पुनर्मरण: क्या अपराधिनी का दाग हटा पाई संध्या

कुछ सजा ऐसी भी होती है जो बगैर किसी अपराध के ही तय कर दी जाती है. उस दिन अपने परिवार के सामने मैं भी बिना किसी किए अपराध की सजा के रूप में अपराधिनी बनी खड़ी थी. हर किसी की जलती निगाहें मुझे घूर रही थीं, मानो मुझ से बहुत बड़ा अपराध हो गया हो.

मांजी की चलती तो शायद मुझे घर से निकाल दिया होता. मेरे दोनों बेटे त्रिशंक और आदित्य आंगन में अपनी दादी के साथ खड़े थे. पंडितजी कुरसी पर बैठे थे और मांजी को समझा रहे थे कि जो हुआ अच्छा नहीं हुआ. अब विभु की आत्मा की शांति के लिए उन्हें हवन- पूजा करनी होगी.. भारी दान देना होगा, क्योंकि आप की बहू के हाथों भारी पाप हो गया है.

मेरा अपना बड़ा बेटा त्रिशंक मुझे हिकारत से देखते हुए क्रोध में बोला, ‘‘मेरा अधिकार आप का कैसे हो गया, मां? यह आप ने अच्छा नहीं किया.’’

‘‘परिस्थितियां ऐसी थीं जिन में एक के अधिकार के लिए दूसरे के शरीर की दुर्गति तो मैं नहीं कर सकती थी, बेटे,’’ भीगी आंखों से बेटे को देखते हुए मैं ने कहा.

‘‘मजबूरी का नाम दे कर अपनी गलती पर परदा मत डालिए, मां.’’

तभी मांजी गरजीं, ‘‘बड़ी आंदोलनकारी बनती है. अरे, इस से पूछ त्रिशंक कि विभु के कुछ अवशेष भी साथ लाई है या सब वहीं गंगा में बहा आई.’’

‘‘बोलो न मां, चुप क्यों हो? दो जवाब दादी की बातों का.’’

‘‘कैसी बातें कर रहे हो भैया, आखिर पापा पर पहला हक तो मां का ही था न?’’

‘‘चुप बेसऊर,’’ मांजी फिर गरजीं, ‘‘पति की मौत पर पत्नी को होश ही कहां होता है जो वह उस का अंतिम संस्कार करे, इसे तो कोई दुख ही न हुआ होगा, आजाद जो हो गई. अब करेगी समाज सेवा जम कर.’’

‘‘चुप रहिए,’’ मेरी सहनशक्ति जवाब दे गई और मैं गरज पड़ी, ‘‘मेरा कुसूर क्या है? किस बात की सजा दे रहे हैं आप सब मुझे. यही न कि मैं ने अपने पति का उन की मौत के बाद अंतिम संस्कार क्यों कर दिया, तो सुनिए, वह मेरी मजबूरी थी. क्षतविक्षत खून से सनी लाश को मैं 2 दिन तक कैसे संभालती. कटरा से कोलकाता की दूरी कितनी है, क्या आप सब नहीं जानते? मेरे पास कोई साधन नहीं था. कैसे ले कर आती उन्हें यहां तक? फिर अपने पति का, जो मेरे जीवनसाथी थे, हर दुखसुख के भागीदार थे, अंतिम संस्कार कर के मैं ने क्या गलत कर दिया?’’

मेरी आवाज भर्रा गई और मैं ऊपर अपने कमरे में आ गई. मेरी दोनों बहुएं रेवती और रौबिंका भी मेरे पीछेपीछे ऊपर आ गईं. मेरी छोटी बहू रशियन थी. उस की समझ में जब कुछ नहीं आया तो वह अंगरेजी में बस यही कहती रही, ‘‘पापा की आत्मा के लिए प्रार्थना करो, वही ज्यादा जरूरी है, यह कलह क्यों हो रही है.’’

मैं उसे क्या समझाती कि यहां हर धार्मिक अनुष्ठान शोरगुल और चिल्लाहट से ही शुरू होता है. कहीं पढ़ा था कि झूठ को जोर से बोलो तो वह सच बन जाता है. यही पूजापाठ का मंत्र भी है, जो पुजारी जितनी जोर से मंत्र पढे़गा, वह उतना ही बड़ा पंडित माना जाएगा.

मेरी आंखों में आंसू आ गए जो मेरे गालों पर बह निकले. विभु की मौत हो गई है. मेरा सबकुछ चला गया, मैं इस का शोक भी शांति से नहीं मना पा रही हूं. कमरे की खिड़की का परदा जरा सा खिसका हुआ था. दूर गगन में देखते हुए मैं अतीत में चली गई.

बचपन से ही मैं दबंग स्वभाव की थी. मम्मी और पापा दोनों ही नौकरी में थे. घर पर मैं और मुझ से छोटा भाई बस, हम दोनों ही रहते. मां ने यही सिखाया था कि कभी अन्याय न करना और न सहना. हमेशा सच का साथ देना. मेरा पूरा परिवार खुले विचारों का था. मेरी परवरिश इस तरह के माहौल में हुई तो जाहिर है मैं रूढि़यों को न मानने वाली और हमेशा सही का साथ देने वाली बन गई.

बी. एड. में मैं ने प्रवेश लिया था. पहला साल था कि विभु के घर से विवाह के लिए रिश्ता आ गया. मैं शादी से कतरा रही थी पर मां ने समझाया, ‘शुचि, विभु प्रवक्ता है. यानी एक पढ़ालिखा इनसान. तेरा भी पढ़ाई में रुझान ज्यादा है. शादी कर ले, वह तुझे अच्छी तरह समझेगा और जितना पढ़ना चाहेगी पढ़ाएगा भी.’

शादी के बाद जब मैं विभु के घर पहुंची तो यह देख कर आश्चर्य में पड़ गई कि विभु बेहद धार्मिक प्रवृत्ति के थे. विभु ने शादी की रात में ही मुझ से कह दिया था, ‘शुचि, मैं पूजापाठ करता हूं, पर तुम से इतना वादा करता हूं कि तुम्हें यह सब करने के लिए मैं कभी बाध्य नहीं करूंगा. हां, जहां जरूरत होगी वहां साथ जरूर रखूंगा.’

उन दिनों मेरी बी. एड. की परीक्षा चल रही थी, नवरात्र का समय था. सुबह विभु उठ कर शंख, घंटी से पूजा करते. मेरी आदत सुबहसुबह उठ कर पढ़ने की थी. इस शोर से मैं पढ़ नहीं पाती. आखिर मैं ने विभु से कह दिया. उस दिन से विभु मौन पूजा करने लगे. बल्कि मां को भी सुबह जोर से मंत्रोच्चारण करने को मना कर दिया.

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हमारा जीवन एक खुशहाल जीवन कहा जा सकता है. शादी के शुरुआती दिनों में हम जहां भी घूमने जाते वहां के मंदिरों में जरूर जाते. मैं तटस्थ ही रहती थी, कभी भी विभु को इस के लिए मना नहीं करती. आखिर अपनीअपनी जिंदगी अपने तरीके से जीने का सभी को हक है. जब मैं अपना खाली समय पत्रिकाओं को पढ़ने में बिताती तो विभु भी नहीं बोलते. हमारे प्यार के बीच एक आपसी समझौता हम दोनों ने कर रखा था.

4 वर्ष बाद त्रिशंक पैदा हुआ. बी.एड. के बाद मैं नौकरी करने लगी थी. त्रिशंक दादी के पास रहता और उस का बचपन दादी की परी, बेताल और धार्मिक किस्सेकहानियों में बीता. इसी कारण वह बचपन से धर्म के मामले में संकीर्ण हो गया.

आदित्य के समय तक मैं ने नौकरी छोड़ दी. अपना पूरा समय मैं बच्चों और परिवार में बिताती. बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते थे. एक ने कंप्यूटर विज्ञान में इंजीनियरिंग की, दूसरा अमेरिकन बैंक में लग गया. दोनों ही विदेश चले गए. बड़े ने मेरी देखी हुई लड़की से शादी की परंतु छोटे ने विदेश मेें अपनी एक सहकर्मी के साथ विवाह कर लिया. उस के विवाह में हम सब गए थे. मांजी खूब बड़बड़ाई थीं पर विभु नाराज नहीं हुए थे.

विभु का रिटायरमेंट करीब था. मेरे पास भी समय था. बच्चों के बाहर बसने से मेरे लिए कुछ करने को रह ही नहीं गया था, सो मैं समाजसेवा से जुड़ गई.

एक दिन बैठेबैठे यों ही विभु के मुंह से निकल गया, ‘शुचि, हमारी सारी जिम्मेदारियां पूरी हो गई हैं. चलो, तीर्थ कर आएं.’

मैं हंस दी तो वह भी हंस दिए. बोले, ‘मैं जानता हूं शुचि, तुम पूजापाठ में विश्वास नहीं रखती हो. पर मैं मजबूर हूं. बचपन से ही मां ने मेरे अंदर यह भावना बिठा दी है कि भगवान ही सबकुछ है. जो कुछ भी करो उसे सपर्पित कर के करो. बस, मैं यही कर रहा हूं.’

मैं ने अनायास ही पूछ लिया, ‘आप ने ईश्वर देखा है क्या?’

‘नहीं, पर मैं मानता हूं कि यह धरती, आकाश, परिंदे और वृक्षों को बनाने वाला ईश्वर है.’

विभु थोड़ी देर शांत बैठे रहे, फिर बाहर टहलने चले गए. उन के ध्यान और योग को मैं अच्छा मानती थी. इन दोनों चीजों से व्यक्ति का मस्तिष्क और शरीर दोनों ही स्वस्थ होते हैं.

जुलाई का महीना था. अपने तय कार्यक्रम के अनुसार हम हिमाचल प्रदेश के प्राकृतिक नजारों को देखते धार्मिक स्थानों पर घूमते हुए कटरा पहुंचे थे ताकि वैष्णोदेवी का स्थान देख कर दर्शन कर सकें. कई दिनों की लगातार थकावट से बदन का पोरपोर दुख रहा था. विभु को तभी सांस की तकलीफ होने लगी थी. बाणगंगा पर ही मैं ने जिद कर के उन के लिए घोड़ा करवा दिया ताकि उन की सांस की तकलीफ और न बढ़े.

घोड़े पर बैठ कर जब हम चले तो मुझे डर भी लग रहा था. यह घोड़े अजीब होते हैं. कितनी भी जगह हो पर चलेंगे एकदम किनारे. गजब की सधी हुई चाल होती है इन की. नीचे झांको तो कलेजा मुंह को आ जाए, गहरीगहरी खाइयां.

सवारी की वजह से हम जल्दी ही मंदिर देख कर नीचे वापस आ गए. हमारी इस यात्रा में पटना का एक परिवार भी शामिल हो गया. मेरा थकावट से बुरा हाल था. रात हो गई थी. लौटतेलौटते भूख भी लग रही थी और विश्राम करने की इच्छा भी हो रही थी.

पटना वालों ने बताया कि नीचे बाणगंगा के पास लंगर चलता है, चल कर वहीं भोजन करते हैं. घोड़े वाले ने कहा कि भोजन कर के चले चलिए तो रात में ही होटल पहुंच जाएंगे. फिर वहां आराम करिएगा.

लंगर में लोग खाने के लिए लाइन लगाए खड़े थे. सब तरफ हलवा बांटा जा रहा था. मैं ने गौर किया कि थालियां ठीक से धुली नहीं थीं फिर भी उन में खाना परोस दिया जा रहा था. थालियां ऐसे बांटी जा रही थीं मानो हाथ नहीं मशीन हो. मैं विभु के साथ हाथमुंह धो कर बैठ गई.

‘चलो, दर्शन हो गए, अब घर चल कर एक हवन करा लेंगे.’

मैं होंठ दबा कर हंसी तो विभु ने मुंह दूसरी तरफ फेर लिया. हवन का आशय मेरी समझ से दूसरा था. पिताजी ने ही एक बार समझाया था कि हवन के धुएं से पूरा घर साफ हो जाता है. कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं.

भोजन की लाइन में बैठ विभु उस समय काफी तरोताजा लग रहे थे. चारों तरफ गहमागहमी थी. लंगर की यह विशेषता मुझे अच्छी लगती है, जहां एक ही कतार में सेठ भी खाते हैं और उन के मातहत भी. यहां कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है.

अचानक मुझे जोर की उबकाई आई. मैं उठ कर बाहर भागी. शायद कुछ न खाने की वजह से पेट में गैस बन गई थी. मैं मुंह धो कर हटी ही थी कि एक जोर का धमाका हुआ और  सारा वातावरण धुएं और धूल से भर गया. लोग जोरजोर से चीखनेचिल्लाने लगे, एकदूसरे पर गिरने लगे. विभु का ध्यान आते ही मैं पागलों की तरह उधर भागी पर वहां धुएं की वजह से कुछ दिखाई नहीं दे रहा था. 10 मिनट भी न गुजरे होंगे कि एक और जोरदार धमाका हुआ. आतंकवादियों ने कहीं से गोले फेंके थे. मेरे पेट में जोर की ऐंठन हुई और लाख न चाहने के बावजूद मैं अचेत हो कर वहीं गिर पड़ी.

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मुझे जब होश आया, भगदड़ कुछ थम गई थी. मैं जमीन पर एक तरफ पड़ी थी. प्रेस वाले और पुलिस वाले वहां मौजूद थे. मैं ने हिम्मत कर के उठने की कोशिश की. मैं जानना चाहती थी कि विभु कहां हैं. पर किस से पूछती, हर कोई अपने साथ वाले के लिए बेचैन था. लोग आपस में बात कर रहे थे कि आतंकवादियों ने कहीं से बम फेंका है जिस में लगभग 7 लोगों की जान चली गई है. कई गंभीर अवस्था में घायल पड़े हैं जिन्हें कटरा अस्पताल ले जाया जा रहा है.

मैं अपने पांवों को घसीटते हुए उधर गई जहां बैठ कर विभु भोजन कर रहे थे. देखा, वहां चावल, रोटी के बीच खून की धारें बह रही थीं. शरीर के चिथड़े बिखरे पड़े थे. इस विस्फोट ने माता के कई भक्तों की जानें ले ली थीं. मुझे विभु कहीं नजर नहीं आए. मैं जिसे देखती उसी से पूछती, ‘क्या आप ने विभु को देखा है?’ पर मेरे विभु को वहां जानता ही कौन था. कौन बताता भला.

घायलों की तरफ मैं गई तो विभु वहां भी नहीं थे. तभी मेरा कलेजा मुंह को आ गया. पांव बुरी तरह कांपने लगे. थोड़ी दूर पर विभु का क्षतविक्षत शव पड़ा हुआ था. मैं बदहवास सी उन के ऊपर गिर पड़ी. मैं चीख रही थी, ‘कोई इन्हें बचा लो…यह जिंदा हैं, मरे नहीं हैं.’

मेरी चीख से एक पुलिस वाला वहां आया. विभु का निरीक्षण किया और सिर हिला कर चला गया. मैं चीखतीचिल्लाती रही, ‘नहीं, यह नहीं हो सकता, मेरा विभु मर नहीं सकता.’ सहानुभूति से भरी कई निगाहें मेरी तरफ उठीं पर मेरी सहायता को कोई नहीं आया.

इस आतंकवादी हमले के बाद जो भगदड़ मची उस में मेरा पर्स, मोबाइल सभी जाने कहां खो गए. मैं खाली हाथ खड़ी थी. किसे अपनी सहायता के लिए बुलाऊं. विभु को ले कर कोलकाता तक का सफर कैसे करूंगी?

मैं ने हिम्मत की. विभु को एक तरफ लिटा कर मैं गाड़ी की व्यवस्था में लग गई. पर मुझे विभु को ले जाने से मना कर दिया गया. पुलिस का कहना था कि लाशें एकसाथ पोस्टमार्टम के लिए जाएंगी. मैं विभु को यों नहीं जाने देना चाहती थी पर पुलिस व्यवस्था के आगे मजबूर थी.

मेरा मन क्षोभ से भर गया, धर्म के नाम पर यह आतंकवादी हमले जाने कब रुकेंगे. क्यों करते हैं लोग ऐसा? मैं सोचने लगी, मेरे पति की तरह कितने ही लोग 24 घंटे के भीतर मर गए हैं. क्या गुजर रही होगी उन परिवारों पर. मैं खुद अनजान जगह पर विवश और परेशान खड़ी थी.

विभु का शव मिलने में पूरा दिन लग गया. मेरे पास पैसा भी नहीं था. एक आदमी मोबाइल लिए घूम रहा था, मैं ने उस से विनती कर के अपने घर फोन मिलाया. घंटी बजती रही, किसी ने फोन नहीं उठाया. मांजी शायद मंदिर गई होंगी. फिर मैं ने बड़े बेटे का नंबर लगाया तो वह सुन कर फोन पर ही रोने लगा, ‘मां, हम जल्दी ही पहुंचने की कोशिश करेंगे पर फिर भी आने में 3 दिन तो लग ही जाएंगे. आप कोलकाता पहुंचिए. हम वहीं पहुंचेंगे.’

विभु का मृत शरीर मेरे पास था. कोई भी गाड़ी वाला लाश को कोलकाता ले जाने को तैयार नहीं हुआ. मैं परेशान, क्या करूं. उधर दूसरे दिन ही विभु का शरीर ऐंठने लगा था. कुछ लोगों ने सलाह दी कि इन का अंतिम संस्कार यहीं कर दीजिए. आप अकेली इन्हें ले कर इतनी दूर कैसे जाएंगी?

विभु जीवन भर पूजापाठ करते रहे. क्या इसी मौत के लिए विभु भगवान को पूजते रहे?

विभु के बेजान शरीर की और छीछालेदर मुझ से सही नहीं गई. मैं ने सोचा, यहीं गंगा के किनारे उन का अंतिम संस्कार कर दूं. कुछ लोगों की सहायता से मैं ने यही किया. विभु का पार्थिव शरीर अनंत में विलीन हो गया. मेरे आंसू सूख चुके थे. मेरे आंसुओं को पोंछने वाला हाथ और सहारा देने वाला संबल दोनों ही छूट गए थे.

मेरी तंद्रा किसी के स्पर्श से टूटी. जाने कितनी देर से मैं बिस्तर पर इसी हाल में पड़ी रह गई थी. दोनों बहुएं मेरे अगलबगल बैठी थीं और छोटी बहू का हाथ मेरे केशों को सहला रहा था.

‘‘उठिए, मां.’’

मैं ने धीमे से अपनी आंखें खोलीं. दोनों बहुएं आंखों में प्यार, सहानुभूति लिए मुझे देख रही थीं. छोटी बहू की आंखों में प्रेम के साथ कौतूहल भी था. वह बेचारी क्या समझ पाती कि यहां क्या कहानी गढ़ी जा रही है. वह बस टुकुरटुकुर मुझे निहारती रहती.

‘‘नीचे चलिए, मां, पंडितजी आ गए हैं और कुछ पूजाहवन करवा रहे हैं,’’ बड़ी बहू रेवती बोली.

‘‘शायद मेरी उपस्थिति मांजी को अच्छी न लगे. तुम लोग जाओ. मैं यहीं ठीक हूं.’’

‘‘पिताजी के किसी भी संस्कार में शामिल होने का आप को पूरा अधिकार है, मां. आप चलिए,’’ बड़ी बहू ने मुझ से कहा.

भारी कदमों से मैं नीचे उतरी तो वहां का दृश्य देख कर मन भारी हो गया. मांजी त्रिशंक से कह रही थीं, ‘‘बेटा, पंडितजी आ गए हैं. यह जैसा कहें वैसा कर, यह ऐसी पूजा करवा देंगे जिस से विभु का अंतिम संस्कार तेरे हाथों से हुआ माना जाएगा.’’

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अपने को बिना किसी अपराध के अपराधिनी समझ बैठी हूं मैं. एक मरे इनसान की अनदेखी आत्मा की शांति के लिए जो अनुष्ठान किया जा रहा था वह मेरी सोच के बाहर का था. इस क्रिया से क्या विभु की आत्मा प्रसन्न हो जाएगी? यदि मांजी यह सब करतीं तो शायद मुझे इतना दुख न लगता जितना अपने बड़े बेटे को इस पूजा में शामिल होते देख कर मुझे हो रहा था.

पंडितजी जोरजोर से कोई मंत्र पढ़ रहे थे. त्रिशंक सिर पर रूमाल रखे हाथ जोड़ कर बैठा था. एक ऊंचे आसन पर विभु का शाल रख दिया गया था. मांजी रोते हुए यह सब करवा रही थीं. काश, आज विभु यह सब देख पाते कि उन के संस्कारों ने किस तरह उन के बेटे में प्रवेश कर लिया है. गलत परंपरा की नींव त्रिशंक और मांजी मिल कर डाल रहे हैं. मैं भीगी आंखों से अपने पति को एक बार फिर मरते हुए देख रही थी.

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