लौटते हुए: क्यों बिछड़े थे दो प्रेमी

राइटर- अंजुला श्रीवास्तव

रेल पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी, सबकुछ पीछे छोड़ते हुए, तेज बहुत तेज. अचानक ही उस की स्पीड धीरेधीरे कम होने लगी. कोई छोटा सा स्टेशन था. रेल वहीं रुक गई. भीड़ का एक रेला सा मेरे डब्बे में चढ़ आया. मु झे हंसी आने को हुई यह सोच कर कि इन यात्रियों का बस चले तो शायद एकदूसरे के सिर पर पैर रख कर भी चढ़ जाएं.

अचानक एक चेहरे को देख कर मैं चौंकी. वह अरुण था. वह भी दूसरे यात्रियों के साथ ऊपर चढ़ आया था. उसे देखते ही दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में भी मुझे पसीना आ गया. शायद उस ने मुझे अभी नहीं देखा था, यह सोच कर मैं ने राहत की सांस ली ही थी कि अचानक वह पलटा. डब्बे में सरसरी दृष्टि फिराते हुए जैसे ही उस की नजर मुझ पर पड़ी, वह चौंक कर बोला, ‘‘रेखा, तुम?’’

मैं अपनेआप को संयत करने की कोशिश करने लगी. इस तरह कभी अरुण से मिलना होगा, इस की तो मैं ने कल्पना भी नहीं की थी. मुझे लगने लगा, दुनिया बहुत छोटी है जहां बिछड़े हुए साथी कहीं न कहीं आपस में मिल ही जाते हैं.

अरुण भी खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था. बोला, ‘‘सौरी, मैं ने आप को देखा नहीं था, वरना मैं इस डब्बे में न चढ़ता. खैर, अगला स्टेशन आने पर मैं डब्बा बदल लूंगा.’’

उस के मुंह से अपने लिए ‘आप’ सुनते ही मु झे एक धक्का सा लगा. मैं सोचने लगी, ‘घटनाएं आदमी को कितना बदल देती हैं. समय की धारा में संबंध, रिश्तेनाते, यहां तक कि संबोधन भी बदल जाते हैं. कल तक मैं अरुण के लिए ‘तुम’ थी और आज?’ मेरे मुंह से एक सर्द आह निकलतेनिकलते  रह गई.

‘‘यह रेल मेरी बपौती नहीं है,’’ मैं ने स्वर को यथासंभव सहज बनाते हुए कहा. लेकिन अपने हावभाव को छिपाने में मैं असमर्थ रही.

अरुण के साथ ही डब्बे में 2-4 बदमाश टाइप के लड़के भी चढ़ आए थे. पहले उन की तरफ मेरा ध्यान नहीं गया था. अरुण को देखते ही मैं अपने होश खो बैठी थी. लाल कमीज पहने एक युवक मु झ से सट कर बैठ गया. अरुण ने भी उसे देखा था, लेकिन उस ने फौरन ही मेरी तरफ से मुंह फेर लिया था. शायद उसे उस युवक का मेरे साथ इस तरह सट कर बैठना बरदाश्त नहीं हुआ था.

लेकिन मैं चाहती थी कि अरुण मेरी तरफ देखे. उस ने अखबार के पीछे अपना चेहरा छिपा लिया था. लेकिन मैं जानती थी कि वह अखबार नहीं पढ़ रहा होगा, चोर नजरों से मुझे ही देख रहा होगा. 2 साल अरुण के साथ रही हूं, सबकुछ भूल कर, सिर्फ उसी की बन कर. शायद अरुण अपनी आदत भूल चुका हो, मुझे किसी और के साथ बात करते देखते ही उसे गुस्सा आ जाता था. जिद्दी बच्चे जैसा ही तो व्यवहार रहा है उस का. जो आदत उस की 26 साल में बनी थी वह 2 साल में

अपने को संभाल मैं कैब का इंतजार करने लगी. अचानक अरुण मेरे पास आया और बोला, ‘‘सुनिए, मैं यहां के बारे में कुछ नहीं जानता. आप को अगर कोई परेशानी न हो तो मु झे यहां के किसी होटल तक पहुंचा दीजिए.’’

मैं देख रही थी कि अरुण यह सबकुछ कहते हुए हिचकिचा रहा था. पहले की तरह उस के स्वर में न अपनापन था, न बेफिक्री.

मैं उस के साथ ही कैब में बैठ गई. फिर मैं सोचने लगी कि अरुण को मैं अपने घर ले चलूं तो शायद उसे दोबारा पा सकूं. लेकिन… लेकिन अगर अरुण ने मना कर दिया तो इस ‘तो’ ने सारी बात पर फुलस्टौप लगा दिया.

लेकिन न जाने कैसे मेरी दबी इच्छा बाहर निकल ही आई. मैं कह बैठी, ‘‘आप को परेशानी न हो तो मेरे घर पर रुक जाइए.’’

‘‘तुम्हारे घर,’’ अरुण ने आश्चर्यचकित हो कर कहा. उस की स्वीकृति पा कर मैं ने कैब वाले को अपने घर की तरफ चलने  का इशारा किया. मेरे दिल से एक बो झ सा उतर गया. 15 मिनट में ही कैब मेरे घर तक पहुंच गई. अपने कमरे की अस्तव्यस्त हालत के कारण मु झे अरुण के सामने शर्म आने लगी. अरुण कमरे का निरीक्षण कर रहा था, बोला, ‘‘कमरा तो तुम्हें अच्छा मिल गया है.’’

‘‘हां, 5,000 रुपए किराया है इस का. इस से कम में तो मिल ही नहीं सकता,’’ मैं कह गई.

तरोताजा होने के लिए अरुण बाथरूम में चला गया. इतनी देर में मैं ने सब चीजें करीने से लगा दीं. नाश्ते का इंतजाम भी कर लिया. अरुण को क्याक्या पसंद है, यह सब मु झे अभी तक याद था. उसे नाश्ता करा कर मैं भी नहाने चली गई.

‘‘क्या खाइएगा?’’ बहुत दिनों बाद मैं ने किसी से पूछा था. अरुण अपने सामने 4 साल पहले वाली रेखा को देख कर चौंक गया था. वह रेखा भी तो उस से सबकुछ पूछ कर बनाती थी.

‘‘जो रोज बनाती हो,’’ अरुण ने कहा. फिर मेरे जी में आया कि कह दूं, ‘अरुण, रोज मैं खाना बनाती ही कहां हूं. औरत सिर्फ अपना पेट भरने के लिए खाना नहीं बनाती. उस की कला तो दूसरों को तृप्त करने के लिए होती है. जब कोई खाने वाला ही नहीं तो मैं खाना किस के लिए बनाती?’

लेकिन मैं कुछ भी न कह पाई. चुपचाप मैं ने अरुण की पसंद की चीजें बना लीं. लेकिन हम दोनों में से कोई भी एक कौर भी आराम से नहीं खा पाया. हर कौर के साथ कुछ न कुछ घुटता जा रहा था.

रात हो चुकी थी. अरुण भी इधरउधर टहल कर लौट आया था.

‘‘मैं ने आप का बिस्तर लगा दिया है. बगल में मेरी सहेली रहती है. मैं वहां सो जाऊंगी,’’ मैं ने कहा तो अरुण आहत हो कर बोला, ‘‘रेखा, आदमी को कुछ तो विश्वास करना ही चाहिए. मैं इतना नीच तो नहीं हूं.’’

इस से आगे सुनने की मेरी हिम्मत नहीं थी. मैं ने वहीं बिस्तर लगा लिया. सारी रात जागते हुए ही बीती. अरुण भी जागता रहा और हम दोनों ही एकदूसरे की नजर बचा कर एकदूसरे को देखते रहे.

रोज की तरह सूरज निकल आया था अपनी अंजलि में ढेर सारी आस्थाएं लिए, विश्वास लिए. मैं ने सोचा, ‘मेरा रोज का काला सूरज आज क्या मेरे लिए भी नई आशाएं ले कर आया है?’

मैं ने जल्दीजल्दी खाना बनाया औफिस जो जाना था. अरुण चुपचाप लेटा हुआ था. न जाने वह क्या सोच रहा था.

मैं ने तैयार हो कर चाबी उसे पकड़ाते हुए कहा, ‘‘खाना बना हुआ है, खा लेना.’’

‘‘औफिस से जल्दी आ सको, तो अच्छा है,’’ अरुण ने कहा तो मेरी इच्छा हुई कि काश, अरुण यही कह देता, ‘रेखा, आज तुम औफिस मत जाओ.’

लेकिन मैं जानती थी, अरुण ऐसा नहीं कह पाएगा. उस समय भी तो वह ऐसा नहीं कह पाया था जब मैं हमेशाहमेशा के लिए उस का घर छोड़ रही थी. तब आज कैसे कह सकता था जबकि मैं वापस लौटने के लिए ही जा रही थी.

औफिस में भी अरुण को नहीं भूल पाई. कितना परेशान हो रहा होगा वह. शायद पहचान का नया सिरा ढूंढ़ने की कोशिश में हो. इसी उधेड़बुन में मैं जल्दी ही घर लौट आई.

मैं खाने के लिए मेज साफ करने लगी. अरुण का बैलेट वहीं रखा था. उसे हटा कर मेज साफ करने की सोच जैसे ही मैं ने बैलेट हटाया, उस में से एक फोटो नीचे गिर पड़ी.

एकाएक मैं चौंक पड़ी. किसी बच्चे का फोटो था. सहसा मु झे एक धक्का सा लगा. मैं नीचे, बहुत नीचे गिरती जा रही हूं और अरुण लगातार ऊपर चढ़ता जा रहा है. अब मैं अरुण को कभी नहीं पा सकूंगी. पहले एक छोटी सी आशा थी कि शायद उसे दोबारा कभी पा लूंगी. लेकिन आज उस आशा ने भी दम तोड़ दिया था. अरुण का बच्चा है, तो पत्नी भी होगी. जो बात पिछले 24 घंटों में मैं अरुण से नहीं पूछ पाई थी, उस का उत्तर अपनेआप ही सामने आ गया था. अरुण के पास सबकुछ था. पत्नी, बेटा, लेकिन मेरे पास…

‘‘बहुत प्यारा बच्चा लग रहा है. क्या नाम है इस का?’’ मैं ने किसी तरह पूछा.

‘‘अंशुक,’’ कहते हुए अरुण के चेहरे पर अपराधबोध उतर आया था.

मेरे गले में फिर से कुछ अटकने लगा था. अरुण का भी शायद यही हाल था. कभी हम दोनों ने यही नाम अपने बच्चे के लिए सोचा था. आज अंशुक अरुण का पुत्र है, लेकिन मेरा पुत्र क्यों नहीं है? अंशुक मेरा पुत्र भी तो हो सकता था.

मैं मन ही मन कुलबुलाने लगी, ‘अरुण, क्या तुम ने हमारे उस घर में लिपटी धूल को पोंछने के साथसाथ मु झे भी पोंछ डाला है? क्या तुम मु झे अपने दिल से निकाल सके हो? तुम ने अपने पुत्र का नाम अंशुक क्यों रखा?’

मैं ढेरों सवाल पूछना चाहती थी, लेकिन कुछ भी पूछने की मेरी हिम्मत एक बार फिर जवाब दे गई. अब तो शायद मेरी जिंदा रहने की ताकत भी खत्म हो जाएगी. अभी तक  झूठी ही सही, लेकिन फिर भी आशा तो थी ही पीछे लौटने की. लेकिन अब तो सब दरवाजे बंद हो चुके हैं और आगे भी रास्ता बंद दिखाई दे रहा है. अब मैं कहां जाऊंगी? हार… हार… इस हार ने तो मु झे अंदर तक तोड़ डाला है.

फिर भी मैं शीघ्र ही संभल गई. इन  4 सालों के एकाकीपन ने मु झे इतना तो सिखा ही दिया था कि परिस्थितियों के अनुसार अपने को किस तरह काबू में रखना चाहिए.

‘‘कहां चलना है?’’ मैं  सहज हो कर तैयार हो गई थी. अब तक मैं सम झ चुकी थी कि अरुण अब मेरा केवल परिचित मात्र रह गया है. लेकिन फिर भी मैं ने लाल बौर्डर वाली पीली साड़ी पहनी थी. अरुण अपनी पसंद की साड़ी में मु झे देखता ही रह गया था. मैं ने फिर मन ही मन कहा, ‘क्या देख रहे हो, अरुण? मैं वही रेखा हूं. कुछ भी, कहीं भी नहीं बदला है. फिर, किस वजह से हम एकदूसरे से इतनी दूर हो गए हैं?’

मैं ने सिर  झटक दिया. सीढि़यां उतरते ही हम भीड़भरी सड़क का एक अंग बन गए.

उस दिन मैं थक कर चूर हो गई थी. पर मेरी आंखों में नींद कहां थी. अरुण भी पिछला कुछ नहीं भूला था. वह लगातार सिगरेट पीता रहा. फिर अचानक बोला, ‘‘रेखा, वैसे तो अब तुम पर मेरा कोई हक नहीं लेकिन तब भी कह रहा हूं, इतनी दूर अकेली मत रहो. लौट आओ, वापस लखनऊ. नौकरी करना इतना जरूरी तो नहीं?’’

मेरे गले में कुछ अटकने लगा. अरुण को औरतों का नौकरी करना कभी पसंद नहीं आया. मैं ने फिर कहना चाहा, ‘अरुण, नौकरी करना उन के लिए जरूरी नहीं जिन के पास सबकुछ हो, मेरे पास तो कुछ भी नहीं. फिर पिछला सब भुलाने के लिए ही तो मैं इतनी दूर आई हूं. वरना नौकरी तो मु झे वहां भी मिल जाती. लखनऊ वापस लौट कर मैं क्या जिंदा भी रह पाऊंगी? जब अतीत बुरे सपने की तरह पीछा करेगा तो उस से मैं कैसे बचूंगी? कहांकहां भागूंगी? किसकिस से बचूंगी? नहीं अरुण, मु झे वापस लौटने को मत कहो. मु झे  झूठी मृगतृष्णा में मत फंसाओ. जानते हो, रेतीली चट्टानों के पीछे भागने वाले को प्यासा ही भटकना पड़ता है.’

मेरी आह निकल गई. मैं ने कोई उत्तर नहीं दिया.

अपनी पीड़ा को मैं किस से कहती? जिसे मैं ने तनमन से पागलपन की हद तक प्यार किया था उसी ने मु झे गलत सम झा था. मु झ पर अविश्वास किया था. इसी वजह से मेरा दबा आत्मसम्मान सिर उठा चुका था और फिर मैं ने कठोर फैसला कर ही लिया था. तब मैं अरुण से यह कह कर चली आई थी, ‘अरुण, अविश्वास करना तुम्हारी आदत में शामिल हो चुका है. इसलिए तुम मेरी किसी बात पर अब विश्वास नहीं कर पाओगे. मैं जा रही हूं.

यकीन मानो, अब कभी मैं तुम्हारे दरवाजे पर लौट कर नहीं आऊंगी.’

मु झे याद आया, अरुण उस वक्त अचकचा रहा था. लेकिन कुछ कह नहीं पाया था और तब मेरा सबकुछ लखनऊ में ही छूट गया था. फिर कोलकाता ने ही मु झे नई जिंदगी दी थी.

‘‘राकेश कहां है आजकल?’’ अचानक मेरे मुंह से निकल गया.

अरुण ने कंधे सीधे कर सिगरेट  ली. मैं ने महसूस किया, वह कुछ ज्यादा ही सिगरेट पीने लगा है. मुंह से धुआं निकालते हुए उस ने कहा, ‘‘अमेरिका में है. वहीं उस ने किसी बंगाली लड़की से शादी कर ली है.’’

मु झे चक्कर सा आने लगा. यानी, सब आगे बढ़ गए हैं. राकेश अमेरिका में है अपनी पत्नी के पास. मु झ पर अविश्वास करने वाला मेरा पति भी अपनी पत्नी और बच्चों के साथ है. तो क्या मैं ही अभिशप्त हूं? क्या मेरा कारावास कभी खत्म नहीं होगा?

अपने लिए निर्णय पर अब मु झे पछतावा होने लगा.  झूठे आत्मसम्मान के चक्कर में मु झे क्या मिला? अतीत के चंद सुखद पन्ने और अंधकारमय एकाकी भविष्य ही न, जहां भटक जाने पर भी अब मु झे कोई पुकारने वाला नहीं. अभी तक कभी रोई नहीं थी. फिर इस वक्त ही क्यों मु झे पछतावा हो रहा है? तब मैं खुद ही तो उन सारे दरवाजों को बंद कर आई थी हमेशाहमेशा के लिए.

एक सवाल ने मेरे मन में हलचल मचा दी थी. अरुण से उस समय नहीं पूछ पाई थी, सोचा था, अरुण खुद पूछेगा और मैं  झूठा आत्मसम्मान छोड़ कर उस के पास वापस चली जाऊंगी. लेकिन उस का भी तो आत्मसम्मान बाधक बना हुआ था. इसीलिए तो मेरे इस सवाल का जवाब मु झे नहीं मिल पाया था,  ‘अरुण, तुम ने मु झ पर अविश्वास क्यों किया? मैं ने तो तुम्हें हमेशा ही चाहा. एक ही छत के नीचे, एक ही बिस्तर पर लेटे हम क्या एकदूसरे से इतना दूर हो गए थे कि एकदूसरे को सम झ नहीं सकते थे या सम झा नहीं सकते थे?’ मु झे याद है, 4 साल पूर्व की घटना, लग रहा था जैसे अभी कल ही घटी है.

‘आज राकेश आया था. हम कितनी देर बातें करते रहे, पता ही न चला.’

मेरी आवाज पर अरुण कुछ चौंक सा गया था, बोला था, ‘अच्छा, कब आया था? मु झ से मिला नहीं.’ लेकिन मैं ने अरुण की बात पर ध्यान नहीं दिया था. तब अरुण अपने अंदर एक वहम पाल बैठा था. फिर वह उसे पालता ही रहा था. जानेअनजाने मैं ने भी उस वहमरूपी पौधे को और सींच दिया था, कहा था, ‘तुम से अच्छा ही है वह.’

उस वक्त उम्र के उस मोड़ पर रंगीन दुनिया में विचरते हुए मैं ने यथार्थ के धरातल पर उतरने की जरूरत नहीं सम झी थी. प्यार के आवेश में मैं सबकुछ भूल गई थी. प्यार के साथ सम झदारी भी चाहिए. अरुण पर अगाध विश्वास के कारण ही तो मैं सब से हंसती हुई बोलती रहती थी.

लेकिन तभी मैं ने महसूस किया था कि अरुण बदलता जा रहा है. हमारे संबंधों में अजीब सा ठंडापन आ गया है. जब हम दोनों बैठते तो बीच में एक निशब्द सन्नाटा पसरा रहता. पहले दूर रहते हुए भी एकदूसरे के सुखद स्पर्श का एहसास होता रहता था, लेकिन अब स्थिति में एक अजीब सा अंतर आ गया था.

मैं अरुण के पास जाने की कोशिश करती तो लगता, अरुण मेरी आंखों में किसी और को तलाश रहा है. अरुण ऊपर से अब ठंडी राख की तरह लगने लगा था, लेकिन उस का अंतर जल रहा था, क्रोध से या फिर ईर्ष्या से. और फिर एक दिन ठंडी राख के अंदर जलते अंगारों से मन जल उठा था, बुरी तरह  झुलस गया था.

अब अरुण लौट रहा था अपने बच्चे और पत्नी के पास, जो व्याकुलता से उस का इंतजार कर रहे होंगे. मैं अरुण को स्टेशन छोड़ने गई थी. मेरा पल्ला हवा में लहरा कर अरुण के कंधे से लिपट गया था, जो शायद मेरे लौट जाने की इच्छा को प्रकट कर रहा था.

हम दोनों ही चुप थे. कितने अनपूछे प्रश्न हमारे बीच तैर रहे थे. रेल आ गई. 2-3 मिनट बाकी थे. मैं पूछना चाह रही थी, ‘अरुण, क्या सारा दोष मेरा ही था, तुम निर्दोष थे? तब फिर मु झे ही क्यों सजा भुगतनी पड़ रही है? क्या इसलिए कि मैं तुम्हें आज भी भुला नहीं पाई हूं?’ रेल ने सीटी दे दी. अरुण लपक कर डब्बे में चढ़ गया. बंद मुट्ठी से कुछ फिसलने लगा था. खिड़की पर रखे मेरे कांपते हाथ पर अरुण ने हौले से अपना हाथ रख दिया था और फिर धीरे से बोला था, ‘‘अपना खयाल रखना.’’

रेल चल चुकी थी. 2-3 दिन का सुखद वर्तमान  झटके से फिसल गया था. अरुण लौट रहा था अपने परिवार के पास और मु झे… मु झे इन फिसले हुए कणों को सहेज कर रखना था. मैं सिसक पड़ी थी मन ही मन बड़बड़ाते हुए, ‘अरुण, तुम्हारा तो इंतजार हो रहा होगा, लेकिन मेरा अब कौन इंतजार करेगा?

‘तुम्हारी कहानी शायद यहीं समाप्त हो जाएगी, लेकिन मेरी कहानी तो यहीं से शुरू हो रही है, नए सिरे से.’

और मेरे पैर उस रास्ते पर बढ़ चले जिसे मैं खुद भी नहीं जानती.

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