महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-16

 अब तक की कथा :

ईश्वरानंद से मिल कर दिया को अच्छा नहीं लगा था. वह समझ नहीं पा रही थी कि धर्मानंद क्यों ईश्वरानंद का आदेश टाल नहीं पाता. ईश्वरानंद कोई सामूहिक गृहशांति यज्ञ करवा रहे थे. उसे फिर धर्मानंद के साथ उस यज्ञ में शामिल होने का आदेश मिलता है. बिना कोई विरोध किए दिया वहां चली गई. उस पूजापाठ के बनावटी माहौल में दिया का मन घुट रहा था परंतु धर्मानंद ने उसे बताया कि प्रसाद ग्रहण किए बिना वहां से निकलना संभव नहीं. वह दिया की मनोस्थिति समझ रहा था. अब आगे…

दिया बेचैन हुई जा रही थी.  जैसेतैसे कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा हुई और भीड़ महाप्रसाद लेने के लिए दूसरी ओर लौन में सजी मेजों की ओर बढ़ने लगी. अचानक एक स्त्री ने आ कर धीरे से धर्मानंद के कान में कुछ कहा.

धर्मानंद अनमने से हो गए, ‘‘देर हो रही है.’’

‘‘लेकिन गुरुजी ने आप को अभी बुलाया है. आप के साथ में कोई दिया है, उसे भी बुलाया है.’’

एक प्रकार से आदेश दे कर वह स्त्री वहां से खिसक गई. दिया ने भी सब बातें सुन ली थीं. कहांकहां फंस जाती है वह. नहीं, उसे नहीं जाना.

‘‘आप हो कर आइए. मैं खाना खाती हूं.’’

‘‘दिया, प्लीज अभी तो चलिए. नहीं तो गड़बड़ हो जाएगी.’’

‘‘मैं कोई बंदी हूं उन की जो उन का और्डर मानना जरूरी है?’’ दिया की आवाज तीखी होने लगी तो धर्मानंद ने उसे समझाने की चेष्टा की.

‘‘मैं जानता हूं तुम उन की बंदी नहीं हो पर तुम नील और उस की मां की कैदी हो. वैसे मैं भी यहां एक तरह से कैद ही हूं. इस समय मैं जैसा कह रहा हूं वैसा करो दिया, प्लीज. हम दोनों ही मिल कर इस समस्या का हल ढूंढ़ेंगे.’’

धर्मानंद दिया का हाथ पकड़ कर पंडाल के अंदर ही अंदर 2-3 लौन क्रौस कर के दिया धर्मानंद के साथ गैराजनुमा हाल में पहुंची.

धर्मानंद ने एक दीवार पर लगी हुई एक बड़ी सी पेंटिंग के पास एक हाथ से उस सुनहरी सी बड़ी कील को घुमाया जिस पर पेंटिंग लगी हुई थी. अचानक बिना किसी आवाज के पेंटिंग दरवाजे में तबदील हो गई और धर्मानंद उस का हाथ पकड़े हुए उस दरवाजे में कैद हो गया. अंदर घुसते ही पेंटिंग बिना कुछ किए बिना आवाज के अपनेआप फिर से पहली पोजीशन पर चिपक सी गई. सामने ही ईश्वरानंदजी का विशाल विश्रामकक्ष था. ईश्वरानंदजी गाव तकिए के सहारे सुंदर से दीवान पर लेटे हुए थे, उन के सिरहाने एक स्त्री बैठी थी जो उन का सिर दबा रही थी तो एक उन के पैरों की ओर बैठी पैरों की मालिश कर रही थी.

‘‘आओ, धर्मानंद, आओ दिया, क्या बात है, आज देर कैसे हो गई? काफी देर से पहुंचे आप लोग? और हम से क्या मिले बिना जाने का प्रोग्राम था?’’दिया ने देखा दोनों स्त्रियां किसी मशीन की भांति चुपचाप माथे और पैरों की मालिश कर रही थीं.

‘‘अरे भई, जरा धर्मानंद और दिया को एकएक पैग तो बना कर दो. अभी तक खड़े हो दोनों, बैठो.’’

चुपचाप दोनों सामने वाले सोफे पर बैठ गए. दिया का दिल धकधक करने लगा. अब क्या प्रसाद के नाम पर पैग भी. नहीं, उस ने धर्मानंद का हाथ फिर से कस कर दबा दिया.अचानक न जाने किधर से उस दिन वाली अंगरेज स्त्री आ कर खड़ी हो गई और मुसकराते हुए पैग तैयार करने लगी.

‘‘हैलो धर्मानंद, हाय दिया,’’ उस ने दोनों को विश किया.

‘‘प्लीज रहने दें, हम तो बस महाप्रसाद लेने ही जा रहे थे,’’ धर्मानंद ने मना किया.

‘‘ऐसे कैसे चलेगा, धर्म, तुम्हें होता क्या जा रहा है? एकएक पैग लो यार. सिर फटा जा रहा है. सुबह से ये सब विधि करवाते हुए पूरे बदन में दर्द हो रहा है. दो, दिया को भी दो, धर्म को भी,’’ ईश्वरानंद ने फिर आदेश दिया.

‘‘गुरुजी, इस समय रहने दें और दिया तो लेती ही नहीं है.’’

‘‘अरे, लेती नहीं है तो क्या, आज ले लेगी, गुरुजी के साथ.’’

‘‘यहां आओ, दिया. उस दिन भी तुम से कुछ बात नहीं हो सकी,’’ ईश्वरानंद ने उसे अपने पास दीवान पर बैठने का इशारा किया.

दिया मानो सोफे के अंदर धंस जाएगी, इस प्रकार चिपक कर बैठी रही.

‘‘मैं किसी को खा नहीं जाता, दिया. देखो ये सब, कितने सालों से मेरे साथ हैं. आज तक तो किसी को कुछ नुकसान पहुंचाया नहीं है. डरती क्यों हो?’’

‘‘लाओ, बनाओ एकएक पैग और जाओ तुम लोग भी प्रसाद ले लो, फिर यहां आ जाना.’’

गुरुजी के आदेश पर दोनों स्त्रियां ऐसे उठ खड़ी हुईं मानो किसी ने उन का कोई स्विच दबा दिया हो, रोबोट की तरह. हाय, क्या है ये सब? मानो किसी ने हिप्नोटाइज कर रखा हो. दिया ने सुना हुआ था कि ऐसे लोग भी होते हैं जो आंखों में आंखेंडाल कर अपने वश में कर लेते थे. सो, दिया ईश्वरानंद से आंखें नहीं मिला रही थी. सब के सामने पैग घूम गए. सब से पहले ईश्वरानंद ने लिया, चीयर्स कह कर गिलास ऊपर की ओर उठाया, एक लंबा सा घूंट भर लिया और धर्मानंद को लेने का इशारा किया.

‘‘प्लीज, नो,’’ दिया जोर से बोली.

धर्मानंद का उठा हुआ हाथ वहीं पर रुक गया और ईश्वरानंद भी चौंक कर दिया को देखने लगे.

‘‘प्लीज, चलो धर्मानंद, आय एम वैरी मच अनकंफर्टेबल,’’ उस के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘क्यों घबरा रही हो, दिया? एक पैग लो तो सही, सब डर निकल जाएगा. लो,’’ ईश्वरानंद अपने स्थान से उठ कर दिया की ओर बढ़े तो दिया धर्मानंद के पीछे छिप गई.

‘‘गुरुदेव, दिया के लिए यह सब बिलकुल अलग है, नया. प्लीज, अभी रहने दें. बाद में जब यह कंफर्टेबल हो जाएगी…’’ धर्मानंद ने ईश्वरानंद की ओर अपनी एक आंख दबा दी.

ईश्वरानंद उस का इशारा समझ कर फिर से जा कर धप्प से अपने स्थान पर विराजमान हो गए. उन के चेहरे से लग रहा था कि वे दिया व धर्म के व्यवहार से क्षुब्ध हो उठे हैं. परंतु लाचारी थी. जबरदस्ती करने से बात बिगड़ सकती थी और वे बात बिगाड़ना नहीं चाहते थे.

‘‘दिया इतनी होशियार है, मैं तो कहता हूं कि यह अगर अपना हुलिया थोड़ा सा बदलने के लिए तैयार हो तो मैं इसे अच्छी तरह से ट्रेंड कर दूंगा और फिर देखना लोगों की लाइन लग जाएगी, इस के प्रवचन सुनने और इस के दर्शनों के लिए.

‘‘दिया, तुम्हारी पर्सनैलिटी में तो जादू है जो तुम नहीं जानतीं, मैं समझता हूं. तुम्हारे लिए सबकुछ नया है पर शुरू में तो सब के लिए नया ही होता है न?’’ ईश्वरानंद प्रयत्न करना नहीं छोड़ रहा था.

‘‘गुरुजी, आज दिया को जरा घुमा लाता हूं. बेचारी घर के अंदर रह कर बोर हो जाती है. आज आप भी थके हुए हैं. मैं फिर कभी इसेले कर आऊंगा.’’

‘‘ठीक है पर प्रसाद जरूर ले कर जाना. उस के साथ आने वाले दिनों के कार्यक्रम की लिस्ट भी मिलेगी.’’

बाहर जाने वाले लोगों के हाथ पर एक मुहर लगाई जा रही थी. उन लोगों के हाथों पर भी मुहर लगाई गई. जब वे अपना जमा किया हुआ सामान लेने पहुंचे तो उन्हें उन का सामान तभी दिया गया जब उन्होंने अपने हाथ दरबानों को दिखाए. साथही एक लिस्ट भी दी गई जिस पर ईश्वरानंदजी द्वारा संयोजित होने वाले कार्यक्रमों का विवरण था और ‘परमानंद सहज अनुभूति’ के सदस्यों का उन कार्यक्रमों में उपस्थित होना अनिवार्य था.शाम के 3:30 बजे थे. धर्मानंद ने गाड़ी निकाली और बाहर निकल कर दिया चारों ओर देख कर लंबीलंबी सांसें ले रही थी. घुटन से निकल मुक्त वातावरण में वह अपने फेफड़ों के भीतर पवित्र, शुद्ध, सात्विक सांसें भर लेना चाहती थी.  गार्डन पहुंच कर दोनों गाड़ी से उतरे. लौन पर बैठते ही सब से पहले दिया ने अपना पर्स  खोला. मोबाइल देखा, कितने सारे मिसकौल्स थे.

‘‘देखिए धर्म, इस में नील की मां के भी कई मिसकौल्स हैं,’’ दिया ने धर्मानंद की ओर मोबाइल बढ़ा दिया.

‘‘अरे, मैं भूल गया दियाजी, उन्होंने कहा था न कि पूजा खत्म होते ही मुझे रिंग दे देना. मैं अभी उन्हें कौल करता हूं.’’

‘‘क्या जरूरत है, धर्म?’’

‘‘जरूरत है, दिया. इन लोगों से ऐसे छुटकारा नहीं मिल सकता. इन्हें शीशे में उतारने के बाद ही कुछ हो सकेगा.’’

आगे पढ़ें- उस ने नील की मां को फोन किया और…

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