महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-4  

‘‘आगे क्या करने का विचार है, बेटी?’’ अचानक नील की मां ने चुप्पी तोड़ी.

‘‘जी,’’ दिया ने दृष्टि उठा कर नील की मां की ओर देखा तो उस की दृष्टि नील से जा टकराई. प्रश्न अनुत्तरित रह गया, उस ने अपनी दृष्टि फिर नीची कर ली. शायद नील की दृष्टि के सम्मोहन से बचने के लिए.

‘‘मैं पूछ रही थी आगे क्या करना चाहती हो, दिया?’’ नील की मां ने फिर प्रश्न चाशनी में लपेट कर उस के समक्ष परोस दिया था.

‘‘पत्रकारिता, जर्नलिज्म,’’ उस ने उत्तर दिया व होंठ दबा लिए.

‘ऐसे पूछ रही हैं जैसे मुझे दाखिला ही दिलवा देंगी,’ मन ही मन उस ने बड़बड़ की और एक आह सी ले कर फिर मां को ताका जो निरीह सी अपने पति से सटी बैठी थीं. छुरी तो उस की गरदन पर चलने वाली है और मां हैं कि सबकुछ देखसुन रही हैं. उसे मां से भी नाराजगी थी, बहुत नाराजगी. यह क्या व्यक्तित्व हुआ जो इतना शिक्षित, समझदार होने के बाद भी अपने अस्तित्व को बचा कर न रख सके. एक मां के साथ केवल उस का व्यक्तित्व ही नहीं, बच्चों का अस्तित्व भी जुड़ा रहता है.

‘‘दिया का सपना है कि वह एक दिन पत्रकारिता की दुनिया में अपना नाम कर सके. मीडिया से तो बहुत पहले से ही जुड़ी हुई है, अपने स्कूलटाइम से, इसीलिए मुझे भी लगता है कि इसे अपने कैरियर पर पहले ध्यान देना चाहिए,’’ न जाने कामिनी के मुख से कैसे ये शब्द फटाफट निकल गए. मानो कोई इंजन दौड़ा जा रहा हो. उस दौरान दिया की आंखों की चमक देखते ही बन रही थी. न सही अपने लिए, मां मेरे लिए बोलीं तो सही.

‘‘यस, आई वांट टू गो फौर जर्नलिज्म,’’ दिया ने एकदम जोर से कहा तो सब के चेहरे कामिनी की ओर से मुड़ कर दिया की तरफ हो गए.

‘‘कामिनी, ठीक है पर ये लोग कह रहे हैं कि दिया की पढ़ाई में जरा भी ढील नहीं होगी. सोचो, तुम्हारी बेटी औक्सफोर्ड से जर्नलिज्म करेगी,’’ यश उन्मुक्त गगन में स्वच्छंद विचरण करते पंछी की तरह उड़ान भर रहे थे. नील के सलीके व सुदर्शन व्यक्तित्व ने उन पर भी जादू कर दिया था.

दादी का चेहरा अपने अपमान से झुलसने लगा. उन के सामने इतने वर्षों में कभी भी मुंह न खोलने वाली कामिनी आज बाहर के लोगों के समक्ष…परंतु चालाक थीं, बात को संभालना जानती थीं. बनती हुई बात आखिर बिगड़ने कैसे देतीं? और उन का कन्यादान का सपना? वह तो अधर में ही लटक जाता. यह उन का अहं कभी बरदाश्त न कर पाता. घर में आई तो बेटी बेशक 2 पीढि़यों के बाद ही सही पर उन की ही कमी से? नहीं, वे ऐसा नहीं होने देंगी. उन्होंने वहीं बैठेबैठे पंडितजी की ओर दृष्टि से ही संकेत किया.

‘‘देखिए मांजी,’’ पंडितजी ने दिया की दादी से मुखातिब हो कर कहा, ‘‘अब आप ने हमें यहां बुलाया है तो किसी प्रयोजन से ही न. हम तो पहले ही इस कुंडली का मिलान कर चुके हैं. हम ने आज तक इतने बढि़या ग्रह नहीं देखे. क्या ग्रह हैं. मानो स्वयं रामसीता की कुंडली मेरे हाथ में आ गई हो.’’

पंडितजी बोल तो गए परंतु बाद में उन्होंने अपनी जबान मानो दांतों से काट ली. रामसीता यानी विरह?

नील की मां की आंखों में एक बार हलकी सी निराशा की झलक आई फिर उन्होंने स्वयं को कंट्रोल कर लिया. ‘‘जरा देखें तो सही कामिनीजी, कैसी सुंदर जोड़ी है. सच ही, रामसीता की सी जोड़ी,’’ नील की मां को कुछ तो कहना ही था. उन्होंने पंडित की बात दोहराई तब भी किसी का ध्यान रामसीता पर नहीं गया, मानो सब हां में नतमस्तक हो कर ही बैठे थे.

‘‘देखिए जजमान,’’ पंडितजी ने फिर अपनी नाक घुसाई, ‘‘या तो भगवान, पत्री, सितारों और भाग्य को मानिए नहीं और अगर मानते हैं तो पूरे मन से मानिए. यहां स्पष्ट रूप से सितारे बोल रहे हैं कि दोनों ही एकदूसरे के लिए बने हैं. जब भगवान

ही इन दोनों को जोड़ना चाहता है तो हम लोग हैं कौन उस की बात न मानने वाले. आप चाहें तो किसी और पंडित से बंचवा लें पत्री, मिलवा लें कुंडली.’’ कह कर पंडितजी अपनी पोथीपत्रा समेटने का नाटक करने लगे.

‘‘अरे, क्या बात कर रहे हैं, पंडितजी?’’ दिया की दादी ने उन्हें डपट कर बैठा दिया, ‘‘कितने सालों से हमारे यहां हो. पहले पिताजी आते थे तुम्हारे. अब क्या हम किसी और के पास मारेमारे फिरेंगे. बैठो यहीं पर शांति से,’’ अब किस का साहस कि दादीजी की बात टाल सके. सब मुंह बंद कर के बैठ गए.

‘‘हम ने तो आप को पहले ही नील की जन्मपत्री मंगवा दी थी. आप ने मिलवाई, उस के बाद ही हम ने इन को बुलवाया है. आप तो जानते हैं कि बारबार इतनी दूर से आना, वह भी काम छोड़ कर …’’ अब बिचौलिए से भी नहीं रहा गया.

‘‘देखो दिया बिटिया, तुम्हें नील से कुछ बातवात करनी हो तो…’’ आवाज में कुछ बेरुखी सी थी फिर तुरंत ही संभल कर बोलीं नील की मां, ‘‘मेरा मतलब था कि एक बार बात तो कर लो नील से. अब आजकल सब पढ़ेलिखे बच्चे होते हैं. अपना भलाबुरा समझते हैं. तुम एक बार बात करो नील से, फिर जो भी तुम्हारा डिसीजन हो…’’

‘‘जाओ बिटिया, अपना कमरा तो दिखाओ नील को,’’ दादी ने दिया को आज्ञा दी तो उसे उठना ही पड़ा. मां के इशारे से नील भी दिया के पीछेपीछे हो लिया था.

जिंदगी का पता ही नहीं चलता, अचानक किस मोड़ पर आ कर खड़ी हो जाती है कभीकभी. जिस दिया को विवाह करना ही नहीं था, जिस के सपने अभी अधर में झूमती पतंग की भांति जीवन के आकाश में लहलहा रहे थे, उसी दिया ने न जानेकिन कमजोर क्षणों में विवाह के लिए हामी भर ली. इतनी जल्दी में विवाह हुआ कि उसे स्वयं पर ही विश्वास करने में काफी कठिनाई हुई कि वाकई उसी का विवाह हुआ है. उस जैसी लड़की इतनी आसानी से हां कैसे कर सकती है? पर यह कोई सपना नहीं था, जीवन से जुड़ी एक ऐसी वास्तविकता थी जिस से बंध कर दिया को ताउम्र रहना था.

विवाह के बाद कुछ दिन तो दिया को अभी यहीं रहना था. नील लंदन जा कर प्रौसीजर पूरा करने पर ही दिया को ले जा सकता था. इस प्रकार दिया अपनी सपनीली आंखों का सुनहरा भविष्य संजोने लगी थी. दादी बड़ी प्रसन्न थीं कि वे अपने जीतेजी अपनी पोती का ब्याह देख पाई थीं बल्कि कहें कि इसलिए प्रसन्न थीं कि उन्होंने कन्यादान कर दिया था. दिया अपनी शादी से पहले इस शब्द (कन्यादान) से बहुत चिढ़ती थी. वह अकसर अपनी मां कामिनी से बहस करती, ‘‘यह क्या ममा, लड़की क्या इसलिए होती है कि उसे दान किया जाए? जैसे वह कोई व्यक्ति न हो कर कोई चीज हो. और उस चीज के साथ मानो पूरा घर ही उठा कर उस की झोली में डाल दिया जाता है. कैश, हीरे और सोने के आभूषणों के रूप में दहेज. क्या जरूरत है इन सब की?’’

मां तो क्या उत्तर दे पातीं, पहले ही दादी शुरू हो जातीं, ‘‘अरे बिटिया, जमाने की रीत है. लड़का न हो तो वंश कैसे चले और लड़की का कन्यादान न हो तो भला…ये सब तो तेरा हक है…’’ दादी बीच में रुक जातीं और कुछ समझ में न आता तो कहने लगतीं, ‘‘बिटिया, लड़की तो होती ही है दान के लिए. अब हमारे यहां 3 पीढि़यों से बिटिया नहीं हुई थी. तेरे दादाजी तो इतने निराश हो गए थे कि कुछ न पूछो. जब तू हुई तो उन का मुंह फूल सा खिल गया था और उन्हें लगने लगा कि वे भी अब कन्यादान कर सकेंगे. पंडितजी से कितनी पूजा करवाई थी, पूछ अपनी मां से,’’ दादी बड़े गर्व से बोली थीं, ‘‘क्या शानदार पार्टी दी थी.’’

‘‘तो बिटिया इसलिए पैदा की जाती है कि उसे बड़ा कर के किसी दूसरे को दान कर दें?’’ कह कर दिया चुप हो जाती.

दादी को दिया बहुत प्यारी थी परंतु उन्हें उस का इस प्रकार प्रश्न करना कभी नहीं भाया था. वे कभीकभी यशेंदु से कहतीं भी, ‘‘यश, बेटा ध्यान रखो. लड़की है, दूसरे के घर जाना है. बहुत सिर पर चढ़ा रहे हो.’’

यशेंदु चुप ही बने रहते. बड़ी मुश्किल से तो एक गुलाब सी बिटिया महकी थी घर में. उस पर अंकुश लगाना उन्हें बिलकुल पसंद न था. पर मां के सामने बोलती बंद ही रहती थी.

‘‘अच्छा दादी, तब आप के पंडित कहां थे जब गंधर्व विवाह हुआ करते थे. और हां, वैसे तो आप देवताओं को पूजते हो, राजाओं का गुणगान करते हो, पर ये नहीं देखते कि उन्होंने भी अपनी पसंद से गंधर्व विवाह किए थे, वह सब ठीक था, दादी? तब कौन करता था कन्यादान? और आप को पता है, दान शब्द तो तब भी था ही. कर्ण की दान परंपरा को आज तक लोग मानते हैं और कहते रहते हैं, ‘दानी हो तो कर्ण जैसा.’ पर उसी जमाने में द्रौपदी जैसी औरतें भी हुई हैं. दादी, कुछ लौजिक तो होगा ही न? अच्छा, अपने पंडितजी से पूछिएगा, वे जरूर इस पर कुछ प्रकाश डाल सकेंगे.’’

‘‘दिया बेटा, दादी से इस तरह बात नहीं करते. जो कुछ हुआ है या होता रहा है, दादी ने तुम्हें वे ही कहानियां तो सुनाई हैं,’’ यश अपनी बिटिया को समझाने का प्रयास करते.

‘‘ये लौजिकवौजिक तो मैं जानती नहीं, बस, यह पता है कि हमारे पुरखे भी यही सब करते रहे हैं और हमें भी अपनी परंपराओं में चलना चाहिए,’’ दादी कुछ नाराजगी प्रकट करतीं.

‘‘बेटा, लौजिक यह है कि लड़की इसलिए होनी चाहिए जिस से घर भराभरा रहे. लड़की तो एक चिडि़या की तरह होती है जो घरभर में चींचीं करती हुई घूमती रहती है. अगर लड़की न हो तो मां और दादी लड़कों को कैसे सजाएंगी? कैसे उन के लिए शृंगार की चीजें बनेंगी? लड़की घर की रोशनी होती है, घर की आत्मा होती है. सो लड़की के बिना घर सूना रहता है. वहीं, पहले से ही दुनियाभर में नियम है कि लड़की घर में नहीं खपती,’’ कामिनी उसे समझाने की चेष्टा करतीं.

‘‘खपती, मतलब?’’ दिया ने टोका.

‘‘बता रही हूं, चैन से सुनो तो सही. खपने का मतलब है लड़की को घर में नहीं रखा जा सकता.’’

‘‘यानी लड़का घर में जिंदगीभर रह सकता है, लड़की बोझ बन जाती है?’’

‘‘नहीं पगली, बोझ नहीं. दरअसल, लड़की की सभी जरूरतें पूरी हो सकें इसलिए हमारे समाज ने उसे एक परंपरा या स्ट्रक्चर का रूप दे दिया है ताकि लड़की की शादी कर के उसे दूसरे कुल में भेज दिया जाए. सब को एक साथी की जरूरत होती है न? गंधर्व विवाह में भी तो कन्या अपने पति के साथ उस के घर जाती थी न? अपने पिता के घर तो नहीं रहती थी,’’ ऐसे मामलों में कामिनी अपनी बेटी को समझाने में पूरी जान लगा देती थी.

‘‘अरे ममा, मैं शादी की बात ही कहां कर रही हूं? मैं बात कर रही हूं दान की और ये पंडितजी बीच में कहां से घुस जाते हैं? इन्होंने यह दानवान बनाया होगा. आय एम श्योर.’’

‘‘अरे, पंडितजी को क्यों बीच में घसीट लाती है?’’ दादी बिगड़ कर बोलतीं, ‘‘पंडित न हो तो तुम्हें पत्रीपतरे कौन बांच कर देगा? कौन बताएगा यह समय शुभ और यह अशुभ है?’’

‘‘ओह दादी, जरूरत ही कहां है शुभ और अशुभ समय पूछने की? भगवान, जो आप ही तो कहती हैं, हम सब में है…’’

‘‘हां, तो झूठ कहती हूं क्या मैं…’’ दादी बिफरतीं.

‘‘मैं कहां कह रही हूं कि आप झूठ कहती हैं. मेरा मतलब यह है कि जब हम सब में वही है तब उन का कहना न मान कर इन पंडितों के चक्कर में क्यों पड़ती हैं?’’

‘‘अच्छा, तो वे तुझे साक्षात दर्शन देंगे क्या? कोई तो चाहिए रास्ता सुझाने वाला. तुम कालेज जाती हो? पहले स्कूल जाती थीं. तुम्हें पढ़ाने वाले टीचर नहीं होते वहां? झक मारने जाती हो क्या?’’

‘‘पर वे टीचर अपने सब्जैक्ट के ऐक्सपर्ट होते हैं. आप के पंडितजी क ख ग तक तो जानते नहीं अपने सब्जैक्ट में और…’’

‘‘देख बेटा, मेरे जीतेजी तो पंडितजी का अपमान होगा नहीं इस घर में. मेरे मरने के बाद जैसे तुम लोगों को रहना है रह लेना,’’ दादी और नाराज हो उठतीं. कैसा जमाना आ गया है? वे अच्छी प्रकार जानती थीं कि उन की बहू कामिनी भी इन्हीं विचारों की है परंतु उन्हें इस बात का संतोष भी था कि उन की बहू ने उन के सामने तो कभी अपनी जबान खोली नहीं है अब इस नए जमाने की छोकरी को देखो, क्या पटरपटर बोलती है. भला जिस घर में ब्राह्मण का अपमान हो और वह घर पनप जाए? जिंदगीभर कुलपुरोहित ने उन्हें समयसमय पर सहारा दिया है, चेताया है, हर विघ्न की पूजा करवाई है.

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