महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-14

शायद नील के मन में कहीं न कहीं दिया के लिए नरमाहट पैदा हो रही थी परंतु मां का बिलकुल स्पष्ट आदेश…वह करे भी तो क्या? उसे वास्तव में दिया के लिए बुरा लगता था, लेकिन वह अपना बुरा भी तो नहीं होने दे सकता था. उस का अपना भविष्य भी तो त्रिशंकु की भांति अधर में लटका हुआ था. उस के विचारों में उथलपुथल होती रही और इसी मनोदशा में वह 2 प्यालों में चाय ले कर मां के पास डाइनिंग टेबल पर आ बैठा था. मां तब तक बिस्कुट का डब्बा खोल कर बिस्कुट कुतरने लगी थीं.

‘‘मौम, यह ठीक नहीं है.’’

‘‘अब क्या कर सकते हैं? मैं भी कहां चाहती थी कि यह सब हो पर…उस दिन  धर्मानंदजी आए थे, तब भी उन्होंने यही बताया कि अभी डेढ़दो साल तक तुम दिया से संबंध नहीं बना सकते. इस के बाद भी तुम दोनों का समय देखना पड़ेगा.’’

‘‘पर मौम, अभी तो हम ने शादी के लिए भी एप्लाई नहीं किया है. फिर…’’

‘‘शादी के लिए एप्लाई करने का अभी कोई मतलब ही नहीं है जब तक इस के सितारे तुम्हारे फेवर में नहीं आ जाते. वैसे भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?’’ मां ने सपाट स्वर में अपने बेटे

से कहा. ‘‘मैं ने तो आप से पहले ही कहा था. अभी तो नैंसी  जरमनी गई हुई है. आएगी तो मैं उस के साथ बिजी हो जाऊंगा पर इस का…’’

‘‘अब बेटा, वह तुम्हारा पर्सनल मामला है. मैं तो कभी नहीं चाहती थी कि तुम नैंसी  से रिलेशन बनाओ. वह तुम्हारे साथ शादी करने के लिए भी तैयार नहीं है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है, मौम, मैं तो उस के साथ बहुत खुश हूं. आप को बहू चाहिए थी. इतनी खूबसूरत लड़की को देख कर मैं भी बहक गया पर आप मुझे उस से दूर रहने के लिए जोर दे रही हैं,’’ नील मां से नाराज था.

दिया कब रसोई के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी, किसी को पता नहीं चला. मांबेटे की बात सुन कर दिया के पैर लड़खड़ाने लगे थे. कहां फंस गई थी वह? दबे कदमों से चुपचाप आ कर वह कुरसी पर बैठ गई.

‘‘अरे दिया, उठ गई बेटा, आज तो बहुत सोई और ये सब क्या है?’’ रसोईघर से निकलते हुए सास ने एक के बाद एक सवाल उस पर दाग दिए.

‘‘गुडमौर्निंग दिया, आर यू ओके?’’ नील ने भी अपनी सहानुभूति दिखाने की कोशिश की.

दिया ने एक दृष्टि दोनों की ओर डाली. उस की क्रोध और पीड़ाभरी दृष्टि से  मांबेटे क्षणभर के लिए भीतर से कांप उठे, फिर तुरंत सहज भी हो गए.

‘‘माय पासपोर्ट इज मिसिंग?’’ दिया ने कुछ जोर से कहा.

‘‘अरे, कहां जाएगा? यहीं होगा कहीं तुम्हारे कपड़ों के बीच में. कोई तो आताजाता नहीं है घर में जो चुरा कर ले जाएगा. और किसी को करना भी क्या है तुम्हारे पासपोर्ट का?’’ कितनी बेशर्म औरत है. दिया ने मन ही मन सोचा.

अब तक दिया समझ चुकी थी कि इस प्रकार यहां उस की दाल नहीं गलेगी. अभी तक उस की सास उसे केवल 2-3 बार मंदिर और दोएक बार मौल ले कर गई थीं. मंदिर में भी उसे भारत से आई हुई रिश्तेदार के रूप में ही परिचित करवाया गया था. उसी मंदिर में उस ने उस लंबेचौड़े गौरवपूर्ण पुरुष को देखा था जिसे उस की सास धर्मानंदजी कहती थीं. अभी चाय पीते समय जरूर वे उसी आदमी के बारे में बातें कर रही थीं. उस ने सोचा, ‘पर वह क्यों नील को उस से दूर रखना चाहता है?’

‘‘चलो, चलो, ये सब ठीकठाक कर के अपनी जगह पर जमा दो. मिल जाएगा पासपोर्ट, जाएगा कहां. और अभी करना भी क्या है पासपोर्ट का?’’ दिया की सास ने अपना मंतव्य प्रस्तुत कर दिया.

‘‘आओ, मैं तुम्हारी हैल्प करता हूं. मौम, आप दिया के लिए प्लीज चाय बना दीजिए. यह बहुत थकी हुई लग रही है,’’ नील ने मां से खुशामद की.

‘‘नो, थैंक्स, मैं बना लूंगी जब पीनी होगी,’’ दिया ने कहा और सामान समेट कर अटैची में भरने लगी. कुछ दिनों से जो साहस वह जुटाने की चेष्टा कर रही थी वह फिर से टूट रहा था.

नील दिया के साथ उस का सामान फिर से जमाने का बेमानी सा प्रयास कर रहा था जिस से कभीकभी उस का शरीर दिया के शरीर से टकरा जाता परंतु दिया को इस बात से कोई रोमांच नहीं होता था. दिया एक कुंआरी कन्या थी जिस के तनमन में यौवन की तरंगों का समावेश रहा ही होगा परंतु जब शरीर ही बर्फ हो गया तो…? फिलहाल तो उस का मस्तिष्क अपने पासपोर्ट में ही अटका हुआ था. उस के मन ने कहा, जरूर यह मांबेटे की चाल है परंतु प्रत्यक्ष में तो वह कुछ कहने या किसी प्रकार के दोषारोपण करने का साहस कर ही न सकती थी.

ऊपर से एक और रहस्य, ‘यह नैंसी  कौन है? और नील से उस का क्या रिश्ता हो सकता है?’ उस का मस्तिष्क जैसे उलझता ही जा रहा था. कोई भी तो ऐसा नहीं था जिस से बात कर के वह अपनी उलझनों का हल ढूंढ़ती. कभी नील उस से बात करने का प्रयास करता भी तो पहले तो उस का ही मन न होता पर बाद में उस ने सोचा कि वह बात कर के ही नील से वास्तविकता का पता लगा सकती है. उसे नील के करीब तो जाना ही होगा, तभी उसे पता चल सकेगा कि आखिर वह किस प्रकार इस जाल से छूट सकेगी? वह अंदर ही अंदर सोचती हुई अपनेआप को संभालने का प्रयास कर रही थी. परंतु उस के इस प्रकार के थोड़ेबहुत प्रयास पर नील की मां पानी फेर देतीं. वे किसी न किसी बहाने से नील को उस के पास से हटा देती थीं. उन दोनों की बातें सुनने के बाद उसे यह तो समझ में आने लगा था कि हो न हो, ये सब करतूतें भी कोई ग्रहोंव्रहों के कारण ही हो रही हैं पर पूरी बात न जान पाने के कारण वह कुछ भी कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाती.

आज फिर नील की मां उसे मंदिर ले गईं. वहां पर काफी लोग जमा थे. पता चला, कोई महात्मा प्रवचन देने आए थे, इंडिया से. दिया कहां इन सब में रुचि रखती थी परंतु विवशता थी, बैठना पड़ा सास के साथ. दिया का मन उन्हें सास स्वीकारने से भी अस्वीकार कर रहा था. कैसी सास? किस की सास? जैसेजैसे दिन व्यतीत होते जा रहे थे उस का मन अधिक और अधिक आंदोलन करने लगा था. यहां सीधी उंगली से घी नहीं निकलने वाला था, दिया की समझ में यह बात बहुत पहले ही आ चुकी थी. प्रश्न यह था कि उंगली टेढ़ी की कैसे जाए? इस के लिए कोई रास्ता ढूंढ़ना बहुत जरूरी था.

आगे पढ़ें- अचानक धर्मानंदजी दिखाई पड़े. गौरवपूर्ण, लंबे, सुंदर शरीर वाला…

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