Hindi Fiction Stories : एक अच्छा दोस्त

Hindi Fiction Stories :  सतीश लंबा, गोरा और छरहरे बदन का नौजवान था. जब वह सीनियर क्लर्क बन कर टैलीफोन महकमे में पहुंचा, तो राधा उसे देखती ही रह गई. शायद वह उस के सपनों के राजकुमार सरीखा था.

कुछ देर बाद बड़े बाबू ने पूरे स्टाफ को अपने केबिन में बुला कर सतीश से मिलवाया.

राधा को सतीश से मिलवाते हुए बड़े बाबू ने कहा, ‘‘सतीश, ये हैं हमारी स्टैनो राधा. और राधा ये हैं हमारे औफिस के नए क्लर्क सतीश.’’

राधा ने एक बार फिर सतीश को ऊपर से नीचे तक देखा और मुसकरा दी.

औफिस में सतीश का आना राधा की जिंदगी में भूचाल लाने जैसा था. वह घर जा कर सतीश के सपनों में खो गई. दिन में हुई मुलाकात को भूलना उस के बस में नहीं था.

सतीश और राधा हमउम्र थे. राधा के मन में उधेड़बुन चल रही थी. उसे लग रहा था कि काश, सतीश उस की जिंदगी में 2 साल पहले आया होता.

राधा की शादी 2 साल पहले मोहन के साथ हुई थी. वह एक प्राइवेट कंपनी में असिस्टैंट मैनेजर था. घर में किसी चीज की कमी नहीं थी, मगर मोहन को कंपनी के काम से अकसर बाहर ही रहना पड़ता था. घर में रहते हुए भी वह राधा पर कम ही ध्यान दे पाता था.

यों तो राधा एक अच्छी बीवी थी, पर मोहन का बारबार शहर से बाहर जाना उसे पसंद नहीं था. मोहन का सपाट रवैया उसे अच्छा नहीं लगता था. वह तो एक ऐसे पति का सपना ले कर आई थी, जो उस के इर्दगिर्द चक्कर काटता रहे. लेकिन मोहन हमेशा अपने काम में लगा रहता था.

अगले दिन सतीश समय से पहले औफिस पहुंच गया. वह अपनी सीट पर बैठा कुछ सोच रहा था कि तभी राधा ने अंदर कदम रखा.

सतीश को सामने देख राधा ने उस से पूछा, ‘‘कैसे हैं आप? इस शहर में पहला दिन कैसा रहा?’’

सतीश ने सहज हो कर जवाब दिया, ‘‘मैं ठीक हूं. पहला दिन तो अच्छा ही रहा. आप कैसी हैं?’’

राधा ने चहकते हुए कहा, ‘‘खुद ही देख लो, एकदम ठीक हूं.’’

इस के बाद राधा लगातार सतीश के करीब आने की कोशिश करने लगी. धीरेधीरे सतीश भी खुलने लगा. दोनों औफिस में हंसतेबतियाते रहते थे.

हालांकि औफिस के दूसरे लोग उन की इस बढ़ती दोस्ती से अंदर ही अंदर जलते थे. वे पीठ पीछे जलीकटी बातें भी करने लगे थे.

राधा के जन्मदिन पर सतीश ने उसे एक बढि़या सा तोहफा दिया और कैंटीन में ले जा कर लंच भी कराया.

राधा एक नई कशिश का एहसास कर रही थी. समय पंख लगा कर उड़ता गया. सतीश और राधा की दोस्ती गहराती चली गई.

राधा शादीशुदा है, सतीश यह बात बखूबी जानता था. वह अपनी सीमाओं को भी जानता था. उसे तो एक अजनबी शहर में कोई अपना मिल गया था, जिस के साथ वह अपने सुखदुख की बातें कर सकता था.

सतीश की मां ने कई अच्छे रिश्तों की बात अपने खत में लिखी थी, मगर वह जल्दी शादी करने के मूड में नहीं था. अभी तो उस की नौकरी लगे केवल 8 महीने ही हुए थे. वह राधा के साथ पक्की दोस्ती निभा रहा था, लेकिन राधा इस दोस्ती का कुछ और ही मतलब लगा रही थी.

राधा को लगने लगा था कि सतीश उस से प्यार करने लगा है. वह पहले से ज्यादा खुश रहने लगी थी. वह अपने मेकअप और कपड़ों पर भी ज्यादा ध्यान देने लगी थी. उस पर सतीश का नशा छाने लगा था. वह मोहन का वजूद भूलती जा रही थी.

सतीश हमेशा राधा की पसंदनापसंद का खयाल रखता था. वह उस की हर बात की तारीफ किए बिना नहीं रहता था. यही तो राधा चाहती थी. उसे अपना सपना सच होता दिखाई दे रहा था.

एक दिन राधा ने सतीश को डिनर पर अपने घर बुलाया. सतीश सही समय पर राधा के घर पहुंच गया.

नीली जींस व सफेद शर्ट में वह बेहद सजीला जवान लग रहा था. उधर राधा भी किसी परी से कम नहीं लग रही थी. उस ने नीले रंग की बनारसी साड़ी बांध रखी थी, जो उस के गोरे व हसीन बदन पर खूब फब रही थी.

सतीश के दरवाजे की घंटी बजाते ही राधा की बांछें खिल उठीं. उस ने मीठी मुसकान बिखेरते हुए दरवाजा खोला और उसे भीतर बुलाया.

ड्राइंगरूम में बैठा सतीश इधरउधर देख रहा था कि तभी राधा चाय ले कर आ गई.

‘‘मैडम, मोहनजी कहां हैं? वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे,’’ सतीश ने पूछा.

राधा खीज कर बोली, ‘‘वे कंपनी के काम से हफ्तेभर के लिए हैदराबाद गए हैं. उन्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं रहती है. मैं अकेली दीवारों से बातें करती रहती हूं. खैर छोड़ो, चाय ठंडी हो रही है.’’

सतीश को लगा कि उस ने राधा की किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है. बातोंबातों में चाय कब खत्म हो गई, पता ही नहीं चला.

राधा को लग रहा था कि सतीश ने आ कर कुछ हद तक उस की तनहाई दूर की है. सतीश कितना अच्छा है. बातबात पर हंसतामुसकराता है. उस का कितना खयाल रखता है.

तभी सतीश ने टोकते हुए पूछा, ‘‘राधा, कहां खो गई तुम?’’

‘‘अरे, कहीं नहीं. सोच रही थी कि तुम्हें खाने में क्याक्या पसंद हैं?’’

सतीश ने चुटकी लेते हुए जवाब दिया, ‘‘बस यही राजमा, पुलाव, रायता, पूरीपरांठे और मूंग का हलवा. बाकी जो आप खिलाएंगी, वही खा लेंगे.’’

‘‘क्या बात है. आज तो मेरी पसंद हम दोनों की पसंद बन गई,’’ राधा ने खुश होते हुए कहा.

राधा सतीश को डाइनिंग टेबल पर ले गई. दोनों आमनेसामने जा बैठे. वहां काफी पकवान रखे थे.

खाते हुए बीचबीच में सतीश कोई चुटकुला सुना देता, तो राधा खुल कर ठहाका लगा देती. माहौल खुशनुमा हो गया था.

‘काश, सब दिन ऐसे ही होते,’ राधा सोच रही थी.

सतीश ने खाने की तारीफ करते हुए कहा, ‘‘वाह, क्या खाना बनाया?है, मैं तो उंगली चाटता रह गया. तुम इसी तरह खिलाती रही तो मैं जरूर मोटा हो जाऊंगा.’’

‘‘शुक्रिया जनाब, और मेरे बारे में आप का क्या खयाल है?’’ कहते हुए राधा ने सतीश पर सवालिया निगाह डाली.

‘‘अरे, आप तो कयामत हैं, कयामत. कहीं मेरी नजर न लग जाए आप को,’’ सतीश ने मुसकरा कर जवाब दिया.

सतीश की बात सुन कर राधा झूम उठी. उस की आंखों के डोरे लाल होने लगे थे. वह रोमांटिक अंदाज में अपनी कुरसी से उठी और सतीश के पास जा कर स्टाइल से कहने लगी, ‘‘सतीश, आज मौसम कितना हसीन है. बाहर बूंदों की रिमझिम हो रही?है और यहां हमारी बातोें की. चलो, एक कदम और आगे बढ़ाएं. क्यों न प्यारमुहब्बत की बातें करें…’’

इतना कह कर राधा ने अपनी गोरीगोरी बांहें सतीश के गले में डाल दीं. सतीश राधा का इरादा समझ गया. एक बार तो उस के कदम लड़खड़ाए, मगर जल्दी ही उस ने खुद पर काबू पा लिया और राधा को अपने से अलग करता हुआ बोला, ‘‘राधाजी, आप यह क्या कर रही?हैं? क्यों अपनी जिंदगी पर दाग लगाने पर तुली हैं? पलभर की मौजमस्ती आप को तबाह कर देगी.

‘‘अपने जज्बातों पर काबू कीजिए. मैं आप का दोस्त हूं, अंधी राहों पर धकेलने वाला हवस का गुलाम नहीं.

‘‘आप अपनी खुशियां मोहनजी में तलाशिए. आप के इस रूप पर उन्हीं का हक है. उन्हें अपनाने की कोशिश कीजिए,’’ इतना कह कर सतीश तेज कदमों से बाहर निकल गया.

राधा ठगी सी उसे देखती रह गई. उसे अपने किए पर अफसोस हो रहा था. वह सोचने लगी, ‘मैं क्यों इतनी कमजोर हो गई? क्यों सतीश को अपना सबकुछ मान बैठी? क्यों इस कदर उतावली हो गई?

‘अगर सतीश ने मुझे न रोका होता तो आज मैं कहीं की न रहती. बाद में वह मुझे ब्लैकमेल भी कर सकता था. मगर वह ऐसा नहीं है. उस ने मुझे भटकने से रोक लिया. कितना महान है सतीश. मुझे उस की दोस्ती पर नाज है.’

लेखक- नरेंद्र सिंह ‘नीहार’

Hindi Love Stories : क्या मानसी अपने पति को धोखा दे रही थी?

Hindi Love Stories : अचानक शुरू हुई रिमझिम ने मौसम खुशगवार कर दिया था. मानसी ने एक नजर खिड़की के बाहर डाली. पेड़पौधों पर झरझर गिरता पानी उन का रूप संवार रहा था. इस मदमाते मौसम में मानसी का मन हुआ कि इस रिमझिम में वह भी अपना तनमन भिगो ले.

मगर उस की दिनचर्या ने उसे रोकना चाहा. मानो कह रही हो हमें छोड़ कर कहां चली. पहले हम से तो रूबरू हो लो.

रोज वही ढाक के तीन पात. मैं ऊब गई हूं इन सब से. सुबहशाम बंधन ही बंधन. कभी तन के, कभी मन के. जाओ मैं अभी नहीं मिलूंगी तुम से. मन ही मन निश्चय कर मानसी ने कामकाज छोड़ कर बारिश में भीगने का मन बना लिया.

क्षितिज औफिस जा चुका था और मानसी घर में अकेली थी. जब तक क्षितिज घर पर रहता था वह कुछ न कुछ हलचल मचाए रखता था और अपने साथसाथ मानसी को भी उसी में उलझाए रखता था. हालांकि मानसी को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी और वह सहर्ष क्षितिज का साथ निभाती थी. फिर भी वह क्षितिज के औफिस जाते ही स्वयं को बंधनमुक्त महसूस करती थी और मनमानी करने को मचल उठती थी.

इस समय भी मानसी एक स्वच्छंद पंछी की तरह उड़ने को तैयार थी. उस ने बालों से कल्चर निकाल उन्हें खुला लहराने के लिए छोड़ दिया जो क्षितिज को बिलकुल पसंद नहीं था. अपने मोबाइल को स्पीकर से अटैच कर मनपसंद फिल्मी संगीत लगा दिया जो क्षितिज की नजरों में बिलकुल बेकार और फूहड़ था.

अत: जब तक वह घर में रहता था, नहीं बजाया जा सकता था. यानी अब मानसी अपनी आजादी के सुख को पूरी तरह भोग रही थी.

अब बारी थी मौसम का आनंद उठाने की. उस के लिए वह बारिश में भीगने के लिए आंगन में जाने ही वाली थी कि दरवाजा खटखटाने की आवाज आई.

इस भरी बरसात में कौन हो सकता है. पोस्टमैन के आने में तो अभी देरी है. धोबी नहीं हो सकता. दूध वाला भी नहीं. तो फिर कौन है? सोचतीसोचती मानसी दरवाजे तक जा पहुंची.

दरवाजे पर वह व्यक्ति था जिस की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी.

‘‘आइए,’’ उस ने दरवाजा खोलते हुए कुछ संकोच से कहा और फिर जैसे ही वह आगंतुक अंदर आने को हुआ बोली, ‘‘पर वे तो औफिस चले गए हैं.’’

‘‘हां, मुझे पता है. मैं ने उन की गाड़ी निकलते देख ली थी,’’ आगंतुक जोकि उन के महल्ले का ही था ने अंदर आ कर सोफे पर बैठते हुए कहा.

यह सुन कर मानसी मन ही मन बड़बड़ाई कि जब देख ही लिया था तो फिर क्यों चले आए हो… वह मन ही मन आकाश के बेवक्त यहां आने पर कु्रद्ध थी, क्योंकि उन के आने से उस का बारिश में भीगने का बनाबनाया प्रोग्राम चौपट हो रहा था. मगर मन मार कर वह भी वहीं सोफे पर बैठ गई.

शिष्टाचारवश मानसी ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया, ‘‘कैसे हैं आप? काफी दिनों बाद नजर आए.’’

‘‘जैसा कि आप देख ही रहीं… बिलकुल ठीक हूं. काम पर जाने के लिए निकला ही था कि बरसात शुरू हो गई. सोचा यहीं रुक जाऊं. इस बहाने आप से मुलाकात भी हो जाएगी.’’

‘‘ठीक किया जो चले आए. अपना ही घर है. चायकौफी क्या लेंगे आप?’’

‘‘जो भी आप पिला दें. आप का साथ और आप के हाथ हर चीज मंजूर है,’’ आकाश ने मुसकरा कर कहा तो मानसी का बिगड़ा मूड कुछ हद तक सामान्य हो गया, क्योंकि उस मुस्कराहट में अपनापन था.

मानसी जल्दी 2 कप चाय बना लाई. चाय के दौरान भी कुछ औपचारिक बातें होती रहीं. इसी बीच बूंदाबांदी कम हो गई.

‘‘आप की इजाजत हो तो अब मैं चलूं?’’ फिर आकाश के चेहरे पर वही मुसकराहट थी.

‘‘जी,’’ मानसी ने कहा, ‘‘फिर कभी फुरसत से आइएगा भाभीजी के साथ.’’

‘‘अवश्य यदि वह आना चाहेगी तो उसे भी ले आऊंगा. आप तो जानती ही हैं कि उसे कहीं आनाजाना पसंद नहीं,’’ कहतेकहते आकाश के चेहरे पर उदासी छा गई.

मानसी को लगा कि उस ने आकाश की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो, क्योंकि वह जानती थी कि आकाश की पत्नी मानसिक रूप से अस्वस्थ है और इसी कारण लोगों से बात करने में हिचकिचाती है.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं?’’ अगले दिन भी जब उसी मुसकराहट के साथ आकाश ने पूछा तो जवाब में मानसी भी मुसकरा दी और दरवाजा खोल दिया.

‘‘चाय या कौफी?’’

‘‘कुछ नहीं… औपचारिकता करने की आवश्यकता नहीं. आज भी तुम से दो घड़ी बात करने की इच्छा हुई तो फिर चला आया.’’

‘‘अच्छा किया. मैं भी बोर ही हो रही थी,’’ मानसी जानती थी कि उन्हें यह बताने की आवश्यकता नहीं थी कि क्षितिज कहां है, क्योंकि निश्चय ही वे जानते थे कि वे घर पर नहीं हैं.

इस तरह आकाश के आनेजाने का सिलसिला शुरू हो गया वरना इस महल्ले में किसी के घर आनेजाने का रिवाज कम ही था. यहां अधिकांश स्त्रियां नौकरीपेशा थीं या फिर छोटे बालबच्चों वाली. एक वही अपवाद थी जो न तो कोई जौब करती थी और न ही छोटे बच्चों वाली थी.

मानसी का एकमात्र बेटा 10वीं कक्षा में बोर्डिंग स्कूल में पढ़ता था. अपने अकेलेपन से जूझती मानसी को अकसर अपने लिए एक मित्र की आवश्यकता महसूस होती थी और अब वह आवश्यकता आकाश के आने से पूरी होने लगी थी, क्योंकि वे घरगृहस्थी की बातों से ले कर फिल्मों, राजनीति, साहित्य सभी तरह की चर्चा कर लेते थे.

आकाश लगभग रोज ही आफिस जाने से पूर्व मानसी से मिलते हुए जाते थे और अब स्थिति यह थी कि मानसी क्षितिज के जाते ही आकाश के आने का इंतजार करने लग जाती थी.

एक दिन जब आकाश नहीं आए तो अगले दिन उन के आते ही मानसी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ, कल क्यों नहीं आए? मैं ने कितना इंतजार किया.’’

आकाश ने हैरानी से मानसी की ओर देखा और फिर बोले, ‘‘क्या मतलब? मैं ने रोज आने का वादा ही कब किया है?’’

‘‘सभी वादे किए नहीं जाते… कुछ स्वयं ही हो जाते हैं. अब मुझे आप के रोज आने की आदत जो हो गई है.’’

‘‘आदत या मुहब्बत?’’ आकाश ने मुसकरा कर पूछा तो मानसी चौंकी, उस ने देखा कि आज उन की मुसकराहट अन्य दिनों से कुछ अलग है.

मानसी सकपका गई. पर फिर उसे लगा कि शायद वे मजाक कर रहे हैं. अपनी सकपकाहट से अनभिज्ञता का उपक्रम करते हुए वह सदा की भांति बोली, ‘‘बैठिए, आज क्षितिज का जन्मदिन है. मैं ने केक बनाया है. अभी ले कर आती हूं.’’

‘‘तुम ने मेरी बात का जवाब नहीं दिया.’’ आकाश फिर बोले तो उसे बात की गंभीरता का एहसास हुआ.

‘‘क्या जवाब देती.’’

‘‘कह दो कि तुम मेरा इंतजार इसलिए करती हो कि तुम मुझे पसंद करती हो.’’

‘‘हां दोनों ही बातें सही हैं.’’

‘‘यानी मुहब्बत है.’’

‘‘नहीं, मित्रता.’’

‘‘एक ही बात है. स्त्री और पुरुष की मित्रता को यही नाम दिया जाता है,’’ आकाश ने मानसी की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा.

‘‘हां दिया जाता है,’’ मानसी ने हाथ को हटाते हुए कहा, ‘‘क्योंकि साधारण स्त्रीपुरुष मित्रता का अर्थ इसी रूप में जानते हैं और मित्रता के नाम पर वही करते हैं जो मुहब्बत में होता है.’’

‘‘हम भी तो साधारण स्त्रीपुरुष ही हैं.’’

‘‘हां हैं, परंतु मेरी सोच कुछ अलग है.’’

‘‘सोच या डर?’’

‘‘डर किस बात का?’’

‘‘क्षितिज का. तुम डरती हो कि कहीं उसे पता चल गया तो?’’

‘‘नहीं, प्यार, वफा और समर्पण को डर नहीं कहते. सच तो यह है कि क्षितिज तो अपने काम में इतना व्यस्त है कि मैं उस के पीछे क्या करती हूं, वह नहीं जानता और यदि मैं न चाहूं तो वह कभी जान भी नहीं पाएगा.’’

‘‘फिर अड़चन क्या है?’’

‘‘अड़चन मानसिकता की है, विचारधारा की है.’’

‘‘मानसिकता बदली जा सकती है.’’

‘‘हां, यदि आवश्यकता हो तो… परंतु मैं इस की आवश्यकता नहीं समझती.’’

‘‘इस में बुराई ही क्या है?’’

‘‘बुराई है… आकाश, आप नहीं जानते हमारे समाज में स्त्रीपुरुष की दोस्ती को उपेक्षा की दृष्टि से देखने का यही मुख्य कारण है. जानते हो एक स्त्री और पुरुष बहुत अच्छे मित्र हो सकते हैं, क्योंकि उन के सोचने का दृष्टिकोण अलग होता है. इस से विचारों में विभिन्नता आती है. ऐसे में बातचीत का आनंद आता है, परंतु ऐसा नहीं होता.’’

‘‘अकसर एक स्त्री और पुरुष अच्छे मित्र बनने के बजाय प्रेमी बन कर रह जाते हैं और फिर कई बार हालात के वशीभूत हो कर एक ऐसी अंतहीन दिशा में बहने लगते हैं जिस की कोई मंजिल नहीं होती.’’

‘‘परंतु यह स्वाभाविक है, प्राकृतिक है, इसे क्यों और कैसे रोका जाए?’’

‘‘अपने हित के लिए ठीक उसी प्रकार जैसे हम ने अन्य प्राकृतिक चीजों, जिन से हमें नुकसान हो सकता है, पर नियंत्रण पा लिया है.’’

‘‘यानी तुम्हारा इनकार है,’’ ऐसा लगता था आकाश कुछ बुझ से गए थे.

‘‘इस में इनकार या इकरार का प्रश्न ही कहां है? मुझे आप की मित्रता पर अभी भी कोई आपति नहीं है बशर्ते आप मुझ से अन्य कोई अपेक्षा न रखें.’’

‘‘दोनों बातों का समानांतर चलना बहुत मुश्किल है.’’

‘‘जानती हूं फिर भी कोशिश कीजिएगा.’’

‘‘चलता हूं.’’

‘‘कल आओगे?’’

‘‘कुछ कह नहीं सकता.’’

सुबह के 10 बजे हैं. क्षितिज औफिस चला गया है पर आकाश अभी तक नहीं आए. मानसी को फिर से अकेलापन महसूस होने लगा है.

‘लगता है आकाश आज नहीं आएंगे. शायद मेरा व्यवहार उन के लिए अप्रत्याशित था, उन्हें मेरी बातें अवश्य बुरी लगी होंगी. काश वे मुझे समझ पाते,’ सोच मानसी ने म्यूजिक औन कर दिया और फिर सोफे पर बैठ कर एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगीं.

सहसा किसी ने दरवाजा खटखटाया. मानसी दरवाजे की ओर लपकी. देखा दरवाजे पर सदा की तरह मुसकराते हुए आकाश ही थे. मानसी ने भी मुसकरा कर दरवाजा खोल दिया. उस ने आकाश की ओर देखा. आज उन की वही पुरानी चिरपरिचित मुसकान फिर लौट आई थी.

इसी के साथ आज मानसी को विश्वास हो गया कि अब समाज में स्त्रीपुरुष के रिश्ते की उड़ान को नई दिशाएं अवश्य मिल जाएंगी, क्योंकि उन्हें वहां एक आकाश और मिल गया है.

Hindi Story Collection : नसीहत – अरुण और संगीता के बीच क्या संबंध था?

Hindi Story Collection  : कालबेल की आवाज सुन कर दीपू ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर एक औरत खड़ी थी. उस औरत ने बताया कि वह अरुण से मिलना चाहती है. औरत को वहीं रोक कर दीपू अरुण को बताने चला गया.

‘‘साहब, दरवाजे पर एक औरत खड़ी है, जो आप से मिलना चाहती है,’’ दीपू ने अरुण से कहा.

‘‘कौन है?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता साहब, लेकिन देखने में भली लगती है,’’ दीपू ने जवाब दिया.

‘‘बुला लो उसे. देखें, किस काम से आई है?’’ अरुण ने कहा.

दीपू उस औरत को अंदर बुला लाया.

अरुण उसे देखते ही हैरत से बोला, ‘‘अरे संगीता, तुम हो. कहो, कैसे आना हुआ? आओ बैठो.’’

संगीता सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘बहुत मुश्किल से तुम्हें ढूंढ़ पाई हूं. एक तुम हो जो इतने दिनों से इस शहर में हो, पर मेरी याद नहीं आई.

‘‘तुम ने कहा था कि जब कानपुर आओगे, तो मुझ से मिलोगे. मगर तुम तो बड़े साहब हो. इन सब बातों के लिए तुम्हारे पास फुरसत ही कहां है?’’

‘‘संगीता, ऐसी बात नहीं है. दरअसल, मैं हाल ही में कानपुर आया हूं. औफिस के काम से फुरसत ही नहीं मिलती. अभी तक तो मैं ने इस शहर को ठीक से देखा भी नहीं है.

‘‘अब छोड़ो इन बातों को. पहले यह बताओ कि मेरे यहां आने की जानकारी तुम्हें कैसे मिली?’’ अरुण ने संगीता से पूछा.

‘‘मेरे पति संतोष से, जो तुम्हारे औफिस में ही काम करते हैं,’’ संगीता ने चहकते हुए बताया.

‘‘तो संतोषजी हैं तुम्हारे पति. मैं तो उन्हें अच्छी तरह जानता हूं. वे मेरे औफिस के अच्छे वर्कर हैं,’’ अरुण ने कहा.

अरुण के औफिस जाने का समय हो चुका था, इसलिए संगीता जल्दी ही अपने घर आने की कह कर लौट गई.

औफिस के कामों से फुरसत पा कर अरुण आराम से बैठा था. उस के मन में अचानक संगीता की बातें आ गईं.

5 साल पहले की बात है. अरुण अपनी दीदी की बीमारी के दौरान उस के घर गया था. वह इंजीनियरिंग का इम्तिहान दे चुका था.

संगीता उस की दीदी की ननद की लड़की थी. उस की उम्र 18 साल की रही होगी. देखने में वह अच्छी थी. किसी तरह वह 10वीं पास कर चुकी थी. पढ़ाई से ज्यादा वह अपनेआप पर ध्यान देती थी.

संगीता दीदी के घर में ही रहती थी. दीदी की लंबी बीमारी के कारण अरुण को वहां तकरीबन एक महीने तक रुकना पड़ा. जीजाजी दिनभर औफिस में रहते थे. घर में दीदी की बूढ़ी सास थी. बुढ़ापे के कारण उन का शरीर तो कमजोर था, पर नजरें काफी पैनी थीं.

अरुण ऊपर के कमरे में रहता था. अरुण को समय पर नाश्ता व खाना देने के साथसाथ उस के ज्यादातर काम संगीता ही करती थी.

संगीता जब भी खाली रहती, तो ज्यादा समय अरुण के पास ही बिताने की कोशिश करती.

संगीता की बातों में कीमती गहने, साडि़यां, अच्छा घर व आधुनिक सामानों को पाने की ख्वाहिश रहती थी. उस के साथ बैठ कर बातें करना अरुण को अच्छा लगता था.

संगीता भी अरुण के करीब आती जा रही थी. वह मन ही मन अरुण को चाहने लगी थी. लेकिन दीदी की सास दोनों की हालत समझ गईं और एक दिन उन्होंने दीदी के सामने ही कहा, ‘अरुण, अभी तुम्हारी उम्र कैरियर बनाने की है. जज्बातों में बह कर अपनी जिंदगी से खेलना तुम्हारे लिए अच्छा नहीं है.’

दीदी की सास की बातें सुन कर अरुण को अपराधबोध का अहसास हुआ. वह कुछ दिनों बाद ही दीदी के घर से वापस आ गया. तब तक दीदी भी ठीक हो चुकी थीं.

एक साल बाद अरुण गजटेड अफसर बन गया. इस बीच संगीता की शादी तय हो गई थी. जीजाजी शादी का बुलावा देने घर आए थे.

लौटते समय वे शादी के कामों में हाथ बंटाने के लिए अरुण को साथ लेते गए. दीदी के घर में शादी की चहलपहल थी.

एक शाम अरुण घर के पास बाग में यों ही टहल रहा था, तभी अचानक संगीता आई और बोली, ‘अरुण, समय मिल जाए, तो कभी याद कर लेना.’

संगीता की शादी हो गई. वह ससुराल चली गई. अरुण ने भी शादी कर ली.

आज संगीता अरुण के घर आई, तो अरुण ने भी कभी संगीता के घर जाने का इरादा कर लिया. पर औफिस के कामों में बिजी रहने के कारण वह चाह कर भी संगीता के घर नहीं जा सका. मगर संगीता अरुण के घर अब रोज जाने लगी.

कभीकभी संगीता अरुण के साथ उस के लिए शौपिंग करने स्टोर में चली जाती. स्टोर का मालिक अरुण के साथ संगीता को भी खास दर्जा देता था.

एकाध बार तो ऐसा भी होता कि अरुण की गैरहाजिरी में संगीता स्टोर में जा कर अरुण व अपनी जरूरत की चीजें खरीद लाती, जिस का भुगतान अरुण बाद में कर देता.

अरुण संगीता के साथ काफी घुलमिल गया था. संगीता अरुण को खाली समय का अहसास नहीं होने देती थी.

एक दिन संगीता अरुण को साथ ले कर साड़ी की दुकान पर गई. अरुण की पसंद से उस ने 3 साडि़यां पैक कराईं.

काउंटर पर आ कर साड़ी का बिल ले कर अरुण को देती हुई चुपके से बोली, ‘‘अभी तुम भुगतान कर दो, बाद में मैं तुम्हें दे दूंगी.’’

अरुण ने बिल का भुगतान कर दिया और संगीता के साथ आ कर गाड़ी में बैठ गया.

गाड़ी थोड़ी दूर ही चली थी कि संगीता ने कहा, ‘‘जानते हो अरुण, संतोषजी के चाचा की लड़की की शादी है. मेरे पास शादी में पहनने के लिए कोई ढंग की साड़ी नहीं है, इसीलिए मुझे नई साडि़यां लेनी पड़ीं.

‘‘मेरी शादी में मां ने वही पुराने जमाने वाला हार दिया था, जो टूटा पड़ा है. शादी में पहनने के लिए मैं एक अच्छा सा हार लेना चाहती हूं, पर क्या करूं. पैसे की इतनी तंगी है कि चाह कर भी मैं कुछ नहीं कर पाती हूं. मैं चाहती थी कि तुम से पैसा उधार ले कर एक हार ले लूं. बाद में मैं तुम्हें पैसा लौटा दूंगी.’’

अरुण चुपचाप संगीता की बातें सुनता हुआ गाड़ी चलाए जा रहा था.

उसे चुप देख कर संगीता ने पूछा, ‘‘अरुण, तो क्या तुम चल रहे हो ज्वैलरी की दुकान में?’’

‘‘तुम कहती हो, तो चलते हैं,’’ न चाहते हुए भी अरुण ने कहा.

संगीता ने ज्वैलरी की दुकान में 15 हजार का हार पसंद किया.

अरुण ने हार की कीमत का चैक काट कर दुकानदार को दे दिया. फिर दोनों वापस आ गए.

अरुण को संगीता के साथ समय बिताने में एक अनोखा मजा मिलता था.

आज शाम को उस ने रोटरी क्लब जाने का मूड बनाया. वह जाने की तैयारी कर ही रहा था, तभी संगीता आ गई.

संगीता काफी सजीसंवरी थी. उस ने साड़ी से मैच करता हुआ ब्लाउज पहन रखा था. उस ने अपने लंबे बालों को काफी सलीके से सजाया था. उस के होंठों की लिपस्टिक व माथे पर लगी बिंदी ने उस के रूप को काफी निखार दिया था.

देखने से लगता था कि संगीता ने सजने में काफी समय लगाया था. उस के आते ही परफ्यूम की खुशबू ने अरुण को मदहोश कर दिया. वह कुछ पलों तक ठगा सा उसे देखता रहा.

तभी संगीता ने अरुण को फिल्म के 2 टिकट देते हुए कहा, ‘‘अरुण, तुम्हें आज मेरे साथ फिल्म देखने चलना होगा. इस में कोई बहाना नहीं चलेगा.’’

अरुण संगीता की बात को टाल न सका और वह संगीता के साथ फिल्म देखने चला गया.

फिल्म देखते हुए बीचबीच में संगीता अरुण से सट जाती, जिस से उस के उभरे अंग अरुण को छूने लगते.

फिल्म खत्म होने के बाद संगीता ने होटल में चल कर खाना खाने की इच्छा जाहिर की. अरुण मान गया.

खाना खा कर होटल से निकलते समय रात के डेढ़ बज रहे थे. अरुण ने संगीता को उस के घर छोड़ने की बात कही, तो संगीता ने उसे बताया कि चाची की लड़की का तिलक आया है. उस में संतोष भी गए हैं. वह घर में अकेली ही रहेगी. रात काफी हो चुकी है. इतनी रात को गाड़ी से घर जाना ठीक नहीं है. आज रात वह उस के घर पर ही रहेगी.

अरुण संगीता को साथ लिए अपने घर आ गया. वह उस के लिए अपना बैडरूम खाली कर खुद ड्राइंगरूम में सोने चला गया. वह काफी थका हुआ था, इसलिए दीवान पर लुढ़कते ही उसे गहरी नींद आ गई.

रात गहरी हो चुकी थी. अचानक अरुण को अपने ऊपर बोझ का अहसास हुआ. उस की नाक में परफ्यूम की खुशबू भर गई. वह हड़बड़ा कर उठ बैठा. उस ने देखा कि संगीता उस के ऊपर झुकी हुई थी.

उस ने संगीता को हटाया, तो वह उस के बगल में बैठ गई. अरुण ने देखा कि संगीता की आंखों में अजीब सी प्यास थी. मामला समझ कर अरुण दीवान से उठ कर खड़ा हो गया.

बेचैनी की हालत में संगीता अपनी दोनों बांहें फैला कर बोली, ‘‘सालों बाद मैं ने यह मौका पाया है अरुण, मुझे निराश न करो.’’

लेकिन अरुण ने संगीता को लताड़ते हुए कहा, ‘‘लानत है तुम पर संगीता. औरत तो हमेशा पति के प्रति वफादार रहती है और तुम हो, जो संतोष को धोखा देने पर तुली हुई हो.

‘‘तुम ने कैसे समझ लिया कि मेरा चरित्र तिनके का बना है, जो हवा के झोंके से उड़ जाएगा.

‘‘तुम्हें पता होना चाहिए कि मेरा शरीर मेरी बीवी की अमानत है. इस पर केवल उसी का हक बनता है. मैं इसे तुम्हें दे कर उस के साथ धोखा नहीं करूंगा.

‘‘संगीता, होश में आओ. सुनो, औरत जब एक बार गिरती है, तो उस की बरबादी तय हो जाती है,’’ अपनी बात कहते हुए अरुण ने संगीता को अपने कमरे से बाहर कर के दरवाजा बंद कर लिया.

सुबह देर से उठने के बाद अरुण को पता चला कि संगीता तो तड़के ही वहां से चली गई थी.

अरुण ने अपनी समझदारी से खुद को तो गिरने से बचाया ही, संगीता को भी भटकने नहीं दिया.

Hindi Love Stories : यादों के आंसू

Hindi Love Stories : सांझ ढलते ही थिरकने लगते थे उस के कदम. मचने लगता था शोर, ‘डौली… डौली… डौली…’ उस के एकएक ठुमके पर बरसने लगते थे नोट. फिर गड़ जाती थीं सब की ललचाई नजरें उस के मचलते अंगों पर. लोग उसे चारों ओर घेर कर अपने अंदर का उबाल जाहिर करते थे.

…और 7 साल बाद वह फिर दिख गई. मेरी उम्मीद के बिलकुल उलट. सोचा था कि जब अगली बार मुलाकात होगी, तो वह जरूर मराठी धोती पहने होगी और बालों का जूड़ा बांध कर उन में लगा दिए होंगे चमेली के फूल या पहले की तरह जींसटीशर्ट में, मेरी राह ताकती, उतनी ही हसीन… उतनी ही कमसिन… लेकिन आज नजारा बदला हुआ था. यह क्या… मेरे बचपन की डौल यहां आ कर डौली बन गई थी.

लकड़ी की मेज, जिस पर जरमन फूलदान में रंगबिरंगे डैने सजे हुए थे, से सटे हुए गद्देदार सोफे पर हम बैठे हुए थे. अचानक मेरी नजरें उस पर ठहर गई थीं.

वह मेरी उम्र की थी. बचपन में मेरा हाथ पकड़ कर वह मुझे अपने साथ स्कूल ले कर जाती थी. उन दिनों मेरा परिवार एशिया की सब से बड़ी झोंपड़पट्टी में शुमार धारावी इलाके में रहता था. हम ने वहां की तंग गलियों में बचपन बिताया था. वह मराठी परिवार से थी और मैं राजस्थानी ब्राह्मण परिवार का. उस के पिता आटोरिकशा चलाते थे और उस की मां रेलवे स्टेशन पर अंकुरित अनाज बेचती थी.

हर शुक्रवार को उस के घर में मछली बनती थी, इसलिए मेरी माताजी मुझे उस दिन उस के घर नहीं जाने देती थीं.

बड़ीबड़ी गगनचुंबी इमारतों के बीच धारावी की झोंपड़पट्टी में गुजरे लमहे आज भी मुझे याद आते हैं. उगते हुए सूरज की रोशनी पहले बड़ीबड़ी इमारतों में पहुंचती थी, फिर धारावी के बाशिंदों के पास. धारावी की झोंपड़पट्टी को ‘खोली’ के नाम से जाना जाता है. उन खोलियों की छतें टिन की चादरों से ढकी रहती हैं.

जब कभी वह मेरे घर आती, तो वापस अपने घर जाने का नाम ही नहीं लेती थी. वह अकसर मेरी माताजी के साथ रसोईघर में काम करने बैठ जाती थी. काम भी क्या… छीलतेछीलते आधा किलो मटर तो वह खुद खा जाती थी. माताजी को वह मेरे लिए बहुत पसंद थी, इसलिए वे उस से बहुत स्नेह रखती थीं.

हम कल्याण के बिड़ला कालेज में थर्ड ईयर तक साथ पढे़ थे. हम ने लोकल ट्रेनों में खूब धक्के खाए थे. कभीकभार हम कालेज से बंक मार कर खंडाला तक घूम आते थे. हर शुक्रवार को सिनेमाघर जाना हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया था. इसी बीच उस की मां की मौत हो गई. कुछ दिनों बाद उस के पिता उस के लिए एक नई मां ले आए थे.

ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं और पढ़ाई करने के लिए दिल्ली चला गया था. कई दिनों तक उस के बगैर मेरा मन नहीं लगा था. जैसेतैसे 7 साल निकल गए. एक दिन माताजी की चिट्ठी आई. उन्होंने बताया कि उस के घर वाले धारावी से मुंबई में कहीं और चले गए हैं.

7 साल बाद जब मैं लौट कर आया, तो अब उसे इतने बड़े महानगर में कहां ढूंढ़ता? मेरे पास उस का कोई पताठिकाना भी तो नहीं था. मेरे जाने के बाद उस ने माताजी के पास आना भी बंद कर दिया था. जब वह थी… ऐसा लगता था कि शायद वह मेरे लिए ही बनी हो. और जिंदगी इस कदर खुशगवार थी कि उसे बयां करना मुमकिन नहीं.

मेरा उस से रोज झगड़ा होता था. गुस्से के मारे मैं कई दिनों तक उस से बात ही नहीं करता था, तो वह रोरो कर अपना बुरा हाल कर लेती थी. खानापीना छोड़ देती थी. फिर बीमार पड़ जाती थी और जब डाक्टरों के इलाज से ठीक हो कर लौटती थी, तब मुझ से कहती थी, ‘तुम कितने मतलबी हो. एक बार भी आ कर पूछा नहीं कि तुम कैसी हो?’ जब वह ऐसा कहती, तब मैं एक बार हंस भी देता था और आंखों से आंसू भी टपक पड़ते थे.

मैं उसे कई बार समझाता कि ऐसी बात मत किया कर, जिस से हमारे बीच लड़ाई हो और फिर तुम बीमार पड़ जाओ. लेकिन उस की आदत तो जंगल जलेबी की तरह थी, जो मुझे भी गोलमाल कर देती थी. कुछ भी हो, पर मैं बहुत खुश था, सिवा पिताजी के जो हमेशा अपने ब्राह्मण होने का घमंड दिखाया करते थे.

एक दिन मेरे दोस्त नवीन ने मुझ से कहा, ‘‘यार पृथ्वी… अंधेरी वैस्ट में ‘रैडक्रौस’ नाम का बहुत शानदार बीयर बार है. वहां पर ‘डौली’ नाम की डांसर गजब का डांस करती है. तुम देखने चलोगे क्या? एकाध घूंट बीयर के भी मार लेना. मजा आ जाएगा.’’

बीयर बार के अंदर के हालात से मैं वाकिफ था. मेरा मन भी कच्चा हो रहा था कि अगर पुलिस ने रेड कर दी, तो पता नहीं क्या होगा… फिर भी मैं उस के साथ हो लिया. रात गहराने के साथ बीयर बार में रोशनी की चमक बढ़ने लगी थी. नकली धुआं उड़ने लगा था. धमाधम तेज म्यूजिक बजने लगा था.

अब इंतजार था डौली के डांस का. अगला नजारा मुझे चौंकाने वाला था. मैं गया तो डौली का डांस देखने था, पर साथ ले आया चिंता की रेखाएं. उसे देखते ही बार के माहौल में रूखापन दौड़ गया. इतने सालों बाद दिखी तो इस रूप में. उसे वहां देख कर मेरे अंदर आग फूट रही थी. मेरे अंदर का उबाल तो इतना ज्यादा था कि आंखें लाल हो आई थीं. आज वह मुझे अनजान सी आंखों से देख रही थी. इस से बड़ा दर्द मेरे लिए और क्या हो सकता था? उसे देखते ही, उस के साथ बिताई यादों के झरोखे खुल गए थे.

मुझे याद हो आया कि जब तक उस की मां जिंदा थीं, तब तक सब ठीक था. उन के मर जाने के बाद सब धुंधला सा गया था. उस की अल्हड़ हंसी पर आज ताले जड़े हुए थे. उस के होंठों पर दिखावे की मुसकान थी.

वह अपनेआप को इस कदर पेश कर रही थी, जैसे मुझे कुछ मालूम ही नहीं. वह रात को यहां डांसर का काम किया करती थी और रात की आखिरी लोकल ट्रेन से अपने घर चली जाती थी. उस का गाना खत्म होने तक बीयर की पूरी 2 बोतलें मेरे अंदर समा गई थीं.

मेरा सिर घूमने लगा था. मन तो हुआ उस पर हाथ उठाने का… पर एकाएक उस का बचपन का मासूम चेहरा मेरी आंखों के सामने तैर आया. मेरा बीयर बार में मन नहीं लग रहा था. आंखों में यादों के आंसू बह रहे थे. मैं उठ कर बाहर चला गया. नवीन तो नशे में चूर हो कर वहीं लुढ़क गया था.

मैं ने रात के 2 बजे तक रेलवे स्टेशन पर उस के आने का इंतजार किया. वह आई, तो उस का हाथ पकड़ कर मैं ने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?’’ ‘‘तुम इतने दूर चले गए. पढ़ाई छूट गई. पापी पेट के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम तो करना ही था. मैं क्या करती?

‘‘सौतेली मां के ताने सुनने से तो बेहतर था… मैं यहां आ गई. फिर क्या अच्छा, क्या बुरा…’’ उस ने कहा. ‘‘एक बार माताजी से आ कर मिल तो सकती थीं तुम?’’

‘‘हां… तुम्हारे साथ जीने की चाहत मन में लिए मैं गई थी तुम्हारी देहरी पर… लेकिन तुम्हारे दर पर मुझे ठोकर खानी पड़ी. ‘‘इस के बाद मन में ही दफना दिए अनगिनत सपने. खुशियों का सैलाब, जो मन में उमड़ रहा था, तुम्हारे पिता ने शांत कर दिया और मैं बैरंग लौट आई.’’

‘‘तुम्हें एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया. कुछ और काम भी तो कर सकती थीं?’’ मैं ने कहा. ‘‘कहां जाती? जहां भी गई, सभी ने जिस्म की नुमाइश की मांग रखी. अब तुम ही बताओ, मैं क्या करती?’’

‘‘मैं जानता हूं कि तुम्हारा मन मैला नहीं है. कल से तुम यहां नहीं आओगी. किसी को कुछ कहनेसमझाने की जरूरत नहीं है. हम दोनों कल ही दिल्ली चले जाएंगे.’’ ‘‘अरे बाबू, क्यों मेरे लिए अपनी जिंदगी खराब कर रहे हो?’’

‘‘खबरदार जो आगे कुछ बोली. बस, कल मेरे घर आ जाना.’’ इतना कह कर मैं घर चला आया और वह अपने घर चली गई. रात सुबह होने के इंतजार में कटी. सुबह उठा, तो अखबार ने मेरे होश उड़ा दिए. एक खबर छपी थी, ‘रैडक्रौस बार की मशहूर डांसर डौली की नींद की ज्यादा गोलियां खाने से मौत.’

मेरा रोमरोम कांप उठा. मेरी खुशी का खजाना आज लुट गया और टूट गया प्यार का धागा. ‘‘शादी करने के लिए कहा था, मरने के लिए नहीं. मुझे इतना पराया समझ लिया, जो मुझे अकेला छोड़ कर चली गई? क्या मैं तुम्हारा बोझ उठाने लायक नहीं था? तुम्हें लाल साड़ी में देखने

की मेरी इच्छा को तुम ने क्यों दफना दिया?’’ मैं चिल्लाया और अपने कानों पर हथेलियां रखते हुए मैं ने आंखें भींच लीं.

बाहर से उड़ कर कुछ टूटे हुए डैने मेरे पास आ कर गिर गए थे. हवा से अखबार के पन्ने भी इधरउधर उड़ने लगे थे. माहौल में फिर सन्नाटा था. रूखापन था. गम से भरी उगती हुई सुबह थी वह.

Hindi Love Stories : प्रेम का दूसरा नाम – क्या हो पायी उन दोनों की शादी

Hindi Love Stories : दियाबाती कर अभी उठी ही थी कि सांझ के धुंधलके में दरवाजे पर एक छाया दिखी. इस वक्त कौन आया है यह सोच कर मैं ने जोर से आवाज दी, ‘‘कौन है?’’

‘‘मैं, रोहित, आंटी,’’ कुछ गहरे स्वर में जवाब आया.

रोहित और इस वक्त? अच्छा है जो पूर्वा के पापा घर पर नहीं हैं, यदि होते तो भारी मुश्किल हो जाती, क्योंकि रोहित को देख कर तो उन की त्यौरियां ही चढ़ जाती हैं.

‘‘हां, भीतर आ जाओ बेटा. कहो, कैसे आना हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं, आंटी, सिर्फ यह शादी का कार्ड देने आया था.’’

‘‘किस की शादी है?’’

‘‘मेरी ही है,’’ कुछ शरमाते हुए वह बोला, ‘‘अगले रविवार को शादी और सोमवार को रिसेप्शन है, आप और अंकल जरूर आना.’’

आज तक हमेशा उसे शादी के लिए उत्साहित करने वाली मैं शादी का कार्ड हाथ में थामे मुंहबाए खड़ी थी.

‘‘चलूं, आंटी, देर हो रही है,’’ रोहित बोला, ‘‘कई जगह कार्ड बांटने हैं.’’

‘‘हां बेटा, बधाई हो. तुम शादी कर रहे हो, आएंगे हम, जरूर आएंगे…’’ मैं जैसे सपने से जागती हुई बोली.

बहुत खुश हो कर कहा था यह सब पर ऐसा लगा कि रोहित मेरा अपना दामाद, मेरा अपना बेटा किसी और का हो रहा है. उस पर अब मेरा कोई हक नहीं रह जाएगा.

रोहित हमारी ही गली का लड़का है और मेरी बेटी पूर्वा के साथ बचपन से स्कूल में पढ़ता था. पूर्वा की छोटीछोटी जरूरतों का खयाल करता था. पेंसिल की नोंक टूटने से ले कर उसे रास्ता पार कराने और उस का होमवर्क पूरा कराने तक. बचपन से ही रोहित का हमारे घर आनाजाना था. बच्चों के बचपन की दोस्ती ?पर पूर्वा के पापा ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया लेकिन जैसे ही दोनों बच्चे जवानी की ओर कदम बढ़ाने लगे वह रोहित को देखते ही नाकभौं चढ़ा लेते थे. रोहित और पूर्वा दोनों ही पापा की इस अचानक उपजी नाराजगी का कारण समझ नहीं पाते थे.

पापा का व्यवहार पहले जैसा क्यों नहीं रहा, यह बात 12वीं तक जातेजाते वे अच्छी तरह से समझ गए थे क्योंकि उन के दिल में फूटा हुआ प्रेम का नन्हा सा अंकुर अब विशाल वृक्ष बन चुका था. पापा को उन का साथ रहना क्यों नहीं अच्छा लगता है, इस का कारण वे समझ गए थे. छिप कर पूर्वा रोहित के घर जा कर नोट्स लाती थी और रोहित का तो घर के दरवाजे पर आना भी मना था.

रोहित और पूर्वा ने एकदूसरे को इतना चाहा था कि सपने में भी किसी और की कल्पना करना उन के लिए मुमकिन न था. मेरे सामने ही दोनों का प्रेम फलाफूला था. अब इस पर यों बिजली गिरते देख कर वह मन मसोस कर रह जाती थी.

एक और कारण से पूर्वा के पापा को रोहित पसंद नहीं था. वह कारण उस की गरीबी थी. पिता साधारण सी प्राइवेट कंपनी में क्लर्क थे. घर में उस के एक छोटा भाई और एक बहन थी. 3 बच्चों का भरणपोषण, शिक्षा आदि कम आय में बड़ी मुश्किल से हो पाता था. इस कारण रोहित की मां भी साड़ी में पीकोफाल जैसे छोटेछोटे काम कर के घर खर्चे में पति का हाथ बंटाती थीं. हमारी कपड़ों की 2 बड़ीबड़ी दुकानें थीं. शहर के प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार की इकलौती बेटी पूर्वा राजकुमारी की तरह रहती थी.

रुई की तरह हलके बादलों के नरम प्यार पर जब हकीकत की बिजली कड़कड़ाती है तो क्या होता है? आसमान का दिल फट जाता है और आंसुओं की बरसात शुरू हो जाती है. मैं कभी यह समझ नहीं पाई कि दुनिया बनाने वाले ने दुनिया बनाई और इस में रहने वालों ने समाज बना दिया, जिस के नियमानुसार पूर्वा रोहित के लिए नहीं बनी थी.

तभी फोन की घंटी बजी. लंदन से पूर्वा का फोन था. फोन पर पूछ रही थी, मम्मी, कैसी हो? यहां विवेक का काम ठीक चल रहा है, सोहम अब स्कूल जाने लगा है. तुम कब आओगी? पापा की तबीयत कैसी है? और भी जाने क्याक्या.

मैं कहना चाह रही थी कि रोहित के बारे में नहीं पूछोगी, उस की शादी है, बचपन की दोस्ती क्या कांच के खिलौने से भी कच्ची थी जो पल में झनझना कर टूट गई…पर कुछ न कह सकी और न ही रोहित की शादी होने वाली है यह खुशखबरी उसे सुना सकी.

दामाद विवेक के साथ बेटी पूर्वा खुश है, मुझे खुश होना चाहिए पर रोहित की आंखों में जब भी गीलापन देखती थी, खुश नहीं हो पाती थी. विवेक लंदन की एक बड़ी फर्म में इंजीनियर है. अच्छी कदकाठी, गोरा रंग, उच्च कुल के साथसाथ उच्च शिक्षित, क्या नहीं है उस के पास. पहले पूर्वा जिद पर अड़ी थी कि शादी करेगी तो रोहित से वरना कुंआरी ही रह जाएगी. पर दुनिया की ऊंचनीच के जानकार पूर्वा के पापा ने खुद की बहन के घर बेटी को ले जा कर उस को कुछ ऐसी पट्टी पढ़ाई कि वह सोचने को मजबूर हो गई कि रोहित के छोटे से घर में रहने से बेहतर है विवेक के साथ लंदन में ऐशोआराम से रहना.

बूआ के घर से वापस आ कर जब पूर्वा ने शरमाते हुए मुझ से कहा कि मुझे विवेक पसंद है, तब मेरा दिल धक् कर रह गया था. मैं अपना दिल पत्थर का करना चाहूं तो भी नहीं कर पाती और यह लड़की…मेरी अपनी लड़की सबकु छ भूल गई. लेकिन यह मेरी भूल थी.

लंदन में सबकुछ होते हुए भी वह रोहित के बेतहाशा प्यार को अभी भी भूल नहीं पाई थी.

पूर्वा के पापा आ गए थे. बोले, ‘‘क्या हुआ, आज बड़ी अनमनी सी लग रही हो?’’

‘‘कुछ नहीं,’’ उन के हाथ से बैग लेते हुए मैं बोली, ‘‘पूर्वा की याद आ रही है.’’

‘‘तो फोन कर लो.’’

‘‘अभी थोड़ी देर पहले ही तो उस का फोन आया था, आप को याद कर रही थी.’’

‘‘हां, सोचता हूं, अगले माह तक हम लंदन जा कर पूर्वा से मिल आते हैं. और यह किस की शादी का कार्ड रखा है?’’

‘‘रोहित की.’’

‘‘चलो, अच्छा हुआ जो वह शादी कर रहा है. हां, लड़की कौन है?’’

‘‘फैजाबाद की किसी मिडिल क्लास परिवार की लगती है.’’

‘‘अच्छा है, जितनी चादर हो उतने ही पांव पसारने चाहिए.’’

मैं रसोई में जा कर उन के लिए थाली लगाने लगी. वह जाने क्याक्या बोल रहे थे. मेरा ध्यान रोहित की ओर गया, जिसे मैं बेटे से बढ़ कर मानती हूं. उस के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकती.

पूर्वा के विवाह वाले दिन वह कैसे सुन्न खड़ा था. मैं ने देखा था और देख कर आंखें भर आई थीं. कुछ और तो न कर सकी, बस, पीठ पर हाथ फेर कर मैं ने मूक दिलासा दिया था उसे.

उस का यह उदास रूप देख कर हाथ में रखी द्वाराचार के लिए सजी थाली मनों भारी हो गई थी, पैर दरवाजे की ओर उठ नहीं रहे थे. मैं पूर्वा की मां हूं, बेटी की शादी पर मुझे बहुत खुश होना चाहिए था पर भीतर से ऐसा लग रहा था कि जो कुछ हो रहा है, गलत हो रहा है. शादी के लिए जिस पूर्वा को जोरजबरदस्ती से तैयार किया था, वह जयमाला से पहले फूटफूट कर रो पड़ी थी. तब मैं ने उसे कलेजे से लगा लिया था.

बिदाई के समय पीछे मुड़मुड़ कर पूर्वा की आंखें किसे ढूंढ़ रही थीं वह भी मुझे मालूम था. उस समय दिल से आवाजें आ रही थीं :  पूर्वा, रूपरंग और दौलत ही सबकुछ नहीं होते, इस प्यार के सागर को ठुकराएगी तो उम्रभर प्यासी रह जाएगी.

पता नहीं ये आवाजें उस तक पहुंचीं कि नहीं, पर उस के जाने के बाद मानो सारा घरआंगन चीखचीख कर कह रहा था, मन के रिश्ते कोई और होते हैं, जो किसी को दिखाए नहीं जाते और निभाने के रिश्ते कोई और होते हैं जो सिर्फ निभाए जाते हैं. तब से जब भी रोहित को देखती हूं दिल फट जाता है.

पूर्वा की शादी को अब पूरे 7 बरस हो गए हैं और रोहित इन 7 वर्षों तक उस की याद में तिलतिल जलने के बाद अब ब्याह कर रहा है. कितने दिनों से उसे समझा रही थी कि अब नौकरी लग गई है. बेटा, तू भी शादी कर ले तो वह हंस कर टाल जाता था. पिता के रिटायर होने पर उन की जगह ही उसे काम मिला था और घर में बच्चों को ट्यूशन पढ़ाता है. उस से अच्छीखासी कमाई हो जाती है. 2 साल हुए उस ने छोटी बहन की अच्छे घर में शादी कर दी है और भाई को इंजीनियरिंग करवा रहा है. मां का काम उस ने छुड़वा दिया है और मुझे लगता है कि मां को आराम मिले इस के लिए ही उस ने शादी की सोची है.

रोहित जैसा गुणी और आज्ञाकारी पुत्र इस जमाने में मिलना कठिन है. मेरे तो बेटा ही नहीं है, उसे ही बेटे के समान मानती थी. उस की शादी फैजाबाद में थी. वहां जाना नहीं हो सकता था इसलिए बहू की मुंहदिखाई और स्वागत समारोह में जाना मैं ने उचित समझा.

रोहित के लिए सुंदर रिस्टवाच और बहू के लिए साड़ी और झुमके खरीदे थे. बहुत खुशी थी अब मन में. इन 7 वर्षों के अंतराल में रिश्ते उलटपुलट गए थे. रोहित, जिसे मैं दामाद मानती थी, बेटा बन चुका था. अब मेरी बहू आ रही थी. पता नहीं कैसी होगी बहू…पगले ने फोटो तक नहीं दिखाई.

स्वागत समारोह के उस भीड़- भड़क्के में रोहित ने पांव छू कर मुझे नमस्कार किया. उस की देखादेखी अर्चना भी नीचे झुकने लगी तो मैं ने उसे बांहों में भर झुकने से मना किया.

अर्चना सांवली थी पर तीखे नैननक्श के कारण भली लग रही थी. उपहार देते हुए मैं चंद पलों को उन्हें निहारती रह गई. परिचय कराते वक्त रोहित ने अर्चना से धीरे से कहा, ‘‘ये पूर्वा के मम्मीपापा हैं.

उस लड़की ने नमस्कार के लिए एक बार और हाथ जोड़ दिए. जेहन में फौरन सवाल उभरा, ‘क्या पूर्वा के बारे में सबकुछ रोहित ने इसे बता दिया है.’ मैं असमंजस में पड़ी खड़ी थी. तभी रोहित की मां हाथ पकड़ कर खाना खिलाने के लिए लिवा ले गईं.

अर्चना ने रोहित का घर खूब अच्छे से संभाल लिया था. अपनी सास को तो वह किसी काम को हाथ नहीं लगाने देती थी. कभीकभी मेरे पास आती तो पूर्वा के बारे में ही बातें करती रहती थी. न जाने कितने प्रकार के व्यंजन बनाने की विधियां मुझ से सीख कर गई और बड़े प्रयत्नपूर्वक कोई नया व्यंजन बना कर कटोरा भर मेरे लिए ले आती थी.

पूर्वा के पापा का ब्लडप्रेशर पिछले दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ गया था, अत: हमारा लंदन जाने का कार्यक्रम स्थगित हो चुका था. अब की सितंबर में पूर्वा आ रही थी. विवेक को छुट्टी नहीं थी. पूर्वा और सोहम दोनों ही आ रहे थे. जिस रोहित से पूर्वा लड़तीझगड़ती रहती थी, जिस पर अपना पूरा हक समझती थी, अब उसे किसी दूसरी लड़की के साथ देख कर उस पर क्या बीतेगी, मैं यही सोच रही थी.

रोहित की शादी के बारे में मैं ने उसे फोन पर बताया था. सुन कर उस ने सिर्फ इतना कहा था कि चलो, अच्छा हुआ शादी कर ली और कितने दिन अकेले रहता.

अभी पूर्वा को आए एक दिन ही बीता था. रोहित और अर्चना तैयार हो कर कहीं जा रहे थे. मैं ने पूर्वा को खिड़की पर बुलाया तो रोहित के बाजू में अर्चना को चलते देख मानो उस के दिल पर सांप लोट रहा था. मैं ने कहा, ‘‘वह देख, रोहित की पत्नी अर्चना.’’

अर्चना को देख कर पूर्वा ने मुंह बना कर कहा, ‘‘ऊंह, इस कालीकलूटी से ब्याह रचाया है.’’

‘‘ऐसा नहीं बोलते, अर्चना बहुत गुणी लड़की है,’’ मैं ने उसे समझाते हुए कहा.

‘‘हूं, जब रूप नहीं मिलता तभी गुण के चर्चे किए जाते हैं,’’ उपेक्षित स्वर में पूर्वा बोली.

‘‘छोड़ यह सब, चल, सोहम को नहला कर खाना खिलाना है,’’ मैं ने उस का ध्यान इन सब बातों से हटाने के लिए कहा.

पर अर्चना को देखने के बाद पूर्वा अनमनी सी हो गई थी. दोपहर को बोली, ‘‘मम्मी, मुझे रोहित से मिलना है.’’

‘‘शाम 6 बजे के बाद जाना, तब तक वह आफिस से आ जाता है. हां, पर भूल कर भी अर्चना के सामने कुछ उलटासीधा न कहना.’’

‘‘नहीं, मम्मी,’’ पूर्वा मेरे गले में हाथ डाल कर बोली, ‘‘पागल समझा है मुझे.’’

मैं, सोहम और पूर्वा शाम को रोहित के घर गए. गले में फंसी हुई आवाज के साथ पूर्वा उसे विवाह की बधाई दे पाई. रोहित ने कुछ देर को उस के और विवेक के बारे में पूछा फिर सोहम के साथ खेलने लगा. इतने में अर्चना चायनाश्ता बना लाई. मैं, अर्चना और रोहित की मां बातें करने लगे.

खेलखेल में सोहम ने रोहित की जेब से पर्स निकाल कर जब हवा में उछाल दिया तो नोटों के साथ कुछ गिरा था. वह रोहित और पूर्वा के बचपन की तसवीर थी जिस में दोनों साथसाथ खडे़ थे.

तसवीर देख कर हम मांबेटी भौचक्के रह गए पर अर्चना ने पैसों के साथ वह तसवीर भी वापस पर्स में रख दी और हंस कर कहा, ‘‘पूर्वा दीदी, बचपन में कटे बालों में आप बहुत सुंदर दिखती थीं. रोहित को देख कर तो मैं बहुत हंसती हूं…इस ढीलेढाले हाफ पैंट में जोकर नजर आते हैं.’’

बात आईगई हो गई पर हम समझ चुके थे कि अर्चना पूर्वा के बारे में सब जानती है. पूर्वा जिस दिन लंदन वापस जा रही थी, अर्चना उपहार ले कर आई थी.

‘‘लो, दीदी, मेरी ओर से यह रखो. आप रोहित का पहला प्यार हैं, मैं जानती हूं, वह अभी तक आप को नहीं भूले हैं. वह आप को बहुत चाहते हैं और मैं उन्हें बहुत चाहती हूं. इसलिए वह जिसे चाहते हैं मैं भी उसे बहुत चाहती हूं.’’

उस की यह सोच पूर्वा की समझ से बाहर की थी. पूर्वा ने धीरे से ‘थैंक्यू’ कहा.

आज तक रोहित पर अपना एकाधिकार जताने वाली पूर्वा समझ चुकी थी कि प्रेम का दूसरा नाम त्याग है. आज अर्चना के प्रेम के समक्ष उसे अपना प्रेम बौना लग रहा था.

लेखक- ज्योति गजभिये

Hindi Kahaniyan : उजाले की ओर – नीरजा और निल की अटूट प्रेम कहानी

Hindi Kahaniyan : राशी कनाट प्लेस में खरीदारी के दौरान एक आवाज सुन कर चौंक गई. उस ने पलट कर इधरउधर देखा, लेकिन कोई नजर नहीं आया. उसे लगा, शायद गलतफहमी हुई है. उस ने ज्योंही दुकानदार को पैसे दिए, दोबारा ‘राशी’ पुकारने की आवाज आई. इस बार वह घूमी तो देखा कि धानी रंग के सूट में लगभग दौड़ती हुई कोई लड़की उस की तरफ आ रही थी.

राशी ने दिमाग पर जोर डाला तो पहचान लिया उसे. चीखती हुई सी वह बोली, ‘‘नीरजा, तू यहां कैसे?’’

दरअसल, वह अपनी पुरानी सखी नीरजा को सामने देख हैरान थी. फिर तो दोनों सहेलियां यों गले मिलीं, मानो कब की बिछड़ी हों.

‘‘हमें बिछड़े पूरे 5 साल हो गए हैं, तू यहां कैसे?’’ नीरजा हैरानी से बोली.

‘‘बस एक सेमिनार अटैंड करने आई थी. कल वापस जाना है. तुझे यहां देख कर तो विश्वास ही नहीं हो रहा है. मैं ने तो सोचा भी न था कि हम दोनों इस तरह मिलेंगे,’’ राशी सुखद आश्चर्य से बोली, ‘‘अभी तो बहुत सी बातें करनी हैं. तुझे कोई जरूरी काम तो नहीं है? चल, किसी कौफीहाउस में चलते हैं.’’

‘‘नहीं राशी, तू मेरे घर चल. वहां आराम से गप्पें मारेंगे. अरसे बाद तो मिले हैं,’’ नीरजा ने कहा.

राशी नीरजा से गप्पें मारने का मोह छोड़ नहीं पाई. उस ने अपनी बूआ को फोन कर दिया कि वह शाम तक घर पहुंचेगी. तब तक नीरजा ने एक टैक्सी रोक ली. बातोंबातों में कब नीरजा का घर आ गया पता ही नहीं चला.

‘‘अरे वाह नीरजा, तू ने दिल्ली में फ्लैट ले लिया.’’

‘‘किराए का है यार,’’ नीरजा बोली.

तीसरी मंजिल पर नीरजा का छोटा सा फ्लैट देख कर राशी काफी प्रभावित हुई. फ्लैट को सलीके से सजाया गया था. बैठक गुजराती शैली में सजा था.

नीरजा शुरू से ही रिजर्व रहने वाली लड़की थी, पर राशी बिंदास व मस्तमौला थी. स्कूल से कालेज तक के सफर के दौरान दोनों सहेलियों की दोस्ती परवान चढ़ी थी. राशी का लखनऊ में ही मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया था और नीरजा दिल्ली चली गई थी. शुरूशुरू में तो दोनों सहेलियां फोन व पत्रों के माध्यम से एकदूसरे के संपर्क में रहीं. फिर धीरेधीरे दोनों ही अपनी दुनिया में ऐसी उलझीं कि सालों बाद आज मुलाकात हुई.

राशी ने उत्साह से घर आतेआते अपने कैरियर व शादी तय होने की जानकारी नीरजा को दे दी थी, परंतु नीरजा ऐसे सवालों के जवाबों से बच रही थी.

राशी ने सोफे पर बैठने के बाद उत्साह से पूछा, ‘‘नीरजा, शादी के बारे में तू ने अब तक कुछ सोचा या नहीं?’’

‘‘अभी कुछ नहीं सोचा,’’ नीरजा बोली, ‘‘तू बैठ, मैं कौफी ले कर आती हूं.’’

राशी उस के घर का अवलोकन करने लगी. बैठक ढंग से सजाया गया था. एक शैल्फ में किताबें ही किताबें थीं. नीरजा ने आते वक्त बताया था कि वह किसी पब्लिकेशन हाउस में काम कर रही थी. राशी बैठक में लगे सभी चित्रों को ध्यान से देखती रही. उस की नीरजा से जुड़ी बहुत सी पुरानी यादें धीरेधीरे ताजा हो रही थीं. उस ने सोचा भी नहीं था कि उस की नीरजा से अचानक मुलाकात हो जाएगी.

राशी बैठक से उस के दूसरे कमरे की तरफ चल पड़ी. छोटा सा बैडरूम था, जो सलीके से सजा हुआ था. राशी को वह सुकून भरा लगा. थकी हुई राशी आरामदायक बैड पर आराम से सैंडल उतार कर बैठ गई.

‘‘नीरजा यार, कुछ खाने को भी ले कर आना,’’ वह वहीं से चिल्लाई.

नीरजा हंस पड़ी. वह सैंडविच बना ही रही थी. किचन से ही वह बोली, ‘‘राशी, तू अभी कितने दिन है दिल्ली में?’’

‘‘मुझे तो आज रात ही 10 बजे की ट्रेन से लौटना है.’’

‘‘कुछ दिन और नहीं रुक सकती है क्या?’’

‘‘नीरजा… मां ने बहुत मुश्किल से सेमिनार अटैंड करने की इजाजत दी है. कल लड़के वाले आ रहे हैं मुझे देखने,’’ राशी चहकते हुए बोली.

‘‘राशी, तू अरेंज मैरिज करेगी, विश्वास नहीं होता,’’ नीरजा हंस पड़ी.

‘‘इंदर अच्छा लड़का है, हैंडसम भी है. फोटो देखेगी उस की?’’ राशी ने कहा उस से. फिर अचानक उस ने उत्सुकतावश नीरजा की एक डायरी उठा ली और बोली उस से, ‘‘ओह, तो मैडम को अभी भी डायरी लिखने का समय मिल जाता है.’’

तभी कुछ तसवीरें डायरी से नीचे गिरीं. राशी ने वे तसवीरें उठा लीं और ध्यानपूर्वक उन्हें देखने लगी. तसवीरों में नीरजा किसी पुरुष के साथ थी. वे अंतरंग तसवीरें साफ बयां कर रही थीं कि नीरजा का रिश्ता उस शख्स से बेहद गहरा था. राशी बारबार उन तसवीरों को देख रही थी. उस के चेहरे पर कई रंग आ जा रहे थे. उसे कमरे की दीवारें घूमती सी नजर आईं.

तभी नीरजा आ गई. उस ने जल्दी से ट्रे रख कर राशी के हाथ से वे तसवीरें लगभग छीन लीं.

राशी ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘नीरजा, बात क्या है?’’

नीरजा उस से आंखें चुरा कर विषय बदलने की कोशिश करने लगी, परंतु नाकामयाब रही. राशी ने कड़े शब्दों में पूछा तो नीरजा की आंखें भर आईं. फिर जो कुछ उस ने बताया, उसे सुन कर राशी के पांव तले जमीन खिसक गई.

नीरजा ने बताया कि 4 साल पहले जब वह दिल्ली आई, तो उस की मुलाकात नील से हुई. दोनों स्ट्रगल कर रहे थे. कालसैंटर की एक नौकरी के इंटरव्यू में दोनों की मुलाकात हुई थी. धीरेधीरे उन की मुलाकात दोस्ती में बदल गई. नीरजा को नौकरी की सख्त जरूरत थी, क्योंकि दिल्ली में रहने का खर्च उठाने में उस के मातापिता असमर्थ थे. नीरजा ने इस नौकरी का प्रस्ताव यह सोच कर स्वीकार कर लिया कि बाद में किसी अच्छे औफर के बाद यह नौकरी छोड़ देगी. औफिस की वैन उसे लेने आती थी, लेकिन उस के मकानमालिक को यह पसंद नहीं था कि वह रात में बाहर जाए.

इधर नील को भी एक मामूली सी नौकरी मिल गई थी. वह अपने रहने के लिए एक सुविधाजनक जगह ढूंढ़ रहा था. एक दिन कनाट प्लेस में घूमते हुए अचानक नील ने एक साझा फ्लैट किराए पर लेने का प्रस्ताव नीरजा के आगे रखा. नीरजा उस के इस प्रस्ताव पर सकपका गई.

नील ने उस के चेहरे के भावों को भांप कर कहा, ‘‘नीरजा, तुम रात के 8 बजे जाती हो और सुबह 8 बजे आती हो. मैं सुबह साढ़े 8 बजे निकला करूंगा तथा शाम को साढ़े 7 बजे आया करूंगा. सुबह का नाश्ता मेरी जिम्मेदारी व रात का खाना तुम बनाना. इस तरह हम साथ रह कर भी अलगअलग रहेंगे.’’

नीरजा सोच में पड़ गई थी. संस्कारी नीरजा का मन उसे इस ऐडजस्टमैंट से रोक रहा था, परंतु नील का निश्छल व्यवहार उसे मना पाने में सफल हो गया. दोनों पूरी ईमानदारी से एकदूसरे का साथ देने लगे. 1 घंटे का जो समय मिलता, उस में दोनों दिन भर क्या हुआ एकदूसरे को बताते. दोनों की दोस्ती एकदूसरे के सुखदुख में काम आने लगी थी. नीरजा ने उस 2 कमरे के फ्लैट को घर बना दिया था. उस ने नील की पसंद के परदे लगवाए, तो नील ने भी रसोई जमाने में उस की पूरी सहायता की थी.

इतवार की छुट्टी का रास्ता भी नील ने ईमानदारी से निकाला. दिन भर दोनों घूमते. शाम को नीरजा घर आ जाती तो नील अपने दोस्त के यहां चला जाता. इंसानी रिश्ते बड़े अजीब होते हैं. वे कब एकदूसरे की जरूरत बन जाते हैं, यह उन्हें स्वयं भी पता नहीं चलता. नीरजा और नील शायद यह समझ ही नहीं पाए कि जिसे वे दोस्ती समझ रहे हैं वह दोस्ती अब प्यार में बदल चुकी है.

नीरजा अचानक रुकी. उस ने अपनी सांसें संयत कर राशी को बताया कि उस दिन बरसात हो रही थी. जोरों का तूफान था. टैक्सी या कोई भी सवारी मिलना लगभग असंभव था. वे दोनों यह सोच कर बाहर नहीं निकले कि बरसात थमने पर नील अपने दोस्त के यहां चला जाएगा. पर बरसात थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.

नील शायद उस तूफानी रात में निकल भी जाता, पर नीरजा ने उसे रोक लिया. वह तूफानी रात नीरजा की जिंदगी में तूफान ला देगी, इस का अंदेशा नीरजा को नहीं था. तेज सर्द हवाएं उन के बदन को सिहरा जातीं. नीरजा व नील दोनों अंधेरे में चुपचाप बैठे थे. बिजली गुल थी. नीरजा को डर लग रहा था. नील ने मजबूती से उस का हाथ थाम लिया.

तभी जोर की बिजली कड़की और नीरजा नील के करीब आ गई. दोनों अपनी बढ़ी हुई धड़कनों के सामने कुछ और न सुन सके. दिल में उठे तूफान की आवाज के सामने बाहर के तूफान की आवाज दब गई थी. नीरजा के अंतर्मन में दबा नील के प्रति प्रेम समर्पण में परिवर्तित हो गया. नील ने नीरजा को अपनी बांहों में भर लिया. नीरजा प्रतिकार नहीं कर पाई. दोनों अपनी सीमारेखा का उल्लंघन यों कर गए, मानो उफनती नदी आसानी से बांध तोड़ कर आगे निकल गई हो.

तूफान सुबह तक थम गया था, लेकिन इस तूफान ने नीरजा की जिंदगी बदल दी थी. नीरजा ने अपने इस प्रेम को स्वीकार कर लिया था. नीरजा का प्रेम अमरबेल सा चढ़ता गया. उस के बाद किसी भी रविवार को नील अपने दोस्त के यहां नहीं गया. नीरजा को नील के प्रेम का बंधन सुरक्षा का एहसास कराता था.

एक दिन नीरजा ने नील को प्यार करते हुए कहा, ‘‘हमें अब शीघ्र ही विवाह कर लेना चाहिए.’’

नील ने प्यार से नीरजा का हाथ थामते हुए कहा, ‘‘नीरजा, मेरे प्यार पर भरोसा रखो. मैं अभी शादी के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हूं. ऐसा नहीं है कि मैं तुम्हारी जिम्मेदारी उठाने से डरता हूं. लेकिन इस वक्त मुझे तुम्हारा साथ और सहयोग दोनों ही अपेक्षित हैं.’’

उन दोनों के सीधेसुलझे प्यार के तार उस वक्त उलझने लगे, जब नीरजा की बड़ी बहन रमा दीदी व जीजाजी अचानक दिल्ली आ पहुंचे. नीरजा बेहद घबरा गई थी. उस ने नील से जुड़ी हर चीज को छिपाने की काफी कोशिश की, लेकिन रमा दीदी ने भांप लिया था. उन्होंने नील को बुलाया. नील इस परिस्थिति के लिए तैयार नहीं था. रमा ने नील पर विवाह के लिए दबाव बनाया, जो नील को मंजूर नहीं था.

रमा दीदी को भी उन के रिश्ते का कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा था. उन्होंने अपने देवर विपुल के साथ नीरजा की शादी का मन बना लिया था. नील इसे बरदाश्त न कर पाया. बिना कुछ कहेसुने उस ने दिल्ली छोड़ दी. नीरजा के नाम एक लंबा खत छोड़ कर नील मुंबई चला गया.

नीरजा अंदर से टूट गई थी. उस ने रमा दीदी को सब सचसच बता दिया. उस दिन से नीरजा के रिश्ते अपने घर वालों से भी टूट गए. नीरजा फिर कभी कालसैंटर नहीं गई. वह इस का दोष नील को नहीं देना चाहती थी. उस ने नील के साथ बिताए लमहों को एक गुनाह की तरह नहीं, एक मीठी याद बना कर अपने दिल में बसा लिया.

कुछ दिनों बाद उसे एक पब्लिकेशन में नौकरी मिल गई. वह दिन भर किताबों में डूबी रहती, ताकि नील उसे याद न आए. उम्मीद का एक दीया उस ने अपने मन के आंगन में जलाए रखा कि कभी न कभी उस का नील लौट कर जरूर आएगा. उस का अवचेतन मन शायद आज भी नील का इंतजार कर रहा था. इसी कारण उस ने घर भी नहीं बदला. हर चीज वैसी ही थी, जैसी नील छोड़ कर गया था.

नीरजा का अतीत एक खुली किताब की तरह राशी के सामने आ चुका था. वह हतप्रभ बैठी थी. रात 10 बजे राशी की ट्रेन थी. नीरजा के अतीत पर कोई टिप्पणी किए बगैर राशी ने उस से विदा ली. सफर के दौरान राशी की आंखों में नींद नहीं थी. वह नीरजा की उलझी जिंदगी के बारे में सोचती रही.

अगले दिन शाम को इंदर अपनी मां व बहन के साथ आया. राशी ने ज्योंही बैठक में प्रवेश किया, सब से पहले लड़के की मां को शिष्टता के साथ नमस्ते किया. फिर वह लड़के की तरफ पलटी और अपना हाथ बढ़ा कर परिचय दिया, ‘‘हेलो, आई एम डा. राशी.’’

इंदर ने भी खड़े हो कर हाथ मिलाया, ‘‘हैलो, आई एम इंद्रनील.’’

कुछ औपचारिक बातों के बाद राशी ने इंदर की मां से कहा, ‘‘आंटी, आप बुरा न मानें तो मैं इंद्रनील से कुछ बातें करना चाहती हूं.’’

‘‘हांहां क्यों नहीं,’’ इंद्रनील की मां अचकचा कर बोलीं.

वे दोनों ऊपर टैरेस पर चले गए. कुछ चुप्पी के बाद राशी बोली, ‘‘मुंबई से पहले तुम कहां थे?’’

अचानक इस प्रश्न से इंद्रनील चौंक उठा, ‘‘दिल्ली.’’

‘‘इंद्रनील, मैं तुम्हें नील बुला सकती हूं? नीरजा भी तो इसी नाम से बुलाती थी तुम्हें,’’ राशी ने कुछ तल्ख आवाज में कहा.

इंद्रनील के चेहरे के भाव अचानक बदल गए. वह चौंक गया था, मानो उस की चोरी पकड़ी गई हो.

राशी आगे बोली, ‘‘तुम ने नीरजा के साथ ऐसा क्यों किया? अच्छा हुआ कि तुम से शादी होने से पहले मेरी मुलाकात नीरजा से हो गई. तुम्हारी फोटो नीरजा के साथ न देखती तो पता ही न चलता कि तुम ही नीरजा के नील हो.’’

नील के पास कोई जवाब न था. वह हैरानी से राशी को देखे जा रहा था, जिस ने उस के जख्मों को कुरेद कर फिर हरा कर दिया था, ‘‘लेकिन तुम नीरजा को कैसे…’’ आधी बात नील के हलक में ही फंसी रह गई.

‘‘क्योंकि नीरजा मेरे बचपन की सहेली है,’’ राशी ने कहा.

नील मानो आकाश से नीचे गिरा हो, ‘‘लेकिन वह तो सिर्फ एक दोस्त की तरह…’’ उस की बात बीच में काट कर राशी बोली, ‘‘अगर तुम एक दोस्त के साथ ऐसा कर सकते हो, तो मैं तो तुम्हारी कुछ भी नहीं. नील, तुम्हें नीरजा का जरा भी खयाल नहीं आया. कहीं तुम्हारी यह मानसिकता तो नहीं कि नीरजा ने शादी से पहले तुम से संबंध बनाए. अगर तुम्हारी यह सोच है, तो तुम ने मुझ से शादी का प्रस्ताव मान कर मुझे धोखा देने की कैसे सोची. जो अनैतिक संबंध तुम्हारे लिए सही है, वह नीरजा के लिए गलत कैसे हो सकता है. तुम नीरजा को भुला कर किसी और से शादी के लिए कैसे राजी हुए? नीरजा आज तक तुम्हारा इंतजार कर रही है.’’

कुछ चुप्पी के बाद नील बोला, ‘‘मैं ने कई बार सोचा कि नीरजा के पास लौट जाऊं, लेकिन मेरे कदम आगे न बढ़ सके. उस के पास वापस जाने के सारे दरवाजे मैं ने खुद ही बंद कर दिए थे.’’

‘‘नीरजा आज भी तुम्हारा शिद्दत से इंतजार कर रही है. जानते हो नील, जब मुझे तुम्हारे और नीरजा के संबंध का पता चला, तो मुझे बहुत गुस्सा आया था. फिर सोचा कि मैं तो तुम्हारी जिंदगी में बहुत बाद में आई हूं, पर नीरजा और तुम्हारा रिश्ता कच्चे धागों की डोर से बहुत पहले ही बुन चुका था. अभी देर नहीं हुई है नील, नीरजा के पास वापस चले जाओ. मैं जानती हूं कि तुम्हारा दिल भी यही चाहता है. जिस रिश्ते को सालों पहले तुम तोड़ आए थे, उसे जोड़ने की पहल तो तुम्हें ही करनी होगी,’’ राशी ने नील को समझाते हुए कहा.

नील कुछ कहता इस से पहले ही राशी ने अपने मोबाइल से नीरजा का नंबर मिलाया. ‘‘हैलो राशी,’’ नीरजा बोली, तो जवाब में नील की भीगी सी आवाज आई, ‘‘कैसी हो नीरजा?’’

नील की आवाज सुन कर नीरजा चौंक गई.

‘‘नीरजा, क्या तुम मुझे कभी माफ कर पाओगी?’’ नील ने गुजारिश की तो नीरजा की रुलाई फूट पड़ी. उस की सिसकियों में नील के प्रति प्यार, उलाहना, गिलेशिकवे, दुख, अवसाद सब कुछ था.

‘‘बस, अब और नहीं नीरजा, मुझे माफ कर दो. मैं कल ही तुम्हें लेने आ रहा हूं. रोने से मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा. मैं चाहता हूं तुम्हारा सारा गम आंसू बन कर बह जाए, क्योंकि उन का सामना शायद मैं नहीं कर पाऊंगा.’’

फोन पर बात खत्म हुई तो नील की आंखें नम थीं. वह राशी के दोनों हाथ पकड़ कर कृतज्ञता से बोला, ‘‘थैंक्यू राशी, मुझे इस बात का एहसास कराने के लिए कि मैं क्या चाहता हूं, वरना नीरजा के बगैर मैं कैसे अपना जीवन निर्वाह करता.’’

नील व नीरजा की जिंदगियों ने अंधेरी गलियों को पार कर उजाले की ओर कदम रख दिया था.

Hindi Love Story : हाशिया – क्या महेश के प्रेम को नीता समझ पाई ?

Hindi Love Story :  घंटी की आवाज सुन कर मनीषा ने दरवाजा खोला. सामने महेश और नीता को देख कर हैरान रह गई. मुंह से निकल पड़ा, ‘‘अरे, तुम लोग कब आए, कहां रुके हो. बहुत दिनों से कोई समाचार भी नहीं मिला.’’

‘‘दीदी, काफी दिनों से आप से मिली नहीं थी, इन्हें दिल्ली एक सेमिनार में जाना है, आप से मिलने की चाह लिए मैं भी इन के साथ चली आई. ब्रेक जर्नी की है. शाम को 6 बजे ट्रेन पकड़नी है. हालांकि समय कम है पर मिलने की इच्छा तो पूरी हो ही गई,’’ नीता ने मनीषा के पैर छूते हुए कहा.

‘‘अच्छा किया. सच में काफी दिनों से मिले नहीं थे पर कुछ और समय ले कर आते तो और भी अच्छा लगता,’’ मनीषा ने उसे गले लगाते हुए कहा और मन ही मन उस का अपने लिए प्रेम देख कर गद्गद हो उठी.

आवाज सुन कर सुरेंद्र भी बाहर निकल आए. पहचानते ही गर्मजोशी से स्वागत करते हुए बातों में मशगूल हो गए.

नीता तो जब तक रही उस के ही आगेपीछे घूमती रही, मानो उस की छोटी बहन हो. बारबार अपने सुखी जीवन के लिए उसे धन्यवाद देती हुई अनेक बार की तरह ही उस ने अब भी उस से यही कहा था, ‘‘इंसान अपना भविष्य खुद बनाताबिगाड़ता है, बाकी लोग तो सिर्फ जरिया ही होते हैं. यह तुम्हारा बड़प्पन है कि तुम अभी तक उस समय को नहीं भूली हो.’’

‘‘दीदी, बड़प्पन मेरा नहीं आप का है. आप उन लोगों में से हैं जो किसी के लिए बहुत कुछ करने के बाद भूल जाने में विश्वास रखते हैं. असल में आप ही थीं जिन्होंने मेरी टूटी नैया को पार लगाने में मदद की थी, जिन्होंने मुझे जीने की नई राह दिखाई. मेरी जिंदगी को नया आयाम दिया. वरना पता नहीं आज मैं कहां होती…’’

जातेजाते भी महेश और नीता बारबार यही कहते रहे, ‘‘कभी कोई आवश्यकता पड़े तो हमें जरूर याद कीजिएगा.’’ उन्हें इस बात का बहुत अफसोस था कि सुरेंद्र की बीमारी की सूचना उन्हें नहीं दी गई. वैसे सुनील और प्रिया के विवाह में वे आए थे और एक घर के सदस्य की तरह नीता ने पूरी जिम्मेदारी संभाल ली थी.

उन के जाने के बाद सुरेंद्र तो इंटरनैट खोल कर बैठ गए. शाम को उन की यही दिनचर्या बन गई थी. देशविदेश की खबरों को इंटरनैट के जरिए जानना या विदेश में बसे पुत्र सुनील और पुत्री प्रिया से चैटिंग करना. अगर वह भी नहीं तो कंप्यूटर पर ही घंटों बैठे चैस खेलना. उन्हें सासबहू वाले सीरियल्स में बिलकुल दिलचस्पी नहीं थी.

मनीषा ने टीवी खोला पर उस में भी उस का मन नहीं लगा. टीवी बंद कर के पास पड़ी मैगजीन उठाई. वह भी उस की पढ़ी हुई थी. आंखें बंद कर के सोफे पर ही रिलैक्स होना चाहा पर वह भी संभव नहीं हो पाया. उस के मन में 22 साल पहले की घटनाएं चलचित्र की भांति मंडराने लगीं.

उस समय वे बलिया में थे. पड़ोस में एक एसडीओ महेश रहते थे जो अकसर उन के घर आते रहते थे लेकिन जब भी वह उन से विवाह के लिए कहती तो मुसकरा कर रह जाते.

एक दिन उस ने देखा कि एक बुजुर्ग व्यक्ति एक बच्चे को ले कर घूम रहे हैं. नौकर से पता चला कि वे साहब के पिताजी हैं जो उन की पत्नी और बच्चे को ले कर आए हैं.

सुन कर अजीब लगा. महेश अकसर उन के घर आते थे लेकिन उन्होंने कभी उन से अपनी पत्नी और बच्चे का जिक्र ही नहीं किया. यहां तक कि उन्हें कुंआरा समझ कर जबजब भी उस ने उन से विवाह की बात की तो वे कुछ कहने के बजाय सिर्फ मुसकरा कर रह गए. यह तो उसे पता था कि वे गांव के हैं, हो सकता है बचपन में विवाह हो गया हो लेकिन अगर वे विवाहित थे तो वे बताना क्यों नहीं चाह रहे थे.

दूसरों के निजी मामलों में दखलंदाजी करना उस के स्वभाव में नहीं था. उन्होंने नहीं बताया तो हो सकता है उन की कोई मजबूरी रही हो, सोच कर दिमाग में चल रही उथलपुथल पर रोक लगाई.

जब तक महेश के पिताजी रहे तब तक तो सब ठीक चलता रहा पर उन के जाते ही दिलों में बंद चिनगारी भड़कने लगी. घरों के बीच की दीवार एक होने के कारण कभीकभी उन के असंतोष की आग का भभका हमारे घर भी आ जाता था. मन करता कि जा कर उन से बात करूंगी. आखिर इस असंतोष का कारण क्या है. हमारे भी बच्चे हैं, उन के झगड़े का असर हमारे ऊपर भी पड़ रहा है पर दूसरों के मामले में दखलंदाजी न करने के अपने स्वभाव के कारण चुप ही रही.

एक दिन महेश के औफिस जाने के बाद उन की पत्नी हमारे घर आई और अपना परिचय देती हुई बोली, ‘दीदी, आप हमें पहचानते नहीं हो, हमारा नाम नीता है. हम आप के पड़ोसी हैं. आप के अलावा हम किसी और को नहीं जानते हैं. इसीलिए आप के पास आए हैं. हम बहुत दुखी हैं, समझ में नहीं आ रहा क्या करब.’

‘क्यों, क्या बात है. हम से जितनी मदद होगी, करेंगे,’ उसे दिलासा देते हुए मैं ने कहा.

‘यह कहत हैं कि हम तोय से तलाक ले लेव, लड़का को तू ले जाना चाह तो ले जाव. तेरे साथ हमारा निबाह नहीं हो सकत. हम दूसर ब्याह करन चाहत हैं,’ कहते हुए उस की आंखों से बड़ेबड़े आंसू बहने लगे थे.

‘ऐसे कैसे दूसरा विवाह कर लेंगे. सरकारी नौकरी में एक पत्नी के होते हुए दूसरा विवाह करना संभव ही नहीं है. फिर तलाक लेना इतना आसान थोड़े ही है कि मुंह से निकला नहीं और तलाक मिल गया,’ पानी का गिलास पकड़ा कर उसे समझते हुए मैं ने कहा.

अनजान शहर में किसी के मीठे बोल सुन कर उस का रोना रुक गया. मेरे आग्रह करने पर उस ने पानी पिया. उस के सहज होने पर मैं ने उस से फिर पूछा, ‘लेकिन वे तलाक क्यों लेना चाहते हैं.’

मेरा सवाल सुन कर वह बोली, ‘कहत हैं, तू पढ़ीलिखी नहीं है, हमारी सोसाइटी के लायक नहीं है. दीदी, आज हम उन्हें अच्छा नाही लागत हैं लेकिन जब हम इन के मायबाप के साथ खेतन में काम करत रहे, गांव की गृहस्थी को संभालते रहे तब इन्हें यह सब नाहीं सूझत रहा. आज जब डिप्टी बन गए हैं तब कह रहे हैं कि हम इन के लायक नाहीं. 10 बरस के थे जब हमारा इन से ब्याह हुआ था. गांव के एक स्कूल से ही 4 जमात तक पढ़े हैं. यह तो हमें गांव से ला ही नहीं रहे थे, वह तो इन की आनाकानी देख कर एक दिन ससुरजी खुद ही हमें यहां छोड़ गए. लेकिन यह तो हम से ढंग से बात भी नहीं करत.’ कहते हुए फिर उस की आंखों से आंसू बहने लगे थे.

माथे पर बड़ी सी गोल बिंदी, गले में चांदी की मोटी हंसुली, बालों में रचरच कर लगाया तेल, मोटी गुंथी चोटी में चटक लाल रंग का रिबन तथा वैसी ही चटक रंग की साड़ी. गांव वाले ढीलेढीले ब्लाउज में वह ठेठ गंवार तो लग रही थी लेकिन सांवले रंग में भी एक कशिश थी. बड़ीबड़ी आंखें अनायास ही किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ थीं. इस के अलावा गठीला बदन, ढीलेढाले ब्लाउज से झंकता यौवन किसी को मदहोश करने के लिए काफी था. अगर वह अपने पहननेओढ़ने के ढंग तथा बातचीत करने के तरीके में थोड़ा सुधार ले आए तो निश्चय ही कायाकल्प हो सकती थी.

यह सोच कर मैं ने उसे तसल्ली देते हुए कहा, ‘अगर तुम उन के दिल में अपनी जगह बनाना चाहती हो तो तुम्हें अपनी पढ़ाई फिर से शुरू करनी होगी और अपने पहननेओढ़ने तथा बातचीत के लहजे में भी परिवर्तन लाना होगा.’

‘दीदी, आप जैसा कहेंगी हम वैसा करने को तैयार हैं. बस, हमारी जिंदगी संवर जाए,’ उस ने मेरे पैर छूते हुए कहा.

‘अरे, यह क्या कर रही हो. बड़ी हूं इसलिए बस, इतना चाहूंगी कि तुम्हारा जीवन सुखी रहे. मैं तुम्हें सहयोग तो दे सकती हूं पर कोशिश तुम्हें खुद ही करनी होगी. पहले तो यह कि वे चाहे कितना भी गुस्सा हों तुम चुप रहो. वे एक बच्चे के पिता हैं. वे खुद भी अपने बच्चे को अपने से दूर नहीं करना चाहेंगे. इसलिए अगर तुम अपनेआप में परिवर्तन ला पाओ तो कोई कारण नहीं कि वे तुम्हें स्वीकार न करें.’

‘आप ठीक कहत हैं, दीदी. वह अनूप को बेहद चाहत हैं. उन्होंने उस का एक अच्छे स्कूल में नाम भी लिखा दिया है. कल से वह स्कूल भी जाने लगा है. तभी आज हम समय निकाल कर आप के पास आए हैं.’

‘तुम्हें अक्षरज्ञान तो है ही, अब कुछ किताबें मैं तुम्हें दे रही हूं, उन्हें तुम पढ़ो. अगर कुछ समझ में न आए तो इस पैंसिल से वहां निशान बना देना. मैं समझ दूंगी, सुबह 11 से 1 बजे तक खाली रहती हूं. कल आ जाना,’ कुछ पारिवारिक पत्रिकाएं पकड़ाते हुए मैं ने नीता से कहा.

‘दीदी, अब हम चलें. अनूप स्कूल से आने वाला होव’ कहते हुए उस के चेहरे पर संतोष की छाया थी.

एक बार फिर उस ने मेरे पैर छू लिए थे. मेरे प्यारभरे वचन सुन कर वह काफी व्यवस्थित हो गई थी पर फिर भी मन में भविष्य के प्रति अनिश्चितता थी. वैसे भी उस के चेहरे पर छिपी व्यथा ने मेरा मन कसैला कर दिया. पहली मुलाकात में महेश हमें काफी भले, हाजिरजवाब और मिलनसार लगे थे पर पत्नी के साथ ऐसा बुरा व्यवहार, यहां तक कि दूसरे विवाह में कोई बाधा उत्पन्न न हो इसलिए अपने पुत्र से भी नजात पाना चाहते हैं. कैसे इंसान हैं वे. सच है, दुलहन वही जो पिया मन भाए पर विवाह कोई खेल तो नहीं. फिर इस में इस मासूम का क्या दोष. अपने छोटे मासूम बच्चे के साथ अकेले वह अपनी जिंदगी कैसे गुजारेगी. आखिर, एक पुरुष यह क्यों नहीं सोच पाता.

कहीं उन का किसी और के साथ चक्कर तो नहीं है, एक आशंका मेरे मन में उमड़ी. नहींनहीं, महेश ऐसे नहीं हो सकते. अगर ऐसा होता तो अनूप का दाखिला यहां नहीं करवाते. शायद अपनी अनपढ़, गंवार बीवी को देख कर वे हीनभावना के शिकार हो गए हैं और इस से उपजी कुंठा उन से वह सब कहलवा देती है जो शायद आमतौर से वे न कहते. लेकिन अगर ऐसा है तो वे खुद कुछ कोशिश कर उस में परिवर्तन ला सकते हैं, उसे पढ़ा सकते हैं. कई अनुत्तरित सवाल लिए मैं किचन में चली गई क्योंकि बच्चों का स्कूल से आने का समय हो रहा था.

दूसरे दिन नीता आई तो काफी उत्साहित थी. उस ने एक कहानी पढ़ी थी. हालांकि वह उसे पूरी तरह समझ नहीं पाई थी पर उस के लिए इतना ही काफी था कि उस ने पढ़ने का प्रयत्न किया. कुछ शब्द या भाव जो वह समझ नहीं पाई थी वहां उस ने मेरे कहे मुताबिक पैंसिल से निशान बना दिए थे. उन्हें मैं ने उसे समझया.

उस के सीखने का उत्साह देख मैं हैरान थी. कुछ ही दिनों में बातचीत में परिवर्तन स्पष्ट नजर आने लगा था. थोड़ा आत्मविश्वास भी उस में झलकने लगा था.

एक दिन उस को साथ ले कर मैं ब्यूटीपार्लर गई. फिर कुछ साडि़यां खरीदवा कर ब्लाउज सिलने दे आई. कुछ आर्टीफिशियल ज्वैलरी भी खरीदवाई. मेकअप का सामान खरीदवाने के साथ उन्हें उपयोग करना बताया. साड़ी बांधने का तरीका बताया. जूड़ा बांधने का तरीका बताते हुए तेल कम लगाने का सुझव दिया. खुशी तो इस बात की थी कि वह मेरे सारे सुझवों को ध्यान से सुनती और उन पर अमल करती. वैसे भी अगर शिष्य को सीखने की इच्छा होती है तो गुरु को भी उसे सिखाने में आनंद आता है.

एक दिन वह आई तो बेहद खुश थी. कारण पूछा तो बोली, ‘दीदी, कल हम आप की खरीदवाई साड़ी पहन कर इन का इंतजार कर रहे थे. अंदर घुसे तो पहली बार ये हमें देखते ही रह गए, फिर पूछा कि इतना परिवर्तन तुम्हारे अंदर कैसे आया. जब आप का नाम बताया तो गद्गद हो उठे. कल इन्होंने हमें प्यार भी किया,’ कहतेकहते वह शरमा उठी थी.

नैननक्श तो कंटीले थे ही, हलके मेकअप तथा सलीके से पहने कपड़ों में उस के व्यक्तित्व में निखार आता जा रहा था. महेश भी उस में आते परिवर्तन से खुश थे. अब वह हर रोज शाम को ढंग से सजसंवर कर उन का इंतजार करती. यही कारण था कि जहां पहले वे उस की ओर ध्यान ही नहीं देते थे, अब उन्होंने उस के लिए अनेक साडि़यां खरीदवा दी थीं. एक बार महेश स्वयं मेरे पास आ कर कृतज्ञता जाहिर करते हुए, मुझे धन्यवाद देते हुए बोले थे, ‘दीदी, मैं आप का एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा, मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि किसी इंसान में इतना परिवर्तन आ सकता है.’

‘महेश भाई, दरअसल मुझ से ज्यादा धन्यवाद की पात्र नीता है. उस ने यह सब तुम्हें पाने के लिए किया. वह तुम्हें बहुत चाहती है.’

इस के बाद दोनों के बीच की दूरी घटती गई. कभीकभी वे घूमने भी जाने लगे थे. मैं यह सब देख कर बहुत खुश थी.

एक दिन अपने पुत्र अनूप की अंगरेजी की पुस्तक ला कर वह बोली, ‘दीदी, इन से पूछने में शरम आती है. अगर आप ही थोड़ी देर पढ़ा दिया करें.’

मेरे ‘हां’ कहने पर वह प्रसन्नता से पागल हो उठी, बोली, ‘दीदी, आप ने मेरे जीवन में खुशियां ही खुशियां बिखेर दी हैं, न जाने आप की गुरुदक्षिणा कैसे चुका पाऊंगी.’

‘अरी पगली, अगर सचमुच मुझे अपना गुरु मानती है तो अपनी पढ़ाई पर ध्यान लगा. एक गुरु के लिए यही काफी है कि उस का शिष्य जीवन में सफल रहे.’

सचमुच 6 महीने के अंदर ही उस ने सामान्य बोलचाल के शब्द लिखनापढ़ना सीख लिए थे. कहींकहीं अंगरेजी के शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग भी करने लगी थी. वैसे भी भाषा इस्तेमाल करने से ही सजतीसंवरती और निखरती है.

तभी सुरेंद्र का ट्रांसफर हो गया. पत्रों के माध्यम से संपर्क सदा बना रहा. वह बराबर लिखती रहती थी. अनूप के विवाह में हफ्तेभर पहले आने का आग्रह उस का सदा रहा था. बेटी रिया का कन्यादान भी वह मेरे हाथों से कराना चाहती थी. नीता के पत्रों में छिपी भावनाएं मुझे भी पत्र का उत्तर देने के लिए प्रेरित करती रही थीं. यही कारण था कि पिछले 10 वर्षों से न मिल पाने पर भी उस के परिवार की एकएक बात मुझे पता थी. आज के युग में लोग अपनों से भी इतनी आत्मीयता, विश्वास की कल्पना नहीं कर सकते, फिर हम तो पराए थे.

‘‘सुनो, कहां हो. सुनील का मैसेज आया है,’’ सुरेंद्र ने मनीषा को पुकारते हुए कहा तो उस की तंद्रा टूटी.

‘‘सुनील का मैसेज, क्या लिखा है. सब ठीक तो है न.’’ मनीषा ने अंदर जाते हुए पूछा. पिछले 15 दिनों से उस का कोई समाचार न आने के कारण वे चिंतित थे. 1-2 बार फोन किया पर किसी ने भी नहीं उठाया, आंसरिंग मशीन पर मैसेज छोड़ने के बाद भी हफ्तेभर से किसी ने कौंटैक्ट करने की कोशिश नहीं की.

‘‘लिखा है, हम कल ही स्विट्जरलैंड से आए हैं. प्रोग्राम अचानक बना, इसलिए सूचित नहीं कर पाए. इस बार भी शायद हमारा इंडिया आना न हो पाए. बारबार छुट्टी नहीं मिल पाएगी. अगर आप लोग आना चाहें तो टिकट भेज दिए जाएं.’’

इस के बाद उस से कुछ भी सुना नहीं गया. ‘सब बहाना है बाहर घूमने के लिए. छुट्टी तो मिल सकती है पर मातापिता से मिलने के लिए नहीं. दरअसल वे यहां आना ही नहीं चाहते हैं. मांबाप के प्यार की उन के लिए कोई कीमत ही नहीं रही है. पिछले 4 वर्षों से कोई न कोई बहाना बना कर आना टाल रहे हैं. उस पर भी एहसान दिखा रहे हैं. अगर आना चाहें तो टिकट भिजवा दूं, एक बार तो जा कर देख ही आए हैं,’ बड़बड़ा उठी थी मनीषा.

पर जल्दी ही उस ने अपने नकारात्मक विचारों को झटका. उस को यह क्या होता जा रहा है. वह पहले तो कभी ऐसी न थी. बच्चों के अवगुणों में गुण ढूंढ़ना ही तो बड़प्पन है. हो सकता है कि सच में उसे छुट्टी न मिल रही हो, वह स्वयं नहीं आ पा रहा तो उन्हें बुला तो रहा है, बात तो एक ही है, मिलजुल कर रहना. अब वहां का जीवन ही इतना व्यस्त है कि लोगों के पास अपने लिए ही समय नहीं है तो उस में उन का क्या दोष.

फिर भी उसे न जाने क्यों लगने लगा था कि सच में कभीकभी कुछ लोग अपने न होते हुए भी बेहद अपने बन जाते हैं और कुछ लोग अपनी व्यस्तता की आड़ में अपनों को ही हाशिए पर खिसका देते हैं, खिसकाने का प्रयास करते हैं. उस ने निश्चय किया, ‘उस ने कभी किसी की हाशिए पर खिसकती जिंदगी को नया आयाम दिया था. चाहे कुछ भी हो जाए वह अपनी जिंदगी को हाशिए पर खिसकने नहीं देगी.’ इस विचार ने उसे तनावमुक्त कर दिया. माथे पर लटक आई लट को झटका, पास पड़ा रिमोट उठाया और टीवी औन कर दिया.

Hindi Fiction Stories : भोर – राजवी को कैसे हुआ अपनी गलती का एहसास

Hindi Fiction Stories : उस दिन सवेरे ही राजवी की मम्मी की किट्टी फ्रैंड नीतू उन के घर आईं. उन की कालोनी में उन की छवि मैरिज ब्यूरो की मालकिन की थी. किसी की बेटी तो किसी के बेटे की शादी करवाना उन का मनपसंद टाइमपास था. वे कुछ फोटोग्राफ्स दिखाने के बाद एक तसवीर पर उंगली रख कर बोलीं, ‘‘देखो मीरा बहन, इस एनआरआई लड़के को सुंदर लड़की की तलाश है. इस की अमेरिका की सिटिजनशिप है और यह अकेला है, इसलिए इस पर किसी जिम्मेदारी का बोझ नहीं है. इस की सैलरी भी अच्छी है. खुद का घर है, इसलिए दूसरी चिंता भी नहीं है. बस गोरी और सुंदर लड़की की तलाश है इसे.’’

फिर तिरछी नजरों से राजवी की ओर देखते हुए बोलीं, ‘‘उस की इच्छा तो यहां हमारी राजवी को देख कर ही पूरी हो जाएगी. हमारी राजवी जैसी सुंदर लड़की तो उसे कहीं भी ढूंढ़ने से नहीं मिलेगी.’’ यह सब सुन रही राजवी का चेहरा अभिमान से चमक उठा. उसे अपने सौंदर्य का एहसास और गुमान तो शुरू से ही था. वह जानती थी कि वह दूसरी लड़कियों से कुछ हट कर है.

चमकीले साफ चेहरे पर हिरनी जैसी आंखें और गुलाबी होंठ उस के चेहरे का खास आकर्षण थे. और जब वह हंसती थी तब उस के गालों में डिंपल्स पड़ जाते थे. और उस की फिगर व उस की आकर्षक देहरचना तो किसी भी हीरोइन को चैलेंज कर सकती थी. इस से अपने सौंदर्य को ले कर उस के मन में खुशी तो थी ही, साथ में जानेअनजाने में एक गुमान भी था. मीरा ने जब उस एनआरआई लड़के की तसवीर हाथ में ली तो उसे देखते ही उन की भौंहें तन गईं. तभी नीतू बोल पड़ीं, ‘‘बस यह लड़का यानी अक्षय थोड़ा सांवला है और चश्मा लगाता है.’’

‘लग गई न सोने की थाली में लोहे की कील,’ मीरा मन में ही भुनभुनाईं. उन्हें लगा कि मेरी राजवी शायद इसे पसंद नहीं करेगी. पर प्लस पौइंट इस लड़के में यह था कि यह नीतू के दूर के किसी रिश्तेदार का लड़का था, इसलिए एनआरआई लड़के के साथ जुड़ी हुई मुसीबतें व जोखिम इस केस में नहीं था. जानापहचाना लड़का था और नीतू एक जिम्मेदार के तौर पर बीच में थीं ही.

फिर कुछ सोच कर मीरा बोलीं, ‘‘ओह, बस इतनी सी बात है. आजकल ये सब देखता कौन है और चश्मा तो किसी को भी लग सकता है. और इंडियन है तो रंग तो सांवला होगा ही. बाकी जैसा तुम कहती हो लड़का स्मार्ट भी है, समझदार भी. फिर क्या चाहिए हमें… क्यों राजवी?’’

अपने ही खयालों में खोई, नेल पेंट कर रही राजवी ने कहा, ‘‘हूं… यह बात तो सही है.’’

तब नीतू ने कहा, ‘‘तुम भी एक बार फोटो देख लो तो कुछ बात बने.’’

‘‘बाद में देख लूंगी आंटी. अभी तो मुझे देर हो रही है,’’ पर तसवीर देखने की चाहत तो उसे भी हो गई थी.

मीरा ने नीतू को इशारे में ही समझा दिया कि आप बात आगे बढ़ाओ, बाकी बात मैं संभाल लूंगी. मीरा और राजवी के पापा दोनों की इच्छा यह थी कि राजवी जैसी आजाद खयाल और बिंदास लड़की को ऐसा पति मिले, जो उसे संभाल सके और समझ सके. साथ में उसे अपनी मनपसंद लाइफ भी जीने को मिले. उस की ये सभी इच्छाएं अक्षय के साथ पूरी हो सकती थीं.

नीतू ने जातेजाते कहा, ‘‘राजवी, तुम जल्दी बताना, क्योंकि मेरे पास ऐसी बहुत सी लड़कियों की लिस्ट है, जो परदेशी दूल्हे को झपट लेने की ख्वाहिश रखती हैं.’’

नीतू के जाने के बाद मीरा ने राजवी के हाथ में तसवीर थमा दी, ‘‘देख ले बेटा, लड़का ऐसा है कि तेरी तो जिंदगी ही बदल जाएगी. हमारी तो हां ही समझ ले, तू भी जरा अच्छे से सोच लेना.’’

पर राजवी तसवीर देखते ही सोच में डूब गई. तभी उस की सहेली कविता का फोन आया. राजवी ने अपने मन की उलझन उस से शेयर की, तो पूरे उत्साह से कविता कहने लगी, ‘‘अरे, इस में क्या है. शादी के बाद भी तो तू अपना एक ग्रुप बना सकती है और सब के साथ अपने पति को भी शामिल कर के तू और भी मजे से लाइफ ऐंजौय कर सकती है. फिर वह तो फौरेन कल्चर में पलाबढ़ा लड़का है. उस की थिंकिंग तो मौडर्न होगी ही. अब तू दूसरा कुछ सोचने के बजाय उस से शादी कर लेने के बारे में ही सोचना शुरू कर दे…’’

कविता की बात राजवी समझ गई तो उस ने हां कह दिया. इस के बाद सब कुछ जल्दीजल्दी होता गया. 2 महीने बाद नीतू का दूर का वह भतीजा लड़कियों की एक लिस्ट ले कर इंडिया पहुंच गया. उसे सुंदर लड़की तो चाहिए ही थी, पर साथ में वह भारतीय संस्कारों से रंगी भी होनी चाहिए थी. ऐसी जो उसे भारतीय भोजन बना कर प्यार से खिलाए. साथ ही वह मौडर्न सोच और लाइफस्टाइल वाली हो ताकि उस के साथ ऐडजस्ट हो सके. पर उस की लिस्ट की सभी मुलाकात के बाद एकएक कर के रिजैक्ट होती गईं. तब एक दिन सुबह राजवी के पास नीतू का फोन आया, ‘‘शाम को 7 बजे तक रेडी हो जाना. अक्षय के साथ मुलाकात करनी है. और हां, मीरा से कहना कि वे तुझे अच्छी सी साड़ी पहनाएं.’’

‘‘साड़ी, पर क्यों? मुझ पर जींस ज्यादा सूट करती है,’’ कहते हुए राजवी बेचैन हो गई.

‘‘वह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा. तुम साड़ी यही समझ कर पहनना कि उसी में तुम ज्यादा सुंदर और अटै्रक्टिव लगती हो.’’

नीतू आंटी की बात पर गर्व से हंस पड़ी राजवी, ‘‘हां, वह तो है.’’

और उस दिन शाम को वह जब आकर्षक लाल रंग की डिजाइनर साड़ी पहन कर होटल शालिग्राम की सीढि़यां चढ़ रही थी, उस की अदा देखने लायक थी. होटल के मीटिंग हौल में राजवी को दाखिल होता देख सोफे पर बैठा अक्षय उसे देखता ही रह गया. नीतू ने जानबूझ कर उसे राजवी का फोटो नहीं भेजा था, ताकि मिलने के बाद ही अक्षय उसे ठीक से जान ले, परख ले. नीतू को वहीं छोड़ कर दोनों होटल के कौफी शौप में चले गए.

‘‘प्लीज…’’ कह कर अक्षय ने उसे चेयर दी. राजवी उस की सोच से भी अधिक सुंदर थी. हलके से मेकअप में भी उस के चेहरे में गजब का निखार था. जैसा नाम वैसा ही रूप सोचता हुआ अक्षय मन ही मन में खुश था. फिर भी थोड़ी झिझक थी उस के मन में कि क्या उसे वह पसंद करेगी?

ऐसा भी न था कि अक्षय में कोई दमखम न था और अब तो कंपनी उसे प्रमोशन दे कर उस की आमदनी भी दोगुनी करने वाली थी. फिर भी वह सोच रहा था कि अगर राजवी उसे पसंद कर लेती है तो वह उस के साथ मैच होने के लिए अपना मेकओवर भी करवा लेगा. मन ही मन यह सब सोचते हुए अक्षय ने राजवी के सामने वाली चेयर ली. अक्षय के बोलने का स्मार्ट तरीका, उस के चेहरे पर स्वाभिमान की चमक और उस का धीरगंभीर स्वभाव राजवी को प्रभावित कर गया. उस की बातों में आत्मविश्वास भी झलकता था. कुल मिला कर राजवी को अक्षय का ऐटिट्यूड अपील कर गया.

Hindi Love Stories : सम्मोहन – विश्वास और प्रेम की एक खूबसूरत कहानी

Hindi Love Stories :  : “रुचि, आज शाम चलो न कहीं घूमते हैं. विम्मी भी गई है. तुम्हारा पति भी एक हफ़्ते के लिए बाहर गया है. क्या कहती हो, बोलो ?” व्योम ने अपनी दोस्त से कहा.

कल सैमिनार है. “शाम को बता पाऊंगी,”

“ठीक है, मन करे तो चलना. विम्मी  घर पर नहीं है, मेरा जाने का मन नहीं करता…

“ओके बाबा, देखती हूं” कह कर रुचि ने फ़ोन काट दिया.

दिन का मौसम उमड़घुमड़ कर सिसकियां ले रहा था, कभी हवा का झोंका पत्तियों की आपस में सरसराहट,  कभी शांत सी घुमस जो बिसूरती सी जान पड़ती थी. व्योम को आज घर जाने का मन नहीं था, पत्नी विम्मी डिलीवरी के लिए मायके गई हुई थी और दोस्त रोहन  विदेश गया हुआ था, उस की पत्नी थी रुचि.

रुचि, रुचि का पति रोहन, व्योम और व्योम की पत्नी  विम्मी चारों कालेज समय से गहरे दोस्त थे. पिकनिक हो पार्टी या कोई स्कूल का फंक्शन, यह चौकड़ी मशहूर थी. एकदूसरे के बिना ये चारों ही अधूरे थे. रोज़ ही मिलतेजुलते. रुचि कब रोहन के नज़दीक आ गई, खुद इन दोनों को भी पता नहीं चला. दोनों के मातापिता आधुनिक विचारों के थे, इसलिए शादी में कोई दिक़्क़त नहीं हुई.

रुचि का पति विदेश गया था, उसे  रोहन की याद आ रही थी. आ रहा था गुजरा खूबसूरत लमहा, वो शादी की तैयारी, उस की शादी के बाद फिर व्योम व विम्मी का एक हो जाना. यादों ने दस्तक दी तो एक मुसकान होंठों पर आ गई. यादें जाने कब कहां गिरफ़्त में ले लें.

कालेज से लौट ख़ाना ले कर  बैठी तो यादों के पन्ने पलटने लगे,

रुचि, रोहन  शादी की तैयारी व अन्य व्यस्तताओं में व्यस्त थे. दोनों व्योम और विम्मी से नहीं मिल  पा रहे थे. नए जीवन की सुनहरी भोर में मगन, तानाबाना बुन रहे  थे. न वक्त की खबर न औरों की. जीवन में ऐसे सुनहरे पल होते भी हैं भरपूर जीने के लिए.

विम्मी ने रुचि को फ़ोन किया, ‘रुचि क्या कर रही है?’

‘अरे यार विम्मी, क्या बताऊं, तेरे साथ जो लहंगा लिया था, सिल कर आया, तो टाइट है. वही नाप लेने टेलर आया है. मेरी कजन भी आई है, कह रही है, उसे भी कपड़े दिलवा दूं. वह बाहर से आई है. तू ऐसा कर, व्योम के साथ चली जा.’

‘ओके, गुड लक,’ कह कर विम्मी ने फ़ोन काट दिया.

“व्योम, चल कहीं डिनर करने  चलते हैं. रुचि तो अपनी शादी की तैयारी में व्यस्त है,” विम्मी ने व्योम से कहा.

व्योम भी रोहन के शादी की तैयारी में व्यस्त होने से एकाकी महसूस कर रहा था. उस ने उत्साहित होते हुए कहा, ‘पहले थिएटर चलते हैं, एक नया नाटक बहुत अच्छा  लगा है, फिर डिनर करेंगे.’

व्योम विम्मी अब ज़्यादा मिलने लगे. पहले मिलते थे तो चारों ही. लेकिन अब रोहन और रुचि अपनी शादी की तैयारी में व्यस्त थे, इसलिए व्योम और विम्मी अकसर मिलने लगे, कभी पिक्चर, कभी शौपिंग, कभी थिएटर. कई बार ऐसा मिलना एकदूसरे के क़रीब ले आता है. व्योम विम्मी भी बह गए समय की खूबसूरत धारा में जिस के  प्रवाह का रुख़ एक ही था. नज़दीकियां दिलों में हलचल मचा गईं. परिचय ने प्रगाढ़ता का आंचल ओढ़ लिया.

एकदूसरे की आंखों में खुद के ख़्वाब पढ़ने लगे. साथ बैठे सांझ तले, तो डूबते सूरज की लालिमा के सौंदर्य को निहारते एकदूसरे के हो बैठे.

‘यार रुचि,  तुझे कुछ बताना था. विम्मी अपनी सब से प्रिय सहेली रुचि के साथ प्यार के खूबसूरत एहसास को बांटना चाहती थी.

“बोल, बोल, क्या तीर मारा, बता जल्दी, कहीं यह वह तो नहीं, ज़रा सी आहट होती है तो दिल…’

रुचि ने फ़ोन पर ही प्यारी सी धुन विम्मी को सुनाई.

विम्मी  बोली, ‘तू तो हमेशा ही  तूफ़ान बनी रहती है. तो सुन, तू हमेशा कहती थी न, मैं और व्योम भी लवबर्ड बन जाएं, तो चल, हम ने भी अपनी ख़्वाबों की दुनिया में रंग भर लिया. तेरे साथसाथ हम भी फेरे कर लेंगे.’

‘नोनो, पहले मैं शादी करूंगी, फिर तुम और व्योम करोगे, जिस से एकदूसरे की शादी को एंजौय तो कर सकें. अरे, न तेरे कोई बहन न मेरे, साली बन कर जूता छिपाई कौन करेगा?’

‘ओके, चल यह भी ठीक है.’

रोहन रुचि भी ख़ुशियों की  नई डगर में खिलते फूलों की ख़ुशबुओं संग तैरने लगे. अब प्यार ने यथार्थ का रुख़ किया. कुछ दिनों बाद विम्मी  व्योम ने भी गृहस्थी के नवजीवन में प्रवेश किया. इन चारों दोस्तों ने एक ही शहर मद्रास में रहने का निर्णय किया. रोहन आईआईटी में प्रोफैसर  और व्योम  मल्टीनैशनल कंपनी में नौकरी करता था.

अब शादी हुई तो सपनीली दुनिया में ज़िम्मेदारियों ने थपकी देनी शुरू कर दी.

अब रोहन को अपने देश से बाहर जा कर अमेरिका के कालेज  में लैक्चर देने का अवसर मिला, जिस की उसे कब से तमन्ना थी. रुचि एक कालेज में पढ़ाती थी, साथ ही, पीएचडी भी कर रही थी. विम्मी और व्योम के घर नन्हे मेहमान ने आने की दस्तक दी. प्रैग्नैंसी की कुछ परेशानियों की वजह से विम्मी को मायके आना पड़ा.

इन का आपस में विश्वास बहुत गहरा था. चारों मित्रता के मजबूत व पवित्र धागे में बंधे थे.

मत जाओ रोहन, मैं अकेली कैसे रहूंगी, 3 वर्षों का लंबा समय, यह कहना चाहती थी लेकिन नहीं कह पाई. मायूसी ने चेहरे पर पांव पसार दिया. रोहन को विदेश जाना था, रुचि परेशान हो गई, कैसे रहेगी रोहन के बिना. मन दुविधा में था. ऐसे मौक़े कैरियर को ऊंचाइयों पर ले जाते हैं, तो भला रोहन के पांव की बेड़ी कैसे बनती.

रोहन ने रुचि का उतरा चेहरा देखा तो समझ गया कि वह परेशान है, बोला, “अरे 3 साल का समय होता ही कितना है, चुटकियों में ही निकल जाएगा. और फिर, विम्मी, व्योम भी तो साथ हैं. कोई दिक़्क़त हो तो उन्हें बुला लेना. और डियर, अब तुम तो इस घर की रानी हो, रानियां तो बहादुर होती हैं.”

रोहन ने रुचि का मूड हलका करने के उद्देश्य से मज़ाक़ किया. वह जानता था रुचि को थोड़ी दिक़्क़त होगी लेकिन उसे विम्मी, व्योम पर पूरा भरोसा था. जीवन की डगर में कभी ऐसी उलझनें भी आती हैं. आगे की ओर बढ़ते कदम जाने क्यों मुड़ कर  रुकते  हैं.

भरेमन से रुचि ने रोहन को अमेरिकी यूनिवर्सिटी में लैक्चररशिप के लिए भेज दिया. मन तो रोहन का भी टूट रहा था लेकिन भविष्य सामने खड़ा था. एयरपोर्ट से लौट कर आई, तो घर का ख़ालीपन और भी स्याह हो कर उसे डराने लगा. वैसे भी, उसे शुरू से अकेले अच्छा नहीं लगता था. फिर आज तो उस का प्यार, जो अब जीवनसाथी है, लंबे अंतराल के लिए जा रहा है.

एक तरफ़ उस का मन यह भी कह रहा था जीवन में बारबार अवसर नहीं मिलते, उस की वजह से कहीं रोहन की तरक़्क़ी में रुकावट न आए. रुचि मन को समझाने लगी. वह यह भी जानती थी कि अगर बहुत ज़्यादा दबाव डालती तो रोहन रुक जाता इसलिए उस ने एक बार के बाद  मना नहीं किया. लेकिन ख़ुद को संभालने की कोशिश में नाकाम रही.

मन का क्या करे, मातापिता की अकेली संतान. अब तो मम्मीपापा भी रहे नहीं. हिचकियां ले कर रो पड़ी. शाम से ही घना कुहरा, बादलों का साया था जैसे मौसम भी उस से आज आंखमिचौली खेल रहा हो. मन की धरती गीली हो धंसने लगी. बिजली कड़की तो रुचि ने भाग कर खिड़कियां बंद कर दीं. खिड़की से दिखते बादलों से बनने वाली अजीब आकृतियां उसे डराने लगी थीं.

रोते हुए बिस्तर में घुस उस ने चादर सिर तक खींच ली. अभी तो रोहन गया है, पहाड़ जैसे 3 साल का समय कैसे काटेगी?

तभी दरवाज़े की घंटी बजी. उस ने डर कर दरवाज़ा नहीं खोला. फिर फ़ोन बज उठा. उस ने चौंक कर फ़ोन देखा, तैरता हुआ व्योम का नाम उस के मन में स्फूर्ति देने लगा.

“क्या बात है, तुम दरवाज़ा क्यों नहीं खोल रही हो?”

“अच्छा, घंटी तुम ने बजाई थी.”

रुचि ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला और व्योम से लिपट गई . घबराहट में पसीने से तर रुचि को व्योम ने कंधे से पकड़ सोफ़े पर बिठाया, पानी पीने को दिया.

रुचि थोड़ा नौर्मल हुई तो व्योम बोला, ”अरे, तुम इतनी परेशान क्यों  हो? मैं और विम्मी हैं. थोड़े समय की ही तो बात है, बच्चा होने के बाद तो विम्मी भी मायके से आ जाएगी. कोई दिक़्क़त हो, तो मुझे फ़ोन करना, मैं तुरंत आ जाऊंगा. मैं अब चलता हूं, थोड़ा काम है औफिस  का, सोचा, तुम अकेली होगी तो हालचाल लेने आया था. वैसे भी रुचि, तेरा ध्यान नहीं रखा तो रोहन मुझे मार डालेगा,” व्योम ने मज़ाक़ करते हुए कहा.

“नहीं, प्लीज़ व्योम, आज मत जाओ. मुझे अकेले में डर लगता है.”

अभी व्योम रुचि से बात कर ही रहा था कि व्योम का फोन बजा.

”कहां हो व्योम?” विम्मी का फ़ोन था.

”तुम तो जानती हो, रोहन विदेश चला गया, मैं रुचि के पास आया हूं, वह अकेले डरती है न.”

“अच्छा किया, वहीं रुक जाओ. कुछ समय में रुचि को आदत हो जाएगी अकेले रहने की. बेबी होने के बाद तो मैं भी आ ही जाऊंगी.”

उस दिन व्योम को रुकना पड़ा.

समय अपनी चाल चलता रहा. लेकिन समय जैसे बीत नहीं रहा था रुचि के लिए.

विम्मी जबतब रुचि को फोन करती रहती थी. दिन तो रुचि का स्कूल में पढ़ाने में  निकल जाता था लेकिन शाम के बाद उसे डर लगता था. बाहर जाने का मौक़ा आसानी से कहां मिलता है, इसलिए उस ने रोहन को जाने दिया था. लेकिन बचपन से अपने अंदर बैठे डर से आज तक नहीं जीत पाई थी वह.

रोहन अकसर रुचि को समझाता, ‘हमारे डर का 80 प्रतिशत केवल काल्पनिक होता है. तुम अपने डर को समझो, तुम से कितना कहा था डाक्टर को दिखा दो लेकिन तुम मानी नहीं. अगर समय मिले तो व्योम या विम्मी के साथ चली जाना.’

व्योम को भी रोहन फोन करता, ‘देख, मेरी बीवी का ध्यान रखना वरना आ कर बहुत मारूंगा’ और कह कर दोनों दोस्त खिलखिला कर हंस देते.

एक दिन रुचि औफ़िस से आई, तो उस के बदन में बहुत तेज दर्द था. रात होते उसे तेज बुख़ार हो गया. व्योम को पता लगा, तुरंत पहुंच गया. रातभर  व्योम रुचि के सिर पर  ठंडे पानी की पट्टी रखता रहा.

जब बुख़ार हलका हुआ तो व्योम ने सोचा सामने सोफ़े पर ही लेट जाता हूं लेकिन बुख़ार में  रुचि ने उस का हाथ कस कर पकड़ रखा था. व्योम की  निगाह अचानक उस के चेहरे पर पड़ी. रुचि के चेहरे का भोलापन उस के अंदर समाने लगा. अचानक उस ने सिर झटका, कहीं कुछ उसे खींचने लगा था. नहीं, ऐसे कैसे सोच सकता है. उस की तो प्यारी सी बीवी है जिस के प्रति उस का कर्तव्य भी है. उस ने ह्रदयतल से प्यार  किया है. पर मन  भटकन के रास्ते के सारे पत्थर सपनों की आंधी से उड़ा देता है.

उस ने आहिस्ता से अपना हाथ छुड़ाया और सामने जा कर सोफ़े पर लेट गया. सुबह उस का सिर भारी था. रुचि की तबीयत भी अब ठीक थी. बुख़ार उतर चुका था.

मन में आई कोमल संवेदनाएं उसे मथने लगीं. दिल भी अजीब है. मन की कशिश इतनी मज़बूत होती है जिस के साए पैरों को अनगिनत रस्सियों से जकड़ लेते हैं. अपनी सोच में डूबे व्योम को अगले दिन  रुचि  के घर जाने में  झिझक महसूस होने लगी.

”व्योम, तुम आए नहीं, क्या हुआ?” रुचि ने शाम होते ही व्योम को फ़ोन मिला दिया.

व्योम ने जिस तरह देखभाल की थी, रुचि को बहुत अच्छा लगा था. उसे आज व्योम का बेसब्री से इंतज़ार था. लेकिन आज व्योम अपनी भावनाओं को समेटे बैठा रहा. क्या समझाता, दिल ने बग़ावत कर दी है. वह रुचि के पास नहीं गया. व्योम नहीं आया तो  रुचि इंतज़ार में बाहर बालकनी में बैठ गई. उस की उदासी बढ़ती जा रही थी. शाम धीरे से रात का आंचल ओढ़ने लगी, इतने दिनों से लगातार मिलने से अब रुचि को  भी मिलने की आदत होने लगी थी. अच्छा लगने लगा था. मिलती तो पहले भी थी पर उसे भी शायद कुछ नया फील हो रहा था जो खींच रहा था. शायद अकेलापन और सान्निध्य जीवन में कोमल भावनाओं के प्रस्फुटन का कारण बन गया था.

ज़रूरत में साथ आए, अब बिना ज़रूरत भी मिलने लगे. वैसे, पहले भी तो मिलते थे. लेकिन तब इस साथ का मतलब केवल दोस्ती था. लेकिन अब साथ का अर्थ बदल रहा था. रुचि और व्योम अनजाने ही खिंचे जा रहे थे. उन्हें नहीं पता था उन के दिलों में उठता ज्वार उन्हें किस दिशा ले जाएगा.

रुचि को  व्योम का मजबूरी में मिला साथ अब अच्छा लग रहा था. शाम होते ही उस के आने का इंतज़ार रहता. वह खुद सोचती कि उसे अब क्या हो रहा है. रोहन के फोन से ज़्यादा व्योम के आने का इंतज़ार रहता. घंटों दोनों साथ बिताते. अब शौपिंग व पिक्चर भी चले जाते. एक अनजानी कशिश  में बंधे अनजान राहों पर बढ़ने लगे दोनों.

समय ने करवट ली, विम्मी ने प्यारी गुड़िया को जन्म दिया. व्योम को जैसे ही पिता बनने की खबर मिली, वह ख़ुशी से झूम उठा. उस ने रुचि को फ़ोन किया, “रुचि, ख़ुशख़बरी सुनो, जिस का इतने दिनों से इंतज़ार था. मैं पिता बन गया हूं, अभी फ़ोन आया है. मुझे जाना होगा अपनी नन्ही गुडिया को देखने.”

वो कुछ और भी कहना चाहता था लेकिन शायद शब्द साथ नहीं दे रहे थे.

फोन पर व्योम से यह खबर सुन दो मिनट को तो मौन रह गई, समझ ही नहीं पाई जिस स्वप्न में जीने लगी थी, जल्दी यथार्थ के झोंके से टूटने वाला है. वह भूल गई थी यथार्थ और स्वप्न का अंतर. शायद मानवमन कल्पना के सुखद पलों में डूब यथार्थ को परे धकेल देता है. यही हो रहा था रुचि व व्योम के साथ.

”क्या हुआ कुछ बोल क्यों नहीं रही रुचि, तुम ठीक तो हो?”

लेकिन रुचि का मौन वो अनकहा सच मुखर कर रहा था जो दोनों के दिल महसूस करने लगे थे. वह अपनी दोस्त विम्मी की प्यारी बिटिया होने पर ख़ुश थी लेकिन व्योम के जाने की बात सुन परेशान भी.

“वो मैं मैं यह कह…”

इस के बाद उस की आवाज़ भीग सी गई. भाव चाह कर भी शब्द नहीं ले पाए. उस ने फ़ोन काट दिया.

उस की आंखों  से निकल बूंदें दिल का दर्द समेटे गालों पर लिखने लगीं. इस अजीब परेशानी की शिकायत हो भी तो किस से? वो व्योम को विम्मी के पास जाने से मना भी तो नहीं कर सकती थी.

व्योम खुद मजबूर था. उस ने विम्मी से भी तो प्यार किया है. और अब,

आज फिर दिल की कशमकश उसे तोड़ रही थी. वह 2 भागों में बंट रहा था. भटकन और यथार्थ की लड़ाई में. रुचि की कशमकश आंधी की तरह उसे झिंझोड़ रही थी.

तभी रोहन का फोन आ गया. रुचि बिलख पड़ी. बिखरते एहसासों को जैसे किनारा मिल गया हो.

“रोहन, प्लीज़ आ जाओ. अब परेशान हो गई हूं. बहुत अकेलापन लगता है तुम्हारे बिना.”

“क्यों परेशान होती हो, मेरे पास अभी तो फ़ोन आया था विम्मी के प्यारी सी गुड़िया हुई है. अब तो विम्मी भी आ जाएगी. उस की प्यारी सी बिटिया से तुम्हारा मन भी लग जाएगा. इसी खबर की ख़ुशी बांटने के लिए मैं ने तुम्हें फ़ोन किया है. और देखो, तुम भी आदत डाल लो, लौट कर तो हमें भी तैयारी करनी है.”

रोहन की दिल लुभाने वाली बातों से रुचि थोड़ी शांत हुई. ऐसे लगा जैसे घाव पर मलहम लगा हो. उस की विचारतंद्रा सही मार्ग का अनुसरण करने लगी. रोहन से बात करते विचारों की आंधियों ने उसे घेर लिया. उस ने अपने मन को समझाया. नहीं, मैं अपनी दोस्त विम्मी और अपने पति से धोखा नहीं कर सकती. संभालना होगा मुझे खुद को. दोस्ती के प्यारे रिश्ते को कलंकित नही करूंगी मैं, वरना अपनी ही नज़रों में गिर जाऊंगी. पर विडंबना दुस्वप्न से जागने पर कुछ देर टूटन भ्रम का आवरण उतारना नहीं चाहती. पैर धंसते जाते हैं गहरे समंदर की रेतीले धरती पर, पांव संभालना कब आसान होता है.

कोई आवाज़ ना सुनकर रोहन बोला, “तुम ठीक तो हो, कुछ बोल क्यों नहीं रही? अच्छा सुनो, जैसे इतने दिन निकले और भी निकल जाएंगे, मैं कुछ दिनों की छुट्टी ले कर जल्दी आने की कोशिश करता हूं.“

“प्लीज़, जल्दी आ जाओ, कह कर रुचि सिसक पड़ी और फ़ोन काट दिया.

रुचि ने व्योम से बात करते हुए बिना जवाब दिए फ़ोन काट दिया था, इसलिए   व्योम तुरंत रुचि के घर आ गया. वह सोच रहा था, नए पनपते भाव जो रुचि की आंखें भी बोलती हैं, उस के खुद के दिल में भी हैं, आज कह दूंगा.

उस ने दोतीन बार बेल बजाई. रुचि को थोड़ा समय खुद को संयत करने में लगा.

व्योम ने फ़ोन कर दिया, “रुचि, दरवाज़ा खोलो, क्या हुआ?”

“नहीं व्योम, तुम जाओ. अब हम अकेले नहीं मिलेंगे. जिस रिश्ते से बेकुसूर अपने लोग टूटें उसे वहीं ख़त्म होना ज़रूरी है. वापस चले जाओ, व्योम.”

‘अवांछित प्रेम बल्लरी को समय रहते उखाड़ फेंकना ज़रूरी था,’ यह बुदबुदाने के साथ मुंह में दुपट्टा दबा रो पड़ी रूचि. कहीं उस की आवाज़ व्योम न सुन ले, इसलिए कुछ अनकहा ही रह जाए तो बेहतर है. संभलने में वक्त तो लगता है, संभाल लेगी खुद को, भटकने नहीं देगी न खुद को और न व्योम को. संभालना ही तो होता है समय पर सही दिशा में खुद को. सम्मोहन का भ्रमजाल जितनी जल्दी टूट जाए, अच्छा है.

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