Mother’s Day Special: मां बेटी के बीच मनमुटाव के मुद्दे

मांबेटी का रिश्ता दुनिया के खूबसूरत रिश्तों में से एक होता है. बेटी होती है मां की परछाई और इस परछाई पर मां दुनियाभर की खुशियां वार देना चाहती है. एक औरत जब मां बनती है और खासकर बेटी की मां बनती है तो उसे लगता है एक बेटी के रूप में वह अपना जीवन फिर से जी सकेगी. मांबेटी के प्यारभरे रिश्ते में भी कई बार तल्खियां उभर आती हैं. मांबेटी के रिश्ते में तल्खियां विवाह से पहले या विवाह के बाद कभी भी हो सकती हैं.

1 शादी से पहले के मनमुटाव

मां के हिसाब से बेटी का समय पर न उठना, दिनभर मोबाइल में लगे रहना, ऊटपटांग कपड़े पहनना आदि अनेक ऐसे छोटेमोटे विषय हैं जिन पर मांबेटी के बीच आमतौर पर खींचातानी होती रहती है. ऐसा होना हर मांबेटी के बीच आम है. लेकिन कई बार कुछ मसले ऐसे हो जाते हैं जिन के कारण मांबेटी के बीच मनमुटाव इस कदर बढ़ जाता है कि वे एकदूसरे से बात करना भी नहीं पसंद करतीं या फिर बेटी, मां से अलग रहने का भी निर्णय ले लेती है.  मुझे पसंद नहीं तुम्हारा बौयफ्रैंड :  22 वर्षीया सान्या एमबीए की स्टूडैंट है. वह अपने कालेज के एक ऐसे लड़के को पसंद करती है जिसे उस की मां नापसंद करती है. मां नहीं चाहती कि सान्या उस लड़के के साथ कोई भी संपर्क रखे. लेकिन सान्या के दिलोदिमाग पर तो वह लड़का इस कदर छाया हुआ है कि वह मां की कोईर् बात सुनने को ही तैयार नहीं है. आएदिन की इस लड़ाईझगड़े से तंग आ कर सान्या ने अलग फ्लैट ले कर रहना शुरू कर दिया है.

2 नौकरी बन जाए विवाद का विषय: 

28 वर्षीया रिया कौल सैंटर में नौकरी करती है, वह भी नाइट शिफ्ट की. उस की मां को यह जौब बिलकुल पसंद नहीं है क्योंकि इस नौकरी की वजह से रिया के आसपड़ोस वाले उस की मां को तरहतरह की बातें सुनाते रहते हैं.

रिया की मां ने कई बार उस से कहा है कि वह यह नौकरी छोड़ दे लेकिन चूंकि रिया को इस नौकरी से कोई दिक्कत नहीं है, सो, वह छोड़ना नहीं चाहती. इस बात पर दोनों की अकसर बहस होती रहती है. आएदिन की बहस से परेशान हो कर रिया ने अपने औफिस के पास के एक पीजी में रहना शुरू कर दिया है. उसे लगता है कि रोज की किचकिच से यही बेहतर है.  विवाह के बाद बेटी अपनी ससुराल चली जाती है. ऐसे में मांबेटी के बीच प्यार और अपनापन कायम रहना चाहिए लेकिन कुछ मामलों में शादी के बाद भी मांबेटी के बीच का मनमुटाव जारी रहता है. बस, विवाद के कारण बदल जाते हैं.

3 लेनदेन से उपजा मनमुटाव 

विधि की शादी एक संपन्न घर में हुई है. वह जब भी मायके  आती है तो मां से अपेक्षा करती है उसे वही ऐशोआराम, वही सुखसुविधाएं मायके में भी मिलें जो ससुराल में मिलती हैं. लेकिन चूंकि विधि के मायके की आर्थिक स्थिति सामान्य है, सो, उसे वहां वे सुविधाएं नहीं मिल पातीं.  नतीजतन, जब भी विधि मायके आती है, मां से उस की बहस हो जाती है. इस के अलावा विधि को अपनी मां से हमेशा यह शिकायत भी रहती है कि वे उस की ससुराल वालों के स्टेटस के हिसाब से लेनेदेन नहीं करतीं, जिस की वजह से उसे अपनी ससुराल में सब के सामने नीचा देखना पड़ता है. विधि की मां अपनी हैसियत से बढ़ कर विधि की ससुराल वालों को लेनादेना करती है लेकिन विधि कभी संतुष्ट नहीं होती और दोनों के बीच खींचातानी चलती रहती है.

4 संपत्ति विवाद भी है कारण 

पति के गुजर जाने के बाद स्वाति की मां अपने बेटे रोहन के साथ रहती हैं. रोहन ही उन की सारी जरूरतों का ध्यान रखता है और उन की तरफ से सारे सामाजिक लेनदेन करता है. आगे चल कर कोई प्रौपर्टी विवाद न हो, इसलिए स्वाति की मां ने वसीयत में अपनी सारी जमीनजायदाद रोहन के नाम कर दी. स्वाति को जब इस बात का पता चला तो वह अपनी मां से संपत्ति में हिस्से के लिए लड़ने आ गई. उस का कहना था कि जमीनजायदाद  में उसे बराबरी का हिस्सा चाहिए जबकि स्वाति की मां का कहना था कि उस की शादी में जो लेनादेना था, वह उन्होंने कर दिया और वैसे भी, अब रोहन उन की पूरी जिम्मेदारी संभालता है तो वे प्रौपर्टी रोहन के नाम ही करेंगी. इस बात पर गुस्सा हो कर स्वाति ने मां से बोलचाल बंद कर दी और घर आनाजाना भी बंद कर दिया.

5 मां के संबंधों से बेटी को शिकायत

अनन्या के पिताजी को गुजरे 4 वर्ष हो गए हैं. वह अपनी ससुराल में मस्त है. मां कालेज में नौकरी करती हैं. जहां उन के संबंध कालेज के सहकर्मी से हैं. यह बात अनन्या को बिलकुल पसंद नहीं. अनन्या को लगता है पिताजी के चले जाने के बाद मां ने उस पुरुष से संबंध क्यों रखे हैं.  वह कहती है, ‘मां के इन संबंधों से समाज और ससुराल में उस की बदनामी हो रही है.’ जबकि अनन्या की मां का कहना है कि उम्र के इस पड़ाव के अकेलेपन को वह किस तरह दूर करे. अगर ऐसे में कालेज का उक्त सहकर्मी उस की भावनाओं व जरूरतों का ध्यान रखता है तो उस में बुरा क्या है. बस, यही बात मांबेटी के बीच मनमुटाव का कारण बनी हुई है. इस स्थिति में अनन्या को अपनी मां के अकेलेपन की जरूरत को समझना चाहिए और व्यर्थ ही समाज से डर कर मां की खुशियों की राह में रोड़ा नहीं बनना चाहिए. बेटी को मां की जरूरतों से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा की फिक्र है. वह तो मां को बुत बना कर बाहर खड़ा कर देना चाहती है जो आदर्श तो कहलाए पर आंधीपानी और अकेलेपन को रातदिन सहे.

Entertainment: गैजेट्स बनाम परिवार

आज किशोर अपनों से ज्यादा गैजेट्स के इतने अधिक आदी हो गए हैं कि उन्हें उन के बगैर एक पल भी रहना गवारा नहीं, भले ही अपनों से दूर रहना पड़े या फिर उन की नाराजगी झेलनी पड़े. अब तो आलम यह है कि किशोर सुबह उठते ही भले ही मम्मीपापा, दादादादी, बहनभाई से गुडमौर्निंग न कहें पर स्मार्टफोन पर सभी दोस्तों को विशेज का मैसेज भेजे बिना चैन नहीं लेते.

यह व्याकुलता अगर अपनों के लिए हो तो अच्छी लगती है, लेकिन जब यह वर्चुअल दुनिया के प्रति होती है जो स्थायी नहीं तो ऐक्चुएलिटी में सही नहीं होती. इसलिए समय रहते गैजेट्स के सीमित इस्तेमाल को सीख लेना ही समझदारी होगी.

गैजेट्स परिवार की जगह नहीं ले सकते

स्मार्टफोन से नहीं अपनों से संतुष्टि

आज स्मार्टफोन किशोरों पर इतना अधिक हावी हो गया है कि भले ही वे घर से निकलते वक्त लंच रखना भूल जाएं, लेकिन स्मार्टफोन रखना नहीं भूलते, क्योंकि उन्हें उस पर घंटों चैट जो करनी होती है ताकि पलपल की न्यूज मिलती रहे और उन की खबर भी औरों तक पहुंचती रहे. इस के लिए ऐडवांस में ही नैट पैक डलवा लेते हैं ताकि एक घंटे का भी ब्रेक न लगे.

भले ही किशोर गैजेट्स से हर समय जुड़े रहते हैं, लेकिन इन से उन्हें संतुष्टि नहीं मिल पाती जबकि अपनों संग अगर हम आराम से आधा घंटा भी बात कर लें, उन की सुनें अपने मन की कहें तो भले ही हम पूरा दिन भी उन से दूर रहें तब भी हम संतुष्ट रहते हैं, क्योंकि उन की कही प्यार भरी बातें हमारे मन में पूरे दिन गूंजती जो रहती हैं.

गैजेट्स भावनाहीन, अपनों से जुड़ीं भावनाएं

चाहे आज अपनों से जुड़ने के लिए ढेरों ऐप्स जैसे वाइबर, स्काइप, व्हाट्सऐप, फेसबुक मौजूद हैं जिन के माध्यम से जब हमारा मन करता है हम दूर बैठे अपने किसी फ्रैंड या रिश्तेदार से बात करते हैं. दुखी होते हैं तो अपना दर्द इमोटिकोन्स के माध्यम से दूसरों तक पहुंचाने की कोशिश करते हैं.

भले ही हम ने अपनी खुशी या दर्द इमोटिकोन्स से शेयर कर लिया, लेकिन इस से देखने वाले के मन में वे भाव पैदा नहीं होते जो हमारे अपने हमारी दर्द भरी आवाज को सुन कर या फिर हमारी आंखों की गहराई में झांक कर महसूस कर पाते हैं. उन्हें सामने देख कर हम में दोगुना उत्साह बढ़ जाता है, जो गैजेट्स से हरगिज संभव नहीं.

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इंटरनैट अविश्वसनीय, अपने विश्वसनीय

भले ही हम ने इंटरनैट को गुरु मान लिया है, क्योंकि उस के माध्यम से हमें गूगल पर सारी जानकारी मिल जाती है लेकिन उस पर बिखरी जानकारी इतनी होती है कि उस में से सच और झूठ में फर्क करना मुश्किल हो जाता है, जबकि अपनों से मिली जानकारी भले ही थोड़ी देर से हासिल हो लेकिन विश्वसनीय होती है. इसलिए इंटरनैट के मायाजाल से खुद को दूर रख कर अपने बंद दिमाग के ताले खोलें और कुछ क्रिएटिव सोच कर नया करने की कोशिश करें.

गैजेट से नहीं अपनों से ऐंटरटेनमैंट

अगर आप के किसी अपने का बर्थडे है और आप उस के इस दिन को खास बनाने के लिए अपने फोन से उसे कार्ड, विशेज पहुंचा रहे हैं तो भले ही आप खुद ऐसा कर के संतुष्ट हो जाएं, लेकिन जिसे विशेज भेजी हैं वह इस से कतई संतुष्ट नहीं होगा, जबकि अगर यह बर्थडे वह अपने परिवार संग मनाएगा तो उसे भरपूर मजा आएगा, क्योंकि न सिर्फ गिफ्ट्स मिलेंगे बल्कि ऐंटरटेनमैंट भी होगा व स्पैशल अटैंशन भी मिलेगी.

गैजेट में वन वे जबकि परिवार में टू वे कम्युनिकेशन

जब भी हम फेसबुक या व्हाट्सऐप पर किसी को मैसेज भेजते हैं तो जरूरी नहीं कि उस वक्त रिप्लाई आए ही और अगर आया भी तो थंब सिंबल या स्माइली बना कर भेज दी जबकि आप उस मैसेज पर खुल कर बात करने के मूड में होते हैं. ऐसे में आप सामने वाले को जबरदस्ती बात करने के लिए मजबूर भी नहीं कर पाएंगे.

परिवार में हम जब किसी टौपिक पर चर्चा करते हैं तो हमें उस पर गुड फीडबैक मिलती रहती है, जिस से हमें कम्युनिकेट करने में अच्छा लगता है और सामने होने के कारण फेस ऐक्सप्रैशंस से भी रूबरू हो जाते हैं.

गैजेट्स से बेचैनी, अपनों से करीबी का एहसास

गैजेट्स से थोड़ा दूर रहना भी हमें गवारा नहीं होता, हम बेचैन होने लगते हैं और हमारा सारा ध्यान उसी पर ही केंद्रित रहता है तभी तो जैसे ही हमारे हाथ में स्मार्टफोन आता है तो हमारे चेहरे की मायूसी खुशी में बदल जाती है और हम ऐसे रिऐक्ट करते हैं जैसे हमारा अपना कोई हम से बिछुड़ गया हो.

यहां तक कि फोन की बैटरी खत्म होने पर या उस में कोई प्रौब्लम आने पर हम फोन ठीक करवाने का विकल्प होने के बावजूद अपने पेरैंट्स से जिद कर के नया फोन ले लेते हैं. इस से साफ जाहिर है कि हम गैजेट्स से एक पल भी दूर नहीं रहना चाहते, उन से दूरी हम में बेचैनी पैदा करती है.

हैल्थ रिस्क जबकि परिवार संग फिट ही फिट

हरदम गैजेट्स पर व्यस्त रहने से जहां आंखों पर असर पड़ता है वहीं कानों में लीड लगाने से हमारी सुनने की क्षमता प्रभावित होती है. यहां तक कि एक सर्वे से पता चला है कि अधिक समय तक स्मार्टफोन और लैपटौप पर बिजी रहने वाले किशोर तनावग्रस्त भी रहने लगते हैं.

जबकि परिवार के साथ यदि हम समय बिताते हैं तो उस से स्ट्रैस फ्री रहने के साथसाथ हमें ज्ञानवर्धक जानकारियां भी मिलती रहती हैं, जो हमारे भविष्य निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं.

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भारी खर्च जबकि परिवार संग मुफ्त टौक

आज यदि हमें गैजेट्स के जरिए अपना ऐंटरटेनमैंट करना है तो उस के लिए रिचार्ज करवाना पड़ेगा या फिर नैट पैक डलवाना पड़ेगा, जिस का भार हमारी जेब पर पड़ेगा.

जबकि परिवार में बैठ कर अगर हम अंत्याक्षरी खेलें या फिर अपनी बातों से एकदूसरे को गुदगुदाएं तो उस के लिए पैसे नहीं बल्कि अपनों का साथ चाहिए, जिस से हम खुद को काफी रीफ्रैश भी महसूस करेंगे.

इसलिए समय रहते पलभर की खुशी देने वाले गैजेट्स से दूरी बना लें वरना ये एडिक्शन आप को कहीं का नहीं छोड़ेगा साथ ही यह भी मान कर चलें कि जो मजा परिवार संग है वह गैजेट्स संग नहीं.

उम्र में हैं समझदार तो ऐसी हो आपकी छवि

लेखिका- प्रीता जैन

ध्यान से आना, ट्रेन में खाने-पीने का सामान अच्छे से रख लेना 1-2 बॉटल पानी की रखना कहीं भी स्टेशन पर मत उतरना, दिल्ली तो हम मिल ही जाएं गे कोई चिंता ना करना आराम से बिना टेंशन आ ही जाना मिलना हो जाएगा.

यह हिदायतें किसी बच्चे के लिए ना होकर 45 साल की विनीता के लिए थी जो अपने मायके अके ली जा रही थी. बड़े भैया अपनी तरफ से तो उसके भले के लिए ही कह रहे थे पर विनीता को अब तो सुन-सुन कभी हसी आती कि कै से बच्चों की तरह हमेशा समझाते रहते हैं तो कभी खीज भी आने लगती, जब बच्चे तक उसकी तरफ देख-देख मुस्कु राने लगते या फिर पितदेव उसे बेचारी समझ खुद भी समझाने लगते. यह सिफर् एक ही दिन की बात ना होकर रोज़ ही की है, जब भी भैया या भाभी का फ़ोन आता इधर-उधर की बातें ना कर विनीता को समझाते ही रहते ऐसा किया कर वैसा किया कर ये करना वो मत करना, यहां जाना वहां मत जाना यह सामान लेना वो ना खरीदना वगैरा-वगैरा. कहने का तात्पयर् है छोटी से छोटी बात को हर वक्त समझाकर ही कहना कुछ भी समझाते ही रहना.

इसी तरह दीपा की जेठानी रीना जो उससे 1-2 साल ही बड़ी है वह भी आज उसे बच्चों की परविरश के बारे में बता रही थी. सफर उसी दिन नहीं बल्कि जब भी उसका फ़ोन आता किसी न किसी बात पर समझाना शुरू कर देती सुबह जल्दी उठा कर नाश्ते में या खाने में यह बनाया कर,
घर को ऐसे सजाया कर यह काम ऐसे किया जाता है वह काम वैसे किया जाता है, सबके साथ ऐसा व्यवहार रख वैसा ना रख वगैरा वगैरा . शुरू-शुरू में तो विनीता सुनती रहती पर अब उसे भी
लगता कि हमउम्र ही तो है यिद और भी इधर-उधर की पढ़ाई या मनोरंजन की बातें हो तो ज़्यादा अच्छा है किन्तु ऐसा होता कहाँ है? वह सुनाती रहती विनीता सुनती रहती, कभी ना बता पाती या उसकी बातों से आभास नहीं होता कि वह भी एक सुघड़ गृहणी या मिहला है जो अपने फ़र्ज़-जिम्मेदारी निभाना बखूबी जानती है शायद आपसे भी ज़्यादा.

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ऐसा सफर विनीता ही नहीं वरन हममें से अधिकतर के साथ होता है, कई दफा बचपन से पचपन तक सभी से अपने लिए कुछ ना कुछ सुनने-समझने की आदत हमारे स्वभाव में विकिसत

होती जाती है धीरे-धीरे हम सुनने के लिए “ना” नहीं कर पाते. जो जैसा कहता जाता है स्वयं अच्छा ना महसूस करते हुए भी सुन-सुनकर सिर हिलाने लगते हैं जैसे समझने की कोशिश की जा रही है, इसीलिए हर कोई नासमझ और बेचारा मान अपनी सलाह बारम्बार देने ही लगते हैं और फिर जब भी बातचीत होती है ऐसा ही होता रहता है.

किन्तु यह उिचत नहीं है- ना तो हर वक्त किसी को सलाह-मशिवरा देते रहना ना ही हर समय औरों की सलाह-मशिवरा को मानना. जीवन है तो जीने के लिए हरेक व्यक्ति ज़रूरतानुसार व्यक्तिगत कायर् करता ही है अिधकतर लोग उम्र के साथ-साथ इतने समझदार व पिरपक्व हो ही जाते हैं कि अपने कायोर्ं को भलीभांति कर सकें , किसी पर भी बेवजह निभर्र ना रहना पड़े. साधारण किन्तु अहम् बात है कि किसी कार्य के बारे में जानना या कोई जानकारी लेनी हो तभी अन्य व्यक्ति से पूछना चाहिए अथवा सलाह-मशवरा करना चाहिए इसी तरह अपनी तरफ से भी दू सरे व्यक्ति को बेवजह ना बताते हुए तभी राय देनी चाहिए जब वह खुद से सुनना चाहे या आवश्यकतानुसार सलाह देने की ज़रूरत महसूस की जा रही हो.

सलाह देने वाले से ज़्यादा गलती उस व्यक्ति की है जो दू सरे की ही हिदायतें सुनता रहता है व इस तरह का व्यवहार करता है जैसे-नासमझ है अनजान है, सदैव ही दू सरे के द्वारा कही हर बात का अनुसरण करना ही करना है. यह भी नहीं कहा जा रहा कि अन्य व्यक्ति की सुनना या मानना नहीं चाहिए बल्कि कहने का तात्पर्य यह है कि वही सलाह मानो जो वास्तव में मानने लायक हो जिससे आपके रोज़मर्रा की जिन्दगी या फिर जीवन में नई दिशा मिले अथवा जिसके सुनने या अमल करने पर मानिसक शांति-संतुष्टि मिलने की सम्भावना हो अन्यथा “ना” सुनने तथा “ना” कहने की आदत खुद में विकिसत करना अत्यंत आवश्यक है.

हर शख्स का व्यवहार व आदतें अलग-अलग होती हैं कुछ अच्छी तो कुछ हमारे व्यक्तित्व के विकास में बाधक भी होने लगती हैं उदहारण के लिए— यिद हम आपसी समझ ना रख औरों का ज़रूरत से ज़्यादा अपनी निजी जिन्दगी में हस्तक्षेप करने लगते हैं तो प्रभावहीन व श्रेष्ठहीन व्यक्तित्व के होकर रह जाते हैं स्वयं की पहचान खोने लगते हैं जीवन में बहुत कुछ हम जानते-समझते बड़े होते रहते हैं अनुभव व समय सबको दुनियादारी सिखा ही देता है फिर भी माता-पिता या अपने से बड़ों की सलाह तथा उनकी कही बातें भलीभांति ध्यान से सुन उन पर अमल करना चाहिए, हमउम्र या सिर्फ 2-4 साल ही बड़ों की जब-तब सुनना उिचत नहीं माना जाता. इससे आपका व्यक्तित्व कमज़ोर व प्रभावहीन होता जाता है अतः बेवजह की सलाह या टोकाटाकी से बचें और अपनी छवि आकषर्क व प्रभावशील बनाए रखें.

कुछेक प्रयास से अपनी विशष्टता और प्रभाव बरक़रार रखने में सफल हो सकते हैं.

1. माता-पिता या बुज़ुर्गों के अलावा किसी के भी सामने बच्चे अथवा बेचारे बनने से बचें.

2. हर किसी के सामने अपनी छिव अनिभज्ञ व असहाय ना होने दें. यिद आप स्विनभर्र व सक्षम है तो अन्य व्यक्ति को सलाह देने पर “ना” कहना सीखें और ना ही दू सरे को बात-बात पर सलाह-मशिवरा देते रह.

3. यिद कुछ समझ नहीं आए तभी अन्य की सलाह लें और अमल करें, बात-बात पर सदैव ऐसा ना होने दें. स्वच्छिव ऐसी हो कि आपकी उम्र व बड़प्पन झलके ताकि हर कोई आते-जाते आपको नासमझ मानने की भूल ना करे.

4. स्वयं पर भरोसा व आत्मिवश्वास रखते हुए जिन्दगी के साथ कदम दर कदम बनाते हुए आगे बढ़ें, खुद व खुद रास्ते निकलेंगे मंजिल मिलेगी. जिन्दगी आपकी है अपनी मज़ीर् से जिएं , छोटे-बड़े फै सले खुद करें अन्य का हस्तक्षेप ना होने दें. यिद आवश्यकता महसूस हो तब कभी-कभार दू सरों की राय ली जा सकती है किन्तु सुनें सबकी करें मन की.

5. बेवजह औरों की राय लेकर स्वयं के आत्मसम्मान व आत्मिवश्वास को कम ना होने देवें. इसी में आपका हित है, अच्छाई है.

उपरोक्त कथन पर दृढ़ संकल्प होकर जिन्दगी का हर पल खुशनुमा गुज़ारें.

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