समाज पहले लड़कों को सुधारे

‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा असल में ‘बेटी बचाओ पढ़ाओं’ से होते हुए ‘बेटी बचाओ, बेटी रौंदो’ तक पहुंचा हुआ है. वैसे तो सदियों से औरतों को पकड़ कर जबरदस्ती रेप किया जाता रहा है और हर राज्य यही कहता रहा है कि दूसरे देश में हमला करने पर पैसा तो मिलेगा, औरतें भी मिलेंगी और तभी सैनिक जान का जोखिम लेने वाले मिलते थे पर एजूकेटड, लाअवाइडिग, पुलिस सेना से भरे देश में आसानी से लड़कियों का बलात्कार हो और कुछ न हो, यह बेहद अफसोस की बात है.

उत्तर प्रदेश के अंबेडकर जिला में 5 अक्तूबर को एक 15 साला लड़क़ी ने सूसाइड कर लिया क्योंकि 2 दिन तक उसे रेप करने के बाद जब छोड़ा गया तो पुलिस शिकायत के बावजूद सिवाए मेडिकल एक्जामिनेशन के कुछ नहीं हुआ. नारा तो ‘बेटी बचाओ, बेटी रेप कराओ, बेटी मरने दो’ बन गया है.

रेप के बाद लड़कियां कितनी तड़पती हैं, यह सुप्रीम कोर्ट के एक हाल के जजमेंट से भी जाहिर है जिस में सुप्रीम कोर्ट ने संसद के कानून को सुधारते हुए कहा कि हर रेप की शिकार लडक़ी का औरत को 24 सप्ताह तक का गर्भ गिराने का मौलिक हक है और इस में मैरिड औरत भी शामिल है. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, यही यह बताने के लिए काफी है कि देश में रेप आज भी सीरियस है और तमाम एजूकेशन के बाद लड़कियों को खुद को बंद कर रखना पड़ता है क्योंकि कब न जाने कौन उन के बदन का ही नहीं उन के जीने के हदों, उन की खुशियों का रेप कर जाए.

रेप के बहुत कम मामले सामने आते है क्योंकि रेप विक्टिम आमतौर पर चुप दर्द सहती रहती हैं, वे जानती है कि देश, समाज, घरपरिवार उन्हें रेप के लिए विक्टिम नहीं एक्यूज्ड मानेगा. ‘तुम बाहर गई क्यों’, ‘तुम लड़ी क्यों नहीं’, ‘तुम ने ऐसे दोस्त क्यों बनाए’, ‘तुम्हारी गलती जरूर होगी’, ‘तुम अपनी मर्जी से गई होगी और अब रेप का बहाना बना रही’, जैसे जुमले हर विक्टिम को सुनने को मिलेंगे.

पुलिस भी रेप के मामलों में कम काम करती है क्योंकि वह जानत है कि बहुत सारी शिकायत करने वालियां बाद में लंबी अदालती काररवाई से घबरा कर मामला बंद कराने के लिए शिकायत पलट देंगी. फिर पुलिस क्यों न मामला ठंडा होने दे. हां, पुलिस को रेपिस्ट से बहुत कुछ मिल ही जाता है.

रेप कानून का जितना मामला, उस से बढ़ कर समाज का है. लडक़े जबरदस्ती न करें यह उन्हें सिखाना होगा. यही लडक़े हर दुबलेपतले लडक़े का पर्स नहीं छीनते. रेप करने वालों को बचपन से सिखा दिया जाता है कि लड़कियां मजे लेने के लिए होती हैं. पौर्न लिटरेचर में यह भरा होता है.

रेप के बाद सूसाइड बहुत मामलों में विक्टिम के लिए ठीक होता है पर यह सूसाइड सारे घरवालों के मुंह पर कालिख पोत जाता है, यह विक्टिम समझ नहीं पातीं.

धब्बा तो औरत पर ही लगता है

हर देश को अपनी सेना पर गर्व होता है और उस के लिए देश न केवल सम्मान में खड़ा होता है वरन उसे खासा पैसे की सुविधा भी दे दी जाती है. एक सुविधा दुनियाभर के सैनिक खुद ले लेते हैं, जबरन रेप करनी की. आमतौर पर हमेशा से राजाओं ने सेनाओं में भरती यही कह कर की होती है कि तुम मेरे साथ लड़ो, तुम्हें लूट में माल भी मिलेगा, औरतें भी. युगों से दुनियाभर में हो रहा है.

कोएंबटूर के एअरफोर्स एडमिनिस्ट्रेटिव कालेज में एक कोर्स में एक आईएएस फ्लाइट लैफ्टीनैंट और एक 26 वर्षीय युवती साथ में पढ़ रहे थे. एक शाम ड्रिंक्स लेते समय युवती को बेहोशी छाने लगी तो उसे उस के होस्टल के कमरे में ले जाया गया और युवती का कहना है कि वहां उस युवा अफसर ने उस के साथ रेप किया.

आमतौर पर इस तरह के रेप का फैसला सामान्य अदालतें करती हैं और इस मामले में सेना अड़ गई कि यह केस कोर्टमार्शल होगा यानी सैनिक अदालत में चलेगा. युवती को इस पर आपत्ति है कि उसे न्याय नहीं मिलेगा. कठिनाई यह है कि सेना पर निर्भर देश और कानून सैनिकों को नाराज करने का जोखिम नहीं लेता.

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कोर्टमार्शल में सेना के अफसर ही जज का काम करते हैं और वे सैनिकों की प्रवृत्ति को अच्छी तरह समझते ही नहीं, उस

पर मूक स्वीकृति की मुहर भी लगाते हैं. वे जानते हैं कि बेहद तनाव में रह रहे सैनिकों को कुछ राहत की जरूरत होती है और इस तरह के मामलों को अनदेखा करते हैं. सैनिकों को घरों से दूर रहना पड़ता है और वे सैक्स भूखे हो जाते हैं. इसलिए हर कैंटोनमैंट के आसपास सैक्स वर्करों के अड्डे बन जाते हैं.

ऐसे हालात में रेप विक्टिम को सैनिक अदालत से पूरा न्याय मिलेगा, यह कुछ पक्का नहीं है पर असल में तो सिविल कोर्टों में भी रेप के दोषी आमतौर पर छूट ही जाते हैं. हां, उन्हें जमानत नहीं मिलती और चाहे अदालतें बरी कर देती हों, वे लंबी कैद अंडर ट्रायल के रूप में काट आते हैं और रेप विक्टिम के लिए यही काफी होता है.

सिविल कोर्टों में अकसर पीडि़ता अपना बयान वापस ले लेती है, चाहे लंबे खिंचते मामले, वकीलों की जिरह के कारण या लेदे कर फैसले के कारण. यह पक्का है कि जो धब्बा औरत पर लगता है वह टैटू की तरह गहरा होता है और रेपिस्ट पर लगा निशान चुनाव आयोग की स्याही जैसा.

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REVIEW: पैसे और समय की बर्बादी है फिल्म ‘दिल्ली कांड’

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः फैशन परेड फिल्मस

लेखक व निर्देशकः क्रिटिक कुमार

कलाकारः वीरेंद्र सक्सेना, काशवी कंचन, सैम संुडेसा, प्रीतिका चैहाण, रीम शेख, शशांक राठी, अमित शुक्ला,  शाहबाज बावेजा, राजेश सिंह, मोना मैथ्यू व अन्य.

अवधिः एक घंटा पचास मिनट

16 दिसंबर 2012 में राजधानी दिल्ली में हुए गैंगरेप यानी कि ‘निर्भया काड’पर 2014 के अंत में फिल्मकार क्रितिक कुमार ने फिल्म ‘‘दिल्ली कांड’’ के निर्माण की घोषणा की थी, जो कि 24 सितंबर को सिनेमाघरों में प्रदर्शित होगी.

कहानीः

गैंगरेप जैसे घिनौने और जघन्य अपराध पर बनी फिल्म‘‘दिल्ली कांड’’की कहानी दिल्ली के एक कालेज से शुरू होती है, जहां कुछ लड़के,  लड़कियों की रेगिंग कर रहे हैं. जब मासूम और आंखों में कई सपने लिए नई लड़की अलिश्का (काशवी कंचन) कालेज में प्रवेश  करती है, तो लड़कों का यह ग्रुप उसके साथ रैगिंग के नाम पर बदतमीजी करने का प्रयास करता है, पर ऐन वक्त पर समीर (सैम सुंडेसा) पहुंचकर उन लड़कों को डांटकर भगा देता है और अलिश्का उसी वक्त उसे अपना दिल दे बैठती है. अचानक एक रात एक विदेशी महिला के साथ चलती टैक्सी के अंदर गैगरेप की घटना घटती है. जिससे पूरी दिल्ली  वासियों के साथ आलिश्का की मां माधुरी (रीम खान) और पिता मनोज (वीरेंद्र सक्सेना) भी अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर परेशान हो जाते हैं. अलिश्का को अकेले कालेज से घर जाने में डर लगने लगता है. तब समीर खुद उसे अपनी मोटर सायकल पर बिठाकर  अलिश्का को रोज घर छोड़ने लगता है. एक दिन समीर अपने प्यार का इजहार कर देता है. एक दिन रात में सिनेमा देखकर निकले समीर व अलिश्का को द्वारिका के लिए रिक्शा नही मिलता है, तो वह एक बस में सवार हो जाते हैं. इसी चलती बस में रिजवान(शाहबाज बवेजा ) व छोटू सहित छह लोग समीर को अधमरा करने के साथ ही अलिश्का के साथ गैंगरेप करने के साथ उसकी जघन्य हत्या करने के बाद उसे नग्न कर सड़क वर समीर के साथ फेक देते हैं. इंस्पेक्टर पांडे(अमित शुक्ला)इस जघन्य गैंगरेप कांड की जांच शुरू करते हैं. अलिश्का व समीर को अस्पताल पहुंचाया जाता है.  टीवी पत्रकार रिया बत्रा (प्रीतिका चैहान)के साथ दूसरे पत्रकार इस कांड को लेकर सरकार,  मंत्री व गृह मंत्री(मोना मैथ्यू) की खिंचाई करते हैं. जनता सड़क पर उतर आती है. अंततः रिजवान सहित सभी छह आरोपी पकड़े जाते हैं. अलिश्का को इलाज के लिए सिंगापुर भेजा जाता है. पर उसकी मौत हो जाती है. अदालत सभी आरोपियों को फांसी की सजा सुनाती है.

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लेखन व निर्देशनः

इस फिल्म को देखकर एक कहावत याद आती है-‘‘बंदर के हाथ में उस्तरा. ’’जी हॉ! देश के सर्वाधिक चर्चित गैंगरेप पर फिल्म बनाते समय फिल्मकार क्रितिक कुमार ने बेसिर पैर की फिल्म बना डाली. यदि फिल्मकार थोड़ा भी समझदार होते तो उस वक्त के अखबारों को पढ़कर सही ढंग से कहानी व पटकथा लिख सकते थे. लेकिन अफसोस अति घटिया पटकथा के साथ अति घटिया निर्देशन के चलते फिल्म देखते हुए दर्शक अपना माथा पीटते हुए कह उठता है-कहां फंसायो नाथ. ’’फिल्म का क्लायमेक्स भी बहुत घटिया है. फिल्म मे प्यार व रोमांस को भी ठीक से चित्रित नहीं किया गया. फिल्मकार ने गैंगरेप को पूरे नौ मिनट तक विभत्स तरीके से दिखाया है. अफसोस की बात यह है कि संेसर बोर्ड ने भी इस घटिए दृश्य को नौ मिनट दिखाने के लिए हरी झंडी दे दी. गैंगरेप के दृश्य को देखकर दर्शक केे मन में बलात्कारियों के प्रति गुस्सा उभरना चाहिए,  दर्शक को गैगरेप पीड़िता के दर्द व पीड़ा का अहसास होना चाहिए, पर ऐसा कुछ नही होता. इतना ही नही इस गैंगरेप की अदालती काररवाही भी महज तीन मिनट में खत्म हो जाती है. फिल्म का क्लायमेक्स भी अतिघटिया है. फिल्म के संवादों का भी कोई स्तर नही है. दुःखद बात यह है कि इस फिल्म के निर्माण के लिए उत्तर प्रदेश के संस्थान ‘‘फिल्म बंधु’’से आर्थिक सहायता मिली है. फिल्म का लेखन, निर्देशन व तकनीकी पक्ष बहुत कमजोर है.

अभिनयः

फिल्म का एक भी कलाकार अपने अभिनय की छाप नही छोड़ पाता.

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जिम्मेदार कौन: कानून या धर्म

अच्छे खातेपीते घरों के पुरुषों की लार किस तरह मजदूरों की छोटी लड़कियां देखतेदेखते टपकने लगती है, इसका एक उदाहरण दिल्ली में देखने को मिला. यह 13 साल की लडक़ी अपने मातापिता और 3 भाईबहनों के साथ एक किराए के कमरे में रहती थी. उस के मकान मालिक उस के पिता को बहका कर अपने एक रिश्तेदार के साथ गुडग़ांव भेज दिया कि रिश्तेदार के यहां हमउम्र बेटी के साथ खेल सकेगी.

एक माह बाद पिता को खबर किया कि फूड पायजङ्क्षनग की वजह से लडक़ी की मृत्यु हो गई है और वे बौडी को एंबूलेंस में दिल्ली ला रहे हैं ताकि परिवार उस का हाद कर सकें. पिता तैयार भी था पर पड़ोसियों के कहने पर उस ने बेटी का शरीर जांचा तो खरोंचे दिखीं. एक अस्पताल में जांच करने पर पता चला कि उसे बेरहमी से रेप किया गया था और गला घोंट कर मार डाला गया था.

ऐसी घटना हजारों की गिनती में देश में हर माह दोहराई जाती है. कुछ अखबारों और पुलिस थानों तक पहुंचती हैं. ज्यादातर दवा दी जाती हैं. जहां मृत्यु नहीं हुर्ई हो, वहां तो लडक़ी वर्षों तक उस मानसिक व शारीरिक जख्म को ले कर तड़पती रहती है.

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कानून कैसा भी हो, बलात्कारी को कैसा भी दंड मिले, यह तो पक्का है कि जो अपराध हो गया उस का सामाजिक व भौतिक असर कानूनी मरहम से ठीक नहीं हो सकता. अपराधी को सजा मिलने का अर्थ यह भी होता है कि वास्तव में लडक़ी का रेप हुआ था और बातें बनाने वाले कहना शुरू कर देते हैं यह तो सहमति से हुआ सेक्स था जिस में बाद में लेनदेन पर झगड़ा हो गया. रेप की शिकार को वेश्या के से रंग में पोत दिया जाता है.

रेल का अपराध एक शारीरिक अपराध के साथ एक सामाजिक अपंगता बन जाता है, यह इस अपराध को करने देने की सब से ज्यादा जिम्मेदारी कहां जा सकता है. अगर रेप को महज मारपीट की तरह माना जाता तो हर रेप पर खुल कर शिकायत होती और हर बलात्कारी डरा रहता कि पकड़ा जाएगा तो न जाने क्या होगा. अब हर बलात्कारी जानता है कि लडक़ी चुप रहेगी क्योंकि बात खोलने पर बदनामी लडक़ी और उस के परिवार की ज्यादा होगी, लडक़ी के भाईबहन तक उस से घृणा करेंगे, मातापिता हर समय अपराध भाव लिए घूमेंगे. जब विवाहित अहिल्या का अपने पति गौतम वेषधारी इंदु के साथ संबंध में दोषी अहिल्या मानी गई हो और जहां बलात्कारों से बचने के लिए का जौहर को महिमामंडित किया जाता हो और विधवा का पुनॢववाह तक मंजूर न हो, वहां यह मानसिकता होना बड़ी बात नहीं है.

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रेप पर दोषी के दंड अवश्य मिलना चाहिए पर यह संभव तो तभी है न जब रेप की शिकार शिकायत करे और फिर उस घटना का पलपल पुलिस, डाक्टर, काउंसलर, अदालत, वकील को बताएं. जब उसे हर घटना को बारबार दोहरा कर फिर जीना होगा तो चुप रहना ही ज्यादा अच्छा रहेगा. कमी कानूनों में नहीं, कमी व्यवस्था की नहीं. कमी उस धाॢमक सामाजिक व्यवस्था की है जिस में हर मंदिर को तो आदमी देखते ही सिर झुका देता है पर तुरंत बाद में लडक़ी को लपकने की इच्छा से ताकने लगता है. क्या अपनेआप का सृष्टि……भगवान की एजेंसी कहने वाला धर्म अपने भक्तों को रेप करने से नहीं रोक सकता?

तो फिर जिम्मेदार कानून नहीं धर्म है, समाज है.

जब रक्षा करने वाला ही कर दे हैवानियत की सारी हदें पार

जी हां बलात्कार की घटनाएं तो रुकने का नाम नहीं ले रही हैं लेकिन यहां पर बात किसी आम आदमी की नहीं बल्कि एक पुलिस वाले की हो रही है.जो देश का जनता का रक्षक होता है… जब वही हैवान बन जाए तो क्या कहें कि इस देश का क्या होगा?

छत्तीसगढ़ से एक खबर आई है कि जशपुर के बगीचा क्षेत्र की रहने वाली एक महिला का बलात्कार हुआ और बलात्कार करने वाला एक पुलिस वाला है. पुलिस ने हालांकि केस दर्ज कर लिया है लेकिन जरा सोचिए कि कितना अजीब है ये कि एक पुलिस वाला हैवानियत की सारी हदें पार करता है और वहीं दूसरा पुलिस वाला केस दर्ज करता है.

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पुलिस के मुताबिक 17 जनवरी को जशपुर में रहने वाली एक महिला जब अपने घर पर अकेली थी उसका पति नहीं था तब उसके घर में घुसकर एक पुलिसकर्मी ने रेप किया…महिला ने ये आरोप लगाया और कहा कि सन्ना थाने में तैनात एक पुलिस वाले ने उसका रेप किया है.पुलिस ने धारा 376 और 450 के तहत मामला दर्ज किया है. आरोपी पुलिसकर्मी का नाम महेश्वर यादव है और पुलिस के मुताबिक ये अभी अपने घर से फरार है इसलिए उसे तमाम कोशिशों के बावजूद भी पकड़ा नहीं जा सका है.लेकिन पुलिस का कहना है कि जल्द ही वो आरोपी को पकड़ लेगी.

यहां पर आज सवाल ये खड़ा हो रहा है कि आखिर महिलाएं,लड़कियां कैसे सुरक्षित रहेंगी जब उन्हें सुरक्षा देने वालों से भी खतरा है.जब किसी लड़की के साथ बलात्कार होता है तो वो पुलिस के पास जाकर एफआईआर दर्ज कराती है तो जरा सोचिए कि जब पुलिस ही हैवान बन जाए तो क्या होगा इस देश का? ऐसी खबरें अक्सर सरकार से देश से और समाज से एक ही सवाल करती हैं कि आखिर कब तक ?कब तक चलेगा ये?

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एक बार फिर दिल्ली हुई शर्मसार

एक स्त्री की आत्मा उसी वक्त आत्महत्या कर लेती है जब उसके साथ बलात्कार होता है. ये घटना उस स्त्री को अन्दर से तोड़कर रख देती है, लेकिन उस छोटी सी बच्ची का क्या जिसे इसका मतलब भी नहीं पता और वे एक हैवान की हैवानियत का शिकार हो गई.

हाल ही में एक सनसनीखेज वारदात से दिल्ली फिर दहल गई. एक मासूम बच्ची की अस्मत के साथ खिलवाड़ किया गया. उस बच्ची को आरोपी टौफी दिलाने के बहाने ले गया और फिर झाड़ियों में ले जाकर कुकर्म को अंजाम दिया. फिलहाल आरोपी को सीसीटीवी फुटेज की मदद से गिरफ्तार कर लिया गया है, लेकिन बच्ची की हालात नासाज है. वे जिंदगी और मौत के बीच जूझ रही है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी बच्ची की हालत को जानने अस्पताल पहुंचे थे.

आखिर कब तक होगा ये सब…

पीड़ित परिवार को मुआवजा देने की बात भी कही, लेकिन अब सवाल ये है कि आखिर कबतक? कबतक इस तरह की वारदात होती रहेगी और दिल्ली सरकार कर क्या रही है? एक बार फिर से इस घटना ने दिल्ली को कटघरे में ला कर खड़ा कर दिया है. आज से कुछ साल पहले जब देश की राजधानी दिल्ली में निर्भया कांड हुआ था तब पूरी दिल्ली सड़क पर उतर आई थी तब सरकार ने कहा था कि इसके लिए कड़े से कड़े कानून बनाए जाएंगे. लेकिन आज जब फिर से दिल्ली में निर्भया जैसी घटना घटी तो फिर से राजनेता अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने में लग गए हैं. क्या उस बच्ची के साथ जो हुआ वो उसे भूल पाएगी. शायद जब वो बड़ी हो जाए तो उसे समझ आए कि उसके साथ क्या हुआ था. अभी तो बस उसके बचने की दुआ ही की जा सकती है. आरोपी की पहचान मोहम्मद नन्हें के रुप में की गई है.

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मुझे तो ये समझ नहीं आता की आखिर इन हैवानों के अंदर क्या जरा सी भी दया नहीं होती. एक स्त्री क्या ये तो छोटी सी बच्ची को भी नहीं छोड़ते. क्या इनका अपना कोई परिवार नहीं या फिर इन्हें परवरिश ही अच्छी नहीं मिलती. ये हैवान इस तरह के गलत काम करने की हिम्मत कहां से लाते हैं जो इंसानियत को शर्मसार कर देती है.

सुरक्षा पर सवाल…

आज एक बार फिर से देश की राजधानी की सुरक्षा पर सवाल खड़े हुए हैं. अभी तक तो सिर्फ महिलाएं, लड़कियां घर से रात को बाहर निकलने पर डरती थीं लेकिन इस घटना के बाद अब तो लोग अपनी छोटी सी बच्ची को खेलने के लिए भी भेजने से डरेंगे. उनके बच्चे अपना बचपन भी नहीं खेल पाएंगे. क्योंकि अब तो उनका बचपन भी सुरक्षित नहीं रहा है. आज सिर्फ इस बच्ची की ही बात नहीं है आए दिन खबर सुनने को मिलती है कि पांच साल की बच्ची से रेप, तो कभी सात साल की बच्ची से रेप.

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जिन बच्चों ने ठीक से बोलना भी नहीं सीखा उनके साथ भी बलात्कार जैसी घटना घट रही है देश कहां जा रहा है हमारा. क्या ये भारत है? आज ये सवाल सिर्फ आप से, मुझसे या दिल्ली प्रशासन से,भारत सरकार से ही नहीं बल्कि पूरे भारत को लोगों से है. सरकार को इसके लिए कुछ कड़े रुख अपनाने होंगे और कुछ कड़े कानून का प्रावधान करना होगा वरना वो दिन दूर नहीं जब घर में बच्ची को जन्म देने से भी लोग डरेंगे की कहीं उसके साथ बलात्कार न हो जाए.

जरा सोचिएगा आप भी…

एडिट बाय- निशा राय

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