महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-22

 अब तक की कथा :

पुलिस ईश्वरानंद के आश्रम में दबिश दे चुकी थी और आश्रम के अंदर जाने का प्रयास कर रही थी. इधर नील और उस की मां को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. अब तक तो अंधेरा ही था, अब तो सामने गहरी खाई दिखाई दे रही थी. मां के कारण उस ने दिया को हाथ तक न लगाया और अब नैन्सी भी उस के हाथों से फिसल रही थी.

अब आगे…

अचानक दिया आगे बढ़ आई और उस ने सुनहरी पेंटिंग पर लगे हुए बड़े से सुनहरी बटन को दबा दिया. बटन दबाते ही दीवार में बना गुप्त दरवाजा खुल गया. सब की दृष्टि उस गलियारे में पड़ी जो फानूसों से जगमग कर रहा था. ब्रिटिश महिला पुलिस औफिसर एनी गलियारे की ओर बढ़ीं और उन्होंने सब को अपने पीछे आने का इशारा किया. गैलरी पार कर के सब लोग अब एक आलीशान दरवाजे के पास पहुंच गए थे जहां अंदर अब भी रासलीला चल रही थी. यहां भी दिया ने आगे बढ़ कर दरवाजे के खुलने का राज जाहिर कर दिया. दरवाजा क्या खुला, कई जोड़ी आंखें फटी की फटी रह गईं. सबकुछ इतना अविश्वसनीय था कि लोग अपनी पलकें झपकाना तक भूल गए थे.

अपनी अर्धनग्न चहेती शिष्याओं के साथ सामने के बड़े से मंच पर लगभग नग्नावस्था में विराजमान ईश्वरानंद का फूलों, केसर व चंदन से शृंगार किया जा रहा था. सुंदरियां उस के अंग को कोमलता से स्पर्श करतीं, चूमतीं और फिर उसे फूलों से सजाने लगतीं. सब इस कार्यक्रम में इतने लीन थे कि किसी को हौल में पुलिस के पहुंचने का आभास तक न हुआ. सैक्स का ऐसा रंगीला नाटक देख पुलिस भी हतप्रभ थी. इंस्पैक्टर ने साथ आए हुए फोटोग्राफर को इशारा किया और उस का मूवी कैमरा मिनटभर की देरी किए बिना वहां पर घटित क्रियाकलापों पर घूमने लगा.

ब्रिटिश पुलिस के लिए यह सब बहुत आश्चर्यजनक था. इत्र का छिड़काव जैसे ही दिया के नथुनों में पहुंचा उस को छींक आनी शुरू हो गईं. दिया को बचपन से ही स्ट्रौंग सुगंध से एलर्जी थी. छींकतेछींकते दिया बेहाल होने लगी. ईश्वरानंद की लीला में जबरदस्त विघ्न पड़ गया. यह कैसा अन्याय, सब का ध्यान भंग हुआ और उन्होंने पीछे मुड़मुड़ कर देखना शुरू किया. जैसे ही उन की दृष्टि पुलिस वालों पर पड़ी, अब तो मानो वे ततैयों की लपेट में आ गए. ईश्वरानंद अधोवस्त्र संभालता हुआ स्टेज से भागने का प्रयास कर रहा था. जैसे ही ईश्वरानंद ने सीढि़यों से उतरने को कदम बढ़ाया वैसे ही इंस्पैक्टर ने उसे धरदबोचा.

‘‘क्यों, हमें क्यों डिस्टर्ब किया जा रहा है?’’ ईश्वरानंद ने इंस्पैक्टर की बलिष्ठ भुजाओं में से सरकने का प्रयास करते हुए हेकड़ी दिखाने की चेष्टा की.

किसी ने उस की बेवकूफी का उत्तर नहीं दिया. पुलिस अपनी ड्यूटी करती रही. चेलेचांटों सहित उसे एक कतार में खड़ा कर दिया गया. पुलिस के जवान आश्रम के प्रत्येक कमरे में घुस कर तलाशी लेने लगे. सभी संदिग्ध वस्तुओं को जब्त कर लिया गया. बहुत से भारतीय सुरक्षा से जुड़े कागजात, जाली प्रमाणपत्र, जाली पासपोर्ट…और भी दूसरी अवैध चीजें, बिना लाइसैंस की गन्स, और न जाने क्याक्या बरामद कर लिया गया. एक कमरे में से धीमीधीमी सिसकने की आवाजें सुन कर दरवाजा तोड़ डाला गया और उस में से नशे से की गई बद्तर हालत में 3 लड़कियों को निकाला गया जो जिंदा लाश की तरह थीं. उन का कटाफटा शरीर, उन के मुंह पर लगे टेप, आंखों में भय व घबराहट सबकुछ दरिंदगी की कहानी बयान कर रहे थे. दिया ने उन्हें देखा तो घबराहट के कारण उस के मुख से चीख निकल गई. अगर वह फंस गई होती तो आज उस की भी यही दशा होती.

पुलिस गुरुचेलों को गाड़ी में ठूंस कर पुलिस स्टेशन ले गई. दिया दूसरी गाड़ी में उन 3 लड़कियों के साथ बैठ कर पुलिस स्टेशन पहुंची थी. लड़कियों के मुंह पर से टेप हटा दी गई थी परंतु वे कुछ कहनेसुनने की हालत में थीं ही नहीं. ईश्वरानंद, उस के चेलेचेलियां, नील व उस की मां से कोई बात नहीं की गई. उन को यह बता कर मुख्य जेल में भेज दिया गया कि उन का फैसला कोर्ट करेगी. नैन्सी से थोड़ीबहुत पूछताछ की गई और यह कह कर उसे फिलहाल रिहा कर दिया गया था कि जरूरत पड़ने पर उसे कोर्ट या पुलिस के समक्ष हाजिर होना पड़ेगा. धर्म के बारे में दिया से मौखिक व लिखित बयान ले लिए गए थे. एनी ने पहले ही दिया से खुल कर सबकुछ पूछ ही लिया था.

अब दिया को इंडियन एंबैसी ले जाने का समय था.

‘‘कैन आय टौक टू धर्म, प्लीज,’’ दिया ने पुलिस से आग्रह किया.

धर्म को उस के सामने ले आया गया.

‘‘तुम इंडिया चली जाओगी शायद 2-4 दिन में ही?’’

‘‘हूं.’’

‘‘मुझे अपनी सजा भुगतनी है.’’

‘‘हूं.’’

‘‘कुछ तो बोलो, दिया.’’

वातावरण में पसरे मौन में दिया व धर्म की सांसें छटपटाने लगीं. आंसू थे कि थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे. यह कैसा मिलन था? मौन ही उन की जबान बन कर भावनाओं, संवेदनाओं को एकदूसरे के दिलों तक पहुंचा रहा था.

धर्म ने दिया के गालों पर फिसलते आंसुओं को अपनी हथेली में समेट लिया. उसे गले लगाते हुए बोला, ‘‘अपनी गलतियों की सजा पा कर ही मैं भारमुक्त हो सकूंगा, दिया.’’

दिया की आंखें एक बार फिर गंगाजमुना हो आईं.

‘‘नहीं, रोते नहीं, दिया. तुम इंडिया लौट कर जाओगी, मेरी प्रतीक्षा करोगी?’’

दिया चुपचाप उसे देखे जा रही थी.

‘‘मैं जल्दी ही आऊंगा, दिया.’’

‘‘मैं प्रतीक्षा करूंगी.’’

दिया भी इंडियन एंबैसी के लिए निकल पड़ी. 3 दिन तक उसे वहां रखा गया और चौथे दिन उस की फ्लाइट थी. हीथ्रो हवाई अड्डे से सीधे अहमदाबाद की. इधर ईश्वरानंद के परमानंद आश्रम की धज्जियां उड़ गई थीं. देखते ही देखते परमानंद आश्रम के परम आनंद की खबर ब्रेकिंग न्यूज बन कर विश्वभर में फैल गई. लैंड करने के बाद दिया को हवाई अड्डे से निकलने में अधिक समय नहीं लगा. उस ने एंबैसी के अफसर को मना कर दिया था कि कृपया उस के घर पहुंचने की सूचना घर वालों को न भेजें. बाहर निकल कर वह टैक्सी में जा बैठी. भरपूर गरमी, सड़क पर दौड़ती गाडि़यां. दिया ने अपने बंगले की ओर जाने वाली सड़क ड्राइवर को बताई और कुछ ही मिनट में गाड़ी घर के बडे़ से गेट पर थी.

सुबह लगभग 9 बजे का समय. बंगले का गार्ड बगीचे में पानी देते हुए माली से बातें कर रहा था. अचानक उस की दृष्टि दिया पर पड़ी.

‘‘दिया बेबी?’’ वह चौंका. माली की दृष्टि भी ऊपर उठी.

‘‘हां, दिया बेबी ही तो हैं,’’ उस ने गार्ड की बात दोहराई.

गार्ड ने दीनू को आवाज दी, वह बरामदे में भागता आया और तुरंत मुसकराते हुए अंदर की ओर भागा. आश्चर्य और घबराहट से भर कर सभी लोग बरामदे तक भागे आए. यशेंदु भी अपनी व्हीलचेयर पर सब के पीछे तेजी से कुरसी के पहियों को चलाते हुए पहुंचे, दादी भी अपनेआप को धकेलती हुई मंदिर से बरामदे तक न जाने कैसे अपने भगवानज को छोड़ कर आ पहुंची थीं. सब से पीछे कामिनी थी जो शायद कालेज जाने की तैयारी छोड़ कर पति के पीछेपीछे तेजी से आ रही थी. दादी ने सब से आगे बढ़ कर दिया को अपने निर्बल बाहुपाश में जकड़ लिया. उस ने कोई प्रतिकार नहीं किया. स्वयं को दादी की निर्बल बांहों में ढीला छोड़ दिया. कुरसी पर बैठे एक टांगविहीन पापा को और उन के पीछे खड़ी मां की गंगाजमुनी आंखों को देख कर उस की आंखों का स्रोत फिर बहने लगा. दिया के मन में एक टीस सी उठी. वह दादी के गले से हट कर पापा के गले से चिपट गई और हिचकियां भर कर रोने लगी. काफी देर दिया पिता के गले से चिपकी रही. कामिनी ने धीरे से उस के सिर पर हाथ फेरा तो वह पिता से हट कर मां से जा चिपटी. कामिनी ने कुछ नहीं कहा और सहारा दे कर उसे अंदर की ओर ले आई.

दिया सब की आंखों में प्रश्नचिह्नों का सैलाब साफसाफ देख पा रही थी परंतु उत्तर देने वाले की मनोस्थिति देखते हुए सब को अपने भीतर ही प्रश्नों को रोक लेना पड़ा. दादी के मन में तो उत्सुकता, उत्कंठा और उत्साह कलाबाजियां खा रहे थे. दादी जल्दी से कुरसी खिसका कर उस के पास बैठ गईं.

‘‘दिया, नील और तेरी सास तो मजे में हैं न?’’

दादी चाहती थीं कि दिया ससुराल की सारी बातें बताए. आखिर उन की लाड़ली पोती कितने दिनों बाद विदेश से वापस आई थी. छुटकारा न होते देख दिया ने दादी की बात के लिए हां कहा और फिर बोली, ‘‘मां, मैं अपने कमरे में जाना चाहती हूं,’’ कह कर वह ऊपर अपने कमरे में आ गई.

दीनू कई बार ऊपर बुलाने आया परंतु दिया का मन बिस्तर से उठने का नहीं हुआ. नीचे सब की आंखों में प्रश्न भरे पड़े थे. दादीमां बड़ी बेचैन थीं, दिया से ढेर सी बातें करना चाहती थीं. कामिनी ने नीचे आ कर सब को समझाने की चेष्टा की.

‘‘अभी बहुत थकी हुई है. आराम कर के फ्रैश हो जाएगी तो अपनेआप नीचे आ जाएगी.’’

-क्रमश:

 

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