REVIEW: बेहतरीन मनोवैज्ञानिक रोमांचक लघु फिल्म ‘नॉक नॉक नॉक’

रेटिंग: साढ़े तीन स्टार

निर्माताः सुधांशु सरिया
लेखक व निर्देशकः सुधांशु सरिया
कलाकारः शांतिलाल मुखर्जी और फुदेन सेरपा
अवधि: 38 मिनट
ओटीटी प्लेटफार्म: मूबी

2017 में नेटफ्लिक्स पर आयी ‘एलजीबीटी कम्यूनिटी’पर आधारित फिल्म‘‘लव’’( LOEV ) के सर्जक सुधांशु सरिया अब तीस मिनट की एक मनोवैज्ञानिक रोमांचक लघु फिल्म ‘‘नॉक नॉक नॉक’’ लेकर आए हैं, जो कि ओटीटी प्लेटफार्म पर प्रसारित हो रही है. इसमें उन लोगों की कहानी है, जो अपने सिद्धांतों व नियमों पर चलते है, जिसके चलते लोग उन्हे दुतकारते हैं, उनका मजाक उड़ाते हैं, उनकी उपेक्षा करते हैं. सुधांशु सरिया की पिछली फिल्म ‘‘लव’’ ¼LOEV ½ में तीन किरदार थे , जबकि ‘‘नॉक नॉक नॉक’’ में दो किरदार हैं.
सुधांशु सरिया की लघु फिल्म नॉक नॉक नॉक एक गंभीर मुद्दे को संबोधित करती है, जिसमें एक रोमांचक और हास्य कहानी के साथ इसकी सभी जटिलताएं शामिल हैं.

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कहानीः

यह कहानी है एक टैटू कलाकार केता (फुदेन शेरपा) और दार्जिलिंग में केवेंन्टर्स की छत पर हमेशा क्रासवर्ड को हल करने में व्यस्त रहने वाले बुजुर्ग व्यक्ति दादा (शांतिलाल मुखर्जी)की. केता इन बुजुर्ग इंसान को दादा कहना पसंद करता है. एक दिन केता अचानक दादा के सामने एक अजनबी के रूप में प्रकट होता है और दादा के जुनून को सीखने में रुचि दिखाता है. दादा काफी उपेक्षित रहे हैं, इसलिए अब उन्हे इस तरह के घुसपैठिये से चिढ़ है और वह केता का बिल्कुल भी स्वागत नहीं करते हैं. दूसरी ओर केता समझता है कि उसने आखिरकार उस व्यक्ति को पाया है, जिसके समान हित हैं और इसलिए उनके साथ दोस्ती करने के लिए बेताब है.

कहानी धीरे-धीरे यह बताती है कि यह दोनों किरदार अकेले हैं और अपने स्वयं के क्षेत्रों को चिह्नित करके या अपने स्वयं के मिथकों का निर्माण करके अपने लिए सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं. जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, केता, दादा की अनच्छिा के बावजूद अपना रास्ता खोज लेता है. बीच में दादा के बुरे सपने भी हैं. पर कहानी अप्रत्याशित क्षणों के साथ खत्म होती है.

लेखन व निर्देशनः

दो घंटे की फिल्म में दर्शकों को आकर्षित करने के तमाम मसाले पिरोए जा सकते हैं, मगर लगभग चालिस मिनट की लघु फिल्म में कहानी को अक्षुण्ण रखते हुए रसीला, आकर्षक बनाना आसान नही होता है. मगर लेखक व निर्देशक सुधांशु सरिया अपनी लघु फिल्म ‘नॉक नॉक नॉक’ में केवल दो पात्रों के साथ दर्शकों को बांधने में पूरी तरह से सफल रहते हैं. इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह फिल्म दर्शकों को रोमांचित करने के साथ साथ बीच बीच में उनके चेहरे पर मुस्कान भी लाती है, इसके लिए लेखक व निर्देशक बधाई के पात्र हैं.

बतौर लेखक व निर्देशक सुधांशु सरिया इस लघु फिल्म में एक विचित्र और अप्रत्याशित चरमोत्कर्ष पैदा करने में सफल रहे है, जिससे एक स्पष्ट संदेश मिलता है. वह इंसानी मनोविज्ञान की जटिलता को इंगित करने में पूरी तरह से सफल रहे हैं. बतौर लेखक व निर्देशक सुधांशु सरिया इस फिल्म में दो विषम चरित्रों को बहुत गहराई और विस्तार के साथ समान स्तर पर गढ़ने में सफल रहे हैं.

एक तरफ केता, कुंवारा होने के बावजूद, युवा दिमाग के साथ जोखिम लेने के लिए खड़ा है. जबकि शायद दादा कभी केता की तरह थे. लेकिन एकांत के वर्षों और अपने क्षेत्र को चिह्नित करने के जुनून ने उनके दिमाग को एक कोठरी में बदल दिया है, जो परिवर्तन से डरते हैं और युवाओं की अनिश्चितताओं से आशंकित हैं.

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अभिनयः

बंगाली सिनेमा और टेलीविजन के अनुभवी अभिनेता शांतिलाल मुखर्जी ने अपने अभिनय से जिस तरह दादा के जटिल रीति-रिवाजों और रुचियों को परदे पर उकेरा है, उसके लिए उनकी जितनी तारीफ की जाए, उतनी कम है. शांतिलाल मुखर्जी ने दादा के जिद्दी गुण को पूरी तरह से पकड़ लिया और उसे परदे पर यथार्थ रूप में अपने स्वाभाविक अभिनय से उकेरा है. नेपाली मूल के अभिनेता फुदेन शेरपा अपने अभिनय से ‘ताजी हवा की एक सांस‘ के विचार को भरने में पूरी तरह से सफल रहे हैं. यह काफी सराहनीय है कि दोनों कलाकार एक यात्रा के दो अंतिम बिंदुओं पर दिखाई देते हैं.

कैमरामैन अच्युतानंद द्विवेदी अपने कैमरे से दार्जिलिंग की विलक्षणता और शांति को पूरी तरह से पकड़ने में सफल रहे हैं.

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