मम्मीजी ने शिखा को अंक में भर लिया और सुमित से बोलीं, ‘‘बहू का ध्यान नहीं रखता क्या, कैसे सूख कर कांटा हो गई है.’’

सुमित की आंखों में गुस्से और नफरत की मिलीजुली प्रतिक्रिया थी जो शिखा से छिपी न रह सकी.

शिखा मन ही मन मनन करती है कि यह सुमित के परिवार का प्यार और अपनापन ही है जो मुझे बांधे हुए है और मैं चाह कर भी यह विवाह की लकीरपार नहीं कर पा रही हूं. सच तो यह है कि इस विवाह से अगर मुझे कुछ मिला है तो बस मां बनने का गौरव और एक प्यारा सा परिवार. शायद यह रिश्ता यों ही चलता रहेगा, क्योंकि जरूरी नहीं हर रिश्ते से आप को सब कुछ मिले.

उधर भावना सोच रही थी कि गौरव से पूछूं, ‘‘क्यों तुम ऐसे हो गए हो? क्या तुम्हें मेरे ऊपर बिलकुल भी विश्वास नहीं रहा?’’

मैं सुमित के साथ किसी रिश्ते में नहीं बंधी हूं. एक बार प्यार से पुकारो तो सही, मैं अपनी मर्यादा भलीभांति जानती हूं पर तुम मुझे यदि अग्निपरीक्षा देने को कहोगे तो बिलकुल नहीं दूंगी. मर्यादा की लकीर तुम नहीं, मैं खुद तय करूंगी.

मेरा और सुमित का रिश्ता पाक है. अगर तुम्हें समझ नहीं आता तो इस में तुम्हारी गलती है. मैं एक पढ़ीलिखी स्वतंत्र महिला हूं जो मर्यादाओं की लकीरों के नाम पर अपनी खुशियों का गला नहीं घोंटूंगी.

पर गौरव की अलग ही सोच थी. बहुत बार सोचा तुम से खुल कर बात करूं, क्यों एक खुशहाल रिश्ते पर सुमित रूपी ग्रहण लगाया जाए. तुम्हारा नारीमुक्ति का आंदोलन, तुम्हारा अभिमान मुझे तुम्हारे करीब नहीं आने दे रहा. अगर बच्चों का खयाल न होता तो मैं बहुत पहले तुम्हें आजाद कर चुका होता.

एक टूटा हुआ परिवार आप को कितनी पीड़ा देता है यह मुझ से बेहतर कौन जानता है. मेरी मां भी तो प्यार के नाम पर मुझे मेरे पिता के पास हमेशा के लिए छोड़ कर चली गई थी. क्या प्यार बस स्वार्थ ही सिखाता है? यदि हां, तो वह प्यार नहीं एक नशा है जो धीरेधीरे मीठे जहर की तरह परिवार को खा जाता है.

सुमित को पूरा विश्वास था कि शिखा ने फिर से उस की चुगली कर दी है. सुमित सोच रहा था मैं इतना ही बुरा हूं तो अलग क्यों नहीं हो जाती. पर नहीं उसे तो बेचारी का तमगा लगा कर घूमने में बहुत मजा आता है. नौकरी ढूंढ़ रही है तो मेरे ऊपर कोई एहसान तो नहीं कर रही. मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं उसे और अन्वी को सारी सुविधाएं देने की. अगर उसे सब्र नहीं है तो करे न खुद भी कोशिश.

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ऐसा करतेकरते कुछ साल और बीत गए पर इन लकीरों का खेल अभी भी जारी है इन की जिंदगियों में. कभीकभी जब लगता है ये लकीरें सीधी हो गई हैं तो फिर किसी एक छोटी सी बात से उलझ जाती हैं. क्यों उलझे हुए हैं हम सब इन उलझनों में, क्यों न अपने अहम को पीछे छोड़ कर दिल की खिड़की खोल कर एकदूसरे को दिखाएं? बहुत सारे हालात और जज्बात यों ही सुलझ जाएं तो चारों तरफ खुशियों की बरसात हो जाए.

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