साधारण औरतों की कौन सुनेगा

‘मीटू’ कैंपेन का एक दुखद पक्ष यह है कि इस में चर्चा केवल जानेमाने नामों की हो रही है. सैकड़ों नहीं हजारों या फिर लाखों ऐसी लड़कियां होंगी जो जवानी में पुरुषों की ज्यादतियों की शिकार हुई होंगी पर अब सालों गुजर जाने के बाद, अपने घर में सुरक्षा होने के बावजूद वे रिस्क नहीं ले सकतीं कि अपने साथ हुए जुर्म की पोलपट्टी खोल सकें.

‘मीटू’ का लाभ उन्हीं को मिल रहा है जो दुनिया में अपना आजाद स्थान बना सकी हैं और अगर अपने पति और बच्चे हैं तो उन की टेढ़ी निगाहों का सामना कर सकती हैं. आम घरों की या साधारण पदों पर काम करने वाली औरतों के बस का यह जोखिम लेना नहीं है, क्योंकि न तो सोशल मीडिया उन का साथ देगा और न ही पुलिस कोई सुरक्षा देगी.

एक युवा होती लड़की किसकिस तरह का आतंक सहने को मजबूर हो सकती है, यह तो खुद भुक्तभोगी ही जानती है. उसे न तब कहने का अधिकार होता है जब वह अबोध, कमजोर या आश्रित हो और न तब जब वह पूरे घर की मालकिन, पति व बच्चों के साथ हो. समाज ने सक्षम व चर्चित लोगों को तो रिस्क लेने का अवसर भी दे दिया है और उन की बातों को सहजता से लेना भी स्वीकारना शुरू कर दिया है पर साधारण औरतों को यह छूट कहां है?

‘मीटू’ आंदोलन तब तक अधूरा और बिना धारदार चाकू ही रहेगा जब तक यह शक्ति हरेक के पास न हो ताकि हर पुरुष तब भी लिबर्टी न ले जब युवती साधारण और कमजोर है.

अब ‘मीटू’ केवल कुछ के लिए ही न्याय की आस पाने का साधन बना है पर यह औरतों की पूरी जमात को कोई सुरक्षा दे पाएगा, इस में संदेह है. अमेरिका में भी अब तक ‘मीटू’ के आरोपी मजे में हैं.

दशकों पहले हुए अपराधों को अदालतों में साबित करना कठिन रहेगा और संबंध सैक्स के या सैक्स से थोड़े कम के सहमति से नहीं बने थे यह कभी साबित न हो पाएगा.

जैसे पुरुषों को यह डर नहीं होता कि उन्हें सिर्फ कमजोर मान कर कोई लूटेगा नहीं और अगर लूटने का प्रयास किया तो वे तभी कानून की सहायता ले सकते हैं. यही हक समाज को औरतों को देना होगा. कौमार्य, संस्कृति, सम्मान, शालीनता के झूठे नारों से औरतों को बचाना होगा. ये समाज को सुव्यवस्थित नहीं रखते, औरतों की जबान बंद रखते हैं.

 

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें