#lockdown: तीर्थ यात्रियों की वापसी, फिर छात्रों और मजदूरों के साथ भेदभाव क्यों?

गरीब मजदूर और छात्र अपने-अपने घर जाने के लिए तड़प रहे हैं. क्योंकि उनके जाने के लिए कोई वाहन व्यवस्था नहीं है. लेकिन वहीं सारे नियम और कानून को ताख पर रखकर तीर्थ यात्रियों को यात्राएं कराई जा रही है. जबकि गरीब मजदूरों और छात्रों के घर जाने पर राजनीति हो रही है.

लॉकडाउन में जहां घर के ज़रूरियात सामान लाने पर पुलिस लोगों पर बेतहासा डंडे बरसा कर उसका पिछवाड़ा लाल कर दे रही है. वहीं आंध्र प्रदेश के राज्य सभा सांसद जी बीएल नरसिम्हाराव की पहल पर केंद्र सरकार के आदेश पर धार्मिक नगरी काशी से सोमवार को नौ सौ भारतीय तीर्थ यात्रियों को उनके गंतव्य पर भेजा गया.

लेकिन न तो इन तीर्थ यात्रियों की थर्मल स्क्रीनिंग की गई और न ही सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन किया गया. हालात ऐसे थे कि एक बस में 45 सीटों पर 45 यात्री थे. 12 बसें भोर में चार बजे रवाना की गई जबकि आठ बसें देर शाम को. इसके अलावा दो क्रूजर से 12 की संख्या में तीर्थ यात्री रवाना किए गए.

तीर्थ यात्रियों की रवानगी जिलाधिकारी के देख-रेख में की गई. बसें उन्हें आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, कर्नाटक और केरल ले कर गई. रास्ते में कुछ और यात्रियों को भरा गया. ये सभी दक्षिण भारतीय यात्री सोनापुरा और आसपास के क्षेत्रों में स्थित मठों और गेस्ट हाउस मे ठहरे हुए थे.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने राष्ट्र को अपने चारों संबोधन में ज़ोर देते रहे हैं कि सोशल डिस्टेन्सिंग ही कोरोना महामारी से बचाव का एकमात्र विकल्प है. लॉक डाउन का मकसद लोगों को भीड़ से बचाना है, क्योंकि एक जगह कई लोगों के जमा होने से कोरोना फैलने की आशंका बढ़ जाती है. लेकिन इसके बावजूद शुक्रवार को लॉकडाउन और सोशल डिस्टेन्सिंग के नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए पूर्व सीएम एचडी कुमारस्वामी के बेटे निखिल गौड़ा की बड़ी धूमधाम से और भव्य तरीके से शादी हुई. इस वीआईपी शादी में मेहमानों की भीड़ ने न तो सोशल डिस्टेन्सिंग पर ध्यान दिया और न ही मास्क पहनना जरूरी समझा. इस शादी समारोह के आयोजन में जिस तरह से कोरोना वायरस से बचाव के लिए लागू लॉकडाउन का उल्लंघन हुआ उससे राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन पर कई सवाल खड़े हो गए हैं. क्योंकि इस विवाह समारोह की बाजाप्ता अनुमति ली गई थी और विवाह स्थल तक मेहमानों को लाने-ले जाने के लिए प्रशासन की ओर से पास भी निर्गत किया गया था.

वैसे, कुमार स्वामी सफाई दे रहे हैं कि शादी समोरोह बड़े ही सादगी से किया गया और इसमें चुने हुए मेहमान ही बुलाये गए, लेकिन शादी समारोह की जो फोटो सामने आई है, उनमें दूल्हा-दुलहन के इर्द-गिर्द काफी भीड़ साफ नजर आ रही है. लॉकडाउन के दौरान देशभर में इस प्रकर के समारोह करना तो दूर, लोगों को समूह में सड़कों पर आने की भी इजाजत नहीं है. इसके बावजूद कुमारस्वामी जैसे नेता शुभ मुहूर्त के फेर में शादी टालने की बजाय भीड़ वाला आयोजन करने से नहीं चुके.

हाल ही में टुमकुर जिले के तुरुवेकेर से बीजीपी विधायक एम जयराम ने भी इसी तरह लॉकडाउन के नियमों की धज्जियां उड़ाई थीं. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर ग्रामीणों के साथ अपना जन्मदिन मनाया था. इस मौके पर केक और बिरियानी लोगों के बीच बँटवाई गई थी. यहाँ भी अधिकतर लोग बिना मास्क के थे.

गोरखपुर में एक व्यापारी के बेटे के जन्मदिन की पार्टी में करीब 60 लोगों के जुटने पर अगर पुलिस लॉकडाउन के उलंघन का मामला दर्ज कर सकती है, तो इन लोगों के आयोजनों को लेकर इसी तरह की कार्यवाई से परहेज क्यों ? क्या लॉकडाउन के नियम क्या सिर्फ आम इन्सानों और गरीब मजदूरों के लिए है ? नेताओं के लिए नहीं ? क्या नेता होने का मतलब यह है कि वे नियमों के बंधन से मुक्त हैं ?  

दरअसल, देश में जिस तरह कोरोना के लिए माहौल बनाया गया, मानो मात्र किसी जाति वर्ग विशेष को ही हाशिये पर रखा गया हो. आए दिन अमीर लोग अपने परिवार और पहचान वालों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जा-आ रहे हैं. लेकिन गरीब मजदूर कहीं पुलिस से पीट रही है, तो कहीं भूखे पेट पैदल ही चलने को मजबूर हैं.

अब जब दो हफ्तों के लिए लॉकडाउन और बढ़ा दी गई है तो ऐसे में मजदूरों की बेचैनी और बढ़ गई है. क्योंकि न तो उनके पास रोजगार है न खाने के लिए पैसे, तो जाएँ तो जाएँ कहाँ ?

गैरकृषि महीनों में शहरों में कमाई करने जाने वाले प्रवासी मजदूरों की चिंता यह भी है कि फसलों की कटाई का समय है, ऐसे में घर नहीं पहुंचे तो तैयार फसल बर्बाद हो जाएगी और वह कर्ज में डूब जाएंगे. लेकिन इनके पास लॉकडाउन खत्म होने का इंतजार करने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है.

चार बच्चों की माँ 36 वर्षीय आशा देवी बात करते हुए रो पड़ी. उसने बताया कि उसके दो बच्चे वहाँ यूपी में अकेले रहते हैं.

बड़ा 14 साल का बेटा मजदूरी करता है और अपने छोटे भाई का ध्यान भी रखता है. पिछले महीने वह गाजियाबाद के ईंट-भट्टे पर काम करने के लिए अपने पति और 13 अन्य लोगों के साथ पहुंची थी. ठेकेदार ने उन्हें राशन देने का वादा किया था, लेकिन अचानक भाग गया. अब उनके पास खाने को कुछ नहीं है. मजबूरन पैदल ही सब अपने गाँव लौटने को निकल पड़े. लेकिन पुलिस ने उन्हें जाने नहीं दिया.

34 वर्षीय मोनु वेटर का काम करता है. उसकी पत्नी, माँ और दो छोटे बच्चे गाँव में रहते हैं, उसने बताया कि होली के दौरान उसने परिवार को कुछ पैसे भेजे थे, जो अब पूरी तरह से खत्म हो चुके हैं. लॉकडाउन के कारण काम छिन गया तो कमाई भी बंद हो गई. अब न अपने घर जा सकते हैं और न यहाँ रह सकते हैं. क्या करे समझ नहीं आता.

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करीब तीन दर्जन मजदूर तो जम्मू में फंसे हुए हैं. मजदूरों तक किसी तरह की मदद नहीं पहुँचने पर वे इतने विचलित हैं कि अपने छोटे-छोटे बच्चे के साथ आत्महत्या करने पर मजबूर हो गए थे.

यह दो-चार नहीं, अनगिनत मजदूरों की अंतहीन दास्तान है, जो काम-धंधे की तलाश में हरियाणा, राजस्थान, बिहार, बंगाल आदि राज्यों से देश के अन्य शहरों में पहुंचे थे, लेकिन लॉकडाउन में फंसे हुए हैं. कोई जरिया नहीं है जिससे वह अपने घर जा सकें.

कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमन को देखते हुए सरकार ने लॉकडाउन को 14 अप्रेल से बढ़ाकर 3 मई तक कर दिया. लेकिन क्या लॉकडाउन ही किया जाना एक मात्र विकल्प था ? वह भी अचानक से ? क्या पूर्ण लॉकडाउन का एलान करने से पहले सरकार ने उन छात्रों के बारे में भी नहीं सोचा जो अपने परिवार से दूर बाहर रह कर पढ़ाई कर रहे हैं ? की वह अपने घर कैसे जाएंगे ? 

राजस्थान के कोटा में कई छात्र हैं, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, और वहाँ फंस चुके हैं.  इन छात्रों का कहना है कि इनके पास खाने की भी ठीक से सुविधा नहीं है. कहते हैं, ‘हम पूरी तरह से फंस चुके हैं कोटा में. सोचा था निकलने का कोई जरिया मिलेगा. लेकिन सरकार की तरफ से कोई मदद नहीं मिला. एक छात्र का कहना है कि वह झारखंड से कोटा नीट की तैयारी करने आया था. एक महीने पहले ही हमारी टेस्ट सीरीज बंद हुई थी. उसके बाद लॉकडाउन लगने से हम घर नहीं जा पाए. इंतजार था कि जैसे ही लॉकडाउन खत्म होगा अपने घर चले जाएंगे. लेकिन दोबारा से लॉकडाउन लग गया तो अब क्या करे.

उत्तर प्रदेश के कानपुर से कोटा पढ़ने आई तान्या बताती है कि ‘लॉकडाउन बढ़ चुका है और हमारे घरवाले हमारी चिंता में बहुत परेशान हैं. अब हम लोग भी घर जाना चाहते हैं. यहाँ खाना भी बाहर से आता है, तो रिस्क बढ़ गया है. हम सब घर जान चाहते है , लेकिन यहाँ कोई व्यवस्था नहीं है. कहती हैं पढ़ाई में भी अब मन नहीं लग रहा है, हम एकदम डिप्रेशन में हैं.‘

हैदराबाद विश्वविधालय की प्रियंका की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है. वह अकेलापन मसहूस करने लगी है. कहती है, ‘ज़िंदगी बस हॉस्टल के रूम से लेकर मैस की बेंच तक सिमट कर रह गई है. मैं अपने फ्लोर पर अकेली स्टूडेंट हूँ. आसपास कोई एक शब्द बात करने वाला नहीं है. इस समय मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती मानसिक स्वास्थय को बरकरार रखने की है. कभी-कभी मन में डर भी लगता है कि अपने घर-परिवार से दूर अगर कुछ हो गया तो कौन संभालेगा. हालांकि, मैस कर्मचारी और सुरक्षा गार्ड भी हमारे लिए ड्यूटी निभा रहे हैं तो उनसे साहस मिलता है.

मनोचिकित्सक डॉ. सुमित गुप्ता कहते हैं कि कोई भी यदि इस तरह के सिचुएशन में फंस जाएगा तो वह तनाव में रहेगा. स्ट्रेस में रहने से इंसान के भूख और नींद में बदलाव आ जाते हैं. उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी कम हो जाति है जिससे संक्रमित होने का खतरा बढ़ जाता है. कोटा में फंसे अधिकतर छात्र बिहार और यूपी के हैं. और बताते हैं कि कई छात्र दिवाली के बाद अपने घर नहीं गए. पिछले महीने ही उनके कोर्स कंप्लीट हुए और घर जाने का मन बना ही रहे थे कि लॉकडाउन हो गया और वे जा नहीं पाए, लेकिन दोबारा लॉकडाउन से वह डिप्रेशन में आ गए हैं.

कोटा में फंसे छात्र अपनी बात सरकार तक पहुँचाने के लिए सोशल मीडिया का भी सहारा ले रहे हैं. हैशटैग से करीब 70 हजार ट्वीट किए गए. छात्रों ने पीएमओ, प्रधानमंत्री, राजस्थान के मुख्यमंत्री समेत अन्य राज्यों के भी कई नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों को ट्वीट किए. लेकिन अभी तक इनकी सहायता के लिए कोई आगे नहीं आया.

फेसबुक पर भी वे अपने समस्याओं के समाधान के लिए पोस्ट करे रहे हैं, लेकिन यहाँ से भी कोई समाधान अभी तक नहीं मिला है. स्टूडेंट्स का आरोप है कि इनके चलाए हैशटैग ‘सेंडअस बैकहोम’ को अब नेता अन्य राज्यों की घटनाओं के लिए उपयोग कर रहे हैं.

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सोशल मीडिया पर छात्रों की मदद के लिए हैशटैग चलाने वाले आशीष रंजन एक ट्विटर हैंडल के लिए काम करते हैं, बताते हैं कि छात्र बेहद परेशान हैं और हमारे पास हजारों की संख्या में रोज छात्र मैसेज कर रहे हैं. रंजन कहते हैं कि छात्र अपनी परेशानी बताते हुए रोने लगते हैं, वे इस कदर परेशान हो चुके हैं और शासन प्रशासन की ओर से पास रद्द किए जाने के बाद वह घर जाने को लेकर चिंचित हैं.

छात्र अपनी समस्या जब कोचिंग संस्थाओं से बताते हैं तो वे भी सरकारी नियमों का हवाला देते हुए मदद करने से खुद को असमर्थ बताते हैं.

छात्र वीडियो के माध्यम से अपना दर्द परिवार तक पहुंचा पा रहे हैं. कहते हैं बातों से ज्यादा हमारे आँसू बहते हैं.

लेकिन क्या लॉकडाउन किया जाना ही एक मात्र विकल्प था ? और अगर लॉकडाउन किया ही जाना था तो उसके पहले लोगों को जानकारी नहीं दी जानी चाहिए थी? पूर्ण लॉकडाउन की घोषण से पहले लोगों को वक़्त न देकर प्रधानमंत्री जी ने सिर्फ अपनी मर्ज़ी चलाई, जिसका खमजाया भुगतना पड़ है देश की जनता को. 

यदि मोदी जी 24 मार्च को सम्पूर्ण लॉकडाउन करने के लिए चार घंटों के बजाय 20 मार्च के देश को दिये गए संदेश में बता देते जैसे और देशों में हुआ तो यह समस्या खड़ी ही नहीं होती. लेकिन उन्होंने यह सोचा ही नहीं और अचानक से लॉकडाउन की घोषण कर दी. कम से कम लॉकडाउन के पहले लोगों को संभलने का वक़्त दिया होता तो वे अपनी जरूरतों के हिसाब से अपनी व्यवस्था कर लेते. जिसे जहां जाना होता चले जाते. लेकिन मोदी जी ने ऐसा कुछ सोचा ही नहीं और अपनी घोषण सुना दी, जो जहां हैं वहीं रहें. ‘सरकार फंसे तीर्थ यात्रियों को लाने की व्यवस्था कर सकते थे, तो फिर लॉकडाउन में फंसे छात्र और गरीब मजदूरों का क्या कसूर था ? विदेशों में फंसे भारतियों को स्पेशल विमान से यहाँ बुलाया जा सकता था, तो फिर छात्र और मजदूरों को क्यों नहीं ? क्या ये देश के नागरिक नहीं है ? 

लाखों गरीब मजदूर अपने गाँव तक जाने वाले वाहन की उम्मीद में पैदल ही चलते जा रहे हैं. भूख-प्यास से ब्याकुल ये मजदूर किसी तरह बस अपने गाँव पहुंचाना चाहते हैं. क्योंकि अब उनके लिए शहरों में कुछ बचा नहीं. लेकिन अगर सरकार इन प्रवासी मजदूरों के लिए शहर में ही खाने और रहने की व्यवस्था कर देती, तो ये उम्मीद होती कि कई मजदूर घर जाने के लिए इतने परेशान न होते और न ही स्थिति इतनी खराब होती.

कोटा में पढ़ने वाले छात्र लाखों रुपये फीस देकर कोचिंग करते हैं. कई हजार रुपये किराए के रूप में अपने हॉस्टल और पीजी को देते हैं. अधिकतर कोचिंग करने वाले छात्र सशक्त्त मध्यमवर्ग या उच्च्वर्गीय परिवारों से होते हैं. ये सब छात्र 18 से कम उम्र के के हैं जो कोचिंग के लिए अपने घर और परिवार से दूर रहते हैं. इनकी अपनी समस्याएँ हैं, डर है, कोरोना के संक्रमन का खतरा है. मानसिक तनाव होने की शंका है. इसलिए सरकार ने कुछ छात्रों की आवाज सुन ली और उन्हें उनके घर भेज दिया गया. लेकिन अभी भी कुछ छात्र हैं जो लॉकडाउन में फंसे हैं और घर नहीं जा पा रहे हैं.

लेकिन वो गरीब जो रो रहे हैं, पैदल ही अपनी पत्नी, छोटे-छोटे बच्चों और बुजुर्ग परिवार वालों के साथ हजारों किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंचना चाहते हैं, उनके साथ यह अन्याय क्यों ? उन सबों को भी बसों की व्यवस्था कर उनके घर क्यों नहीं पहुंचवाया जा सकता है ? इन गरीबों के ऊपर डांडा चलाकर, मुर्गा बनाकर उन्हें कहीं भी परेशान होने छोड़ दिया जाना केंद्र और अन्य राज्य सरकारों के ऊपर बड़े सवाल खड़े करता है.

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