पीरियड्स पर आधारित फिल्मों को लोग गंभीरता से नहीं लेते- सुशील जांगीरा

अभिनेत्री, ऐंकर, लेखक और निर्देशक सुशील जांगीरा किसी परिचय की मुहताज नहीं हैं. वे ‘खाकी’ और ‘स्पर्श द टच’ सहित कई फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं. 2 साल पहले जब उन्होंने पहली बार लेखक व निर्देशक की हैसियत से लघु फिल्म ‘मेरी रौक स्टार वाली जींस’ बनाई, तो उन्हें ‘दादा साहेब फालके अवार्ड’ कई पुरस्कारों से नवाजा गया.

इन दिनों वे अपनी दूसरी लघु फिल्म ‘फीड आर ब्लीड इंडिया’ को ले कर सुर्खियों में हैं, जोकि सड़क व फुटपाथ पर रहने वाली उन गरीब व भीख मांगने वाली औरतों की मासिकधर्म की परेशानी के साथ यह सवाल उठाती है कि इन की प्राथमिकता भूख को शांत करना है अथवा सैनिटरी पैड को खरीदना. कोरोनाकाल में भी इस फिल्म को करीब 15 राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है.

पेश है, सुशील जांगीरा से हुई ऐक्सक्लूसिव बातचीत:

आप की पिछली फिल्म ‘मेरी रौक स्टार वाली जींस’ को किस तरह के रिस्पौंस मिले?

यह एक लघु फिल्म है, जिसे काफी बेहतरीन रिस्पौंस मिला. यह कईर् मल्टी प्लेटफौर्म पर देखी जा सकती है. इसे दादा साहेब फालके अवार्ड सहित कई पुरस्कार मिले थे. बंगलुरु, पुणे व नासिक के अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहो में इसे पुरस्कृत किया गया. वास्तव में मैं अपनी पहली फिल्म से ही कंटैंट प्रधान फिल्में बनाती आई हूं. इसी वजह से औरतों से संबंधित ज्वलंत मुद्दे पर यह दूसरी लघु फिल्म ‘फीड आर ब्लीड इंडिया’ ले कर आई हूं.

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फिल्म ‘फीड आर ब्लीड इंडिया’ की विषयवस्तु का खयाल आप के दिमाग में  कैसे आया?

यह फिल्म औरतों की माहवारी, उन की निजी सुरक्षा, सैनिटरी पैड व दो वक्त की रोटी के इर्दगिर्द घूमती है. यों तो औरतों की माहवारी व सैनिटरी पैड पर कईर् फीचर, लघु व डौक्यूमैंट्री फिल्में हमारे देश सहित विदेशों में भी बन चुकी हैं, मगर किसी ने इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया कि एक ऐसी औरत जिस के पास अपना सिर छिपाने के लिए छत नहीं है, जोकि फुटपाथ के किनारे बैठी हुई भिखारी औरत है, उस की प्राथमिकता अपनी भूख मिटाना है अथवा निजी स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए सैनिटरी पैड खरीदना है.

मेरे मन में बारबार यह सवाल उठता था कि हम ने इन औरतों को क्यों पीछे छोड़ दिया है. माहवारी को ले कर मु झे या किसी भी अन्य आम औरत को जो समस्याएं हैं, उन से ये गरीब, भिखारी व फुटपाथ पर रह रही औरतें भी गुजरती हैं. उन की जरूरतें अन्य औरतों के समान ही हैं. पर हम सभी ऐसी औरतों को क्यों नजरअंदाज कर देते हैं?

ये महिलाएं भी उतने ही सम्मान की अधिकारी हैं, जितनी छोटेबड़े घरों या महलों में रह रही औरतें हैं. इस के अलावा मैं सोचती थी कि ये सड़क पर बैठ कर किस तरह खुद की व्यवस्था करती हैं? ये किस तरह और कैसे स्नान करती हैं? माहवारी के दिनों में किस तरह खुद को सुरक्षित रखने के उपाय अपनाती हैं? इसी तरह के कई सवालों के जवाब खोजने के मकसद से हम एक दिन अपने 2 सहयोगियों के साथ कैमरा ले कर निकल पड़े. कई दिनों की लगातार जद्दोजहद के बाद जो कुछ फुटेज हम ने इकट्ठे किए थे, उन्हें एक कहानी का रूप दे कर ‘फीड आर ब्लीड इंडिया’ बना डाली.

कैमरा ले कर इन औरतों के पास जाने से पहले आप ने इस विषय पर कोई शोध कार्य किया था या नहीं?

मैं ने इस विषय पर चिंतन किया था, पर इन के संबंध में शोध करने के लिए ही हम कैमरा ले कर इन के पास गए. लेकिन घर से निकलने के पहले मैं ने कईर् सवाल कागज पर लिखे थे और उन सवालों के जवाब ढूंढ़ने के लिए मैं सड़क पर निकली थी. ये सवाल मेरे अंतर्मन से निकले थे कि जिस तरह की समस्याएं मु झे हो रही हैं, उसी तरह की समस्याएं इन औरतों को जब होती हैं, तो ये कैसे संभालती हैं.

इन के पास पेट की भूख को मिटाने के लिए रोटी नहीं है, जबकि हम तो एक सुविधा वाली जिंदगी जी रहे हैं. हमारे पास अच्छी हाईजीन, अच्छी दवाएं व स्वस्थ भोजन सहित सबकुछ उपलब्ध है. पर इन महिलाओं के पास ये सब नहीं है. तो ये महिलाएं कैसे सबकुछ करती हैं. ये सारे सवाल मेरे अंदर की जो कशमकश थी, उस से पैदा हुए थे.

आप किन इलाकों में गए और किस तरह की औरतों से बात की?

मैं ने अपनी इस फिल्म को मुंबई, दिल्ली और अमृतसर में एक साल में फिल्माया है. हम ने यह फिल्मांकन सर्दी, गरमी और बारिश के मौसम में किया है, क्योंकि हर मौसम में समस्याओं के रूप कुछ बदल जाते हैं. मैं ने हर गलीमहल्ले में गए. हम किसी भी गली के फुटपाथ पर चले जाते थे. वहां मौजूद औरतों से बात करते थे.

कई बार जानकारी मिलती तो कई बार नहीं. कई औरतें कुछ भी कहने को तैयार ही नहीं होती थीं. सड़क,  झुग्गी झोंपड़ी, रेलवे पुल आदि हर जगह जगह गए. हम मुंबई में हाजी अली के आसपास, अमृतसर में गोल्डन टैंपल के आसपास, दिल्ली में कनाट प्लेस, मंदिरों के आसपास सभी इलाकों में गए. देखिए अलगअलग मौसम में इन औरतों से जा कर हम ने बात की, क्योंकि गरमी के मौसम में हालात अलग होते हैं, तो सर्दी और बरसात में अलग.

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आप ने काफी काम किया, पर कभी सोचा कि हमारे देश में ऐसे हालात क्यों बने हुए हैं कि आज भी औरतों को अपनी सुरक्षा या सैनिटरी पैड से कहीं अधिक भूख मिटाने को तवज्जो देनी पड़ रही है?

देखिए, एक बहुत पुरानी कहावत है कि भूखे पेट भजन न होय गोपाला… भूख की समस्या मुंह बाए खड़ी है. इस के लिए हमारा सिस्टम ही दोषी है. हमारे यहां आय का विभाजन समान नहीं है. हमारे देश में अमीरी व गरीबी के बीच एक बहुत बड़ी खाई है.

कुछ लोगों के पास इतना भोजन है कि वे हर दिन काफी बचा भोजन फेंक देते हैं तो कुछ लोगों को भरपेट भोजन भी मुहैया नहीं होता. हमारा सिस्टम ही गड़बड़ है. यदि सरकार कुछ सुविधाएं देती है, तो वे नीचे तक नहीं पहुंच पातीं. इस के अलावा इन्हें शिक्षा नहीं मिल रही. यदि इन्हें शिक्षा मिलेगी, तो इन्हें अपने अधिकारों के बारे में पता चलेगा और ये अपने अंदर कुछ स्किल पैदा कर सकेंगी.

कहा जाता है कि भिखारियों का भी रैकेट है?

मैं ने भी सुना है, पर यह अपराध है. इस तरह के रैकेटबाजों को पकड़ने के लिए सरकार को कदम उठाना चाहिए और इन के चंगुल में फंसे छोटे बच्चों को छुड़ा कर उन्हें बेसिक स्किल की शिक्षा दी जाए ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सके.

क्या हमारे देश के एनजीओ भी औरतों की समस्याओं की अनदेखी कर रहे हैं?

मु झे नहीं पता. लेकिन मैं तो ‘सवेरा’ नामक एनजीओ के साथ जुड़ी हुई हूं. वे तो बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. वे तो ह्यूमन हाईजीन, चाइल्ड वैलफेयर, सैनिटरी नैपकिन सहित हर क्षेत्र में काफी काम कर रहे हैं. मैं इस एनजीओ के साथ मिल कर काम कर रही हूं.

मेरी सम झ से सभी एनजीओ औरतों की समस्याओं से वाकिफ होने के साथसाथ उन समस्याओं को ले कर आवाज भी उठा रहे हैं. मैं यह मानती हूं कि सभी के कुछ सकारात्मक व कुछ नकारात्मक पहलू होते हैं. सोशल मीडिया के भी कुछ पौजीटिव व कुछ नैगेटिव पौइंट्स हैं, जिन के पास धन की ताकत नहीं है, जो उच्च श्रेणी के हैं, वे अपनी आवाज आराम से उठा सकते हैं. उन की आवाज सुनी जा सकती है मगर निचले तबके, गरीब, लाचार की आवाज कोई नहीं सुनता. इन की आवाज को सरकार तक पहुंचाने का काम तो मीडिया ही कर सकता है.

सोशल मीडिया में यदि एक आम इंसान कुछ ट्वीट कर दे, तो उसे भी ढेर सारे लोग पढ़ सकते हैं. वह भी आग की तरह फैल सकता है. मीडिया भी अच्छी चीजों को आग की तरह फैला सकता है. पर गरीब, अनपढ़ तो अपनी बात को ट्वीट भी नहीं कर पाते. मैं यह नहीं कहती कि एनजीओ में कोई नकारात्मकता नहीं है. ढेर सारे एनजीओ काफी बेहतरीन काम कर रहे हैं. मैं हर एनजीओ के साथ नहीं जुड़ी हुई हूं.

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एनजीओ ‘सवेरा’ के माध्यम से आप क्याक्या कर रही हैं?

यह एनजीओ नारी उत्थान, बाल उत्थान, ह्यूमन हाईजीन, पर्यावरण के क्षेत्र में काफी अच्छा काम कर रहा. यह संस्था अलगअलग शहरों में कार्यरत है. यह संस्था सैनिटरी नैपकिन के मुद्दे को ले कर जो मैं ने लघु फिल्म बनाई है, उस के लिए भी काम कर रही है.

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