सरकार की एक और भूल

इंटरनैट ट्रोलों की भगवा सेना के मालदीव बायकौट आक्रमण के बावजूद मालदीव ने भारतीय सेना को 15 मार्च तक मालदीव का अपना ठिकाना बंद करने को कह दिया है. राष्ट्रपति मोहम्मद मुइज्जू ने चीन में शी जिनपिंग से मुलाकात कर के लौटने के तुरंत बाद यह घोषणा ही नहीं की, यह भी कह डाला कि हम छोटे हैं तो इस का मतलब यह नहीं कि  हरकोई हमें बुली कर सकता है.

यह भारत की विदेश नीति में एक और ईंट का खिसकना है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस का एहसास होने लगा था इसलिए उन्होंने विदेश मंत्रालय धीरेधीरे विदेश मंत्री जयशंकर को सौंप दिया था और खुद राममंदिर में लग गए थे. 2014 से 2019 तक जब सुषमा स्वराज विदेश मंत्री थीं, उन्हें कभी कोई पौलिसी निर्णय तक नहीं लेने दिया था पर अब सारी मुलाकातें जयशंकर ही करते हैं. प्रधानमंत्री के विदेशी दौरे भी कम हो गए हैं और बड़े देशों के नेता तभी भारत आते हैं जब कोई सामान बेचना हो.

मालदीव का रूठना वैसे सामरिक या कूटनीतिक दृष्टि से कोई ज्यादा मतलब का नहीं है. बड़े देशों के निकट के छोटे देश आमतौर पर बड़े देश से नाराज ही चलते हैं क्योंकि बड़ा देश अपनी धौंस जमाए बिना नहीं रहता. यह वैसा ही है जैसा रिहायशी कालोनियों या सोसायटियों में होता है, जहां बड़े मकान वाले दबाव डाल कर अपनी मनमानी कर डालते हैं क्योंकि जब वे अपने आलीशान मकान पर 56 तरह के खाने खिलाते हैं तो पड़ोसी सकुचा ही जाते हैं.

भारत बड़ा चाहे हो पर उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि मालदीव, श्रीलंका, बंगलादेश, भूटान प्रति व्यक्ति औसत आय में भारत से आगे हैं, पीछे नहीं. भारत भारीभरकम हिप्पो हो सकता है पर वह छोटे खरगोश की तरह चपल और फुरतीला नहीं है.

मालदीव अपनी भौगोलिक पोजीशन और अपने लोगों की अच्छी कमाई के कारण भारत से ज्यादा पर्यटकों का आकर्षण है और इसीलिए भारत के लाखों पर्यटक हर साल वहां जा कर साफ हवा और सुंदर होटलों का आनंद लेते हैं. भारत के अमीरों के लिए अब देश के पर्यटन स्थल केवल तीर्थ रह गए हैं.

भारत सरकार की तरह भारत के अमीर भी आजकल मालदीव, श्रीलंका नहीं अयोध्या जा रहे हैं ताकि उन की संपत्ति पर रामजी की कृपा बनी रहे. हमारी विदेश नीति में क्या हो रहा है यह किसी के न पल्ले पड़ता है, न कोई चिंता करता है.

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