महायोग: धारावाहिक उपन्यास, भाग-23

अब तक की कथा 

भविष्य के तानोंबानों में लिपटी दिया अपने घर पहुंच गई थी, जहां अनेक अनसुलझे प्रश्न उस के समक्ष मुंहबाए खड़े थे. दादी अतिउत्साहित थीं परंतु दिया किसी से भी बात नहीं करना चाहती थी. वह सीधे अपने कमरे में आराम करने चली गई थी.

अब आगे…

‘अरे, ऐसी भी क्या नींद हो गई, लड़की सीधे मुंह बात भी नहीं कर रही है,’ स्वभावानुसार दादी ने बड़बड़ करनी शुरू कर दी थी.कामिनी 3 बार दिया के कमरे में  झांक आई थी. हर बार दिया उसे गहरी नींद में सोती हुई दिखाई दी. चाय के समय उस से रहा नहीं गया. सुबह से बच्ची ने कुछ भी नहीं खाया था. आखिर दिया को नीचे उतरते देख दीप चहका, ‘‘क्या महारानी, जल्दी आओ न, कितना इंतजार करवाओगी?’’ दीप वातावरण को सहज करना चाहता था. आखिर कहीं न कहीं से, किसी को तो बात शुरू करनी ही होगी. दिया चुपचाप टेबल पर बैठ गई.

‘‘महाराज, फटाफट चाय लगाइए. देख दिया, कैसे करारे गरमागरम समोसे उतारे हैं महाराज ने,’’ दीप ने गरम समोसा हाथ में उठाया फिर एकदम प्लेट में छोड़ कर अपनी उंगलियों पर जोकर की तरह फूफू करने लगा. दिया के चेहरे पर भाई की हरकत देख कर पहली बार मुसकराहट उभरी. आदत के अनुसार, दीप की बकबक शुरू हो गई और दिया की मुसकराहट गहरी होती गई. भरे दिल और नम आंखों से उस ने सोचा, ‘यह है मेरा घर.’

‘‘सुबह मंगवाई थी रसमलाई तेरे लिए. अभी तक किसी ने छुई भी नहीं…दीनू, निकाल के तो ला फ्रिज से,’’ दादी के प्यार का तरीका यही था.

‘‘अब बता कैसी है तेरी ससुराल? और हां, फोन खराब है क्या? कई दिनों से कोई फोन ही नहीं उठा रहा था. कहीं घूमनेवूमने निकल गए थे क्या सब के सब? तेरी सास और नील तो ठीक हैं न? अभी तो रहेगी न? और हां, तेरा सामान कहां है?’’

दादी ने एक बड़े से बाउल में दिया के सामने 5-7 रसमलाई रख दीं और दिया को उस ओर देखने का समय दिए बिना ही अपनी प्रश्नोंभरी बंदूक उस की ओर तान दी.

‘‘मां, पहले उस के पेट में कुछ जाने दें. सुबह से कुछ भी नहीं खाया उस ने,’’ यश ने बिटिया पर दृष्टि गड़ा रखी थी.

‘‘ले, इतना कुछ सामने है, खाती जा बात करती जा. लड़की बात ही नहीं बता रही अपनी ससुराल की.’’

‘‘क्या चाहती हैं आप? क्या बताऊं?’’ दिया बोली, ‘‘जब आप ने मेरे ग्रहों को मिलवाने और उन को ठीक करवाने में इतनी मशक्कत की है तो सब बढि़या ही होगा न? फिर जानना क्या चाहती हैं आप?’’ दिया गुस्से में बोल उठी थी.

‘‘अरे, देखो तो, लड़की है या…’’

दादी अपना वाक्य पूरा कर पातीं इस से पहले ही दीनू तेजी से अंदर आया, ‘‘साब, गहलौत साब आए हैं. मेमसाब भी हैं. पुलिस की गाड़ी वाले…’’

‘‘क्या? डीआईजी गहलौत?’’ स्वदीप ने दोहराया और उठ कर बाहर की ओर चल दिया.

डीआईजी गहलौत शर्मा परिवार से अच्छी प्रकार परिचित थे. कुछ ही क्षणों में गहलौत साहब और उन की पत्नी बरामदे में पहुंच गए थे. अभिवादन के बाद दीनू को ड्राइंगरूम खोलने का आदेश मिला. ‘‘अरे नहीं, गहलौत साहब यहीं बैठेंगे,’’ उन्होंने एक कुरसी सरका ली और पत्नी को भी बैठने का इशारा किया.

‘‘हैलो दिया, कैसी हो बेटी?’’

‘‘जी, ठीक हूं अंकल, थैंक्स,’’ दिया ने गहलौत अंकल का अभिवादन किया.

गहलौत साहब इधरउधर की बातें करने लगे. कामिनी को उन का इस समय आना बहुत अजीब लग रहा था. शायद किसी काम से आए हों परंतु…

‘‘आज इधर की तरफ कैसे गहलौत साहब?’’ यशेंदु भी उन के आने के बारे में हिसाबकिताब लगा रहे थे.

गहलौत साहब ने बड़ी स्पष्टता से अपनी बात कह दी फिर दिया की ओर उन्मुख हो गए, ‘‘तुम बताओ, तुम कैसी हो, बेटा? कब पहुंचीं? टाइम पर पहुंच गई थी फ्लाइट? इस समय हम तुम से ही मिलने आए हैं,’’ उन्होंने भी कई सारे प्रश्न एकसाथ ही दिया के समक्ष परोस दिए.

दिया कुछ भी उत्तर नहीं दे पाई. हां, घर के सभी सदस्यों के मन में गहलौत साहब ने और कुतूहल पैदा कर दिया.‘‘आप की बेटी बड़ी हिम्मती है, यशजी. इंगलैंड के भारतीय दूतावास में इतनी प्रशंसा की जा रही है कि बस…मैं जानता हूं आप सब लोग कुतूहल से भर गए हैं कि मैं यह सब…दरअसल, वहीं से हमारे डिपार्टमैंट में खबर आई है. बात मेरे पास आई तो मैं ने कहा कि भई, वह तो हमारी ही बेटी है. हम उस से मिलने जाएंगे. मिसेज गहलौत भी बिटिया से मिलना चाहती थीं. बस…’’ गहलौत साहब की गोलगोल बात अब भी सब के सिर पर से हो कर गुजर रही थी. खूब बोलने वाले व्यक्ति थे गहलौत साहब, साथ ही स्पष्ट भी परंतु इस समय तो वे बिलकुल उल झे हुए लग रहे थे, उन की बातें एकदम अस्पष्ट.

‘‘अरे, पर ऐसे क्या  झंडे गाड़ कर आई है यह. कुछ बोल भी नहीं रही लड़की. इस की ससुराल कितनी बार फोन किया, कोई फोन भी नहीं उठाता. अब आप?’’ दादी कहां चुप रहने वाली थीं.

‘‘कौन उठाएगा ससुराल में फोन, 2 लोग ही तो हैं. और दोनों ही सरकारी ससुराल में,’’ गहलौत साहब दादी की ओर देख कर मुसकराए.

‘‘सरकारी ससुराल में?’’ दादी कुछ सम झ नहीं पाईं.

‘‘माताजी, सरकारी ससुराल यानी जेल.’’

‘‘क्या, जेल में? क्यों? आप क्यों ऐसी बातें कर रहे हैं? हमारी भी समाज में कोई इज्जत है. जब यह बात समाज में फैलेगी तो…’’ दादी रोनेबिलखने लगी थीं.

दादी के अतिरिक्त घर के सभी सदस्यों के मुख पर मुर्दनी फैल गई थी. जिस प्रकार दिया आई थी उस से कुछ गड़बड़ी का आभास तो सब को ही हो गया था परंतु…यह पहेली अभी भी सम झ से बाहर थी. अचानक दिया ने मानो बिजली का नंगा तार पकड़ लिया था.

‘‘क्या समाज…समाज…किस समाज की बात कर रही हैं, दादी? उस समाज की जिसे आप के दिग्गज पंडितों ने तैयार किया है या उस समाज की जिसे कुछ पता ही नहीं है कि मैं ने क्या  झेला है? क्या…है क्या समाज? मैं समाज नहीं हूं क्या? मैं अपनेआप में एक पूरा समाज हूं.’’

दिया बुरी तरह फट पड़ी थी और फूटफूट कर रोने लगी थी.

‘‘हाय रे! इस की तो अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं. क्या कर के आई है वहां जो सास और आदमी को जेल हो गई? हमेशा कहती थी, यश, बेटा, लड़की की जात है, जरा संभाल कर रखो. पर इन्हें तो आजादी देने का नशा चढ़ा हुआ था. अब भुगतो…अरे, मैं तभी सोचूं, यह सुबह से ऐसा बरताव क्यों कर रही है.’’

‘‘माताजी, शांत हो जाइए और मेरी बात शांति से सुनिए. आप की पोती कुछ गलत कर के नहीं आई है बल्कि ऐसा काम कर के आई है जो आज तक कोई नहीं कर सका. यश जी, आप को कुछ नहीं बताया क्या बिटिया ने?’’ गहलौत साहब ने आश्चर्य से पूछा.

यह सच था कि उसे सब का सामना भी करना ही था. यह तो अच्छा अवसर था, उसे अपनेआप कुछ कहने की जरूरत ही नहीं. वह शांति से गहलौत अंकल की बातें सुनती रही.

‘‘आप लोगों ने ब्रिटेन का वह कांड नहीं देखा टीवी पर जिस में ईश्वरानंद नाम के एक संन्यासी का परदाफाश किया गया था? 3-4 दिन पहले ही तो यह ‘ब्रेकिंग न्यूज’ हर चैनल पर दिखाई गई थी.’’

‘‘जी, देखा था न अंकल. किसी इंडियन लड़की ने ही उस संन्यासी का भंडाफोड़ किया है,’’ दीप बहुत उत्साह से बोला था.

‘‘हां, हां, वही केस. उस का भंडाफोड़ और किसी ने नहीं, तुम्हारी बहन ने किया है. न जाने यह कैसेकैसे वहां से बच कर निकल पाई है,’’ इतनी देर के बाद अब निशा गहलौत पहली बार बोली थीं.

‘‘वी औल आर प्राउड औफ यू, दिया,’’ निशा गहलौत ने पास में बैठी हुई दिया का हाथ अपने हाथ में ले लिया था. दिया टुकुरटुकुर उन्हें नापने का प्रयास करने लगी.

‘‘मु झे भी तो बताओ कोई, क्या भंडाफोड़ किया? कैसे भंडाफोड़ किया? और नील को किस बात की सजा दिलवा कर आई है यह? हाय, पति के बिना आखिर एक औरत की जगह ही क्या रह जाती है समाज में?’’ दादी फिर से टसुए बहाने लगीं.

‘‘किस पति की बात कर रही हैं आप, दादी? क्या पति को भी मालूम है कि वह पति है? या पति, बस सात फेरों की जंजीर गले में फंसा कर लड़की को अपने हिसाब से नचाने में बन जाता है? शायद दादी तभी खुश होतीं जब इन की पोती महायोग के कुंड में अपनी आहुति दे देती, उसी में स्वाहा हो जाती, लौट कर इन्हें अपना मुंह न दिखाती.’’ दिया के शब्दों में उस के भीतर का दर्द स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था.‘‘पर बेटा, कम से कम हमें बताती तो सही. हम तुम्हारे लिए कुछ नहीं रह गए थे क्या?’’ दिया की बात जान कर यशेंदु बस इतना ही कह पाए. उन की आंखों से आंसू टपकते रहे. कई बार सशक्त आदमी भी कितना लाचार हो जाता है.‘‘लगता है, दिया उन दर्दभरी बातों को दोहराना नहीं चाहती, ठीक भी है. इस की शादी का सारा खेल उस ढोंगी ईश्वरानंद का ही रचाया हुआ था. नील और उस की मां भी उस में शामिल थे…’’ डीआईजी गहलौत ने थोड़ी देर में सब के सामने पूरी कहानी बयान कर दी. दिया फिर भी चुप ही बनी रही.

‘‘ब्रिटेन के सब अखबारों में ईश्वरानंद और उस के चेलेचेलियों की तसवीरें छपी हैं. दिया की बहुत प्रशंसा हो रही है. अगर दिया हिम्मत न करती तो बरसों से यह सब चल ही रहा था. दिया बेटा, तुम्हें सैल्यूट करने का दिल होता है,’’ गहलौत साहब दिया से बात करना चाहते थे.

‘‘मैं ने किसी के लिए कुछ नहीं किया, अंकल. मैं तो बस अपनी फंसी हुई गरदन को निकालने की कोशिश कर रही थी.’’

‘‘तुम ने कभी नहीं सोचा कि अपने मम्मीडैडी को सबकुछ बता दो?’’ गहलौत आंटी ने दिया से पूछा.

‘‘आप लोग पापा की हालत तो देख ही रहे हैं. यह भी तो मेरी वजह से ही हुई है. सवाल यह है कि यह सब हुआ क्यों?’’ दिया ने सजल  नेत्रों से गहलौत आंटी की ओर देखते हुए प्रतिप्रश्न किया.

‘‘हां, हुआ क्यों?’’ बात निशा गहलौत के मुंह में ही रह गई.

‘‘ईश्वरानंद के पैर धर्म तक ही नहीं फैले हैं, उस की जड़ें बहुत गहरी हैं. वह डाकुओं के दल का सरगना भी है और नाम व काम बदलता हुआ दुनियाभर में घूमता रहता है. उस के साथ और भी 4 मुख्य लोग पकड़ लिए गए हैं, जो टैरेरिस्ट ग्रुप से जुड़े हुए हैं. ये लोग किस चीज में माहिर नहीं हैं? कभी धर्म के बहाने जुड़ते हैं तो कभी किसी और बहाने. ईश्वरानंद सब का गुरु है, सब को अलगअलग कामों में फंसा कर स्वयं मस्ती करता रहता है. उस का काम ही है अलगअलग बहानों से लोगों को फंसाना,’’ डीआईजी गहलौत एक सांस में अपनेआप को खाली कर देना चाहते थे.

‘‘और…माफ करिएगा माताजी, जिस नील से आप ने अपनी पोती के गुण मिलवाए थे वह तो पहले से ही किसी जरमन लड़की के चक्कर में फंसा हुआ था. आप ने उस के सारे गुण ही दिया से मिलवा दिए?’’ गहलौत साहब ने दिया की दादी से कहा जो गालों पर बहते आंसुओं को बिना पोंछे ही मुंह खोले उन की सब बातें सुन रही थीं.

‘‘माताजी. जो धर्म हमें अंधविश्वास में घसीट ले, जो हमें शक्ति न दे, बल न दे, वह धर्म हो ही नहीं सकता.’’

सब लोग दिया की ओर एकटक निहार रहे थे. कुछ बोले तो सही, सब कुछ न कुछ पूछना चाहते थे. निशा आंटी ने दिया को सहारा दिया, ‘‘यह इतने लंबे समय तक किस तकलीफदेह वातावरण से जूझ कर आई है. शरीर की तकलीफ तो किसी तरह बरदाश्त हो जाती है पर मन की तकलीफ को दूर करने में बहुत लंबा समय लगता है,’’ सब के चेहरे दुख और विस्मय से भर उठे थे. दादी मुंहबाए कुछ समझने की चेष्टा में लगी थीं.

‘‘पर…अब क्या होगा इस लड़की का? ब्याही लड़की घर में बैठी रहेगी. कौन पकड़ेगा इस का हाथ? मुझे क्या पता था कि इतने अच्छे ग्रह मिलने के बाद भी…’’ अब भी वे ग्रहों को रो रही थीं.दिया ने आंखें खोल कर दुख से दादी की ओर देखा, बोली कुछ नहीं. ‘‘मां…आप क्या कह रही हैं? बच्ची है मेरी. सात फेरे क्या करवा दिए, बस, मांबाप का कर्तव्य पूरा हो गया. और फेरे भी किस से? कितना कहा था मैं ने पर आप…’’ यशेंदु को मां पर बहुत गुस्सा आ रहा था. दादी अब भी बच्ची के बारे में न सोच कर समाज के बारे में ही चिंतित हो रही थीं. आखिर क्यों?

कामिनी के आंसुओं ने तो एक स्रोत ही बहा दिया था. वह बारबार स्वयं को ही कोस रही थी, ‘‘यह सब मेरी वजह से ही हुआ है. मैं एक शिक्षित और जागृत मां हूं. मैं ही अगर अपनी बेटी को नहीं बचा सकी तो उन अशिक्षित लोगों के बारे में क्या सोचा जा सकता है जो अपने दिमाग से चल ही नहीं सकते. चलते हैं तो केवल पंडितों और तथाकथित गुरुओं के दिखाए व सु झाए गए ग्रहों के हिसाब से. आखिर क्यों मैं उस समय अड़ नहीं सकी? अड़ जाती तो क्या होता? ज्यादा से ज्यादा मां और यशेंदु मुझ से नाराज हो जाते. समर्थ थी मैं, छोड़ देती बेटी को ले कर घर. उस के जीवन से इस प्रकार खिलवाड़ तो न होता.’’ न जाने कैसे आज कामिनी के मुख से ये शब्द निकल गए थे. उस की आंखों से आंसू नहीं लावा प्रवाहित हो रहा था. सास के समक्ष सदा आंखें  झुका कर हर बात को स्वीकार करने वाली कामिनी की सास ने जब ये सब बातें सुनीं तो चुप न रह सकीं.

‘‘हां, तो छोड़ देतीं. जैसे ये बिना कन्यादान किए ऊपर चले गए थे, ऐसे ही हम भी चले जाते. तुम्हारे मुंह से सब के सामने ये अपमान तो न  झेलना पड़ता,’’ थोड़ी देर में ही उन के रुके हुए आंसुओं का स्रोत फिर से उमड़ने लगा.

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