बिंदास अंदाज वाली हैं माउंट ऐवरेस्ट पर तिरंगा लहराने वाली मेघा परमार

मेघा परमार, माउंट ऐवरेस्ट विजेता

तारीख थी 22 मई, 2019, वक्त था सुबह के 5 बजे का जब मेघा ने अपनी 24 साला जिंदगी की सब से बड़ी जिद पूरी करते हुए माउंट ऐवरेस्ट पर तिरंगा लहराया और खुशी से झम उठी. उस दिन सारी दुनिया उस के नीचे थी और ऊपर थे तो दूरदूर तक फैले मेघ जो बांहें फैलाए मेघा का स्वागत कर रहे थे.

मगर ये सब आसान नहीं था. मेघा के इस सफर और उपलब्धि में कई अडंगे भी थे जिन का सामना उस ने पूरी सब्र और समझदारी से किया, नहीं तो तय है उस की शादी हो चुकी होती और आज वह चर्चित होने के बजाय ससुराल में भी चूल्हाचौका फूंकती होती. यह बात उस ने बड़े बिंदास अंदाज में बताई. उस ने यह भी बताया कि बचपन में हुई मंगनी अब टूट चुकी है जिस का उसे कोई अफसोस नहीं.

मेघा से बात करते हुए महसूस हुआ कि वह जो बता रही है वह फिल्मों जैसा है, अकल्पनीय है, जो हकीकत में कैसे बदला यह उसी से जानते हैं:

अपने बारे में कुछ बताएं?

मैं सीहोर जिले के छोटे से 1 हजार की आबादी वाले भोजपुर गांव की रहने वाली हूं. पापा किसान हैं, हालांकि जमीन बहुत ज्यादा नहीं सिर्फ 12 एकड़ है. मेरी परवरिश ग्रामीण माहौल में संयुक्त परिवार में हुई है. स्कूली पढ़ाई के बाद आगे पढ़ने मुझे माना साहेब के यहां भेज दिया गया. इस के बाद कालेज की पढ़ाई मैं ने सीहोर गर्ल्स कालेज से की जहां से मेरी जिंदगी और सोच में कई बदलाव आए.

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इस मानसिकता से कैसे बाहर आईं? क्या इस के लिए अलग से कोशिशें करनी पड़ीं?

शायद करना पड़ीं क्योंकि मैं अपनी अलग पहचान बनाना चाहती थी. कालेज की लगभग सभी ऐक्टिविटीज में मैं हिस्सा लेती थी. एनसीसी की भी बेहतर कैडेट थी. इसी सिलसिले में एक बार मालदीव जाने का मौका मिला तब हवाईजहाज में पहली बार बैठी थी. आप यह  सुन कर हंसेंगे कि प्लेन में चढ़ने के बाद मैं ने सब से पहले उस का टौयलेट देखा कि वह कैसा होता है.

असल में जब मैं छोटी थी तब गांव से कोई हवाईजहाज निकलता था तो हम बच्चे मुंह बंद कर लेते थे, क्योंकि हमारे मन में यह बात बैठा दी गई थी कि मुंह खुला रखोगे तो यात्रियों का मलमूत्र उस में चला जाएगा. यह बात मैं इसलिए बता रही हूं कि गांव और शहर के बच्चों की मानसिकता का फर्क आसानी से समझ आए.

मालदीव में स्टेज से मुझे 3 मिनट बोलने का मौका मिला था. जब मैं पूरे आत्मविश्वास और सफलता से बोल पाई तो मेरा आत्मविश्वास और बढ़ा कि मैं भी कुछ ऐसा कर सकती हूं, जिस से मुझे मेरा अपना नाम और पहचान मिले. इसी दौरान मैं ने एक कोटेशन कहीं पढ़ा जिस का सार यह था कि ऐसा कोई काम करो जिस से आप की अलग पहचान बने.

इसी दौरान मैं ने अखबार में एक खबर पढ़ी कि मध्य प्रदेश के 2 लड़कों ने माउंट ऐवरेस्ट फतह की. बस तभी मैं ने ठान लिया कि मैं मध्य प्रदेश की माउंट ऐवरेस्ट पर पहुंचने वाली पहली लड़की क्यों नहीं बन सकती.

क्या परिवार वाले आसानी से मान गए थे?

नहीं, मेरे फैसले का विरोध हुआ, क्योंकि गांवों में लड़के और लड़कियों में बड़ा भेदभाव होता है. यहां तकि कि लड़कियों को रूखी रोटी मिलती है और लड़कों को घी लगी. रिश्तेदारों ने मम्मीपापा को बरगलाया कि लड़की जात है इतनी आजादी मत दो. कल को कोई ऊंचनीच हो गई तो बदनामी होगी. लेकिन मम्मीपापा ने मेरा पूरा साथ दिया.

चढ़ाई के दौरान के कुछ अनुभव बताएंगी?

बहुत से दिलचस्प और खट्टेमीठे अनुभव हैं. पहली बार में मैं कामयाब नहीं हुई थी, लेकिन हिम्मत नहीं हारी और दूसरी बार में सफलता हाथ आई. 18 मई को जब मैं बेस कैंप से 4 नंबर कैंप पहुंची तो औक्सीजन लेवल कम हो गया, तब मैं लगभग 7,600 मीटर की ऊंचाई पर थी.

साथ दे रहे शेरपा ने मास्क को आक्सीजन सिलैंडर से जोड़ा, लेकिन महज 10 मीटर की ऊंचाई के बाद मेरा दम घुटने लगा था, क्योंकि मुझे मास्क से औक्सीजन लेने की आदत नहीं थी तब टैंप्रेचर भी माइनस 15 से 20 के बीच था.

मेरी बिगड़ी हालत को देखते शेरपा मुझे वापस बेस कैंप में ले गए. यह दूसरा दिन बेहद हताशा भरा था, क्योंकि डाक्टर्स ने मुझे ऐवरेस्ट समिट की इजाजत देने से मना कर दिया. मुझे लगा कि मेरा सपना टूट रहा है.

दूसरे दिन इजाजत मुझे इस शर्त पर मिली कि मैं शिखर तक मास्क लगा कर रखूंगी. असल में मुझे मास्क लगाने में असुविधा हो रही थी. खैर, मास्क लगाया और आखिरकार मंजिल पा ही ली. ऊपर तक का पूरा रास्ता बर्फीला था और तेज हवाएं बारबार व्यवधान डाल रही थीं. आगे बर्फीली चट्टानें थीं, जिन में 3 मिलोमीटर चलने में ही 15 घंटे रुकने के बाद वापस नीचे आई तो नौर्मल होने में भी काफी वक्त लगा.

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अब आगे क्या प्लान है, क्या शादी करेंगी?

बिलकुल करूंगी और गृहस्थी भी संभालूंगी, मेरी नजर में स्त्री की संपूर्णता और सार्थकता ही यही है. 4 देशों की सब से ऊंची चोटियां छूने के बाद मैं अब एडवैंचर पसंद लोगों को ट्रेनिंग दे रही हूं, जिन में एक ट्रांसजैंडर भी शामिल है. मध्य प्रदेश ने मुझे बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ अभियान का ब्रैंड ऐंबैसडर भी बनाया है.

मैं ने जो चाहा वह कई मुसीबतें झेलते हासिल किया और अभी भी गांव जब आती हूं तो एक किसान की बेटी की तरह खेतखलिहान में उसी मिट्टी में काम करती हूं, जिसे मैं माउंट ऐवरेस्ट पर बिखेर कर आई हूं.

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