कोरोना की वजह से कम मिलें लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के लिए मिलें जरूर

कोरोना वायरस आया तो काफी हद तक जिंदगी की रफ्तार थम गई. भय, चिंता, भविष्य से ज्यादा वर्तमान की फिक्र इंसान पर हावी हो गई. नौकरी, पढ़ाई, काम, घूमना, मौजमस्ती, जब भी मन करे घर से निकल जाना और किसी मौल में शौपिंग करना, होटल में खाना खाना या कहीं यों ही बिना योजना बनाए कार उठा कर निकल जाना, पार्टी, धमाल, दोस्तों के साथ गपबाजी, नाइटआउट, रिश्तेदारोंपरिचितों के घर जमावड़ा और सड़कों पर बेवजह की चहलकदमी – अचानक सब पर विराम लग गया. किसी के मिलने का मन होता था, तो पहुंच जाते थे उस के घर, कि चलो, आज साथ मिल कर लंच या डिनर करते हैं.

लौकडाउन से अब अनलौक तो हो गया लेकिन संक्रमण अभी भी घूम रहा है. घर से बाहर निकलने से पहले हर किसी को कई बार सोचना पड़ता है. जरूरी होता है तभी लोग कदम दरवाजा पार करते हैं. घबराहट, डर और घर में बैठे रह कर केवल आभासी दुनिया से जुड़े रहने से सब से ज्यादा असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ा है.

मानसिक सेहत बिगड़ी :

फैलते कोरोना वायरस के इस दौर में लोग मानसिक रूप से भी बहुत ज्यादा परेशान हुए हैं. जितना जरूरी शारीरिक स्वास्थ्य का खयाल रखना है, उतना ही जरूरी है मानसिक सेहत को दुरुस्त रखना. इस से इंसान के सोचने, महसूस करने और काम करने की ताकत प्रभावित होती है.

तनाव और अवसाद जब घेर लें तो उस का सीधा असर रिश्ते और फैसले लेने की क्षमता पर पड़ता है. जो पहले से ही मानसिक रूप से बीमार थे, कोरोना वायरस के बढ़ते संकट के इस दौर में उन लोगों को अधिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन जो मानसिक रूप से स्वस्थ थे, वे भी अपनी सेहत खोते जा रहे हैं.

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इस की सब से बड़ी वजह है घर की चारदीवारी में कैद हो जाना और बाहर से सारे संपर्क टूट जाना. बेशक, वीडियो कौल पर आप जिस से चाहे बात कर सकते हैं, पर जो मजा साथ बैठ कर बात कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में आता है, वह मोबाइल या लैपटौप पर उंगली चला कर कैसे मिल सकता है.

मिलनाजुलना सपना हो गया :

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. मानसिक तौर पर स्वस्थ रहने के लिए लोगों से मिलनाजुलना जरूरी होता है. लेकिन कोरोना ने इस पर प्रतिबंध सा लगा दिया है. उस ने तो सारी मस्ती और रौनक छीन ली है.

पहले आयोजन व समारोहों में जा कर कितने सारे लोगों से मिलने का मौका मिल जाता था और एक पारिवारिक या दोस्ताना माहौल निर्मित हो जाने के कारण ढेर सारी खुशियों के पल समेटे जब लोग घर लौटा करते थे तो कितने दिनों तक उन बातों की पोटलियां खोल कर बैठ जाया करते थे जो वहां उन्होंने साझा की थीं या जी थीं. अब तो गिनती कर लोगों को बुलाने की बाध्यता है, फिर मास्क और सेनिटाइज करते रहने के बीच सारा बिंदासपन एक कोने में दुबक कर बैठ जाता है. दूरदूर बैठ कर और हाथ हिला कर ही कुछ कहा, कुछ सुना जाता है. अपनी सुरक्षा के कारण दूसरे लोगों से खुल कर न मिल पाने की पीड़ा हर किसी को त्रस्त कर रही है.

कैसे हो रहा है असर :

ब्रिटिश जर्नल लैंसेट साइकेट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, कोरोना वायरस न सिर्फ मनुष्य को शारीरिक रूप से कमजोर कर रहा है बल्कि मानसिक तौर पर भी इस महामारी के कई सारे नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं. एक अन्य शोध में यह पाया गया है कि कुछ लोगों की तंत्रिकाओं पर प्रभाव पड़ा है. मानसिक सेहत में जब लंबे समय तक सुधार नहीं हो पाता है तो वह मस्तिष्क को प्रभावित करती है. न केवल बुजुर्ग, बल्कि अकेले रहने वाले लोग, वयस्क, युगल, पुरुष, महिलाओं, बच्चों यानी हर उम्र के लोगों को मानसिक सेहत से जूझना पड़ रहा है. दैनिक रूटीन से कट जाने और घर में बंद रहने की वजह से दिमाग को मिलने वाले संकेत बंद हो जाते हैं. ये संकेत घर के बाहर के वातावरण और बाहरी कारकों से मिलते हैं. लेकिन लगातार घर में रहने से यह बंद हो जाता है. इन सब कारणों से अवसाद और चिंता के बढ़े मामले देखने को मिल रहे हैं. इसे सामूहिक तनाव भी कह सकते हैं. लोग अपने बच्चे के भविष्य को ले कर असमंजस में हैं. किसी को नौकरी छूट जाने का तनाव है तो किसी को वित्तीय स्थिति ठीक करने का तनाव. वहीं, घर पर बहुत समय रहने पर उकताहट होने वालों को बाहर निकल कर आजादी से न घूम पाने का तनाव है. मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इसे ‘जीनोफोबिया’ का शिकार होना कहा जा सकता है. इस में लोग किसी व्यक्ति के सामने आने पर घबराने लगते हैं, बात करने से डरते हैं, आंख में आंख डाल कर बात नहीं कर पाते. ऐसा कैमरे में देखने की आदत के कारण हो रहा है.

डिजिटल दुनिया पर निर्भरता के कारण उपजी इस परेशानी को मनोवैज्ञानिक भाषा में ‘जीनोफोबिया’ यानी फीयर औफ ह्यूमन अथवा इंसानों से डर कहा जाता है. दिमाग चीजों को स्वीकार नहीं कर पा रहा. उसे लगने लगा है कि वीडियो पर बात कर के वह सहज महसूस कर पाएगा. लेकिन, हो इस के विपरीत रहा है.

मिलें लोगों से :

सुरक्षा के सारे नियमों का ध्यान रखते हुए अपने मानसिक स्वास्थ्य को सही खुराक देने के लिए बेशक कम मिलें, पर लोगों से मिलें अवश्य. बेशक दूरी बना कर मिलना पड़े, बेशक मास्क पहनना पड़े, पर मिलें अवश्य. घर बैठेबैठे होने वाली ऊब कहीं मुसीबत न बन जाए. सोशल मीडिया या इंटरनैट आप को बोर नहीं करता लेकिन यह मन की पूरी खुराक नहीं देता.

यह तो इंसान में वास्तविक जिंदगी से पलायन का भाव होता है जो उसे इंटरनैट की ओर धकेल देता है. इस समय बोरियत की शिकायत आम हो गई है. यदि आप भी खुशी की तलाश या जीवन के बे-अर्थ हो जाने के एहसास के कारण डिजिटल साधनों पर अंधाधुंध समय बिता रहे हैं तो यह मुसीबत बन सकता है. जब महज मनोरंजन या बोरियत भगाने के लिए इंटरनैट का इस्तेमाल करते हैं तो एक और परेशानी उभरती है.

सो, इस समय जरूरत है उन लोगों से मिलें जिन्हें आप की परवा है, जो आप से प्यार करते हैं या जिन के साथ समय बिताने से आप को खुशी और राहत महसूस होती है.

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जरूरत है कि फिर से लोगों से जुड़ें, सामाजिक दायरा छोटा ही रखें, पर आभासी दुनिया से अलग स्वयं उन से जा कर मिलें जरूर. आप खुद में बदलाव महसूस करेंगे, मानो बरसों का कोई बोझ उतर गया हो. खिलखिलाहटें और हंसी आप में एक नई ऊर्जा भर जाएंगी और तनाव जाता महसूस होगा. मानसिक तनाव से निकलने के लिए शराब और नशीली दवाओं का उपयोग या नींद की दवा लेने से कहीं बेहतर है कि उन से मिलें जिन के साथ वक्त गुजारना आप में जीने की ललक पैदा करता है. मानसिक स्वास्थ्य पूरी तरह से भावनात्मक आयाम पर टिका होता है. यदि हमारा सामाजिक जीवन दुरुस्त है तो हम मानसिक रूप से स्वस्थ होंगे ही और अपने संबंधों को आनंद से जी पाएंगे. तब जटिल स्थितियों का मुकाबला करने की भी शक्ति खुदबखुद आ जाती है.

कोरोना है, रहेगा भी अभी लंबे समय तक, उसे ले कर अवसाद में जीने के बजाय खुद को फिर से तैयार करें ताकि सामाजिक जीवन जी सकें. अपने प्रियजनों, दोस्तों, रिश्तेदारों व परिचितों से मिलें और अपने मानसिक स्वास्थ्य को दवाइयों का मुहताज बनाने के बजाय मन की बातें शेयर कर, खुलकर हंस कर अपने दुखसुख बांटते हुए कोरोना को चुनौती देने के लिए तत्पर हो जाएं.

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