REVIEW: जानें कैसी है Vijay Deverakonda और Ananya Pandey की फिल्म Liger

रेटिंगः एक़ स्टार

निर्माताः चार्मी कौर, पुरी जगन्नाथ, करण जेहर, अपूर्वा मेहता

निर्देशकः पुरी जगन्नाथ

कलाकारः विजय देवराकोंडा,  अनन्या पांडे, रमय्या कृष्णा,  विशु, चंकी पांडे,  अली, मकरंद देशपांडे, गीता श्रिनु, माइक टायन व अन्य

अवधिः ढाई घंटे

दक्षिण भारत की दो तीन फिल्मों के हिंदी संस्करणों ने बाक्स आफिस पर अच्छी कमायी क्या कर ली, हर किसी को ‘पैन इंडिया’ सिनेमा यानी कि तमिल, तेलगू के साथ हिंदी में भी फिल्म बनाने का चस्का लग गया. ऐसे में 2000 से तेलगू फिल्में निर्देशित करते आ रहे पुरी जगन्नाथ कैसे पीछे रह जाते. पुरी जगन्नाथ तेलगू में ‘बद्री’, ‘बाची’, ‘इडिएट’,  ‘शिवामणि’,  रोमियो’,  ‘टेम्पर’, ‘स्मार्ट शंकर’ सहित लगभग 25 फिल्में निर्देशित कर चुके हैं. पहली बार उन्होने अपनी फिल्म ‘लाइगर’ को तमिल, तेलगू व हिंदी में भी बनाया है. इस फिल्म का उन्होंने चार्मी कौर व धर्मा प्रोडक्शन के साथ निर्माण भी किया है. जबकि इस फिल्म से 2011 से तेलगू फिल्मों में अभिनय करते आ रहे अभिनेता विजय देवराकोंडा ने हिंदी में कदम रखा है.  वह ‘नुव्वील्ला’, ‘येवादे सुब्रमण्यम’, ‘अर्जुन रेड्डी’ सहित कई सफल फिल्में कर चुके हैं. मगर उनके सिर पर भी ‘पैन इंडिया स्टार’ का भूत सवार हुआ और वह भी ‘लाइगर’ से हिंदी सिनेमा में कदम रख लिया. इतना ही नही खुद को ‘पैन स्टार’ सबित करने के ेलिए अपनी फिल्म की पीआर टीम के साथ पटना, जयपुर, लखनउ,  अहमदाबाद, वडोदरा,  इंदौर, पुणे सहित देश के शहरोंे का फिल्म की हीरोईन अनन्या पांडे संग चप्पल पहनकर भ्रमण करते हुए अजीबोगरीब बयानबाजी करते रहे. खुद को सताया हुआ और लोगों द्वारा उन्हे आगे बढ़ने से रोका गया, ऐसा दावा भी करते रहे. वहीं वह ‘लाइगर’ को लेकर बड़े बड़े दावे करते नजर आए. मगर उनके पास अपनी फिल्म के संदर्भ में अच्छे से बात करने के लिए समय का अभाव रहा. एक ही दिन में ग्रुप में पत्रकारों से बात कर उन्होने इतिश्री कर दी. फिल्म देखकर समझ में आया कि फिल्म ‘लाइगर’ के निर्देशक के साथ ही विजय देवराकोंडा व अनन्या पांडे पत्रकारों से ज्यादा क्यो नही मिले? क्योंकि उन्हे पता था कि उनकी फिल्म में दम नही है. और वह सिनेमा की समझ रखने वाले पत्रकारांे से बात नहीं कर पाएंगे. फिल्म ‘लाइगर’ देखकर यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ‘लाइगर’ में अभिनय करने वाले और पिछले एक माह से कई तरह की बयानबाजी करते आ रहे विजय देवराकोंडा ने ही तेलगू फिल्म ‘‘अर्जुन रेड्डी’’में अभिनय किया था. ‘लाइगर’अति बकवास फिल्म है. जिसमें न कहानी का अता पता है और न ही किसी कलाकार ने अच्छा अभिनय ही किया है.   फिल्म का नाम ‘लाइगर’ क्यांे है, यह समझना कठिन है. मगर फिल्म में लाइगर की मां बनी रमैया कृष्णा का संवाद है-‘‘शेर और बाघ दोनों से पैदा हुआ है-‘लाइगर’.

अपनी फिल्म ‘‘लाइगर’’ के हश्र से विजय देवराकोंडा व पुरी जगन्नाथ परिचित थे. इसलिए उन्होने ‘लाइगर’ के तमिल व तेलगू संस्करण  को 25 अगस्त की सुबह ही सिनेमाघरों में प्रदर्शित कर दिया था. उन्हे यकीन था कि जहां वह सुपर स्टार हैं, वहां वह अपने दर्शकों को मूर्ख बना ले जाएंगे, पर ऐसा नही हुआ. बहरहाल,  हिंदी में बनी ‘लाइगर’ 25 अगस्त की रात आठ बजे सिनेमाघरोे में पहुॅचाया गया. इस बार पत्रकारांे को ेभी 25 अगस्त की रात में ही यह फिल्म दिखायी गयी. मीडिया में दिन भर कानाफूसी होती रही कि यदि फिल्मकार अपनी फिल्म को लेकर इतना डरे हुए हैं, तो उन्हे अच्छी कहानी पर अच्छी फिल्म बनानी चाहिए अथवा फिल्म ही न बनाएं.

कहानीः

यह कहानी एक किक बाक्सर व हकलाने वाले इंसान लाइगर (विजय देवरकोंडा) की है. जो कि बनारस से चेन्नई अपनी मां बलमणि (रमैया कृष्णन)के साथ सड़क पर ठेला@ टपरी लगाकर चाय बेचता है. बलमणि (रमैया कृष्णन) खुद को बाघिन समझती हैं. वह अपने बेटे के माध्यम से मार्शल आर्ट के एमएमए फार्म में राष्ट्ीय चैंपियनशिप जीतने का सपना देख रही है, जिसे जीतने से पहले ही उनके पति बलराम  की मौत हो गयी थी. और बेटा लाइगर ने  एमएमए राष्ट्ीय चैंपियनशिप हासिल करने की कसम खायी है. उसकी मां उसे लेकर चेन्नई आयी है, जिससे वह मार्शल आर्ट की बेहतरीन शिक्षा मास्टर (रोनित रॉय)से मुफ्त में दिला सके. पहले तो मास्टर मना कर देते हैं. मगर जब लाइगर की मां उसे याद दिलाती हैं कि एक बार प्रतियोगिता में लाइगर के पिता बलराम ने उन्हे हराया था, तब वह तैयार हो जाते हैं. मगर मास्टर के यहां एमएमए का प्रशिक्षण ले रहे दूसरे लड़के लइगर के हकलाने का उपहास उड़ाते हैं.

फिर फिल्म में एक अमीर बाप की बिगड़ैल व सोशल मीडिया की सुपर स्टार बनने का सपना देख रही तान्या (अनन्या पांडे) का अवतरण होता है, जो कि एक रेस्टारेंट में पहली मुलाकात में ही लाइगर को दिल दे बैठती है और बताती है कि वह संजू (विशु) की बहन है. इससे पहले संजू और लाइगर के बीच मारामारी हो चुकी है. लाइगर की मां बालमणि उसे सलाह देती है कि ‘चुड़ैल’ लड़कियों से दूर रहे. मगर मंदिर में एम एस सुब्बुलक्ष्मी के गाने पर लिप सिंक कर वीडियो बनाते तान्या को देखकर बालमणि उसकी तरफ आकर्षित होती हैं. पर चंद क्षण में ही तान्या अपना असली रूप बालमणि को दिखा देती है. दोनों के बीच कहासुनी भी होती है. कुछ दिन बाद लाइगर व तान्या के संबंध पता चलने पर बालमणि, तान्या को अपने बेटे से दूर रहने के लिए कहती है. संजू के चलते तान्या, लाइगर से ूदूर चली जाती है. इधर लाइगर एमएमए में राष्ट्ीय चैंपियन बन जाता है. अब उसे एमएमए में अंतरराष्ट्ीय चैंपियन बनना है. पर उसके पास बीस लाख रूपए नही है. नाटकीय अंदाज में अमरीका बसे अप्रवासी भारतीय पांडे(चंकी पांडे ) सारा खर्च ही नहीं उठाते है बल्कि लाइगर, मास्टर व अन्य लड़कों को अपने प्रायवेट जेट विमान से अमरीका बुलाते हैं.

अमरीका के लास वैगास शहर में एमएमए का अंतरराट्ीय सेमी फाइनल जीतने के बाद लाइगर से पांडे बताते है कि तान्या उनकी बेटी है. तान्या ने उससे दूरी बनायी थी जिससे वह चैंपियन बन सके. संजू( विशु रेड्डी  ) भी उनका बेटा है. तभी अंडरवल्र्ड डॉन माइक टायसन(माइक टायसन ),  तान्या का अपहरण कर लेता है. क्योंकि पंाडे ने उससे कुछ उधार ले रखा है. तान्या को छुड़ाने के लिए लाइगर,  अंडरवल्र्ड डॉन के अड्डे पर जाते हैं. जहां दोनों के बीच लड़ाई होती है, जिसका लाइव प्रसारण होता है. लाइगर, माइक टायसन को अपने पिता का कातिल कहता है और अंततः जीत जाता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म ‘लाइगर’ की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसकी कहानी व पटकथा लेखक तथा निर्देशक पुरी जगन्नाथ ही हैं. फिल्म में कहानी के नाम पर कुछ भी नही है. बेसिर पैर की बातें है. पुरी जगन्नाथ को बनारस की संस्कृति ही नही मां बेटे के रिश्ते की भी कोई समझ नही है. कम से कम वाराणसी की मां अपने बेटे को ‘साले’ कभी नही बोलती. पूरी फिल्म भावनाओं से मुक्त है. पुरी जगन्नाथ ने अपनी फिल्म के नायक को हकलाने वाला बताया है. पर उन्हे हकलाहट के मनोविज्ञान की समझ ही नही है. यदि उन्हे समझ होती तो कहानी में कुछ दूसरे तत्व वह जोड़ते.

यह फिल्म ‘‘मार्शल आर्ट’ का नाम बदनाम करती है. इतना ही नही माइक टायन जैसे इंसान को अंडारवर्ड डौन बताने के साथ ही उन्हे गालियंा खाने के अलावा एक नौ सीखिए से हारते हुए भी दिखाया है. माइक टायसन ने शायद मोटी रकम देखकर यह किरदार निभा लिया. मगर माइक टायसन जैसे लीजेंड को इस तरह से पेश करना लेखक व निर्देशक का दिमागी दिवालियापन ही कहा जाएगा. वैसे भी लाइगर और माइक टायसन के बीच घंूसे बरसाने के दृश्य महज हास्य ही पैदा करते हैं. फिल्म का क्लायमेक्स भी घटिया है. सबसे बड़ी हकीकत यह है कि अतीत में भी पुरी जगन्नाथ हिंदी में मात खा चुके हैं. उन्हेोन अपनी दूरी तेलगू फिल्म‘बद्री’ को हिंदी में ‘शर्ट ए चैंलज’ के अलावा ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ जैसी फिल्में बना चुके हैं, जिन्हे दर्शकों ने सिरे से नकार दिया था.

लेखक व निर्देशक के दिमागी दिवालियापन की दूसरी मिसाल यह है कि लाइगर ने अपने पिता को ‘एमएमए’ में हारते हुए नही देखा, उसने यह नही देखा कि उसके पिता को किसने मारा, मगर अपनी मां कहती है कि वह अपने हर प्रतिस्पर्धी को अपना कातिल मानकर उसे खत्म कर दे. यह सिर्फ अजीब सा लौजिक ही नही है, बल्कि आम जनमानस को बहुत ही गलत और अमानवीय संदेश भी देता है. जब लाइगर सोचता है कि माइक टायसन उसके पिता का कातिल है, तभी वह उन्हे हरा पाता है.

फिल्म को देशभक्ति का जामा पहनाने के लिए अमरीका के लास वेगास में एक चायवाले से ‘एमएए’ में अंतरराष्ट्ीय विजेता बने लाइगर को भारतीय ध्वज लहराते,  ‘वाट लगा देंगे‘ और ‘हम भारतीय हैं,  दुनिया को आग लगा देंगे‘ के नारे से देशभक्ति की बातें भी की गयी हैं, मगर सब कुछ बहुत ही अजीब तरीके से चित्रित किया गया है. पूरी फिल्म देखकर कहीं भी देशभक्ति कर जज्बा नही उभरता. बल्कि यह फिल्म पूरी तरह से बदले की कहानी ही नजर आती है.

‘लाइगर’ एक अंडरडॉग स्ट्रीट फाइटर की कहानी बतायी गयी है, जो ‘एमएए’ फार्म के मार्शल आर्ट की प्रतियोगिता मंे अंतरराष्ट्रीय खिताब जीतने में सफल होता है. इस कहानी में नयापन क्या है?इसी तरह के कथानक पर पहले भी कई फिल्में बनी हैं और उन्हे सफलता नही मिली.  कुछ समय पहले इसी तरह की कहानी वाली फरहान अख्तर की बाक्स आफिस पर बुरी तरह से मात खाने वाल फिल्म ‘‘तूफान’’ आयी थी. तो वहीं बी सुभाष की 1984 में आयी फिल्म ‘‘कसम पैदा करने वाले की’’ में दलित युवक द्वारा अपने पिता का बदला लेने की कहानी थी, जिसे दर्शकों ने पंसद नही किया था. वैसे ‘लाइगर’ देखते समय लोगों को 1984 में ही प्रदर्शित मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म ‘बाक्सर’ की याद भी आती है.

एक औरत होते हुए भी लाइगर की मां बलमणि एक लड़की को ‘चुड़ैल’ की संज्ञा देती है और अपने बेटे से कहती है कि वह लड़कियांे से दूर रहे, क्योंकि ‘चुड़ैल’ लड़की उसे प्यार में फंसाने का प्रयास करेगी. यह सोच तो पूरी नारी जाति का अपमान है.  एक जगह हीरो कहता है कि महिलाओं को चूमना यानी कि ‘किस’ ठीक है, लेकिन उनसे लड़ना ठीक नहीं है. तो वहीं एक संवाद है-मैने तुम्हे गर्भवती किया है क्या?’’इस तरह के संवाद सेंसर बोर्ड ने पारित कैसे कर दिए? इस फिल्म से सेंसर बोर्ड पर भी सवाल उठते हैं.

फिल्म के गाने भी घटिया हैं और उनका फिल्मांकन नब्बे के दशक के अंदाज मंे किया गया है. इन गानों को बेवजह कहीं भी ठॅूंस दिया गया है. संवाद दोयम दर्जे के हैं. एडीटर ने भी अपना काम सहीं ढंग से अंजाम देने में विफल रहे हैं.

अभिनयः

लाइगर के किरदार में विजय देवराकोडा दूसरी सबसे बड़ी कमजोर कड़ी हैं, वह हकलाने वाले के किरदार मंे है, मगर इस किरदार को निभाने से पहले अगर उन्होेने हकलाहट के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया होता, तो उनके हित में होता. वह कहंी से भी महत्वाकांक्षी मां के बेटे नजर ही नही आते. लगता है कि ‘पैन इंडिया स्टार’ बनने का सपना देखते हुए विजय देवराकोंडा अभिनय भी भूल गए.   .

एक अमीर, अत्याधुनिक और सोशल मीडिया पर अपने फालोवअर्स बढ़ाने के लिए मरी जा रही तान्या के किरदार में 2019 में फिल्म ‘‘स्टूडेंट आफ द ईअर 2’’ से अभिनय कैरियर की शुरूआत करने वाली अनन्या पांडे महज संुदर व कम वस्त्रों मे ही नजर आयी हैं. उनका अभिनय से कोई लेना देना नही है. लगभग हर दृश्य में उनका चेहरा सपाट ही नजर आता है. अनन्या पांडे के परदे पर आते ही दर्शक मंुॅह बनाने लगता है. तो चंद मिनट के दृश्य में  मकरंद देशंपाडे की प्रतिभा को जाया किया गया है. क्या मकरंद देशपांडे ने यह फिल्म महज पैसों के लिए की? यह तो वही जाने? लाइगर की मां बालमणि के किरदार में रमैया लगभग हर दृश्य में औरतों का अपमान करते अथवा फिल्म ‘बाहुबली’ के अपने किरदार की तरह महज चिल्लाते हुए ही नजर आती है. शायद बामणि का किरदार निभाते हुए उन्हे याद ही नहीं रहा कि वह ‘बाहुबली’ नही कर रही है. उन्हे  उनका अभिनय अप्रभावशाली है. तान्या के पिता पांडे के किरदार में चंकी पांडे की प्रतिभा को भी जाया किया गया है. उनके हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. संजू के किरदार में 2009 से तेलगू फिल्मों में अभिनय करते आ रहे अभिनेता विशु रेड्डी हैं. पर इस फिल्म में उन्होने क्यो सोचकर अभिनय किया, यह बात समझ से परे है.

अंत मेंः

‘‘पैन इंडिया सिनेमा’’ के नाम पर ‘‘लाइगर’’जैसी फिल्में भारतीय सिनेमा को तबाही की ओर ही ले जा रही हैं.

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