राजनीति में सबको पॉवर की भूख होती है – अक्षय ओबेरॉय

फिल्म ‘इसी लाइफ में’ से अभिनय क्षेत्र में कदम रखने वाले अभिनेता अक्षय ओबेरॉय को शुरू से अभिनय करने की इच्छा थी, जिसमें साथ दिया उनके पेरेंट्स ने. विदेश से पढाई कर वे मुंबई आये और पृथ्वी थिएटर ज्वाइन कर अभिनय की बारीकियां सीखी. इसके बाद उन्हें कई फिल्में और वेब सीरीज में काम मिला. उनकी पत्नी ज्योति, जो उनके बचपन की प्रेमिका रही है. दोनों का बेटा अव्यान है. अक्षयने हमेशा अलग और रुचिपूर्ण कहानियों को महत्व दिया और कामयाब रहे. वे सेल्फ मेड इंसान है और खुद की मेहनत को प्रमुखता देते है. फिल्म मैडम चीफ मिनिस्टर में उन्होंने विलेन की भूमिका निभाई है. पेश है कुछ अंश.

सवाल-इस फिल्म में आपकी भूमिका क्या है और कितना चुनौतीपूर्ण है?

मैं इसमें विलेन की भूमिका निभा रहा हूं और मुझे इसे करने में मुझे बहुत अच्छा लगा. मुझे राजनीति से कभी कुछ लेना देना नहीं रहा. असल में राजनीति में सबको पॉवर की भूख होती है, जो भी राजनीति में जाते है, उन्हें और अधिक पॉवर प्राप्त करने की इच्छा होती रहती है. देश के भविष्य के बारें में कितना सोचते है, ये कहना मुश्किल है, लेकिन सबके पीछे पॉवर की ही इच्छा मुख्य रूप से रहती है. मैं असल जिंदगी में बिलकुल भी पॉवर की भूख नहीं है, मुझे एक्टिंग की भूख है, इसलिए ये चरित्र मेरे विपरीत है. जब निर्देशक सुभाष कपूर ने मेरी भूमिका मुझे सुनाई तो मैं इसे करने के लिए बहुत उत्साहित हो गया.

सवाल-क्या विलेन की भूमिका करना आपको पसंद है, क्योंकि इससे आपका इमेज आम लोगों के बीच ख़राब हो जाता है, आपको वैसी ही फिल्में मिलने लगती है, क्या कहना चाहते है?

मैंने इसके पहले एक फिल्म ‘गुड़गांव’ और एक वेब सीरीज ‘फ्लैश’ में विलेन की भूमिका निभाई थी. मुझे इमेज के बारें में अधिक नहीं सोचता. अगर मैंने कोई इमेज बनायीं है, तो उसे तोड़ने वाला भी मैं ही हूं. मैं हर तरह की भूमिका निभाना चाहता हूं. मैं अपने किरदार को अधिक से अधिक स्ट्रेच करना चाहता हूं, जो चीज मुझे उत्साहित करती है, मैं उसके पीछे भागता हूं.

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सवाल-एक कलाकार के लिए नकारात्मक भूमिका करना कितना जरुरी होता है?

मैं अंदर से एक अच्छा इंसान हूं. विलेन की कोई भी शेड्स मुझमे नहीं है.मेरे लिए ऐसी भूमिका मेरी ग्रोथ का परिचायाक है, क्योंकि मैं जो नहीं हूं, वही भूमिका मैं कर रहा हूं. मैं अपनी इंसानियत को जितनी बहतर करूँगा, मेरी एक्टिंग उतनी ही अच्छी होगी.

सवाल-इस भूमिका के लिए कितनी तैयारियां की है?

मैंने बहुत तैयारी की है. मैं राजनीति से अधिक परिचित नहीं था, इसलिए मुझे उसके बारें में जाननी पड़ी. कॉलेज की राजनीति कैसी होती है, कोई राजनीति में कैसे आता है, उनके कैरियर की जर्नी कैसी होती है आदि कई विषयों के बारें में जानकारी हासिल की. इसके अलावा मैंने असल जिंदगी से भी कुछ लेकर फिल्म में डाली है. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के कई कलाकारों को भी फोलो किया. साथ ही लखनवी भाषा पर काम करना पड़ा.

सवाल-कई बार पर्दे पर विलेन के किरदार निभाने वाले कलाकार को लड़कियां रियल लाइफ में देखकर डर जाती है, क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ?

फिल्म गुड़गांव रिलीज के समय मैं मकाऊ गया था. मकाऊ फिल्म फेस्टिवल में फिल्म ख़त्म होते ही मैं बाहर निकला और लड़कियों की एक झुण्ड मुझे देखकर भागने लगी. मुझे पता चला और मैंने उन्हें बड़ी मुश्किल से समझाया. फिर उन लड़कियों ने मेरे साथ ग्रुप पिक्चर्स लिए.

सवाल-रियल लाइफ में आप कैसे है?

10 साल इंडस्ट्री में बिताने के बाद भी मैं बहुत ही इंनोसेंटइंसान हूं.मुझे जो काम मिलता है, उसे कर लेता हूं.

सवाल-अभिनय में आने की प्रेरणा कहाँ से मिली?

मैं जब 12-13 साल का था, तो लगा कि एक्टिंग ही मेरी दुनिया है, क्योंकि मेरे पिता को फिल्में देखने और मुझे फिल्में दिखाना पसंद था.मैंने गुरुदत्त, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की कई फिल्में देखने के बाद मैं उनसे ही प्रेरित हुआ और अभिनय के क्षेत्र में मुंबई आ गया.

सवाल-पहला ब्रेक मिलने में कितना संघर्ष रहा?

पहला ब्रेक मिलना बहुत मुश्किल था. विदेश से आने पर ये समस्याऔर अधिक बढ़ गयी थी,लेकिन मुझे एक मौका राजश्री प्रोडक्शन वालों ने दिया. फिल्म सफल नहीं रही, पर मैं सबकी नज़रों में आ चुका था और कमोवेश काम मिलना शुरू हो गया था. मेरी जर्नी आसान हुई. वैसे मैं वर्तमान में जीता हूं. मुझे अच्छा काम अलग-अलग फिल्मों और वेब सीरीज में करना है. यही मेरा उद्देश्य है.

सवाल-क्या कोई ड्रीम है?

मुझे पीरियोडिकल फिल्में करना है, जिसमे मेरी भाषा, रहन-सहन, चाल-ढाल आदि सब मुझसे अलग हो. वह मेरे लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी. ड्रीम डायरेक्टर श्रीराम राघवन, दिवाकर बैनर्जी, अनुराग कश्यप आदि कई है.

सवाल-वेब सीरीज कलाकारों के लिए क्या माइने रखती है?

ये एक अच्छा प्लेटफार्म है और आज के दर्शक भी बहुत स्मार्ट है. अच्छी-अच्छी कहानियां वेब पर दिखाने कीकोशिश लगातार चल रही है. फिल्मों को अगर वेब से टक्कर देने की बात हो, तो फिल्मों की अच्छी कहानियां लिखनी पड़ेगी.वेब सीरीज के विषय बहुत अच्छे होते है और किसी चरित्र को दिखाने के लिए बहुत समय मिलता है. क्रिएटिवली इसमें संतुष्टि अधिकमिलती है.

सवाल-खाली समय में क्या करते है?

मैं अपनी पत्नी और 3 साल के बेटे के साथ समय बिताता हूं. इसके अलावा दोस्तों के साथ मिलना, किताबे पढ़ना, बास्केटबाल खेलना, दौड़ना आदि कई चीजें कर लेता हूं.

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सवाल-किसी किरदार को निभाने के बाद उससे निकलना कितना मुश्किल होता है?

किसी किरदार में घुसना जितना समय लगता है, उससे कही अधिक समय निकलने में लगता है. मुझे बहुत समय लगता है. मेरी पत्नी मुझे मेरे व्यक्तित्व का एहसास दिलाती है. नकारात्मक भूमिका करने पर वह मुझसे बात नहीं करती, इससे मुझे समझ में आता है कि मेरे अंदर विलेन के लक्षण घूम रहे है. सेट पर अगर कुछ ऐसा हुआ तो निर्देशक मुझे याद दिलाते है.

सवाल-आपके चरित्र से अलग किसी भी फिल्म या वेब में काम करते वक्त किस बात पर अधिक फोकस्ड रहते है?

मैं सबसे पहले स्क्रिप्ट को तक़रीबन हजार बार पढता और सोचता रहता हूं. इससे चरित्र को अच्छी तरह से समझना आसान होता है. इसके बाद चरित्र का विश्लेषण कर उसके व्यक्तित्व को निखारने की कोशिश करता हूं. इसमें निर्देशक का काफी सहयोग रहता है,पर करने में समय लगता है.इसके अलावा किसी-किसी में स्पेशल स्किल्स की जरुरत होती है, जैसे घुड़सवारी, बाइक चलाना, किसी भाषा को सीखना आदि करना पड़ता है.

सवाल-फिल्मों और वेब में किस तरह की अंतर पाते है?

दोनों की शूट में कोई अंतर नहीं है, लेकिन वेब में कंटेंट अधिक होता है और अभिनय का समय अधिक मिलता है, जिससे चरित्र को विकसित करना आसान होता है, जबकि फिल्मों में समय कम मिलता है और उसी टाइम फ्रेम में कलाकार को सबकुछ बताना पड़ता है.

सवाल-फिल्में समाज का आइना होती है और राजनीति पर फिल्में सालों से दिखाई जाती है, पर राजनीति में कोई सुधार नहीं होता, इसकी वजह क्या मानते है?

मैं राजनीति से जुड़ा हुआ इंसान नहीं हूं, लेकिन मुझे लगता है कि एक बार राजनीति में घुसने के बाद व्यक्ति पॉवर पाने की होड़ में लग जाता है, ऐसे में वह जनता की भलाई हो या खुद के वादे सब भूल जाता है.

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सवाल-सभी जानते है कि आपके पिता और सुरेश ओबेरॉय दोनों भाई है और आप विवेक ओबेरॉय के फर्स्ट कजिन है, क्या आपको उनका सहयोग कभी मिला?

मैं सेल्फ मेड इंसान हूं और खुद की मेहनत से आगे बढ़ना चाहता हूं. मैंने कभी किसी परिवारजन से सहयोग नहीं लिया है और उनसे कोई कनेक्शन भी नहीं है.

सवाल-अगर आपको कोई सुपर पॉवर मिले तो क्या बदलना चाहते है?

अगर मुझे सुपर पॉवर मिले, तो जो लोग बड़ी-बड़ी गाड़ियों में चलते हुए सड़क पर कचरा फेंकते है, उन्हें समझाना चाहता हूं कि वे इस देश के नागरिक है और उन्हें आसपास हमेशा साफ़ रखने की जरुरत है.

‘मैडम चीफ मिनिस्टर’ में रिचा चड्डा का शानदार अभिनय, पढ़ें रिव्यू

रेटिंगः ढाई  स्टार

निर्माताः डिंपल खरबंदा, भूषण कुमार, किशन कुमार व नरेन कुमार लेखक व निर्देशकः सुभाष कपूर

कलाकारः रिचा चड्डा, सौरभ शुक्ला,  मानव कौल, बोलाराम, अक्षय ओबेरॉय,  शुभ्राज्योति व अन्य.

अवधिः दो घंटे 4 मिनट

‘दबंगो के लिए सत्त घमंड है’’इस मूल कथनक के साथ जातिगत भेदभाव के साथ भ्रष्ट राजनीति पर आधारित फिल्म‘‘मैडम चीफ मिनिस्टर’’ लेकर आए हैं फिल्मकार सुभाष कपूर. जो कि राजनीति,  विश्वास,  धोखा,  प्रतिशोध,  लॉयल्टी,  सत्ता की ताकत,  सत्ता की भूख,  सत्ता को हथियाने की साजिशों से परिपूर्ण है.

कहानीः

फिल्म की कहानी शुरू होती है 1982 में उत्तर प्रदेश से. दलित जाति के रूपराम एक बारात के साथ बैंड बाजें के साथ ठाकुर की हवेली के सामने से निकलते हैं, दलित युवक दूल्हा बना हुआ घोड़ी पर बैठा हुआ है. यह बात ठाकुर को पसंद नही आती, विवाद बढ़ता है और ठाकुर गुस्से में रूपराम को गोली मार देते हैं. इधर रूपराम की मौत होती है, उधर घर में रूप राम चैथी बेटी को जन्म देती है. रूपराम की मॉं इस लड़की को मनहूस बताती है. बाद में कहानी शुरू होती है, जब तारा(रिचा चड्डा ) बाइक पर कालेज के पुस्तकालय पहुंचती है, जहां वह सहायक पुस्तकालय के रूप में कार्यरत हैं. तारा का कालेज के लड़के इंद्रमणि त्रिपाठी( अक्षय ओबेराय )  संग अफेयर है. एक बार वह गर्भपात करवा चुकी है और अब जब इंद्रमणि त्रिपाठी कालेज में चुनाव लड़ रहा है और उसकी तमन्ना एक दिन विधायक और फिर मुख्यमंत्री बनने की है. पर तारा दूसरी बार गर्भवती हो जाती है. इंद्रमणि साफ साफ कह देते हैं कि वह उससे शादी कभी नहीं करेगा, पर प्यार करता रहेगा. तब तारा धमकी देती है कि वह सच बताकर कालेज का चुनाव जीतने नही देगी. अब इंद्रमणि अपने साथियों को आदेश देता है कि तारा का गर्र्भपात करा दिया जाए या उसे मौत दे दी जाए. ऐन वक्त पर ‘परिवर्तन पार्टी’के अध्यक्ष मास्टर सूरज (सौरभ शुक्ला ) अपने साथियों संग वहां से गुजरते हुए घायल तारा को बचाकर अपने घर ले आते हैं, जहां तारा की मरहम पट्टी करवाते हैं. उसके बाद तारा,  मास्टर जी के साथ ही रहने लगती है. यहां पर पता चलता है कि तारा, रूपराम की चैथी बेटी है, जो कि अपनी दादी के तानों से उबरकर घर से भागकर शहर आकर पढ़ी और नौकरी की तथा इंद्रमणि त्रिपाठी के संपर्क में आ गयी थी. पर जिस तरह से इंद्रमणि ने उसका शोषण किया और उसे मरवाने का प्रयत्न किया, उसके चलते अब तारा का मकसद हर हाल में इंद्रमणि त्रिपाठी से बदला लेना है.

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मास्टर सूरज से तारा को राजनीति की भी शिक्षा मिलती रहती है. राज्य के राजनीतिक हालात बदलते हैं और चुनाव से पहले विकास पार्टी के अध्यक्ष अरविंद सिंह (शुभ्राज्योत) , मास्टर जी को उनकी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन करने का प्रस्ताव देते हैं. मासटर जी सोचनेका वक्त मांगते हैं. मास्टरजी के सभी साथ इस प्रस्ताव को ठुकराने के लिए कहते हैं. पर तारा कहती है कि समाज में बदलाव लाने के लिए सत्ता में होना आवश्यक है. फिर मास्टर जी की तरफ से तारा, अरविंद सिंह से बात करने जाती है और अपनी शर्तों पर अरविंद को गंठबंधन के लिए मजबूर कर देती है. इस शर्त के अनुसार पहले ढाई वर्ष उनकी पार्टी का विधायक मुख्यमंत्री होगा. इतना ही नही वर्तमान मुख्यमंत्री के सामने गौरीगंज से स्वयं तारा मैदान में उतरती है और अपने मौसेरे भाई   बबलू (निखिल विजय )से खुद पर गोली चलवाकर विजेता बन जाती है. मास्टरजी, तारा को ही मुख्यमंत्री के रूप में पेश करते हैं. इससे मास्टर जी के वरिष्ठ सहयोगी कुशवाहा भी नाराज होते हैं. अरविंद सिंह अपनी पार्टी की तरफ से इंद्रमोहन त्रिपाठी को मंत्री बनाने के लिए कहते हैं, पर तारा मना कर देती है. अब कुशवाहा,  अरविंद सिंह और इंद्रमणि त्रिपाठी हर हाल में तारा को हटाने के प्रयास में लग जाते हैं. पर तारा चतुर चालाक राजनीतिज्ञ की तरह सभी को जवाब देती रहती है. उसका ओसीडी दानिश खान(मानव कौल   ) भी उसकी मदद करते हैं. अचानक इंद्रमोहन त्रिपाठी, मास्टरजी के सहायक संुदर(बोलाराम ) की मदद से मास्टरजी की हत्या करवा देता है. तब गुस्से में एक दिन तारा मिर्जापुर के गेस्टहाउस में अरविंद सिंह के विधायकों को ले जाकर बंदी बना लेती है और उन्हें अपनी ‘परिवर्तन पार्टी’में शामिल कर लेती है, इसकी खबर लगते ही अरविंद सिंह व इंद्रमोहन त्रिपाठी अपने दलबल व शस्त्रों के साथ पुलिस अफसर एसपी की मदद से गेस्ट हाउस में घुस जाते हैं. उनकी योजना तारा की हत्या करना है. मगर दानिश खान उन्हे बचाता है. पर दानिश खान का गोली लग जाती है. उसके बाद अरविंद सिंह की गिरफ्तारी हो जाती हैं.  इधर सार्वजनिक मंच से तारा, दानिश खान के संग शादी का ऐलान करेदेती है. पर हालात सुधरते नही हैं. चार माह बाद अरविंद सिह को अदालत से जमानत मिल जाती है. अरविंद सिंह की पार्टी केंद्र से मांगकर मुख्यमंत्री तारा के खिलाफ सीबीआई की जांच शुरू करवा देते हैं. अब दानिश खान मुख्यमंत्री बनने वाले हैं, पर तारा के सामने दानिश खान की साजिश सामने आ जाती है. उसके बाद घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं.

लेखन व निर्देशनः

राजनीतिक पत्रकारिता छोड़कर फिल्म निर्माता व निर्देशक बने सुभाष कपूर अब तक ‘फंस गए रे ओबामा‘,  ‘जौली एलएलबी‘,  ‘गुड्ड न रंगीला‘, ‘ ‘जौली एलएलबी 2‘ जैसी सफल फिल्मों का निर्देशन कर चुके हैं, मगर इस बार वह मात खा गए हैं. उनकी पिछली फिल्मों में जिस तरह से सामाजिक व राजनीतिक कटाथा व व्यंग रहता था, वह इसमें गायब है. फिल्म की कहानी बहुत साधारण है. इंटरवल से पहले ठीक ठाक है, मगर इंटरवल के बाद पूरी फिल्म विखर सी गयी है. वैसे सत्ता का नशा किस कदर एक नेक व इमानदारी इंसान को भी भ्रष्ट राजनेता बना देता है, इसका बहुत सूक्ष्म चित्रण करने में वह जरुर सफल रहे हैं. गरीब राज्य के लोगों के नेता के रूप में उसकी भव्य जीवन शैली के अनुरूप उसकी गरीबी में हेरफेर करने का उसका शानदार तरीका पर्याप्त रूप से रेखांकित है. उत्तर प्रदेश की राजनीति से भलीभंति परिचित लोग फिल्म को देखते हुए समझ जाएंगे कि फिल्मकार ने किन्ही मजबूरी के तहत कहानी के साथ जो छेड़छाड़ की है, उससे फिल्म कमजोर हो गयी है. माना कि इसमें राजनीति के छोटे छोटे तत्वों को पकड़ने का प्रयास किया गया है, मगर कई किरदार ठीक से विकसित ही नहीं हो पाए. उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती के कुछ बयानो को बदलकर इस फिल्म में रख गया है. किसी भी नए इंसान के लिए राजनीति इतनी आसान नही हो सकती, जितनी इस फिल्म में चित्रित हैं. कई दृश्य तो काफी अविश्वसनीय लगते हैं. फिल्म को ठीक से प्रचारित भी नही किया गया.

सुभाष कपूर ने फिल्म के शुरूआती दृश्य को ज्यों का त्यों सफल वेब सीरीज‘‘आश्रम’’सीरीज एक के पहले एपीसोड से उठाया है. अब यह महज संयोग है या . यह तो फिल्मकार ही जानते होंगे. यह वह दृश्य है जब दलित दूल्हा घेड़ी पर बैठे हुए ठाकुर के घर के सामने से निकलता है.

फिल्म के कुछ संवाद अवश्य अच्छे व वजनदार बन पड़े हैं. मसलन-मास्टर सूरज का एक संवाद है-‘‘जिस दिन हमारे समाज के लोग मंदिर जाकर प्रसाद पाएंगे, उसी दिन हम प्रसाद ग्रहण करेंगें. ’’ अथवा ‘‘सत्ता में रहकर सत्ता की बीमारी से बचना मुश्किल है. ’’अथवा तारा का मास्टर जी (सौरभ शुक्ला) से कहना -‘‘अछूत को  मंदिर में प्रवेश कराना गलत है ?लड़कियों को साइकिल पर बताना गलत है?. . .  मगर मेरे इस काम से पार्टी मजबूत हो रही है.  रिचा चड्ढा का एक और संवाद है-‘‘ मगर मैं बचपन से  जिद्दी हूं.  बचपन से अक्खड़ हूं . कोई कितने भी सितम कर ले.  मुझे कितने ही बलिदान देने पड़े. तुम्हारी आवाज उठाने से , तुम्हारी सेवा करने से , दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. . . ‘‘ यह संवाद अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है.

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अभिनयः

दलित व शोषित लड़की से मुख्यमंत्री तक की तारा की यात्रा को चित्रित करने में रिचा चड्डा ने उत्कृष्ट अभिनय का परिचय दिया है. शीर्ष किरदार में रिचा ने पूरी जान डाल दी है. वह अकेले ही इस फिल्म को अपने कंधे पर लेकर चलती हैं. मगर कुछ दृश्यों में वह कमजोर पड़ गयी हैं. मसलन-मास्टर सूरज, जब चोटिल तारा को घर लाकर उसकी मरहम पट्टी करते हैं, तब तारा के चेहरे पर दर्द के भाव नहीं आते. ऐसा पटकथा व निर्देशक की कमजोरी के चलते भी संभव है. मुख्यमंत्री तारा के राजनीतिक सलाहकार, फिर पति व मुख्यमंत्री बनने की चाह रखने वाले दानिश खान के किरदार के चित्रण में मानव कौल अपनी छाप छोड़ जाते हैं. मास्टर सूरज के किरदार में सौरभ शुक्ला ने शानदार अभिनय किया है. सुंदर के छोटे किरदार में बोलाराम ठीकठाक जमे हैं. मगर इंद्रमणि त्रिपाठी के किरदार में अक्षय ओबेराय का अभिनय काफी औसत रहा. अरविंद सिंह के किरदार मे तेज तर्रार व चालाक राजनेता के किरदार के साथ शुभ्राज्योत पूरी तरह से न्याय नही कर पाएं. निखिल विजय का अभिनय ठीक ठाक है.

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