उसके लिए: अपूर्वा ने प्रणव को क्या जवाब दिया?

वह मुंह फेर कर अपूर्वा के सामने खड़ा था. अपूर्वा लाइबे्ररी में सैल्फ से अपनी पसंद की किताबें छांट रही थी. पैरों की आवाज से वह जान गई थी कि प्रणव है. तिरछी नजर से देख कर भी अपूर्वा ने अनदेखा किया. सपने में यह न सोचा था कि दिलफेंक आशिक किसी दिन इस तरह से आ सकता है. दोनों का यह प्यार परवान तो नहीं चढ़ा, पर दिलफेंकों के लिए जलन का सबब रहा. प्रणव तो अपूर्वा की सीरत और अदाओं पर ही क्या काबिलीयत पर भी फिदा था. रिसर्च पूरी होने तक पहुंचतेपहुंचते एक अपूर्वा ही उस के मन चढ़ी. मन चढ़ने के प्रस्ताव को उस के साथ 2 साल गुजारते भी उगल न सका.

अपूर्वा प्रणव की अच्छी सोच की अपनी सहेलियों के सामने कई बार तारीफ कर चुकी थी. मनचले और मसखरे भी प्रणव को छेड़ते, ‘अपूर्वा तो बनी ही आप के लिए है.’ कुछ मनचले ऐसा कहते, ‘यह किसी और की हो भी कैसे सकती है? यह ‘बुक’ है, तो सिर्फ आप के वास्ते.  कुछ कहते, ‘इसे तो कोई दिल वाला ही प्यार कर सकता है.’

अपूर्वा के सामने आने का फैसला भी प्रणव का एकदम निजी फैसला था. यह सब उस ने अपूर्वा के दिल की टोह लेने के लिए किया था कि वह उसे इस रूप में भी पसंद कर सकती है या नहीं. प्रणव ने बदन पर सफेद कपड़ा पहन रखा था और टांगों पर धोतीनुमा पटका बांधा था. पैरों में एक जोड़ी कपड़े के बूट थे. माथे पर टीका नहीं था. अपूर्वा रोज की तरह लाइब्रेरी में किताबें तलाशने में मगन थी. प्रणव दबे पैर उस के बहुत करीब पहुंचा और धीमे से बोला, ‘‘मिस अपूर्वा, मुझे पहचाना क्या?’’

अपूर्वा थोड़ा तुनकते हुए बोली, ‘‘पहचाना क्यों नहीं…’’ फिर वह मन ही मन बुदबुदाई, ‘इस रूप में जो हो.’

प्रणव ने कनैक्शन की गांठ चढ़ाने के मकसद से फिर पूछा, ‘‘मिस अपूर्वा, मैं ने आप के पिताजी को अपनी कुछ कहानियों की किताबें आप के हाथ भिजवाई थीं. क्या आप ने उन्हें दे दी थीं?’’

‘‘जी हां, दे दी थीं,’’ वह बोली.

‘‘आप के पिताजी ने क्या उन्हें पढ़ा भी था?’’

‘‘जी हां, उन्होंने पढ़ी थीं,’’ अपूर्वा ने छोटा सा जवाब दिया.

‘‘तो क्या आप ने भी उन्हें पढ़ा था?’’

‘‘हां, मैं ने भी वे पढ़ी हैं,’’ किताबें पलटते व छांटते हुए अपूर्वा ने जवाब दिया और एक नजर अपने साथ खड़ी सहेली पर दौड़ाई.

सहेली टीना ने बड़ी मुश्किल से अपनेआप को यह कहते हुए रोका, ‘‘रसिक राज, उन्हें तो मैं ने भी चटकारे लेते गटक लिया था. लिखते तो आप अच्छा हो, यह मानना पड़ेगा. किसी लड़की को सस्ते में पटाने में तो आप माहिर हो. चौतरफा जकड़ रखी है मेरी सहेली अपूर्वा को आप ने अपने प्रेमपाश में.’’ प्रणव ने फिर हिम्मत जुटा कर पूछा, ‘‘मिस अपूर्वा, क्या मैं उन किताबों की कहानियों में औरत पात्रों के मनोविज्ञान पर आप की राय ले सकता हूं? क्या मुझे आज थोड़ा वक्त दे सकती हैं?’’ अपूर्वा इस बार जलेकटे अंदाज में बोली, ‘‘आज तो मेरे पास बिलकुल भी समय नहीं है. हां, कल आप से इस मुद्दे पर बात कर सकती हूं.’’

प्रणव टका सा जवाब पा कर उन्हीं पैरों लाइब्रेरी से बाहर आ गया. अगले कल का बिना इंतजार किए लंबा समय गुजर गया, साल गुजर गए. इस बीच बहुतकुछ बदला. अपूर्वा ने शादी रचा ली. सुनने में आया कि कोई एमबीबीएस डाक्टर था. खुद प्रोफैसर हो गई थी. बस… प्रणव ने सिर्फ शादी न की, बाकी बहुतकुछ किया. नौकरीचाकरी 3-4 साल. संतों का समागम बेहिसाब, महंताई पौने 4 साल.

65 साल का होने पर लकवे ने दायां हिस्सा मार दिया. लिखना भी छूट गया. नहीं छूटा तो अपूर्वा का खयाल. लंगड़ातेलंगड़ाते भाई से टेर छेड़ता है अनेक बार. कहता है, ‘‘भाई साहब, वह थी ही अपूर्वा. जैसा काम, वैसा गुण. पढ़नेलिखने में अव्वल. गायन में निपुण, खेलकूद में अव्वल, एनसीसी की बैस्ट कैडेट, खूबसूरत. सब उस के दीवाने थे. ‘‘वह सच में प्रेम करने के काबिल थी. वह मुझ से 9 साल छोटी थी. मैं तो था अनाड़ी, फिर भी उस ने मुझे पसंद किया.’’

प्रणव का मन आज बदली हुई पोशाक में भी अपूर्वा के लिए तड़प रहा है. भटक रहा है. उसे लगता है कि अपूर्वा आज भी लाइब्रेरी की सैल्फ से किताबें तलाश रही है, छांट रही है. एनसीसी की परेड से लौट रही है. वह उसे चाय पिलाने के लिए कैंटीन में ले आया है. पहली बार पीले फूलदार सूट में देखी थी अपने छोटे भाई के साथ. रिसैप्शन पार्टी में उस ने सुरीला गीत गया था. श्रोता भौंचक्क थे.

प्रणव ने कविता का पाठ किया था. इस के बाद पहली नजर में जो होता है, वह हुआ. कविताकहानियों की पोथियां तो आईं, पर रिसर्च पूरी नहीं हुई. वह अभी भी जारी है. 40-45 सालों के बाद भी ये सारे सीन कल की बात लगते हैं. बारबार दिलोदिमाग पर घूमते हैं. वह कल आज में नहीं बदल सकता, प्रणव यह बात अच्छी तरह जानता है. वह आज सिर्फ अपूर्वा की खैर मांगता है. उस की याद में किस्सेकहानियां गढ़ता है. उस की खुशहाली के गीत रचता है.

डा. प्रत्यूष गुलेरी

ऐ दिल है मुश्किल: सोहम के बारे में सोचकर वह क्यों बेचैन हो उठती थी?

देखने सुनने व पढ़ने वालों को तो यही लगेगा कि मैं कोई चरित्रहीन स्त्री हूं पर मुझे समझ नहीं आता कि क्या मैं इन दिनों सचमुच एक चरित्रहीन स्त्री की तरह व्यवहार कर रही हूं. अपने मनोभाव प्रकट करना, किसी को अपने दिल की बात समझाना मेरे लिए बहुत मुश्किल है. वैसे भी, दिल की मुश्किल बातें समझनासमझाना सब के लिए आसान है क्या? मैं रश्मि, एक विवाहित स्त्री, एक युवा बेटी पलाक्षा की मां और एक बेहद अच्छे इंसान अजय की पत्नी, अगर किसी विवाहित परपुरुष में दिलचस्पी ले कर अपने रातदिन का चैन खत्म कर लूं तो क्या कहा जाएगा इसे?

मुझे अजय से कोई शिकायत नहीं, पलाक्षा से भी बहुत प्यार है. फिर, सोहम के लिए मैं इतनी बेचैन क्यों हूं, समझ नहीं आता. उस की एक झलक पाने के लिए अपने फ्लैट के कोनेकोने में भटकती रहती हूं. वह जहांजहां से दिख सकता है वहांवहां मंडराती रहती हूं रातदिन. अगर कोई ध्यान से मेरी गतिविधियों को देखे तो उसे मेरी हालत किसी 18 साल की प्यार में पड़ी चंचल किशोरी की तरह लगेगी. और मैं शक के घेरे में तुरंत आ जाऊंगी. पर उम्र के इस पड़ाव पर जैसी मैं दिखती हूं, मेरे बारे में कोई यह सोच भी नहीं सकता कि क्या अंतर्द्वंद्व मचा रहता है मेरे दिल में.

मैं बिलकुल नहीं चाहती कि मैं किसी परपुरुष की तरफ आकर्षित होऊं. पर क्या करूं, दिल पर कभी किसी का जोर चला है, जो मेरा चलेगा. लेकिन नहीं, यह भी नहीं कह सकते. सोहम का चलता है न अपने दिल पर जोर. मुझ में रुचि रखने के बाद भी वह कितनी मर्यादा, कितनी सीमा में रहता है. उस की पत्नी है,

2 बच्चे हैं, कितना मर्यादित, संतुलित व्यवहार है उस का. अपने प्रति मेरा आकर्षण भलीभांति जान चुका है वह. अपने औफिस के लिए निकलते समय उस के इंतजार में खिड़की में खड़े मुझे देखा है उस ने. फिर जब वह वापस आता है उस ने वहीं खड़े देखा है मुझे.

अपनी बेचैनियों से मैं कितनी थकने लगी हूं? बाहर से सबकुछ शांत लगता है, पर मेरे भीतर ही भीतर भावनाओं का तूफान उठता है. कभीकभी मेरा मन करता है अजय से कहूं, कहीं और फ्लैट ले लें या हम यहां से कहीं और चले जाएं पर यह बात मेरी जबान पर कभी आ ही नहीं पाती. उलटा, ऐसी बातों के छिड़ने पर मेरे मुंह से झट निकलता है कि मैं तो इस फ्लैट में मरते दम तक रहूंगी. कभी मन करता है कि उस के बारे में सोचने से बचने के लिए लंबी छुट्टियों पर कहीं चली जाऊं. पर कोई लंबा प्रोग्राम बनते ही मैं उसे 3 या 4 दिन का कर देती हूं. मैं कहां रह सकती हूं इतने दिन सोहम को बिना देखे. कभी सोचती हूं अपने बैडरूम की खिड़की पर हमेशा परदा खींच कर रखूं ताकि मेरा ध्यान सोहम की तरफ न जाए. पर होता कुछ और ही है. 6 बजे उठते ही आंखें पूरी तरह खुलने से पहले ही मैं अपने बैडरूम की खिड़की का परदा हटा देती हूं, जिस से सोहम अपने बैडरूम में अपनी पत्नी की, बच्चों की स्कूल जाने में, मदद करता दिख जाए.

मैं ने देखा है वह एक नजर मेरी खिड़की पर डालता है, फिर अपने कामों में लग जाता है. हां, बस एक नजर. मैं ने उसे कभी बेचैनी से मेरी ओर देखते नहीं देखा और मैं आंख खुलने से ले कर रात को बैड पर जाने तक हरपल उसी के बारे में सोचती हूं. वह अपने बच्चों को स्कूल बस में बिठाने के लिए निकलता है, फिर 15 मिनट बाद वापस आता है, फिर उस की पत्नी औफिस जाती है. शाम को पहले घर वही आता है. फिर, अपने बच्चों को ले कर पार्क जाता है. 2 साल पहले मेरी बेचैनियों का यह सिलसिला वहीं से तो शुरू हुआ था. एकदूसरे को देखना, फिर हायहैलो, फिर नाम की जानपहचान. बस, फिर इस के आगे कभी कुछ नहीं.

हैरान हूं मैं अपने दिल की हालत पर, क्यों मैं उस के आगेपीछे किसी बहकी सी पागलप्रेमिका की तरह रातदिन घूमती हूं. क्या हो गया है मुझे? सबकुछ तो है मेरे पास. मुझे उस से कुछ भी नहीं चाहिए. फिर यह क्या है जो उस के सिवा कुछ ध्यान नहीं रहता. हर समय वह अपने वजूद के साथ मुझे अपने आसपास महसूस होता है. उस की मर्यादित चालढाल, उस की बोलती सी आंखें, मुझे देख कर उस की रहस्यमयी मुसकराहट सब हर समय मेरे दिल पर छाई रहती हैं. रात में उस के फ्लैट की लाइट बंद होने तक मेरी नजरें वहीं गड़ी रहती हैं. वह गाना है न, ‘तुझे देखदेख कर है जगना, तुझे देख कर है सोना…’ मुझे अपने ऊपर बिलकुल फिट लगता है. पर इस उम्र में, इस स्थिति में सोहम की तरफ मेरा यों खिंचा जाना.

मेरी तबीयत कभीकभी इस बेचैनी से खराब हो जाती है. अजीब सा तनाव रहने लगता है. दिनभर एक अपराधबोध सालता कि एक परपुरुष की तरफ खिंच कर मैं अपना कितना समय खराब करती हूं. मेरे लिए समाज में रहते हुए उस के नियमों की अवहेलना करना संभव नहीं है. मैं अजय की प्रतिष्ठा भी कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.

पहले मुझे घर के कामों से, अपने सामाजिक जीवन से फुरसत नहीं मिलती थी. अब? अब मैं घर से ही नहीं निकलना चाहती. दोस्तों के बुलाने पर न मिलने के बहाने सोचती रहती हूं. पूरा दिन यह अकेलापन अच्छा लगने लगा है. किसी से बात करने की जरूरत ही नहीं लगती. सोहम के औफिस जाने के बाद मैं अपने काम शुरू करती हूं. उस के आने तक फारिग हो कर अपने फ्लैट से उसे देखने के मौके और जगहों पर भटकती रहती हूं. कभीकभी इधरउधर बेवजह कुछ करते रहने से थक कर बिस्तर पर पड़ जाती हूं. पता नहीं, तब कहां से कुछ आंसू पलकों के कोनों से अचानक बह निकलते हैं. जो घाव किसी को दिखाए भी न जा सकें, वे ज्यादा ही कसकते हैं.

बहुत मुश्किल में हूं. बहुतकुछ कर के देख लिया. सोहम से ध्यान नहीं हटा पाती. क्या करूं, कहां चली जाऊं. कहीं जा कर तो और बेचैन रहती हूं, फौरन लौट आती हूं. क्या करूं जो इस दिल को करार आए. अजय और पलाक्षा तो इसे मेरा गिरता स्वास्थ्य और थकान समझ कर रातदिन मेरा ध्यान रख रहे हैं. तब, मैं और अपराधबोध से भर उठती हूं. दिल की बातें इतनी उलझी हुई, इतनी मुश्किल क्यों होती हैं कि कोई इलाज ही नहीं दिखता और वह भी मेरी उम्र में कि जब किसी भी तरह की कोई उम्मीद ही नहीं है. इस दिल को कब और कैसे करार आएगा, इस अतर्द्वंद्व का कोई अंत कब होगा? और क्या अंत होगा? ऐसा क्या होगा जो मेरा ध्यान सोहम की तरफ से हट जाएगा? कहते हैं कि समय हर बात का जवाब है. अगर ऐसा है तो बस, इंतजार है मुझे उस समय का.

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