वर्जनाएं टूटेंगी…जब किचन की दीवारें ढहेंगी

तब मेरी उम्र कोई सात-आठ साल की रही होगी, जब मेरी परदादी जिन्दा थीं. लखनऊ में हमारा घर काफी बड़ा था. दरअसल यह पुराने वक्त की बनी एक कोठी थी,  जिसमें ड्रौइंग रूम, डायनिंग रूम, बेडरूम, आंगन, रसोईघर, बाथरुम सब अलग-अलग बने हुए थे. आज भी बनारस, लखनऊ, मथुरा, कानपुर, इलाहाबाद में ऐसी पुरानी कोठियां मौजूद हैं, जहां ऐसे पुराने आर्किटेक्चर दिखते हैं, जिसमें बड़े से आंगन के चारों ओर कमरे बने होते हैं. मेरी मां का ज्यादातर वक्त रसोईघर में बीतता था, जो बड़े से आंगन के उस पार बना था. आंगन के इस पार सबके सोने के कमरे बने थे. रसोईघर का एक दरवाजा आंगन की ओर और दूसरा अनाज के गोदाम में खुलता था.

इस रसाईघर में मां घर के पुराने नौकर की मदद से सबके लिए खाना तैयार करती थीं. नौकर उस खाने को डायनिंगरूम में लाकर टेबल पर सजाता था. फिर सब लोग वहां बैठ कर खाना खाते थे. खाने के वक्त भी मां डायनिंग टेबल पर नहीं होती थीं. वह उस वक्त भी रसोईघर में ही काम में जुटी रहती थीं. रोटियां-पूड़ियां तलती-बनाती, गर्म-गर्म निकाल कर डाइनिंग रूम में भिजवातीं. नौकर रसोईघर और डायनिंग रूम के बीच भाग-भाग कर डोंगे में खाना भर-भर कर पहुंचाता था. जब सब लोग खा लेते थे, तब सबसे अन्त में मां के खाने का नम्बर आता था, और वह रसोईघर में ही अपनी थाली लेकर बैठ जाती थीं.

उनका साथ अगर कोई देता था तो वह थीं मेरी परदादी, जो 85 साल की उम्र में भी लाठी टेकती आंगन पार करके मेरी मां के पास रसोइघर में जाकर बैठ  जातीं और वहां मां के साथ ही खाना खाती थीं. मैंने कभी अपनी मां और परदादी को हमारे साथ टेबल पर बैठ कर खाना खाते नहीं देखा था. उनकी जिन्दगी जैसे रसोईघर की चारदीवारी में ही सिमट कर रह गयी थी.

परदादी बताती थीं कि जब वह छोटी थीं, तब उनके मायके में सब लोग एक साथ रसोईघर में ही खाना खाते थे. तब घरों में मिट्टी के चूल्हे होते थे. कोने में बने चूल्हे के सामने बैठ  कर उनकी मां रोटियां सेंकती थीं और उनके पास ही सब लोग जमीन पर बिछे आसन पर पालथी मार कर खाना बनाने के लिए बैठ जाते थे. उनकी मां एक एक कर गर्मा-गरम रोटियां सबकी थालियों में डालती जाती थीं.

आज सोचती हूं तो मुझे अपनी मां की रसोई से ज्यादा बेहतर परदादी की रसोई लगती है, क्योंकि वहां खाना बनाने वाली गृहणी घर के बाकी सदस्यों के साथ तो होती थी. वह खाना बनाते-बनाते उनसे बातचीत-हंसी मजाक भी करती रहती थी, मेरी मां की तरह रसोईघर में अकेली नहीं जूझती थी. आधुनिक घरों में या फ्लैट सिस्टम में हालांकि रसोईघर और डायनिंग रूम पास आ गये हैं, मगर दीवारें अभी भी हैं बीच में. मैं जब अपनी रसोई में खाना बनाती हूं, तब मेरे पति ड्राइंग रूम में सोफे पर पसरे आराम से टेलीविजन देख रहे होते हैं, या दोस्तों के साथ गपशप करते हैं अथवा बच्चों के साथ मस्ती करते हैं.

बच्चे भी वहां पढ़ाई या खेल में बिजी होते हैं. मेरे सास-ससुर भी अपने कमरे में या ड्राइंगरूम में होते हैं. खाना बनने के बाद जरूर हम सब एक साथ डाइनिंग टेबल पर आकर बैठते हैं,  मगर वह वक्त बस आधे घंटे का ही होता है और उसके बाद मैं फिर रसोईघर समेटने में बिजी हो जाती हूं, अकेली, नितांत अकेली. लगता है जैसे मेरी जिन्दगी सिर्फ रसोईघर तक सीमित रह गयी है. रसोईघर के दायरे में ही दिन का अधिकांश वक्त बीत जाता है. जैसे बस यही एक जगह निश्चित कर दी गयी है मेरे लिए और बाकी पूरे घर पर अन्य सदस्यों का कब्जा है. यह अघोसित सी सीमारेखा मेरे भीतर झुंझलाहट पैदा करती है. ऐसा क्यों है?

इसकी वजह हैं ये दीवारें, जिन्होंने मुझे मेरे अपने घर के सदस्यों से जुदा कर दिया है. मैं दुख  में हूं, रो रही हूं, इसका बाहर बैठे लोगों को पता ही नहीं चलता. बाहर किसी ने चुटकुला सुनाया, कोई मजेदार बात हुई, टेलीविजन पर कोई कौमेडी सीन आया,  सब हंस रहे हैं मगर मुझे पता नहीं चलता. ये दीवारें जो हैं हमारे बीच में. ये दीवारें गिरनी चाहिए. तभी मैं जुड़ पाऊंगी अपने पूरे घर से. तब मुझे लगेगा कि सिर्फ ये रसोई नहीं, बल्कि पूरा घर मेरा है. ये दीवारें मेरे अपनों से मुझे अलग कर रही हैं. मेरे अधिकारों को सीमित कर रही हैं। मेरी खुशियों को छीन रही हैं. इन दीवारों को ढहना चाहिए.

मैं अपनी कल्पना में नये घर को देखती हूं. एक ऐसा घर जहां मेरी रसोईघर के आगे कोई दीवार नहीं है. जहां काम करते हुए मैं ड्राइंग रूम में रखे टेलिविजन पर अपना मनचाहा सीरियल देख रही हूं. सामने सोफे पर बैठे अपने पति से बातचीत कर रही हूं. अपने बच्चों की हरकतों पर नजर रखी हूं. उनके साथ हंसी-मजाक कर रही हूं. यही नहीं, घर में आने वाले मेहमानों से भी मैं रसोई का काम करते-करते ही गपशप कर रही हूं. अगर मेरी कल्पना की रसोई मुझे मिल जाए, तब मुझे अपना काम भी भार नहीं लगेगा. खेल-खेल में सारा काम फटाफट निपट जाएगा. सच कहूं तो मेरी कल्पना की नयी रसोई कुछ-कुछ मेरी परदादी की रसोई से मिलती-जुलती ही है. भले मेरी रसोई में मिट्टी का चूल्हा नहीं होगा, उसकी जगह आधुनिक गैस चूल्हा होगा, जिसके ऊपर सुन्दर चिमनी लगी होगी, और सबसे खास बात यह होगी कि घर के सारे सदस्य मेरे आसपास ही होंगे.

घर एक ऐसी जगह है जहां पांच-छह जने एक दूसरे के सुख-दुख  में भागीदार होते हुए साथ रहते हैं. ऐसे में यदि गृहणी का अधिकांश वक्त चार दीवारों से घिरी एक छोटी सी रसोई में ही व्यतीत हो जाए, तो यह ठीक नहीं है.

इस बात को पाश्चात्य सभ्यता के लोग ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं. इसीलिए उन्होंने अपनी रसोई की दीवारें ढहा दी हैं. जरा एक नजर उनके घर की बनावट पर डालिये. खासतौर पर उनकी रसोई को देखिए. ड्राइंग रूम से लेकर रसोईघर तक कैसा खुला-खुला, साफ सुथरा और सजा हुआ घर नजर आता है. उनके घर में दीवारें बस बेडरूम और बाथरूम में ही होती हैं, जो जरूरी भी है. रसोईघर में सामने की स्लैब पर बनाने सम्बन्धी सारे उपकरण, गैस चूल्हा, सिंक वगैरह लगा होता है और उसके सामने ही डायनिंग टेबल या सुन्दर सी स्लैब के चारों ओर बैठने के लिए कुर्सियां लगी होती हैं. सामने ही ड्राइंग रूम है, जिसकी दीवार पर टेलीविजन लगा है.

रिमोट गृहणी के पास है और वह रसोईघर में खाना बनाते-बनाते अपना मनपसंद प्रोग्राम भी देख रही है. उसकी निकटता लगातार अपने घर के दूसरे सदस्यों के साथ बनी रहती है. सब एकदूसरे की नजरों के सामने हैं, बातें कर रहे हैं, हंसी-मजाक कर रहे हैं, एक-दूसरे के काम में हाथ भी बंटा रहे हैं. कहीं कोई तनाव नहीं, कोई अकेलापन नहीं.

मेरे विचार से दीवारें दूरियां पैदा करती हैं. अपनों के बीच दायरे खिचती हैं. घर बंट जाता है. किचन में पत्नी का अधिकार, ड्राइंगरूम पर पति का हक, हौल में बच्चों का जमावड़ा और लौन, बालकनी या बरामदे में सास-ससुर का कब्जा. ज्यादातर घरों में सदस्यों के बीच कुछ ऐसा ही बंटवारा नजर आता है. सब बंटे-बंटे, खिचे-खिंचे से रहते हैं. वजह हैं दीवारें. ये दीवारें हट जाएं तो सब एक हो जाएं. कई वर्जनाएं टूट जाएं. गृहणी के अधिकार के क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हो जाए. रिश्तों में और मजबूती आ जाए.

एक गृहणी के लिए यह अहसास जरूरी है कि सिर्फ यह रसोईघर ही नहीं, बल्कि पूरा घर उसका अपना है, यह भाव पैदा होते ही उसका आत्मविश्वास और आत्मसम्मान बढ़ना निश्चित है क्योंकि दीवारें हटेंगी तो सकुचाहट दूर होगी. डरी-सहमी, लज्जा में लिपटी नारी की जगह एक स्मार्ट, कार्यकुशल और ओजस्वी नारी पैदा होगी. दीवारें हटेंगी तो रसोईघर सबकी नजरों के सामने होगा, ऐसे में जैसी सजावट वह अपने ड्राइंगरूम की करती है, वैसी ही सजावट और सफाई वह रसोईघर की भी रहेगी.

अगर फूलों का गुलदस्ता ड्राइंगरूम की शोभा बढ़ा रहा है, तो एक गुलदस्ता रसोईघर की शोभा में भी चार चांद लगाएगा. खूबसूरत तस्वीरें ड्राइंगरूम और हौल से लेकर रसोईघर तक की दीवारों को रौनक प्रदान करेंगी. खुली रसोई के हजार फायदे हैं. मेरे नये रसोईघर में कोई दीवार नहीं होगी. खुले होने की वजह से उसका रख- रखाव सुन्दर ढंग से होगा और फालतू की चीजें भी इकट्ठा नहीं होंगी. हर चीज करीने से लगी होगी, जिससे काम करने में भी सुविधा होगी.

मुझे याद है मेरी मां एक पुरानी सी साड़ी पहने रसोईघर में अकेले खाना बनाती रहती थी. मैं उनकी पुरानी साड़ी देखती और घर के अन्य लोगों के कपड़ों से उसकी तुलना करती थी. घर के बाकी लोग कैसे सजे-संवरे रहते थे,  मगर मां बस वही पुरानी साड़ी में नजर आती थी. मेहमानों के आने पर कैसे बाकी लोग ड्राइंग रूम में चहक-चहक कर बातें करते, अपनी शानो-शौकत दिखाते, मगर मां रसोईघर से बाहर ही नहीं निकलतीं. मैं मां से कहती, ‘क्या मां तुम बस ये दो साड़ियां निकाल लेती हो और महीनों उन्हें ही बदल बदल कर पहनती रहती हो?’ मां जवाब देतीं, ‘क्या करना है बेटी, रहना तो रसोई में ही है और यहां कौन आ रहा है मुझे देखने?’ मां की बात सुन कर मुझे बड़ी खीज होती थी.

ऐसा नहीं था कि उनके पास कपड़े नहीं थे या उसे साज-सज्जा का शौक न था. सैकड़ों साड़ियां थीं, सुन्दर-सुन्दर गहने थे, मगर उनका सारा दिन तो रसोईघर में ही बीत जाता था, जो आंगन के दूसरे कोने में थी. अब कोई बाहरी व्यक्ति आ भी गया तो वह कौन सा रसोईघर में जाने वाला है कि मां को पुरानी साड़ी में शर्म महसूस हो! लिहाजा उसके सारे कपड़े सन्दूकों में ही बंद रह गये और उनकी साज-सज्जा की चाहतों ने उनकी जवानी में ही दम तोड़ दिया. मेरी मां घर की मालकिन होते हुए भी नौकरानी बन कर रह गयी, इसकी वजह थी दीवारें.

मैं इन दीवारों को गिरा दूंगी. मैं अपनी चाहतों को दम नहीं तोड़ने दूंगी. हरगिज नहीं. मैं वर्जनाएतोड़ूंगी. मेरी रसोई बिना दीवारों के होगी. ताकि मेरे कपड़े अलमारियों में न धरे रह जाएं. मेरी साज-श्रृंगार की हसरतें न मर जाएं. मेरे घर में मेहमान आएं तो मुझे खुद पर शर्म नहीं,  बल्कि गर्व महसूस हो और मैं भी घर के अन्य सदस्यों की तरह साफ-सुथरी, सजी धजी नजर आऊं. मैं अगर घर की मालकिन हूं तो मालकिन की तरह दिखायी भी दूं. मालकिन की तरह पूरे घर पर राज भी करूं. मैंने तो अपने नये घर के नये किचेन का खाका खींच लिया, और आपने ?

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