रहनुमा: भाग-3

फिर कांपते हाथों से चाय बना, 2 बिस्कुट के साथ चाय गटकने के बाद संध्या ने बुखार, बदनदर्द की टैबलेट खा ली थी और बुखार की खुमारी में पता नहीं कितनी देर यों ही पड़ी थी कि अचानक दरवाजे की घंटी की आवाज से तंद्रा टूटी थी. दरवाजा खोला तो आगंतुक को देख बुखार की खुमारी में बंद आंखें चौंक कर फैल गईं थीं और उसे तुरंत नारीसुलभ लज्जा ने घेर लिया था. वह अपने अस्तव्यस्त कपड़े और बिखरे बाल समेटने लगी थी.

‘‘आप…?’’ वह बोली थी.

‘‘भीतर नहीं आने देंगी क्या?’’ शेखर बोला था.

वह सकपका कर दरवाजे के बीच से हट गई थी.

‘‘ऐक्सीडैंट जबरदस्त हुआ है. अरे आप को तो बुखार भी है,’’ कहते हुए शेखर ने पहले संध्या की कलाई थामी, फिर ललाट का स्पर्श किया. संध्या पत्ते की तरह थरथरा उठी थी. छुअन का रोमांच विचित्र था.

‘‘चलिए, डाक्टर से दवा ले आते हैं.’’

संध्या विरोध न कर सकी थी. वापस घर आ कर शेखर ने किचन में जा कर संध्या के लिए दलिया बनाया था और अपने सामने उसे खिलाया था.

‘‘अच्छा अब मैं चलता हूं. दवा आप ने ले ली है, आराम आ जाएगा. फिर मदद की जरूरत हो तो याद कर लीजिएगा,’’ कह कर जवाब की प्रतीक्षा किए बिना शेखर जा चुका था.

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शेखर का घर आना, क्षणिक मधुर स्पर्श, उस का केअरिंग ऐटिट्यूट संध्या के नीरस जीवन में मधुर स्मितियां सजा गया. इस उम्र में भी निगोड़ा मन अशांत होने लगा है. आईने पर बरबस नजर चली जाती है और अधरों पर लजीली मुसकान थिरकने लगती है, संध्या सोचती फिर सिर को झटक कर वर्तमान में लौट आती. फिर सोचने लगती कि इस निगोड़े मन में यही खराबी है कि जरा सी ढील दे दो तो कहांकहां डोलने लगता है. क्या सचमुच उम्र बुढ़ा जाती है, मन नहीं? संध्या स्वस्थ हो गई थी धीरेधीरे. एक दिन सपना के फोन ने उस के मन में उत्साह भर दिया था. वह भारत आ रही थी अपने बेटे के साथ. वह अपने 5 वर्ष के नाती बौबी के साथ खूब मस्ती करेगी, यह सोच कर वह बहुत उत्साहित थी. उस ने तुरतफुरत घर में सभी जरूरत का सामान जुटाना शुरू कर दिया था. सपना के आने से घर का कोनाकोना जीवंत हो उठा था.

‘‘ममा, ये शेखर कौन है?’’ एक रोज सपना के अप्रत्याशित प्रश्न ने संध्या को झकझोर दिया था.

‘‘कुलीग है…’’ संक्षिप्त सा उत्तर दे उस ने बात खत्म करनी चाही थी.

‘‘आप के मोबाइल पर इन की कौल्स देखीं इसलिए…’’

संध्या ने कोई जवाब नहीं दिया किंतु मां के चेहरे के हावभाव सपना देखनेसमझने का प्रयास कर रही थी. एक दिन रात के सन्नाटे को तोड़ता अचानक संध्या का मोबाइल घनघना उठा, तो उस ने तुरंत मोबाइल उठाया और बोली, ‘‘आजकल बच्चे आए हुए हैं…’’

उस ने फोन काटना चाहा पर शेखर उधर से बोला, ‘‘ठीक है, बहुत अच्छा है. आप बिटिया से हमारे संबंध के विषय में बात कर लीजिए. अगर आप कहें तो मैं स्वयं आ कर उस से मिल लेता हूं.’’

‘‘नहींनहीं,’’ कह कर संध्या ने घबरा कर फोन काट दिया था.

मां के कांपते हाथ और चेहरे के थरथराते भाव देख सपना ने तुरंत पूछा था, ‘‘कौन था ममा, रात के 11 बजे हैं?’’ स्थिर खड़ी संध्या चुपचाप बिस्तर की ओर बढ़ गई थी.

‘‘क्या हुआ ममा, कुछ परेशान हैं आप. कोई टैंशन है क्या…?’’

संध्या ने अचकचा कर इनकार कर दिया था. संध्या के मन में उधेड़बुन चल रही थी. सपना की प्रतिक्रिया क्या होगी? सब कुछ जान लेने के बाद क्या मांबेटी एकदूसरे के प्रति सहज रह पाएंगी? मां के जीवन में किसी दूसरे पुरुष की उपस्थिति बच्चों को स्वीकार्य नहीं होगी शायद. किंतु अपने मन की बात बच्चों से न शेयर कर पाने के एहसास से स्वयं उस का हृदय घुटन महसूस करता. अपने नए एहसास, नई मैत्री को वह किसी अपने से बांटना भी चाहती थी किंतु परिवार व समाज की बंदिशों का डर, अपनी स्वयं की सीमाओं के टूट जाने का भय उसे ऐसा करने नहीं दे रहा था.

सपना के बारबार कुरेदने पर संध्या ने उसे शेखर के बारे में सब कुछ बता दिया था. लेकिन सपना के चेहरे पर कठोरता और नागवारी के भाव देख वह सकपका गई थी. ‘‘मम्मी, आप को कोई ‘इमोशनल फूल’ बना रहा है. आप बहुत सीधी हैं, आप की नौकरी, पैसे के लालच में आ कर कोई भी आप को बेवकूफ बना रहा है. अब उस का फोन आए तो मुझे बताना, मैं उस का दिमाग ठिकाने लगाऊंगी.’’

‘‘लेकिन बेटा, आर्थिक रूप से वह भी संपन्न है. मेरे पैसे, मेरी प्रौपर्टी से उसे कुछ लेनादेना नहीं है.’’

‘‘लेकिन मम्मी, इस उम्र में आप को ऐसा बेतुका खयाल आया कैसे? बहुत सी औरतें हैं, जो आप ही की तरह अकेली रहती हैं, लेकिन बुढ़ापे में शादी नहीं करतीं. यह बात मेरी ससुराल में और रिश्तेदारों को पता चलेगी तो उन का क्या रिऐक्शन होगा? सब मजाक उड़ाएंगे और हम हैं तो सही आप के अपने बच्चे. कोई दुख, तकलीफ अगर हो तो आप हम से कहो. बाहर वाले लोगों के सामने अपनी परेशानी बता कर क्यों हमदर्दी लेना चाहती हो?’’ सपना की आवाज के तार कुछ और कस गए थे, ‘‘राहुल को जब पता चलेगा कि उस की सास ऐसा कुछ करना चाहती हैं, तो कितना बुरा लगेगा उसे…’’

संध्या अपराधबोध से कसमसा उठी थी. स्वयं पर ग्लानि अनुभव हुई थी उसे. सपना की वापसी का दिन आ गया तो वह बोली, ‘‘ममा, मैं जल्दी ही अपना दूसरा ट्रिप बना लूंगी आप के पास आने के लिए. रिटायरमैंट के बाद आप मेरे साथ रहेंगी बस…’’ एक फीकी मुसकान संध्या के बुझे चेहरे पर फैल गई थी.

‘‘मैं ने कोमल से भी कह दिया है. वह भी यहां आने का प्रोग्राम बना रही है.’’

‘‘हां बेटा ठीक है.’’

सपना चली गई तो घर में सन्नाटा पसर गया. संध्या स्वयं को संयत कर अपने रोजमर्रा के कार्यों में लीन हो गई. शेखर का फोन आता तो वह रिसीव न करती. जब उस की बेटी कोमल आई, तो एक बार फिर घर का कोनाकोना महक उठा. छुट्टी के दिन सुबह से शाम तक घूमना, खरीदारी. औफिस जाती तो घर जल्दी लौटने का मन होता.

‘‘ममा, ये शेखर कौन हैं?’’ कोमल के चेहरे पर रहस्यमयी मुसकान थी. संध्या का चेहरा उतर गया था.

‘‘सपना दीदी ने मुझे बताया था.’’

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संध्या के हाथ रुक गए थे. कदम ठिठक गए थे… अब कोमल अपना रोष व्यक्त करेगी. ‘‘ममा, यह तो बहुत अच्छी बात है. हम दोनों बहनें तो बहुत दूर रहती हैं आप से. फिर गृहस्थी की तो बीसियों उलझनें हैं. ऐसे में जरूरत पड़ने पर हम आप की कब और कितनी मदद कर सकती हैं. मुझे तो खुशी होगी अगर आप… हां, सपना दीदी को समझाना होगा. उन्हें मनाना मेरा काम होगा. आप शेखर अंकल और उन के बेटे को घर पर बुलाइए. हम सभी एकदूसरे से मिलना चाहेंगे.’’ संध्या टकटकी लगाए बेटी का मुंह देखती रह गई थी. शेखर अपने बेटे के साथ संध्या के घर आ गया था. वहां सहज भाव से सब ने एकदूसरे से बातचीत की थी और कोमल व उस का पति नीरज शेखर के बेटे से बहुत प्रभावित हुआ था. शेखर का डाक्टर पुत्र वास्तव में एक समझदार लड़का था. डाक्टरी पेशे में अत्यधिक व्यस्त रहने की वजह से वह अपने पिता को समय नहीं दे पाता था, इसलिए उन के जीवन में एक संगिनी की आवश्यकता को बेहद जरूरी समझता था. उस के प्रगतिशील विचार जान कर और पिता के प्रति उस का प्रेम और आदर का भाव देख संध्या हैरान थी.

संध्या के मन में चल रही कशमकश को उस ने यह कह कर एकदम दूर कर दिया था, ‘‘आंटी, आप अपने मन में चल रही कशमकश और शंका को दूर कर लें और हम पर विश्वास कर जीवन के इस मोड़ पर नई राह का खुले दिल से स्वागत करें. मैं और मेरी 2 बहनें कोमल और सपना आप के साथ हैं.’’ ‘‘मम्मी, आप इतनी टैंशन में न आएं. अब तो मुसकरा दें प्लीज. आप की खुशी में ही हम बच्चों की खुशी है,’’ दामाद के मुंह से यह सुन कर संध्या के मन में चल रही कशमकश समाप्त हो गई थी. दुविधा के बादल छंट चुके थे.

रहनुमा: भाग-2

फिर बातों ही बातों में संध्या को पुनर्विवाह की सलाह सभी ने दे डाली थी. संध्या को बहुत अटपटा लगा था यह हासपरिहास, लेकिन 2-4 दिन बाद उसे फिर ऐसे ही वाक्य सुनने को मिले थे. एक रोज तो अचानक ही संध्या के औफिस का सहकर्मी उस के समक्ष अपने एक मित्र शेखर को ले कर उपस्थित हो गया था और बिना किसी भूमिका के उस ने विवाह प्रस्ताव उस के सम्मुख रख दिया था. शेखर ने उस के सामने बैठ कर स्वयं ही अपना परिचय दिया था कि वह प्रतिष्ठित और उच्च पद पर है और पत्नी की मृत्यु हुए कई वर्ष बीत चुके हैं. एक डाक्टर पुत्र है, जो विवाहित है और 2 छोटे बच्चों का पिता है. पिता के अकेलेपन की त्रासदी पुत्र को भीतर ही भीतर बेचैन किए हुए है. इसलिए उस का आग्रह है कि वे अपनी जीवनसंध्या में अपने लिए उपयुक्त साथी खोज लें.

शेखर का यह आकस्मिक प्रस्ताव संध्या को असंतुलित कर गया था, लेकिन उस के बाद से शेखर के फोन संध्या के पास बराबर आने लगे थे. संध्या कभी तो संक्षिप्त वार्तालाप कर फोन बंद कर दिया करती थी, तो कभी रिसीव ही नहीं करती थी. कभी फोन उठाती लेकिन मुंह से बोल न निकलते. खामोशी की भी अपनी ही जबान होती है, जिसे फोन करने वाला तुरंत समझ जाता है. लेकिन जिस ‘हां’ को शेखर सुनना चाहता था वह सहमति नदारद रहती. संध्या की ससुराल की तरफ से तो कोई रिश्तेदारी थी नहीं, मायके में पिताजी थे और 2 भाई थे. उस ने अपनी भाभी से शेखर के प्रस्ताव के विषय में बात की थी, तो बात पूरे घर में फैल गई थी. किसी की तरफ से अच्छा रेस्पौंस नहीं मिला था. संध्या के पिताजी तो इस बात को जान कर क्रोध में फोन पर बरस पड़े थे, ‘‘अब तुम्हारी उम्र मोहमाया के बंधनों से नजात पाने की है या बेसिरपैर के संबंध से बंधने की है? कुछ अध्यात्म की ओर मन लगाओ और अच्छा साहित्य पढ़ो. समय फालतू है तो समाजसेवा की सोचो. रिटायरमैंट के बाद खाली समय बिताने की समस्या अभी से क्यों है तुम्हारे दिमाग में? इस उम्र में स्वयं को बंधन में बांधना एकदम वाहियात बात है.’’

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घर वालों का नकारात्मक रवैया शेखर को संध्या ने बता दिया था और फिर बोली थी कि आप अपने लिए किसी अन्य साथी की खोज करिए, मैं ऐसे ही ठीक हूं. संध्या की बेरुखी के बाद भी शेखर ने उसे समझाने का असफल प्रयास किया था. फिर स्वयं भी मौन साध लिया था. उस के फोन आने बंद हो गए थे और दिन गुजरते जा रहे थे. शुरू में तो संध्या ने राहत की सांस ली थी, किंतु 1 हफ्ता बीत गया तो उस की फोन की प्रतीक्षा में बेचैनी बढ़ने लगी थी. मन एक नई उलझन में उलझता जा रहा था कि क्या हो गया? मेरी बेरुखी से ही फोन आने बंद हो गए शायद? या शायद शेखर ने भी अपना बचकाना विचार छोड़ दिया होगा और यही उचित भी है. इस उम्र में किसी के साथ जुड़ने, संग रहने का क्या मतलब?

लेकिन उस का अधीर मन यह भी कहता कि वह स्वयं ही फोन कर ले. किंतु संस्कारी चित्त राजी न होता. एक दिन मन के हाथों हार कर संध्या ने मोबाइल पर शेखर का नंबर पंच कर हलकी सी मिस्ड कौल दे दी थी. ऐसा करने से उस का हृदय जोरों से धड़क उठा था. उस के मोबाइल पर तुरंत यह संदेश आ गया था, ‘मैं बहुत परेशान हूं, अभी बात नहीं कर पाऊंगा.’

‘क्या हुआ? कैसी परेशानी?’ उस ने सवाल भेजा था पर उस का कोई जवाब नहीं आया था. अगले दिन संध्या यह सोच कर अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई थी कि व्यर्थ ही उस ने अपने मन को बेकार के झंझट में फंसाया. किंतु भावनाओं के ठहरे हुए दरिया में अचानक एक पत्थर आ गिरा था. एक दिन मोबाइल की घंटी बजी, तो संध्या ने स्क्रीन पर नजर डाली. उस पर शेखर का नाम था. उस ने कांपते हाथों से मोबाइल हाथों में थामा तो शेखर का अक्स उभर आया था. शेखर ने बताया था कि उन का इकलौता बेटा डाक्टरों और सहायकों की टीम के साथ किसी गांव में फैली महामारी का इलाज करने और बीमारों की तीमारदारी के लिए गया था. लेकिन मरीजों को भलाचंगा करतेकरते वह स्वयं भी रोग की चपेट में आ गया था. इसलिए वह उस के बेहतर इलाज के लिए उसे तुरंत दिल्ली ले कर गया था. वहां बढि़या मैडिकल सेवा की बदौलत उस की सेहत में सुधार होने लगा और अब वह धीरेधीरे पूर्ण स्वस्थ हो रहा है. मैं बहुत परेशान और व्यस्त रहा, क्योंकि बहुत भागदौड़ रही. और कैसी हैं आप? अच्छा फोन बंद करता हूं. डाक्टर के पास जा रहा हूं.

संध्या ने फिर कभी कोशिश नहीं की फोन करने की, न ही दूसरी तरफ से कोई समाचार आया. एक दिन संध्या औफिस से निकल अपने दुपहिया वाहन पर सवार विचारों में खोई चली जा रही थी कि उस की आंखों के सामने अंधेरा छा गया. उस की एक चीख निकली और वह वाहन समेत सड़क पर जा गिरी. उस के बाद उसे नहीं मालूम कि क्या हुआ. आंखें खुलीं तो उस ने स्वयं को अस्पताल में पाया. कोई भलामानुस उसे अस्पताल ले आया था और फिर घर भी छोड़ गया था. उस के पूरे शरीर में दर्द था और चलनेफिरने में भी दिक्कत थी. जैसेतैसे दूध गरम कर ब्रैड के 2 पीस खा कर उस ने दवा ले ली थी. फिर जल्दी ही उसे नींद आ गई थी. सुबह आंख खुली तो समूचा जिस्म अकड़ा हुआ था. अपनी सहकर्मी मित्र को फोन कर उस ने हादसे की सूचना दी थी और अवकाश के लिए कह दिया था. सांझ होते ही उस की कुलीग्स उस का हालचाल जानने के लिए घर आ गई थीं और उस के खानेपीने का प्रबंध कर गई थीं.

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अगले दिन जब नींद से जागी तो सिर दर्द से फटा जा रहा था और सारा शरीर ताप से जल रहा था. वह बिस्तर से उठने के प्रयास में लड़खड़ा गई थी, लेकिन फोन बज रहा था इसलिए जैसेतैसे उस के पास जा कर रिसीवर कान से सटाया था.

‘‘हैलो संध्याजी, आप कैसी हैं?’’ उधर से शेखर की आवाज थी.

‘‘बस तबीयत ठीक नहीं है, बुखार है शायद. ऐक्सीडैंट…,’’ संध्या का कंठ भर्रा गया था, रिसीवर हाथ से छूट गया था.

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रहनुमा: भाग-1

मोबाइल की सुरीली सी खनक सुन संध्या ने स्क्रीन पर उभरे नंबर और नाम को देखा, तो उस का हृदय तेजी से धड़क उठा. लेकिन मोबाइल बजता रहा और वह खामोश बैठी रही. 10 मिनट बाद लैंडलाइन की घंटी बजी तो उस ने कौलर आईडी पर नंबर चैक किया. पल भर को उस का जी चाहा कि रिसीवर उठा कर बात कर ले, किंतु अपने मनोभाव को संयत कर उस ने फोन काल को नजरअंदाज करना ही ठीक समझा. फिर संध्या अपने दैनिक क्रियाकलाप निबटाने लगी. सुबह घर की साफसफाई करना, चायनाश्ता बना कर खाना फिर औफिस चले जाना और सांझ ढले थकेमांदे घर लौटना यही उस की दिनचर्या रहती. लेकिन घर लौटने पर खालीखाली सूना घर देख उस का मन उदास हो जाता. देह को ठेलती वह किचन में जा कर चाय बनाती और टीवी औन कर देती. देर रात तक टीवी चलता रहता तो टीवी के शोर से घर का सन्नाटा जैसे समाप्त हो जाता.

रात के सन्नाटे में जरा सी आहट होते ही वह कांप जाती. एक रात जब वह सो रही थी तब मुख्यद्वार के बाहर लगी घंटी बज उठी थी. उस की नींद टूटी तो इतनी रात गए कौन होगा, सोच कर वह सिहर उठी थी. फिर घबरा कर वह चीख उठी थी कि कौनहै? लेकिन कोई उत्तर न पाने पर कांपते हाथों से खिड़की का पल्ला खोला था. लेकिन बाहर कोई नजर नहीं आया था. जब गेट के बाहर की घंटी लगातार बजती रही तो वह कांपते हाथों से दरवाजा खोल लौन में आ गई. गेट की घंटी पूर्वत बज ही रही थी. शायद राह चलते किसी मनचले ने मसखरी करने के लिए घंटी बजा दी थी, जो घंटी का स्विच दबा रह जाने की वजह से लगातार बजती चली जा रही थी. उस ने घंटी का स्विच औफ किया था और तुरंत भीतर जा कर दरवाजेखिड़कियां बंद कर दी थीं. किंतु उस के बाद सारी रात वह सो नहीं सकी थी.

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संध्या के पति की मृत्यु हुए बरसों बीत गए हैं. 2 बेटियां हैं जिन का विवाह उस ने स्वयं ही किया है. एक बेटी विदेश में है और दूसरी भारत में ही है. लेकिन कोसों दूर. वैसे संध्या की बढि़या नौकरी है, इसलिए अच्छाखासा वेतन और घर में सभी सुविधाएं हैं. सुबह से शाम कैसे हो जाती है संध्या को पता नहीं चलता, लेकिन सांझ ढले एकांत घर में आना उसे तनमन से थका देता है. बेटियों से रोज बातचीत होती है किंतु वे दोनों अपनी गृहस्थी में व्यस्त हैं, इसलिए ज्यादा समय नहीं दे पातीं. जब कभी वह बीमार हो जाती है तो अपना अकेलापन उसे और भी भयावह लगता है.

उस दिन जब वह सांझ ढले घर लौटी तो देखा कि लैटर बौक्स में एक पत्र पड़ा था. उसे निकाल वह ताला खोल सोफे पर पसर गई थी और उसे पढ़ते ही उस का दिल तेजी से धड़कने लगा था. उस में लिखा था:

संध्याजी,

फोन पर आप से बात न हो सकी, इसलिए मैं पत्र लिखने को विवश हो गया. फिर मेरे हृदय में भावनाओं का जो ज्वार उमड़ रहा है उस की सच्ची अभिव्यक्ति पत्र द्वारा ही संभव है.

मात्र 4 वर्षों के वैवाहिक जीवन के बाद मेरी पत्नी का देहांत हो गया था. तब से अपनी एकमात्र संतान अपने बेटे की परवरिश अकेले ही करी. मन में कभी ब्याह का खयाल नहीं आया. लेकिन जीवन के इस मोड़ पर आप से मिला, तो इच्छा जाग उठी कि अपने जीवन में आप को शामिल कर सकूं. मैं ने अपने बेटे के बारबार आग्रह करने पर ही इस जीवनसंध्या में किसी साथी के विषय में सोचना शुरू किया है. अगले वर्ष नौकरी से रिटायर हो जाऊंगा तो अच्छीखासी पैंशन मिलेगी. इस के अलावा काफी चलअचल संपत्ति का भी मालिक हूं और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी पूर्णतया स्वस्थ और फिट हूं.

आजकल आप के विषय में ही सोचता रहता हूं. मैं जानता हूं कि दुनिया क्या कहेगी, परिवार क्या सोचेगा. मात्र इस सोच के चलते चुप्पी साधे हुए हूं, जबकि प्रसन्न रहना, हंसना और नीरस जिंदगी में बहार लाना कोई पाप नहीं है.

-शेखर

संध्या ने पत्र बंद कर एक ओर सरका दिया था, लेकिन लिखने वाले ने अपनी भावनाओं को खुलेपन से व्यक्त किया था, इसलिए उस में संवेदना के तार झनझना उठे थे. रात में भोजन के बाद वह टीवी देखने में मगन थी कि मोबाइल बज उठा था. वह बोल उठी थी, ‘‘क्षमा कीजिएगा. आप जैसा सोचते हैं वैसा होना बिलकुल भी संभव नहीं है. मैं अपने जीवन में खुश और संतुष्ट हूं. मैं अकेली नहीं हूं, मेरा भरापूरा परिवार है,’’ इतना कह कर उस ने फोन काट दिया था और टीवी बंद कर बिस्तर पर लेट गई थी. काफी देर तक वह जागती रही फिर न जाने कब उस की छटपटाहट को निद्रा ने दबोच लिया था. अगले दिन रोज की तरह औफिस के काम को तत्परता से निबटा वह सांझ ढले घर के लिए निकलने को ही थी कि अपने सामने एकाएक उपस्थित हो गए शख्स को देख चौंक गई थी.

‘‘आप?’’

‘‘हां मैं, मुझे आना ही पड़ा. आप को अचानक क्या हो गया? पहले ‘हां’ और फिर एकदम चुप्पी साध लेना. आप ने स्वयं ही तो पहले मौन स्वीकृति दी थी.’’

संध्या नजरें नहीं मिला पा रही थी. फिर भी बोली थी, ‘‘मुझ से भूल हो गई थी. यह सब इस उम्र में अच्छा नहीं. मुझे घर जल्दी पहुंचना है.’’ उस के शब्द इस के बाद गले में अटक कर रह गए थे.

‘‘आप क्यों संदेहों, आशंकाओं से घिर कर अपनेआप को आहत कर रही हैं?’’

‘‘प्लीज मुझे किसी रिश्ते, संबंध के दलदल में नहीं फंसना है,’’ संध्या झुंझला उठी थी.

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घर वापस आ कर वह निढाल सी सोफे पर बैठ गई थी. चाय पीने की इच्छा तो थी, किंतु बनाने का मन नहीं कर रहा था. वह सोच रही थी कि जीवन के शून्याकाश में एकाकी तारे जैसी स्थिति है उस की. वैसे जीवन में आए एकाकीपन के कष्टों की धूप उस के लावण्य को झुलसा नहीं सकी थी. एक दिन औफिस की एक पार्टी के दौरान संध्या ने अपने लंबे बाल खुले रख छोड़े थे, जिन्हें देख उस की सहकर्मी सखियां हैरान हो गई थीं. उस के नित्यप्रति बंधे जूड़े से उन्मुक्त लंबे बाल जो कंधों पर बिखरे थे. उन्हें देख कर एक बोली थी, ‘‘ये आप के बाल हैं या लहराताबलखाता झरना. संध्याजी, आप अपनी उम्र से छोटी और स्मार्ट दिखती हैं. शारीरिक रूप से भी आप बिलकुल फिट हैं.’’

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