रागविराग: भाग 2- कैसे स्वामी उमाशंकर के जाल में फंस गई शालिनी

उस की आंखों में हलकी सी चमक आई.

‘‘उन के आशीर्वाद से ही तुम्हारा विवाह हो गया तथा जनार्दन का भी व्यवसाय संभल गया. मैं तो सब जगह से ही हार गया था,’’ पिता ने कहा.

एक दिन वह मां के साथ सत्संग आश्रम गई थी. वहां उमाशंकर भी आए हुए थे इसलिए बहुत भीड़ थी. सब को बाहर ही रोक दिया गया था. जब उन का नंबर आया तो वे अंदर गईं. भीतर का कक्ष बेहद ही सुव्यवस्थित था. सफेद मार्बल की टाइल्स पर सफेद गद्दे व चादरें थीं. मसनद भी सफेद खोलियों में थे. परदे भी सफेद सिल्क के थे. उमाशंकर मसनद के सहारे लेटे हुए थे. कुछ भक्त महिलाएं उन के पांव दबा रही थीं.

‘‘आप का स्वास्थ्य तो ठीक है?’’ मां ने पूछा.

‘‘अभी तो ठीक है, लेकिन क्या करूं भक्त मानते ही नहीं, इसलिए एक पांव विदेश में रहता है तो दूसरा यहां. विश्राम मिलता ही नहीं है.’’

शालिनी ने देखा कि उमाशंकरजी का सुंदर प्रभावशाली व्यक्तित्व कुछ अनकहा भी कह रहा था.

तभी सारंगदेव उधर आ गया.

‘‘तुम यहां कैसे? वहां ध्यान शिविर में सब ठीक तो चल रहा है न?’’

‘‘हां, गुरुजी.’’

‘‘ध्यान में लोग अधोवस्त्र ज्यादा कसे हुए न पहनें. इस से शिव क्रिया में बाधा पड़ती है. मैं तो कहता हूं, एक कुरता ही बहुत है. उस से शरीर ढका रहता है.’’

‘‘हां, गुरुजी मैं इधर कुरते ही लेने आया था. भक्त लोग बहुत प्रसन्न हैं. तांडव क्रिया में बहुत देर तक नृत्य रहा. मैं तो आप को सूचना ही देने आया था.’’

‘‘वाह,’’ गुरुजी बोले.

गुरुजी अचानक गहरे ध्यान में चले गए. उन के नेत्र मुंद से गए थे. होंठों पर थराथराहट थी. उन की गरदन टेढ़ी होती हुई लटक भी गई थी. हाथ अचानक ऊपर उठा. उंगलियां विशेष मुद्रा में स्थिर हो गईं.

‘‘यह तो शांभवी मुद्रा है,’’ सारंगदेव बोला. उस ने भावुकता में डूब कर उन के पैर छू लिए.

अचानक गुरुजी खिलखिला कर हंसे.

उन के पास बैठी महिलाओं ने उन से कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने उन्हें संकेत से रोकते हुए कहा, ‘‘रहने दो, आराम आ गया है. मैं तो किसी प्रकार की सेवा इस शरीर के लिए नहीं चाहता. इस को मिट्टी में मिलना है, पर भक्त नहीं मानते.’’

‘‘पर हुआ क्या है?’’ मां को चैन नहीं था.

‘‘दाएं पांव की पिंडली खिसक गई है, इसलिए दर्द रहता है. कई बार तो चला भी नहीं जाता. शरीर है, ठीक हो जाएगा. सब प्रकृति की इच्छा है, हमारा क्या?’’

‘‘क्यों?’’ उन की निगाहें शालिनी के चेहरे पर ठहर गई थीं, ‘‘आजकल क्या करती हो?’’

‘‘जी घर पर ही हूं.’’

‘‘श्रीमानजी कहां हैं?’’

‘‘जी वे बौर्डर डिस्ट्रिक्ट में हैं, कोई अभियान चल रहा है.’’

‘‘तो कभीकभी यहां आ जाया करो.’’

‘‘क्यों नहीं, क्यों नहीं,’’ मां ने प्रसन्नता से कहा था. और फिर उस का सत्संग भवन में आना शुरू हो गया था.

उस दिन दोपहर में वह भोजन के बाद इधर ही चली आई थी. उसे गुरुजी ने अपने टीवी सैट पर लगे कैमरे से देखा तो मोबाइल उठाया और बाहर सहायिका को फोन किया, ‘‘तुम्हारे सामने शालिनी आई है, उसे भीतर भेज देना.’’

सहायिका ने अपनी कुरसी से उठते हुए सामने बरामदे में आती हुई शालिनी को देखा.

‘‘आप शालिनी हैं?’’

‘‘हां,’’ वह चौंक गई.

‘‘आप को गुरुजी ने याद किया है,’’ वह मुसकराते हुए बोली.

वह अंदर पहुंची तो देखा गुरुजी अकेले ही थे. उन की धोती घुटने तक चढ़ी हुई थी.

‘‘लो,’’ उन्होंने पास में रखी मेवा की तश्तरी से कुछ बड़े काजू, बादाम जितने मुट्ठी में आए, बुदबुदाते हुए उस की हथेली पर रख दिए.

‘‘और लो,’’ उन्होंने एक मुट्ठी और उस की हथेली पर रख दिए.

वह यंत्रवत सी उन के पास खिसकती चली आई. उसे लगा उस के भीतर कुछ उफन रहा है. एक तेज प्रवाह, मानो वह नदी में तैरती चली जाएगी. उन्होंने हाथ बढ़ाया तो वह खिंची हुई उन के पास चली आई. और उन के पांव दबाने लग गई. उन की आंखें एकटक उस के चेहरे पर स्थिर थीं और उसे लग रहा था कि उस का रक्त उफन रहा है.

तभी गुरुजी ने पास रखी घंटी को दबा दिया. इस से बाहर का लाल बल्ब जल उठा. उन की बड़ीबड़ी आंखें उस के चेहरे पर कुछ तलाश कर रही थीं.

‘‘शालू, वह माला तुम्हारी गोद में गिरी थी, जो मैं ने तुम्हें दी थी. वह तुम्हारा ही अधिकार है, जो प्रकृति ने तुम्हें सौंपा है,’’ वे बोले तो शालू खुलती चली गई. फिर उमाशंकरजी को उस ने खींचा या उन्होंने उसे, कुछ पता नहीं. पर उसे लगा उस दोपहर में वह पूरी तरह रस वर्षा से भीग गई है. उसे अपने भीतर मीठी सी पुलक महसूस हुई. वह चुपचाप उठी, बाथरूम जा कर व्यवस्थित हुई फिर पुस्तक ले कर कोने में पढ़ने बैठ गई.

सेवक भीतर आया. उस ने देखा गुरुजी विश्राम में हैं. उस ने बाहर जा कर बताया तो कुछ भक्त भीतर आए. तब शालिनी बाहर चली गई. सही या गलत प्रश्न का उत्तर उस के पास नहीं था, क्योंकि वह जानती थी कि गलती उस की ही थी. उसे अकेले वहां नहीं जाना चाहिए था. पर अब वह क्या कर सकती थी? चुप रहना ही नियति थी, क्योंकि वह उस की अपनी ही जलाई आग थी, जिस में वह जली थी. किस से कहती, क्या कहती? वही तो वहां खुद गई थी. विरोध करती पर क्यों नहीं कर पाई? उस प्रसाद में ऐसा क्या था? वह इस सवाल का उत्तर बरसों तलाश करती रही. पर उस दिन सुलभा ने ही बताया था कि मां, मुंबई की पार्टियों में कोल्डड्रिंक्स में ऐसा कुछ मिला देते हैं कि लड़कियां अपना होश खो देती हैं. वे बरबाद हो जाती हैं. मेरी कुछ सहेलियों के साथ भी ऐसा हुआ है. ये ‘वेव पार्टियां’ कहलाती हैं, तब वह चौंक गई थी. क्या उस के साथ भी ऐसा ही हुआ था? वह सोचने लगी कि कभीकभी वर्षा ऋतु न हो तो भी अचानक बादल कहीं से आ जाते हैं. वे गरजते और बरसते हैं, तो क्यारी में बोया बीज उगने लगता है.

फिर सब कुछ यथावत रहा. सुभाष भी जल्दी ही लौट आया. उसे आने के बाद सूचना मिली कि वह पिता बनने वाला है तो वह बहुत खुश हुआ और शालिनी को अस्पताल ले गया.

आगे पढ़ें- पर शालिनी भीतर से ही सहम गई थी. जब..

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