मेरी जीवनसाथी: नवीन का क्या था सच

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मेरी जीवनसाथी- भाग 3: नवीन का क्या था सच

नवीन की मीठी बातें और मोहित की प्यारी बातें भी मेरा मन न बहला सकीं. नवीन का सारा प्रयास व्यर्थ गया और मोहित भी मुझे उदासीन पा कर अपने में सिमट गया. मैं ने अनेक प्रयास किए कि मोहित को अपने वक्ष से लगा कर दिल का बोझ हलका कर लूं, पर सफल न हो सकी.

तभी अपनी कोख में पलते अंश का मु झे एहसास हुआ. मैं समझ गई कि यह अंश उस बेवफा चंदन का है. लेकिन भोलेभाले नवीन को मैं कैसे बताती कि शादी से पहले ही मैं गर्भवती हो चुकी हूं.

कभीकभी जी होता, आत्महत्या कर लूं या कहीं चली जाऊं पर नवीन का निश्छल प्यार, मातापिता की इज्जत, सबकुछ सामने आ कर मेरे पांव जकड़ लेते.

फिर धीरेधीरे सबकुछ सामान्य होता गया. मोहित बीच में जब भी छात्रावास से घर आता, मु झ से खिंचा रहता. मैं लाख प्रयास करती कि वह मेरे पास आए, तब भी शांत स्वभाव का मोहित मेरे पास ज्यादा देर न टिकता.

तेज प्रसवपीड़ा के बीच एक रात मैं ने एक स्वस्थ पुत्र को जन्म दिया. नवीन फूले न समाए. अम्माबाबूजी को तो मानो बरसों की संजोई दौलत हाथ लग गई हो. पर मेरा मन खुश नहीं था. चंदन के बेटे को जन्म देने के बाद मैं स्वयं की नजरों से गिर गई थी.

शीलू के होने के बाद मोहित कुछकुछ मु झ से खुलने लगा था. दोनों में 7 वर्ष का अंतर था. मोहित एवं शीलू की खूब पटती थी. मेरे ही कहने पर नवीन ने उसे भी छात्रावास में डाल दिया था.

समय धीरेधीरे सरकता गया. मैं और नवीन पूरे घर में 2 प्राणी रह गए. 2 वर्ष पूर्व अम्मा का देहांत हो गया. बाबूजी तो पहले ही गुजर चुके थे. लाख कहने पर भी अम्मा हमारे साथ रहने नहीं आईं.

अब नवीन के सिवा मेरा कोई नहीं था. नवीन की सेवा कर के मु झे आत्मिक संतोष मिलता था. लेकिन एक सच था कि नवीन और अपने बीच मैं ने हमेशा एक फासला महसूस किया. अपने अंदर इतना बड़ा  झूठ रख कर मैं हमेशा स्वयं को हेय सम झती रही.

‘टिकटिक…’ घड़ी की तेज आवाज ने मु झे अतीत से खींच कर वर्तमान में ला खड़ा किया…

सुबह होने को थी. नवीन को 8 बजे ओटी में जाना था. उन के लिए नाश्ता भी तैयार करना था. नवीन जाग चुके थे. मु झे काम करता देख वे सम झ गए कि फिर पूरी रात मैं जगी हूं.

मेरा हाथ पकड़ उन्होंने मु झे पलंग पर लिटा दिया और कहा, ‘‘एक गोली देता हूं. खा कर आराम से सो जाओ. बाई आ कर सब कर देगी. भोलू से कह जाऊंगा कि बाहर से कोई आए या फोन आए तो वह देख ले. तुम बस आराम करो.’’

‘‘लेकिन आप?’’

‘‘मेरी चिंता छोड़ो संगीता. तुम अपने लिए भी तो जीना सीखो. तुम्हारा नवीन तुम्हारे बगैर अधूरा रह जाएगा,’’ कहतेकहते नवीन की आवाज रुंध गई. आज पहली बार मैं ने उन्हें अतिशय भावुक होते देखा था.

ऐसा अकसर हुआ था जब मैं पूरीपूरी रात जगी थी और दूसरे दिन नवीन ने मु झे दवा दे कर सुला दिया था.

दोनों बेटे बाहर ही शिक्षा पा रहे थे. बीचबीच में आते भी तो मेरे और उन के बीच हमेशा एक दूरी बनी रहती. मोहित तो मुझ से कतराता था और शीलू से मैं. लेकिन नवीन का ढेर सारा प्यार बच्चों को मेरी कमी महसूस ही न होने देता. पढ़ने में दोनों ही होशियार थे. शीलू अभी पढ़ ही रहा था. मोहित का नेवी में चयन हो गया था.

पूरे 5 वर्ष और बीत गए हैं. आज नवीन भी इस दुनिया में नहीं हैं. बड़ा बेटा मोहित अकसर विदेश में ही रहता है, जहाजों पर. दूसरा शीलू भी पायलट बन चुका है. वह दिल्ली में रहता है. मैं घर में अकेली हूं, बाई के साथ.

बेटों ने औपचारिकतावश पूछा था. शीलू ने तो साथ ले जाना भी चाहा, पर मैं ने इनकार कर दिया. मोहित ने विवाह भी कर लिया है. बहू को ले कर आशीर्वाद लेने आया था. जी चाहा था, पूछूं कि क्या यह शादी मु झ से बता कर करता तो मैं मना कर देती. नवीन होते तब भी यही करते. पर पूछ न सकी.

अचानक बैंक से एक दिन नवीन द्वारा करवाया हुआ फिक्स्ड डिपौजिट का कागज आया जिस में रकम की मियाद पूरी होने की बात थी. इस विषय में मु झे कुछ भी मालूम नहीं था. उस पत्रक में अनुरोध था कि या तो ज कर पैसे ले आऊं या पुन: जमा करवा दूं.

अब वह फिक्स्ड डिपौजिट का कागज मुझे ढूंढ़ना था. मैं ने पूरा घर छान मारा पर वह कहीं नहीं मिला. शायद मेरे विवाह के पूर्व का किया हो या नवीन बताना भूल गए हों.

तभी मुझे ध्यान आया कि नवीन की एक खास अलमारी थी जिसे खोलने की मैं ने कभी जरूरत महसूस नहीं की. वह नवीन ही खोलते थे. शायद पूर्व पत्नी की यादें उस में संजोई हों, यही सोच कर मैं ने कभी पूछा भी नहीं. फिर जिस के अंदर खुद चोर हो वह दूसरे की छानबीन क्या करता.

कागज ढूंढ़ने की गरज से मैं ने अलमारी खोल दी, मेरी दृष्टि एक डायरी पर पड़ी जो अधखुली अवस्था में जाने कब से पड़ी थी. बीच में खुला पैन भी था. सर्वत्र धूल जमी हुई थी. उत्सुकतावश मैं ने उसे उठा लिया. डायरी, वह भी नवीन की लिखावट में. किस पल वे डायरी लिखते रहे, मैं जान भी न सकी.

उजाले में आंखों पर चश्मा चढ़ा कर पढ़ने लगी. उस वक्त वह कागज ढूंढ़ना भी भूल गई. शुरू में नवीन ने अपनी पूर्व पत्नी का जिक्र किया था. फिर उस की मृत्यु एवं मोहित के छात्रावास में जाने के बाद घर के एकाकीपन का, फिर हमारे परिवार के मिलने की घटना का वर्णन था.

एक जगह लिखा था, ‘अच्छी बच्ची है, संगीता. सोचता हूं इस का कालेज में दाखिला करवा दूं. फिर कोई अच्छा लड़का देख कर इस की शादी कर दूं. अभी अल्हड़ और नादान है. कैसा टूट गया है यह परिवार. सांप्रदायिकता की भयंकर आग ने कितने ही ऐसे परिवारों को उजाड़ दिया है, तबाह कर दिया है.’

आगे जिक्र था… ‘इस भोली लड़की ने यह क्या किया? चंदन के प्रेमजाल में कैसे फंस गई? कितनों को बरबाद किया है चंदन ने? काश, मैं कुछ देर पहले पहुंचा होता तो चंदन घर से निकलता नहीं, जाते देखता और जो हुआ, उसे रोक लेता. अब कौन करेगा उस से शादी? कहीं कुछ उलटासीधा कदम न उठा ले यह अल्हड़ लड़की. मुझे ही इस से शादी करनी होगी.’

आगे लिखा था… ‘इस लड़की के अंदर पलते अंश को मेरी नजरें अनदेखा नहीं कर सकतीं. यह शादी शीघ्र होनी चाहिए. लेकिन भविष्य में मु झे इस से कुछ नहीं पूछना या बताना है वरना यह जीवित नहीं रहेगी.’

आगे बहुत कुछ था, पर मेरी पढ़ने की सामर्थ्य समाप्त हो चुकी थी.

मैं सोचने लगी, ‘ओह नवीन, तुम मुझे सजा देते, मुझे एहसास कराते कि मुझे अपनाकर तुम ने मुझ पर एहसान किया है. शीलू को पाल कर मुझे मेरी गलती का एहसास कराते. सहारा देने की सजा दे कर तो तुम ने मुझे बिलकुल ही अपनी नजरों से गिरा दिया.

‘काश, आज तुम होते और मैं पूछ सकती कि मैं ने तुम्हें न बता कर ठीक किया या तुम ने मुझे बिना बताए क्षमा कर के. लेकिन तुम तो मुझे पछतावे की आग में जलता छोड़ इतनी दूर जा चुके हो, जहां से वापस नहीं आ सकते.’

घड़ी की टिकटिक हर पल अपने अस्तित्व का, इस सन्नाटे में मुझे मेरे अकेलेपन का आभास करा रही थी.

मेरी जीवनसाथी- भाग 1: नवीन का क्या था सच

घड़ी ने टिकटिक कर के 2 का घंटा बजाया. आरामकुरसी पर पसरी मैं शून्य में देखती ही रहती यदि घड़ी की आवाज ने मुझे चौंकाया न होता. उठ कर नवीन के पास आई. बरसों पुराना वही तरीका, पुस्तक अधखुली सीने पर पड़ी हुई और चश्मा आंखों पर लगा हुआ.

चश्मा उतार कर सिरहाने रखा. पुस्तक बंद कर के रैक में लगाई और लैंप बुझा कर बाहर आ गई. अब तो यह प्रतिदिन की आदत सी हो गई है. जिस दिन बिना दवा खाए नींद आ जाती, वह चमत्कारिक दिन होता.

बालकनी में खड़ी मैं अपने बगीचे और लौन को देखती रही. अंदर आ कर फिर कुरसी पर पसर गई. घड़ी की टिकटिक हर बार मुझे एहसास करा रही थी कि इस पूरे घर में इस समय वही एकमात्र मेरी सहचरी और संगिनी है.

बड़ी सी कोठी, 2-2 गाडि़यां, भौतिक सुविधाओं से भरापूरा घर, समझदार पति और 2 खूबसूरत होनहार बेटे, एक नेवी में इंजीनियर, दूसरा पायलट. ऐसे में मु झे बेहद सुखी होना चाहिए लेकिन स्थिति इस के बिलकुल विपरीत है.

घड़ी की टिकटिक मेरी सहचरी है और मेरे अतीत की साक्षी भी. मेरा अतीत, जो समय की चादर से लिपटा था, आज फिर खुलता गया.

तब पूरा शहर ही नहीं, समूचा देश हिंसा की आग में जल रहा था. 2 संप्रदायों के लोग एकदूसरे के खून के प्यासे हो गए थे. बहूबेटियों की इज्जत लूट कर उन्हें गाजरमूली की तरह काटा जा रहा था. चारों तरफ सांप्रदायिकता की आग नफरत और हिंसा की चिनगारियां उगल रही थी.

हमारा घर मुसलमानों के महल्ले के बीच अकेला था. सांप्रदायिक हिंसा की लपटें फैलते ही लोगों की आंखें हमारे घर की तरफ उठ गई थीं.

एक रात मैं, अम्मा और बाबूजी ठंडे चूल्हे के पास बैठे सांस रोके बाहर का शोरशराबा सुन रहे थे. अचानक पीछे का दरवाजा किसी ने खटखटाया. अम्मा ने मुझे अपने सीने से चिपटा कर बाबूजी से कहा था, ‘नहीं, मत खोलना. पहले मैं इसे जहर दे दूं.’

तभी बाहर से रहीम चाचा की आवाज आई थी, ‘संपत भैया, मैं हूं रहीम. दरवाजा खोलो.’ सांस रोके हम खड़े रहे. बाबूजी ने दरवाजा खोला तो रहीम चाचा ने  झटपट मेरा और अम्मा का हाथ थामा, ‘चलो भाभी, मेरे घर. अब यहां रहना खतरे से खाली नहीं है. इंसानियत पर हैवानियत का कब्जा हो गया है. चलो.’

जेवर, पैसा, कपड़े सब छोड़ कर हम रहीम चाचा के घर आ गए. पूरा दिन हम वहां एक कमरे में छिप कर बैठे रहे. लोग पूछपूछ कर लौट गए पर रहीम चाचाजी और फरजाना ने जबान नहीं खोली.

तीसरे दिन रहीम चाचा ने बाबूजी को 3 टिकट दिल्ली के पकड़ाए थे, ‘सुबह 4 बजे टे्रन जाती है. बाहर गाड़ी खड़ी है. तुम लोग चले जाओ, रात का सन्नाटा है. बड़ी मुश्किल से टिकट और गाड़ी का इंतजाम हो सका है.’

एक अटैची पकड़ाते हुए चाची ने कहा था, ‘इस में थोड़े पैसे और कपड़े हैं. माहौल ठंडा पड़ते ही तुम वापस आ जाना. हम हैं न.’

उस समय मैं फरजाना से, अम्मा चाची से और बाबूजी रहीम चाचा से मिल कर कितना रोए थे. होली, ईद संगसंग मनाने वाला महल्ला कितना बेगाना हो गया था हमारे लिए.

टे्रन में बैठने के बाद अम्मा ने राहत की सांस ली थी. बाबूजी ने बेबसी से शहर को निहारा था.

टे्रन अभी जालंधर ही पहुंची थी कि अचानक बाबूजी को दिल का दौरा पड़ा. खामोशी से सबकुछ सहते बाबूजी को देख मैं ने सोचा था, सबकुछ सामान्य है पर यह हादसा उन्हें घुन की तरह खा रहा था. लगीलगाई दुकान, मकान और जोड़ा हुआ बेटी के लिए ढेरों दहेज…सब छोड़ कर आना उन्हें तोड़ कर रख गया.

चलती हुई ट्रेन में हम करते भी क्या? तभी सामने बैठे एक सज्जन ने हमें ढाढ़स बंधाया था, ‘देखिए, मैं डाक्टर हूं. आप इन्हें यहीं उतार लें, आगे तक जाना इन की जान के लिए खतरनाक हो सकता है.’

‘आप…’

‘हां, मैं, यहीं सैनिक अस्पताल में डाक्टर हूं.’

मैं ने अम्मा की तरफ देखा और उन्होंने मेरी तरफ. उस समय 17 वर्षीया मैं अपने को बहुत बड़ी समझने लगी थी.

अस्पताल में नवीन नाम के उस डाक्टर ने हमारी बड़ी मदद की. बाबूजी को सघन चिकित्सा कक्ष में रखा. हमें भी वहीं रहने का स्थान मिल गया. मां ने उन्हें सबकुछ बता दिया.

एक हफ्ते के अंदर ही नवीन ने एक कमरा दिलवा दिया जिस में एक अटैची के साथ हम सब को गृहस्थी शुरू करनी थी. थोड़े से बरतन, चूल्हा और राशन नवीन ने भिजवाए थे. मना करने पर कहा था उन्होंने, ‘मुफ्त में नहीं दे रहा हूं. बाबूजी ठीक हो जाएंगे तो उन्हें नौकरी दिलवा दूंगा.’

एक दिन बाबूजी को मैं देखने गई. वे ठीक लगे. मैं उन्हें घर ले जाना चाहती थी पर डा. नवीन उस समय ड्यूटी पर नहीं थे. घर पास ही था, पता पूछ कर जब मैं उन के घर पहुंची तो वहां गहरा सन्नाटा पसरा हुआ था.

नौकर ने बताया था, ‘डाक्टर साहब स्टेशन गए हैं, अपने बेटे को लेने. वह शिमला में पढ़ता है. छुट्टियों में आ रहा है.’

डाक्टर साहब की पत्नी कहां हैं, पूछने से पूर्व मेरी दृष्टि फ्रेम में जड़ी एक तसवीर पर चली गई. सुहागन स्त्री की तसवीर जिस पर फूलों की माला पड़ी थी. बगल में ही डा. नवीन की भी फोटो रखी थी.

नौकर की खामोशी मुझे नवीन की उदासी समझा गई. उस दिन पहली बार नवीन के प्रति एक सहानुभूति की लहर ने मेरे अंदर जन्म लिया था.

2-4 दिनों के बाद ही बाबूजी घर आ गए. मैं ने 2 बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. खुद 11वीं तक पढ़ी थी. कुछ पैसे आने लगे. मां ने अचार, बडि़यां, पापड़ और मसाले बनाने का काम शुरू किया.

बाबूजी दुकानदारी के साथ प्रैस के काम का भी अनुभव रखते थे. इसलिए नवीन ने उन्हें एक प्रैस में छपाई का काम दिलवा दिया. फिर तो डुगडुग करती हमारी गृहस्थी चल निकली.

एक दिन एक खूबसूरत युवक हमारे घर का पता पूछता आ गया. उसे बाबूजी से काम था, लेकिन मु झे देखते ही बोला, ‘आप संगीता हैं न?’

‘हां, पर आप?’

‘मैं चंदन हूं, नवीन भैया का छोटा भाई.’

‘ओह, नमस्ते,’ मैं ने नजरें नीची कर के कहा तो वह मुसकरा दिया. उस की वह मुसकराहट मुझे अंदर तक छू गई. नवीन के लिए एक बार मेरे मन में सहानुभूति की लहर उठी थी, पर दिल कभी नहीं धड़का था. किंतु आज चंदन की काली आंखों के आकर्षण से न केवल मेरा दिल धड़कने लगा, बल्कि मैं स्वयं मोम सी पिघलने लगी.

नवीन दूसरे दिन आ कर हमें निमंत्रणपत्र दे गए थे. चंदन ने डाक्टरी पूरी कर ली थी. उन के बेटे मोहित का जन्मदिन भी था. उन दोनों की खुशी में वे एक पार्टी दे रहे थे.

फरजाना का सितारों से जड़ा गुलाबी सूट, जो अच्छे लिबास के नाम पर एकमात्र पहनावा था, पहन कर और नकली मोतियों का सैट गले में डाल कर मैं तैयार हो गई थी. मां ने मु झे गर्व से ऊपर से नीचे तक निहारा था. मैं लजा गई थी. बाबूजी के साथ मैं नवीन के घर पहुंची.

दरवाजे पर ही चंदन अपने दोस्तों के बीच खड़ा दिख गया. मेरी तरफ उस की पीठ थी लेकिन मैं चाहती थी कि वह मेरी तरफ देखे. मेरी सुंदरता उस पर असर करे.

मेरी जीवनसाथी- भाग 2: नवीन का क्या था सच

नवीन ने मुझे प्यार से देखा था. फिर बाबूजी को और मुझे लिवा कर अंदर आ गए थे. गुजरते हुए चंदन के मित्रों ने मु झे देखा तो चंदन की भी नजर घूम गई. अवाक् और हतप्रभ सा वह मु झे देखता ही रह गया.

जाने क्यों उस का या उस के दोस्तों का यों देखना मुझे बुरा नहीं लगा. आज पहली बार मेरे सौंदर्य ने लोगों को ही नहीं, मुझे भी अभिभूत किया हुआ था. फिर पूरी पार्टी के बीच किसी न किसी बहाने से चंदन मेरे आसपास मंडराता रहा. मु झे स्वयं उस का सामीप्य बहुत अच्छा लग रहा था.

वह उम्र थी भी तो ऐसी जो किसी के बस में नहीं होती. न कालेज, न स्कूल, न सखीसहेलियां. दिल का हाल सुनाती भी तो किसे? सबकुछ तो उस पुराने शहर में छूट गया था.

रातभर करवटें बदलते हुए मैं ने चंदन के ही सपने देखे. जागते हुए सपने, उस का नीला सूट, गोरा रंग, मुसकराहट और आंखों का चुंबकीय आकर्षण…बारबार मुझे विभोर कर देते.

नवीन के प्रति मेरे मन में श्रद्धा थी, जिसे देख कर मन में शीतलता उत्पन्न होती थी. मगर चंदन को देखते ही गले में कुछ फंसने लगता था. पूरा शरीर रोमांचित और गरम हो उठता. शायद यह प्रथम प्रेम का आकर्षण था.

उस दिन हलकी घटा छाई हुई थी. शाम का समय था. बच्चे भी पढ़ने नहीं आए थे. बाबूजी प्रैस गए हुए थे और मां अचारबडि़यों का हिसाब करने दुकानदार के पास.

मैं अकेली कमरे में लेटी चंदन के ही सपने में खोई थी. पता नहीं, मैं गलत थी या सही. पर चंदन को भुला पाना अब मेरे बस में नहीं था. इधर चंदन एकाध बार किसी न किसी बहाने घर आ चुका था. तब मां या बाबूजी होते.

तभी दरवाजा खटका. अम्मा जल्दी आ गईं, सोचते हुए मैं ने दरवाजा खोला तो सामने चंदन खड़ा था. उस के शरीर से खुशबू का एक  झोंका आया जो मेरे संपूर्ण अस्तित्व को भिगो गया.

‘अंदर आ सकता हूं?’ मुसकरा कर उस ने पूछा.

‘हां, आइए.’

मैं चाय बनाने के लिए उठी तो चंदन ने मुझे रोक लिया, ‘मैं तुम से मिलने आया हूं, चाय पीने नहीं. सोचा था, आज मां होंगी तो साफसाफ बात कर के भैया से कह कर तुम्हें मांग लूंगा.’

मैं आश्चर्य एवं लज्जा से लाल पड़ गई थी. मेरी मुराद इतनी शीघ्र पूरी हो जाएगी, ऐसा तो सोचा भी न था.

चंदन ने मेरी ठोड़ी उठा कर मेरी आंखों में  झांका, ‘भैया से तुम लोगों के विषय में सबकुछ जान चुका हूं. तुम बताओ, मैं तुम्हें पसंद हूं?’

मैं क्या कहती. मेरा तो अंगअंग उस के प्रेम में आकंठ डूबा जा रहा था. चंदन मुझे मिल जाए, इस की तो सिर्फ कल्पना की थी, सपना देखा था. मगर वह सपना हकीकत में तबदील हो जाएगा, नहीं जानती थी.

तभी जोरों से बिजली कड़की और पानी बरसना शुरू हो गया. मां के आने की संभावना जाती रही. चंदन ने उस पल मेरी कमजोरी और अवसर का फायदा उठाया. मेरे प्रथम एवं अछूते प्रेम को उस ने अपनी मादक सांसों से उभारा. मेरा पूरा शरीर पत्ते सा कांपने लगा. उस अल्हड़ उम्र में प्रथम बार किसी पुरुष ने, वह भी जो मेरे सपनों का बादशाह था, मेरे शरीर को सहलाया. मैं लता की तरह लिपटती चली गई.

मैं भूल गई कि वह सबकुछ क्षणिक सुख विनाश का रास्ता है, सुखद भविष्य का उजाला नहीं. उस समय तो चंदन की प्यारीप्यारी मीठी बातें ही मुझे बस याद थीं…उस के वादे, कसमें और बांहों का कसता घेरा.

2 दिन सबकुछ सामान्य रहा लेकिन चंदन नहीं आया. मेरा अंगअंग टूटा जा रहा था. चंदन के आने की आस और शरीर का टूटना मुझे चिंतित कर रहा था. तीसरे दिन नवीन हमारे घर आए. बाबूजी भी जल्दी ही आ गए थे.

नवीन आए तो मैं सिर नीचा किए रसोई में चली गई. उसी प्यार से उन्होंने मु झे देखा. फिर थोड़ी देर बाद मां की आवाज आई थी, ‘आप यह क्या कह रहे हैं? कहां आप, कहां हम?’

‘मैं छोटेबड़े की बात नहीं, रिश्ते की बात करने आया हूं. मोहित के सिवा मेरा कोई नहीं. वह भी बाहर रहता है. चाहता हूं, मेरा घर फिर से बस जाए.’

‘पर इतनी जल्दी? चंदन भैया भी तो कल चले गए?’ यह बाबूजी का स्वर था.

‘चंदन मेरा सगा भाई नहीं है. बचपन में पिताजी ने उसे पाला था, पढ़ायालिखाया. उन के बाद उस की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई थी. उसे डाक्टर बनाना मेरा लक्ष्य था, वह पूरा हो गया.

‘मंत्री की बेटी से उस का ब्याह हो चुका है जिस का पूरा परिवार अमेरिका में है. लड़की तो वहां की नागरिकता भी ले चुकी है. पढ़ाई के कारण चंदन यहां रुका था, सो वह भी कल चला गया.’

ब्याह…पत्नी…मेरे सिर पर मानो किसी ने हथौड़े बरसाए हों. चंदन और शादीशुदा? इतना बड़ा  झूठ? इतना बड़ा फरेब? मेरे शरीर से अपनी हवस प्यार के  झूठे बोल बोल कर बु झाने वाला व्यक्ति विवाहित? नहींनहीं. मैं बेहोश हो कर वहीं गिर पड़ी.

होश आया तो पूरा घर खुशी में डूबा था. अम्माबाबूजी ने तो सोचा भी न था कि अचानक उन की बेटी को इतना बड़ा घरवर मिल जाएगा. थोड़ी ज्यादा उम्र और एक बेटे का बाप हुआ तो क्या. 11वीं तक पढ़ी शरणार्थी परिवार की गरीब कन्या को कौन ब्याहता. फिर नवीन के हम पर इतने सारे एहसान जो थे.

लेकिन मैं एक भले और आदर्श व्यक्ति को धोखा नहीं देना चाहती थी. चंदन की बेवफाई ने एक ही पल में मु झे परिपक्व बना दिया था. इसलिए मैं नवीन से मिल कर उन्हें सबकुछ बता देना चाहती थी. नवीन की पत्नी बन कर मैं उन के साथ विश्वासघात नहीं करना चाहती थी.

अस्पताल में नवीन उस समय किसी आपरेशन में व्यस्त थे. मुझे वहां लोग जानते थे. मैं उन के कक्ष में बैठी प्रतीक्षा करने लगी. कुछ देर बाद कक्ष का दरवाजा खुला और नवीन ने प्रवेश किया. मु झे वहां बैठा देख कर एक पल वे रुके, फिर हंसते हुए अपनी कुरसी पर बैठ गए.

‘चाय लोगी?’

‘नहीं,’ मैं ने साहस बटोर कर कहा, ‘मैं आप से कुछ कहना चाहती हूं.’

‘बोलो… हां, शाम को खाली हो तो चलो, थोड़ी खरीदारी कर ली जाए. भई, मेरेतुम्हारे बीच उम्र में बहुत अंतर है. फिर लड़कियों की खरीदारी मुझे आती नहीं,’ नवीन बड़े हलके मूड में थे.

‘मैं आप से…’ मेरे शब्द गले में ही अटक कर बाहर आने से इनकार करते रहे.

‘देखो,’ नवीन उठ कर मेरे पास आए और मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर बोले, ‘यदि तुम मेरी ज्यादा उम्र या एक बच्चे के कारण परेशान हो तो चिंता मत करो. मोहित छात्रावास में रहता है, वहीं रह कर पढ़ता रहेगा. मैं तुम्हारा हमउम्र दोस्त बनने का पूरा प्रयास करूंगा.’

उस वक्त मैं नवीन की हथेली में मुंह छिपा कर रो पड़ी. नवीन का इतना विश्वास और प्यार मेरी आंखों से छिपा क्यों रहा? चंदन की  झूठी खुशबू में मैं नवीन के सच्चे प्यार को क्यों न देख सकी? जो व्यक्ति पलपल मार्गदर्शन करता रहा, सहारा देता रहा, उस की उपेक्षा कर क्षणभर के एक कथित प्रेमी के प्रेम में मैं कैसे फिसल गई?

उस क्षण नवीन ने मु झे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया. घर पर बाबूजी की बीमारी और मां की आंखों की चमक ने मुझे होंठ सी लेने पर मजबूर कर दिया था.

हमारी शादी सादगी से हो गई. नवीन मुझे ले कर कुछ दिनों के लिए नैनीताल जाना चाहते थे, लेकिन मैं ने उन्हें शिमला चलने की राय दी. मोहित के साथ कुछ पल गुजार कर मैं उसे अपना ममत्व देना चाहती थी. हरीभरी वादियों में मैं अपने सीने पर रखे बो झ को हलका करना चाहती थी.

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