प्यार की तलाश: अतीत के पन्नों में खोई क्या थी नीतू की प्रेम कहानी?

मेरी कक्षा में पढ़ने वाली नीतू मेरे बैंच से दाईं वाली पंक्ति में, 2 बैंच आगे बैठती थी. वह दिखने में साधारण थी पर उस में दूसरों से हट कर कुछ ऐसा आकर्षण था कि जब मैं ने पहली बार उसे देखा तो बस देखता ही रह गया… वह अपनी सहेलियों के साथ हंसतीखिलखिलाती रहती और मैं उसे चोरीछिपे देखता रहता.

नीतू मेरी जिंदगी में, उम्र के उस मोड़ पर जिसे किशोरावस्था कहते हैं और जो जवानी की पहली सुबह के समान होती है, उस सुबह की रोशनी बन कर आई थी वह. उस सुखद परिवर्तन ने मेरे जीवन में जैसे रंग भर दिया था. मैं हमेशा अपने में मस्त रहता. पढ़ाई में भी मेरा ध्यान पहले से अधिक रहता. मम्मीपापा टोकते, उस से पहले ही मैं पढ़ने बैठ जाता और सुबहसुबह स्कूल जाने के लिए हड़बड़ा उठता.

आज सोचता हूं तो लगता है, काश, वक्त वहीं ठहर जाता. नीतू मुझ से कभी जुदा न होती, पर जीवन के सुनहरे दिन, कितने जल्दी बीत जाते हैं. मेरा स्कूली जीवन कब पीछे छूट गया, पता ही नहीं चला.

मैट्रिक की परीक्षा के बाद, नीतू जैसे हमेशा के लिए मुझ से जुदा हो गई. मैं उस के घर का पता जानता था, लेकिन जब यह पता चला कि नीतू कालेज की पढ़ाई के लिए अपने मामा के यहां चली गई है तो मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया. मेरे पास कुछ था तो बस उस की यादें, उस के लिखे खत और स्कूल में मिली वह तसवीर, जिस में साथ पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी और शिक्षक एक कतार में खड़े थे और नीतू एक कोने में खड़ी मुसकरा रही थी.

मैं नीतू की यादों में खोया, डायरी के पन्ने पलटता जा रहा था, तभी दरवाजे पर दस्तक सुन कर चौंक गया. नजरें उठा कर देखा तो सामने सुनयना खड़ी थी. अचानक उसे देख कर मैं हड़बड़ा गया, ‘‘कहिए, क्या बात है?’’ मैं ने डायरी बंद करते हुए कहा.

‘‘क्या मैं अंदर आ सकती हूं…’’ सुनयना मेरी मनस्थिति भांप कर मुसकराते हुए बोली.

‘‘हां… हां, आइए न बैठिए,’’ मैं ने जैसे शरमा कर कहा.

‘‘मैं ने आप को डिस्टर्ब कर दिया. शायद आप कुछ लिख रहे थे…’’ सुनयना डायरी की ओर देख रही थी.

‘‘बस डायरी है…’’ मैं ने डायरी पर हाथ रखते हुए कहा.

‘‘अरे वाह, आप डायरी लिखते हैं, क्या मैं देख सकती हूं?’’ सुनयना की आंखों में पता नहीं क्यों चमक आ गईर् थी.

‘‘किसी की पर्सनल डायरी नहीं देखनी चाहिए,’’ मैं ने मुसकरा कर मना करने के उद्देश्य से कहा क्योंकि वैसे भी वह डायरी मैं उसे नहीं दिखा सकता था.

‘‘क्या हम इतने गैर हैं?’’ सुनयना नाराज तो नहीं लग रही थी पर अपने चिरपरिचित अंदाज में मुंह बना कर बोली.

‘‘मैं ने ऐसा तो नहीं कहा,’’ मैं ने फिर मुसकराने का प्रयास किया.

‘‘खैर, छोडि़ए. पर कभी तो मैं आप की डायरी पढ़ कर ही रहूंगी,’’ सुनयना के चेहरे पर अब बनावटी नाराजगी थी. उस ने अपनी झील जैसी बड़ीबड़ी आंखों से मुझे घूरते हुए कहा, ‘‘…अभी चलिए, आप को बुलाया जा रहा है.‘‘

बैठक में भैयाभाभी सभी बैठे हुए थे. अंत्याक्षरी खेलने का कार्यक्रम बनाया गया था पर मेरा मन तो कहीं दूर था, लेकिन मना कैसे करता? न चाह कर भी खेलने बैठ गया. सुनयना पूरे खेल के दौरान, अपने गीतों से मुझे छेड़ने का प्रयास करती रही.

सुनयना मेरी भाभी की छोटी बहन थी. अपने नाम के अनुरूप ही उस की गहरी नीली झील सी आंखें थीं. वह थी भी बहुत खूबसूरत. उस के चेहरे से हमेशा एक आभा सी फूटती नजर आती. उस के काले, घने, चमकदार बाल कमर तक अठखेलियां करते रहते. वह हमेशा चंचल हिरनी के समान फुदकती फिरती. वह बहुत मिलनसार और बिलकुल खुले दिल की लड़की थी. यही वजह थी कि उसे सब बहुत पसंद करते थे और मजाक में ही सही, पर सभी ये कहते, इस घर की छोटी बहू कोई बनेगी तो सिर्फ सुनयना ही बनेगी. मैं सुन कर बिना किसी प्रतिक्रिया के चुपचाप रह जाता पर कभीकभार ऐसा लगता जैसे मेरी इच्छा, मेरी भावनाओं से किसी को कोईर् लेनादेना नहीं है पर मैं दोष देता तो किसे देता. किसी को तो पता ही नहीं था कि मेरे दिल में जो लड़की बसी है, वह सुनयना नहीं नीतू है.

दूसरे दिन सुनयना वापस जा रही थी. भाभी ने आ कर मुझे उसे घर तक छोड़ने को कहा. मैं जान रहा था, यह मेरे और सुनयना को ले कर घर वालों के मन में जो खिचड़ी पक रही है, उसी साजिश का हिस्सा है पर अंदर ही अंदर मैं खुश भी था… मैं मन ही मन सोच रहा था, ’आज रास्ते में सुनयना के सामने सारी बातें स्पष्ट कर दूंगा.’

सुनयना मेरे पीछे चिपक कर बैठी हुई थी. मैं आदतन सामान्य गति से मोटरसाइकिल चला रहा था. वह अपनी हरकतों से मुझे बारबार छेड़ने का प्रयास कर रही थी. मैं चाह कर भी उसे टोक नहीं पा रहा था. वह बीचबीच में ‘नदिया के पार’ फिल्म का गाना गुनगुनाने लगती और रास्तेभर तरहतरह की बातों से मुझे उकसाने का प्रयास करती रही. पर मैं थोड़ाबहुत जवाब देने के अलावा बस, कभीकभार मुसकरा देता.

जब हम शहर की भीड़भाड़ से बाहर, खुली सड़क पर निकले तो दृश्य भी ‘नदिया के पार’ फिल्म के जैसा ही था, बस अंतर इतना था कि मेरे पास ‘बैलगाड़ी’ की जगह मोटरसाइकिल थी. सड़क के दोनों किनारे कतार में खड़े बड़ेबड़े पेड़ थे. सामने दोनों तरफ खेतों में लहलहाती फसलें और वनों से आच्छादित पहाडि़यों की शृंखलाएं नजर आ रही थीं.

बड़ा ही मनोरम दृश्य था. मेरा मन अनायास ही उमंग से भर उठा. लगा जैसे सुनयना का साथ दे कर मैं भी कोई गीत गुनगुनाऊं. पर अचानक नीतू का खयाल आते ही मैं फिर से गंभीर हो उठा. मैं ने मन ही मन सोचा कि मुझे नीतू के बारे में सुनयना को स्पष्ट बता देना चाहिए. पर पता नहीं क्यों मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा. बहुत कोशिश के बाद, किसी तरह खुद को संयत करते हुए मैं ने कहा, ‘‘सुनयनाजी, मैं आप से एक बात कहना चाहता हूं.’’

‘‘जी…’’ शायद सुनयना ठीक से सुन नहीं पाई थी.

मैं ने मोटरसाइकिल की गति, धीमी करने के बाद, फिर से कहा, ‘‘मैं आप से एक बात कहना चाहता हूं.’’

‘‘क्या कोई सीरियस बात है?’’ सुनयना कुछ इस तरह मजाकभरे लहजे में बोली, जैसे मेरे जज्बातों से वह अच्छी तरह वाकिफ हो.

मगर मैं जो कहने जा रहा था, शायद उस से उस का दिल टूट जाने वाला था. सो मैं ने गंभीर हो कर कहा, ‘‘मैं आप को जो बताने जा रहा हूं, मैं ने आज तक किसी से नहीं कहा है. दरअसल, मैं एक लड़की से प्यार करता हूं. उस लड़की का नाम नीतू है. वह मेरे साथ पढ़ती थी. हम दोनों एकदूसरे को बहुत चाहते हैं और मैं उसी से शादी करना चाहता हूं.’’

‘‘आप कहीं मजाक, तो नहीं कर रहे…’’ सुनयना को मेरी बातों पर यकीन नहीं हुआ.

‘‘यह मजाक नहीं, सच है,’’ मैं ने फिर गंभीर हो कर कहा, ‘‘मैं यह बात बहुत पहले सब को बता देना चाहता था पर कभी हिम्मत नहीं कर पाया. दरअसल, मैं इस बात से डर जाता था कि कहीं घर वाले यह न समझ लें कि मैं पढ़नेलिखने की उम्र में भटक गया हूं. पर अब मेरे सामने कोई मजबूरी नहीं है. मैं अपने पैरों पर खड़ा हो चुका हूं.‘‘

‘‘शशिजी, आप सचमुच बहुत भोले हैं,’’ इस बार सुनयना के लहजे में भी गंभीरता थी, वह मुसकराने का प्रयास करती हुई बोली, ‘‘एक तरफ आप प्यार की बातें करते हैं और दूसरी तरफ रिऐक्शन के बारे में भी सोचते हैं. ये बात आप को बहुत पहले सब को बता देनी चाहिए थी. मुझे पूरी उम्मीद है कि आप की पसंद सब को पसंद आएगी. फिर बात जब शादी की हो तो मेरे विचार से अपने दिल की ही बात सुननी चाहिए. चूंकि यह पल दो पल का खेल नहीं, जिंदगीभर का सवाल होता है.’’ सुनयना सहजता से बोल गई. ऐसा लग रहा था, जैसे मेरे मन की बात जान कर उसे कोई खास फर्क न पड़ा हो.

इस तरह उस के सहयोगात्मक भाव से मेरे दिल का बोझ जो एक तरह से उस को ले कर था, उतरता चला गया.

सुनयना को घर छोड़ कर लौटते वक्त मेरे मन में हलकापन था. लेकिन अंदर कहीं एक खामोशी भी छाई हुई थी. पता नहीं क्यों? सुनयना की आंखों से जो दर्द, विदा लेते वक्त झलका था, मुझे बारबार अंदर ही अंदर कचोट रहा था.

रात को खाना खा कर मैं जल्दी ही बिस्तर पर लेट गया क्योंकि सुबह किसी भी हालत में मुझे नीतू के  पास जाना था. लेकिन नींद आ ही नहीं रही थी. बस करवटें बदलता रहा. मन में तरहतरह के विचार आजा रहे थे. इसी उधेड़बुन में कब नींद आ गई, पता ही न चला.

सुबह घर के सामने स्थित पीपल के पेड़ से आ रही चिडि़यों की चहचहाट से मेरी नींद खुली. चादर हटा कर देखा, प्र्रभात की लाली खिड़की में लगे कांच से छन कर कमरे के अंदर आ रही है. आज शायद मैं देर से सोने के बावजूद जल्दी उठ गया था क्योंकि देर होने पर मां जगाने जरूर आती थीं. मैं उठ कर चेहरे पर पानी छिड़क कर, कुल्ला कर के अपने कमरे से निकला.

बैठक में मेज पर अखबार पड़ा हुआ था. आदतन अखबार ले कर कुरसी पर बैठ गया और हमेशा की तरह खबरों की हैडलाइन पढ़ते हुए अखबार के पन्ने पलटने लगा. तभी अचानक मेरी नजर अखबार में छपी एक खबर पर अटक गई. मोटेमोटे अक्षरों में लिखा था, ‘थाना परिसर में प्रेमीप्रेमिका परिणयसूत्र में बंधे.’ हैडलाइन पढ़ कर मेरा दिल धक से रह गया, ‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता,‘ मैं ने सोचा.

खबर कोई अनोखी या विचित्र थी, ऐसी बात न थी, लेकिन जो तसवीर छपी थी मैं ने एक दीर्घ श्वास ले कर पढ़ना शुरू किया. वह नीतू ही थी. खबर में उस के घर का पताठिकाना स्पष्ट रूप से लिखा था. यहां तक कि वह लड़का भी उस के मामा  के महल्ले का ही था. दोनों के बीच 2 साल से प्रेम चल रहा था. घर वालों के विरोध के चलते दोनों भाग कर थाने आ गए थे.

खबर पढ़ कर मैं सन्न रह गया. मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा था कि नीतू ऐसा कर सकती है. मैं ने मन ही मन अपनेआप से ही प्रश्न किया, ‘अगर इस लड़के के साथ, यह उस का प्रेम है तो 4-5 साल पहले मेरे साथ जो हुआ था, वह क्या था? क्या 4-5 साल का अंतराल किसी के दिल से किसी की याद, किसी का प्यार भुला सकता है? मैं उसे हर दिन, हर पल याद करता रहा, उस की तसवीर अपने सीने से लगाए रहा और उस ने मेरे बारे में तनिक भी न सोचा. क्या प्यार के मामले में भी किसी का स्वभाव ऐसा हो सकता है कि उस पर विश्वास करने वाला अंत में बेवकूफ बन कर रह जाए? मैं ने तो अब तक सुना था, प्यार का दूसरा नाम, इंतजार भी होता है पर उस ने मेरा इंतजार नहीं किया.’

मेरा मन घृणा और दुख से भर उठा. मैं किसी तरह खुद को संभालते हुए अखबार को कुरसी पर ही रख कर, धीरेधीरे उठा और अपने कमरे में जा कर फिर बिस्तर पर लुढ़क गया. ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे मेरे अंदर थोड़ी सी भी जिजीविषा शेष न हो, जैसे मैं दुनिया का सब से दीन आदमी हूं, आंखों से अपनेआप आंसू छलके जा रहे थे.

सामने टेबल पर वही तसवीर थी. जिस में नीतू अब भी मेरी ओर देख कर मुसकरा रही थी, जैसे मेरे जज्बातों से मेरे दिल के दर्द से, उसे कोईर् लेनादेना न हो. जी में आया तसवीर को उठा कर खिड़की से बाहर फेंक दूं कि तभी मां चाय ले कर आ गईं, ‘’अरे, तू फिर सो रहा है क्या? अभी तो पेपर पढ़ रहा था.‘’

मैं ने झटपट अपने चेहरे पर हाथ रख कर पलकों पर उंगलियां फिराते हुए अपने आंसू छिपाते हुए कहा, ‘’नहीं, सिर थोड़ा भारी लग रहा है.‘’

‘‘रात को देर से सोया होगा. पता नहीं रातरात भर जाग कर क्या लिखता रहता है? ले, चाय पी ले, इस से थोड़ी राहत मिलेगी,‘‘ चाय का कप हाथ में थमा कर

मेरे माथे पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरते हुए मां ने कहा, ‘‘तेल ला कर थोड़ी मालिश कर देती हूं.’

‘‘नहीं ठीक है, मां, वैसा दर्द नहीं है. शायद देर से सोया था. इसलिए ऐसा लग रहा है,‘‘ मैं ने फिर बात बना कर कहा.

मां जब कमरे से निकल गईं तो मैं किसी तरह अपनेआप को समझाने की कोशिश करने लगा. पर दिल में उठ रही टीस, जैसे बढ़ती ही जा रही थी. मन कह रहा था, जा कर एक बार उस बेवफा से मिल आओ. आखिर उस ने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? क्या वह इंतजार नहीं कर सकती थी? उन वादों, कसमों को वह कैसे भूल गई, जो हम ने स्कूल से विदाई की उस आखिरी घड़ी में, एकदूसरे के सामने खाई थीं.

न चाहते हुए भी मेरे मन में, रहरह कर सवाल उठ रहे थे. अपनेआप को समझाना जैसे मुश्किल होता जा रहा था. मन की पीड़ा जब बरदाश्त से बाहर होने लगी तो मैं फिर से बिस्तर पर लेट गया. उसी वक्त अचानक भाभी मेरे कमरे में आईं. उन्हें अचानक सामने देख कर मैं घबरा गया. किसी तरह अपने मनोभाव छिपा कर मैं बिस्तर से उठा.

कुछ देर पहले भाभी के मायके से फोन आया था. सुनयना की तबीयत बहुत खराब थी. वह कल ही तो यहां से गई थी. अचानक पता नहीं उसे क्या हो गया? भाभी काफी चिंतित थीं. भैया को औफिस के जरूरी काम से कहीं बाहर जाना था इसलिए मुझे भाभी के साथ सुनयना को देखने जाना पड़ा.

सुनयना बिस्तर पर पड़ी हुई थी. कुछ देर पहले डाक्टर दवा दे गया था. वह अभी भी बुखार से तप रही थी. उस की आंखें सूजी हुई थीं, देख कर ही लग रहा था, जैसे वह रातभर रोई हो.

मैं सामने कुरसी पर चुपचाप बैठा था. भाभी उस के पास बैठीं, उस के बालों को सहला रही थीं. सुनयना बोली तो कुछ नहीं, पर उस की आंखों से छलछला रहे आंसू पूरी कहानी बयान कर रहे थे. सारा माजरा समझ कर भाभी मुझे किसी अपराधी की तरह घूरने लगीं. मैं सिर झुकाए चुपचाप बैठा था. कुछ देर बाद, भाभी कमरे से निकल गईं.

कमरे में सिर्फ हम दोनों थे. सुनयना जैसे शून्य में कुछ तलाश रही थी. उसे देख कर मेरी आंखों में भी आंसू आ गए. अचानक महसूस हुआ कि यदि अब भी मैं ने सामने स्थित जलाशय को ठुकरा कर मृगमरीचिका के पीछे भागने का प्रयास किया तो शायद अंत में पछतावे के सिवा मेरे हाथ कुछ नहीं लगेगा. मैं ने बिना देर किए सुनयना के पास जा कर, याचना भरे स्वर में कहा, ‘‘सुनयनाजी, मैं ने आप से जो कहा था, वह मेरा भ्रम था. मैं ने बचपन के खेल को प्यार समझ लिया था. मुझे आज ही पता चला कि उस लड़की ने एक दूसरे लड़के से प्रेम विवाह कर लिया है. मैं नादानी में आप से पता नहीं क्याक्या कह गया…‘’

सुनयना अपनी डबडबाई आंखों से अब भी शून्य में निहार रही थी. कुछ देर रुक कर, मैं ने फिर कहा, ‘‘कुदरत जिंदगी में सब को सच्चा हमदर्द देती है पर अकसर हम उसे ठुकरा देते हैं. मैं ने भी शायद, ऐसा ही किया है. लड़कपन से अब तक ख्वाबों के पीछे भागता रहा,’’ मेरा गला भर आया था.

सुनयना मुझे टुकुरटुकुर देख रही थी. उस की आंखों से टपकते आंसू उस के गालों पर लुढ़क रहे थे. मुझे पहली बार उस की आंखों में अपने लिए प्यार नजर आ रहा था.

मैं ने किसी छोटे बच्चे की तरह भावुक हो कर कहा, ‘‘देखो, मुझे मत ठुकराना, वरना मैं जी नहीं पाऊंगा,’’ और हाथ बढा़ कर उस के गालों को छू रहे आंसुओं को पोंछने लगा.

सुनयना के होंठ कुछ कहने के प्रयास में थरथरा उठे. पर जब वह कुछ बोल न पाई तो अचानक मुझ से लिपट कर जोरजोर से सुबकने लगी. मैं ने भी उसे कस कर अपनी बांहों में भर लिया. हम दोनों की आंखों से आंसू बह रहे थे. मैं सोच रहा था, ‘मुझे अब तक क्यों पता नहीं चला कि हमेशा चंचल, बेफिक्र और नादान सी दिखने वाली इस लड़की के दिल में मेरे लिए इतना प्यार छिपा था.’

भाभी दरवाजे के पास खड़ीं मुसकरा रही थीं. पर उन की आंखों में भी खुशी के आंसू थे.

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