मुझे जानना है कि मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में खानपान की क्या भूमिका है?

सवाल

अवसाद और दूसरे मानसिक विकारों के बढ़ते मामलों को देखते हुए मैं यह जानना चाहती हूं कि मानसिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में खानपान की क्या भूमिका है?

जवाब

पोषक तत्त्वों से भरपूर डाइट का सेवन करें. फाइबर, प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और अच्छी वसा के साथ ही माइक्रो न्यूट्रिएंट्स जैसे मिनरल्स और विटामिंस उचित मात्रा में हों. अगर शरीर में ऊर्जा का स्तर ठीक होगा तो हम डिप्रैशन और ऐंग्जाइटी से बच जाएंगे. जंक और प्रोसैस्ड फूड्स के बजाय घर पर बना सादा खाना खाएं. अपने डाइट चार्ट में फलों, सब्जियों, सूखे मेवों और साबूत अनाज को अधिक मात्रा में शामिल करें. अगर जरूरी हो तो 2-3 महीनों तक मल्टी विटामिन लें, लेकिन उस से अधिक समय नहीं.

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अगले महीने मेरी डिलिवरी है. मैं जानना चाहती हूं पोस्ट पार्टम डिप्रैशन क्या होता है और क्या यह सामान्य है?

जवाब

बच्चे के जन्म के बाद6 सप्ताह तक बेबी ब्ल्यूजया प्रैगनैंसी ब्लूज होना सामान्य है. इस दौरान बहुत ज्यादा हारमोन परिवर्तन होते हैं, इसलिए महिलाएं बहुत अस्थिर महसूस करती हैं. उन्हें रोना आना, चिड़चिड़ापन, परेशान होना, उदासी, रात में नींद न आना, बच्चे को संभालने में परेशानी होना, थकान, स्तनपान कराने में परेशानी होना जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इस स्थिति को पोस्ट पार्टम डिप्रैशन भी कहते हैं. लेकिन अगर यह स्थिति 6 सप्ताह के बाद भी बनी रहे तो इसे गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि अगर समय रहते इसे ठीक नहीं कराया जाए तो यह पोस्ट पार्टम डिप्रैशन चलता रहता है केवल इस के रूप बदलते रहते हैं.

-डा. जया सुकुलक्लीनिकल साइकोलौजिस्ट, हैडस्पेस हीलिंग, नोएडा द्य  

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कोरोना की वजह से कम से मिलें पर मेंटल हेल्थ के लिए मिलें जरुर

कोरोना आया और एक बार तो बहुत हद तक जिंदगी की रफ्तार थम गई. भय, चिंता, भविष्य से ज्यादा वर्तमान की फिक्र इंसान पर हावी हो गई. नौकरी, पढ़ाई, काम, घूमना, मौज-मस्ती, जब भी मन करे घर से निकल जाना और किसी मॉल में शॉपिंग करना या होटल में खाना खाना या कहीं यूं ही बिना योजना बनाए कार उठाकर निकल जाना. पार्टी, धमाल, दोस्तों के साथ गप्पबाजी या नाइट आउट, रिश्तेदारों व परिचितों के घर जमावाड़ा और सड़कों पर बेवजह की चहलकदमी—अचानक सब पर विराम लग गया. किसी के मिलने का मन है तो पहुंच गए उसके घर, कि चलो आज साथ मिलकर लंच या डिनर करते हैं. लॉकडाउन खुल गया, पर संक्रमण घूमता रहा और अब घर से बाहर निकलने से पहले कई बार सोचना पड़ता है, जरूरी है तभी कदम दरवाजा पार करते हैं. घबराहट, डर और घर में बैठे रहकर केवल आभासी दुनिया से जुड़े रहने से सबसे ज्यादा असर मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ा है.

मानसिक सेहत बिगड़ी

कोरोना वायरस के इस दौर में लोग मानसिक रूप से ज्यादा परेशान हुए हैं. जितना जरूरी शारीरिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना है, उतना ही जरूरी है मानसिक सेहत को दुरुस्त रखना. इससे इंसान के सोचने, महसूस करने और काम करने की ताकत प्रभावित होती है. तनाव और अवसाद जब घेर ले तो उसका सीधा असर रिश्ते और फैसले लेने की क्षमता पर पड़ता है. जो पहले से ही मानसिक रूप से बीमार थे, 

कोरोना वायरस के बढ़ते संकट के इस दौर में उन लोगों को अधिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. लेकिन जो मानसिक रूप से स्वस्थ थे, वे भी अपनी सेहत खोने लगे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है घर की चारदीवारी में कैद हो जाना और बाहर से सारे संपर्क टूट जाना, बेशक वीडियो कॉल पर आप जिससे चाहे बात कर सकते हैं, पर जो मजा साथ बैठकर बात कर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने में आता है, वह मोबाइल या लैपटॉप पर अंगुली चलाकर कैसे मिल सकता है.

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मिलना-जुलना सपना हो गया

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. मानसिक तौर पर स्वस्थ रहने के लिए लोगों से मिलना-जुलना जरूरी होता है. लेकिन कोरोना ने जैसे इस पर प्रतिबंध लगा दिया है. सारी मस्ती और रौनक छीन ली है. आयोजन व समारोहों में, जहां जाकर कितने सारे लोगों से मिलने का मौका मिल जाता था और एक पारिवारिक या दोस्ताना माहौल निर्मित हो जाने के कारण ढेर सारी खुशियों के पल समेटे जब लोग घर लौटा करते थे तो कितने दिनों तक उन बातों की पोटलियां खेलकर बैठ जाया करते थे जो वहां उन्होंने साझा की थीं या जी थीं. अब तो गिनती कर लोगों को बुलाने की बाध्यता है, फिर मास्क और सेनेटाइज करते रहने के बीच सारा बिंदासपन एक कोने में दुबक कर बैठ जाता है. दूर-दूर बैठकर और हाथ हिलाकर ही कुछ कहा, कुछ सुना जाता है. अपनी सुरक्षा के कारण दूसरे लोगों से खुलकर न मिल पाने की पीड़ा हर किसी को त्रस्त कर रही है. 

कैसे हो रहा है असर

 ब्रिटिश जर्नल लैंसेट साइकेट्री में प्रकाशित एक शोध के अनुसार, कोरोना वायरस न सिर्फ मनुष्य को शारीरिक रूप से कमजोर कर रहा है बल्कि मानसिक तौर पर भी इस महामारी के कई सारे नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं. एक अन्य शोध में यह पाया गया है कि कुछ लोगों की तंत्रिकाओं पर प्रभाव पड़ा है. मानसिक सेहत में जब लंबे समय तक सुधार नहीं हो पाता है तो वह मस्तिष्क को प्रभावित करती है. न केवल बुजुर्ग, बल्कि अकेले रहने वाले लोग, वयस्क, युगल, पुरुष, महिलाओं, बच्चों, यानी हर उम्र के लोगों को मानसिक सेहत से जूझना पड़ रहा है. 

दैनिक रूटीन से कट जाने और घर में बंद रहने की वजह से दिमाग को मिलने वाले संकेत बंद हो जाते हैं. यह संकेत घर के बाहर के वातावरण और बाहरी कारकों से मिलते हैं लेकिन लगातार घर में रहने से यह बंद हो जाता है. इन सब कारणों से अवसाद और चिंता के बढ़े मामले देखने को मिल रहे हैं. इसे सामूहिक तनाव भी कह सकते हैं. लोग अपने बच्चे के भविष्य को लेकर असमंजस में हैं,  किसी को नौकरी छूट जाने का तनाव है तो किसी को वित्तीय स्थिति ठीक करने का तनाव, घर पर बहुत समय रहने पर उकताहट होने वालों को बाहर निकलकर आजादी से न घूम पाने का तनाव है. 

 मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इसे जीनोफोबिया‘ का शिकार होना कहा जा सकता है. इसमें लोग किसी व्यक्ति के सामने आने पर घबराने लगते हैं, बात करने से डरते हैं, आंख में आंख डालकर बात नहीं कर पाते. ऐसा कैमरे में देखने की आदत के कारण हो रहा है. डिजिटल दुनिया पर निर्भरता के कारण उपजी इस परेशानी को मनोवैज्ञानिक भाषा में जोनोफोबियायानी फीयर ऑफ ह्यूमन अथवा इंसानों से डर कहा जाता है. दिमाग चीजों को स्वीकार नहीं कर पा रहा और उसे लगने लगा है कि वीडियो पर बात करके वह सहज महसूस कर पाएगा, पर हो इसके विपरीत रहा है. 

मिलें लोगों से

सुरक्षा के सारे नियमों का ध्यान रखते हुए अपने मानसिक स्वास्थ्य को सही खुराक देने के लिए बेशक कम मिलें, पर लोगों से मिलें अवश्य. बेशक दूरी बनाकर मिलना पड़े, बेशक मास्क पहनना पड़े, पर मिलें अवश्य. घर बैठे-बैठे होने वाली ऊब कहीं मुसीबत न बन जाए. सोशल मीडिया या इंटरनेट आपको बोर नहीं करता बल्कि यह अकसर बोरियत या वास्तविक जिंदगी से पलायन का भाव होता है जो इंटरनेट की ओर धकेल देता है. इस समय बोरियत की शिकायत आम हो गई है. यदि आप भी खुशी की तलाश या जीवन के बे-अर्थ हो जाने के एहसास के कारण डिजिटल साधनों पर अंधाधुंध समय बिता रहे हैं तो यह मुसीबत बन सकता है. जब महज मनोरंजन या बोरियत भगाने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं तो एक और परेशानी है. इस समय जरूरत है उन लोगों से मिलें जिन्हें आपकी परवाह है, जो आपसे प्यार करते हैं या जिनके साथ समय बिताने से आपको खुशी और राहत महसूस होती है. 

जरूरत है कि फिर से लोगों से जुड़ें, सामाजिक दायरा छोटा ही रखें, पर आभासी दुनिया से अलग स्वयं उनसे जाकर मिलें जरूर. आप खुद में बदलाव महसूस करेंगे, मानो बरसों का कोई बोझ उतर गया हो. खिलखिलाहटें और हंसी आपमें एक नई ऊर्जा भर जाएगी और तनाव जाता महसूस होगा. मानसिक तनाव से निकलने के लिए शराब और नशीली दवाओं का उपयोग या नींद की दवा लेने से कहीं बेहतर है कि उनसे मिलें जिनके साथ वक्त गुजारना आप में जीने की ललक पैदा करता है. 

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मानसिक स्वास्थ्य पूरी तरह से भावनात्मक आयाम पर टिका होता है. यदि हमारा सामाजिक जीवन दुरुस्त है तो हम मानसिक रूप से स्वस्थ होंगे ही और अपने संबंधों को आनंद से जी पाएंगे. तब जटिल स्थितियों का मुकाबला करने की भी शक्ति स्वतः आ जाती है. कोरोना है, रहेगा भी अभी लंबे समय तक, उसे लेकर अवसाद में जीने के बजाय खुद को फिर से तैयार करें ताकि सामाजिक जीवन जी सकें. अपने प्रियजनों, दोस्तों, रिश्तेदारों व परिचितों से मिलें, और अपने मानसिक स्वास्थ्य को दवाइयों का मोहताज बनाने के बजाय, मन की बातें शेयर कर, खुल कर हंस कर, अपने दुख-सुख बांटते हुए, कोरोना को चुनौती देने के लिए तत्पर हो जाएं. 

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