समझना होगा धर्म को

फरवरी माह से कोरोना, लौकडाउन विषय पर न जाने कितनी चर्चाएं, लेख, कहानियां, कविताएं लिखी और कही गई हैं. आम जीवन में भी न जाने कितने नए किस्सेकहानियां बन पड़े हैं. जीवन और रिश्ते कोरोना से बहुत प्रभावित भी हुए हैं. कोरोना भगाने के मंत्र एंव पूजा भी बताए गए. इन्हीं तीनचार माह में कुछ घटनाएं देखने व सुनने को मिली.

जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ाना

मुंबई के एक परिवार में दो बेटे हैं. एक बेटा अन्य महानगर में नौकरी के चलते करीब दस वर्ष पूर्व ही शिफ्ट हो गया था. दूसरा बेटा अकसर विदेश यात्रा पर रहता है. हां उस के पत्नी और बच्चे मुंबई में ही रह रहे हैं. मातापिता मुंबई में अकेले रह रहे थे. वैसे यह उन की मां का स्वयं का फैसला था कि वे परिवार के साथ नहीं रहना चाहती. शुरू से मुंबई में एकल परिवार में ही रही थीं वे. बेटेबहू के साथ व्यवहार में कुछ सामंजस्य नहीं बैठा पाईं, किंतु बड़े बेटेबहू ने समयसमय पर उन की जरूरतों और हारीबीमारी का पूरा खयाल रखा. अब बड़ा बेटा दूसरे शहर में और पिताजी बिस्तर पर. यहां तक कि शौच भी बिस्तर पर. मां ने अपने छोटे बेटे को कह दिया पिताजी को वृद्धाश्रम में भेज दो. छोटा बेटा भी स्वयं पर जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था. सो उस ने तुरंत एक केयर सेंटर का पता किया और पिताजी के लिए वहां व्यवस्था कर दी.

कुछ समय बीता और मुंबई में कोरोना ने जोर पकड़ लिया. कोई भी किसी भी कारण से अस्पताल आए तो कोरोना संक्रमण का डर सताने लगा था.

ऐसे में बड़ी बहू ने अपने देवर को फोन कर सख्त हिदायत दी कि पिताजी को अपने घर में रखो. देवर ने भी टालने के लिए कह दिया ‘‘हां सोचता हूं क्या कर सकता हूं.’’ कुछ दिन बीते और मालूम हुआ जिस केयर सेंटर में पिताजी को रखा गया था वहां भी लोग कोरोना से संक्रमित हो चुके हैं और उन के पिताजी भी.

अब जैसे ही बड़े बेटे के पास यह खबर पहुंची उस का रोरो कर बुरा हाल था.

सोचने की बात है कि क्या यह छोटे बेटे की गलती थी या उस की नीयत में खोट?

ऐसा नहीं कि उसे जानकारी नहीं थी, उसे हिदायत भी मिली थी फिर भी उस ने अपने पिताजी के लिए स्वयं के घर में व्यवस्था क्यों नहीं की? मैं जो सम झती हूं कि कहीं न कहीं परिवार में आपसी संबंधों में दरार थी या बच्चों की परवरिश में कुछ खोट था.

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जब थोड़ी छानबीन की गई तो मालूम हुआ उन की मां खूब मंदिर और सत्संग जाती थी. घर में ञ्जा व्रत उपवास करती और अपनी बहुओं को भी ऐसा करने के लिए जोर दिया करती थीं. लेकिन जहां कहीं जिम्मेदारी निभाने का समय आता सास पीछे हट जाती और मौजमस्ती के समय सब से आगे. मंदिर सत्संग भी उन के लिए घूमनेफिरने का एक स्थान था. व्यवहार में बहुत खराब महिला हैं.

यहां तक कि बहुओं की गर्भावस्था के समय उन से दूरी बना लेती और बच्चे के जन्म के समय वह अस्पताल भी न जातीं न ही ऐसे समय में मां द्वारा अपने बेटेबहू को अन्य कुछ सहयोग मिलता. जबकि वे अपने जातसमाज के अन्य लोगों में बहुत मिलनसार रहीं और अकसर जब कोई अस्पताल में एडमिट होता तो फल ले कर उन से मिलने जाया करती थीं.

उन की नजर में अपने घर वालों के लिए अस्पताल जाना मतलब जिम्मेदारी मिलने की आशंका. शायद इसी लिए वे अकेले रहना पसंद करती थीं.

किंतु अब जब बुढ़ापा आया तो अपने पति की जिम्मेदारी भी नहीं लेना चाहतीं सो बेटों ने भी परवाह नहीं की.

अब पिताजी को कोरोना संक्रमण हो गया तो पहले से ही घर में चर्चा होने लगी कि यदि यह बात कहीं फैली तो समाज में इज्जत पर बट्टा लगेगा. सो यह खबर न फैले तो अच्छा. यहां तक भी खुसरफुसर हो गई कि अब पिताजी का बचना मुश्किल है लेकिन मौत कोरोना से हुई यह नहीं बताना चाहिए.

कुल मिला कर बात यह है कि समाज में  झूठी इज्जत कमाने के लिए इतने जोड़तोड़ पहले मां ने किए वे सब से मिलतीजुलती, मौजमस्ती करतीं लेकिन जब किसी का काम पड़ता वे नदारद हो जातीं और कहती अपने लोगों से दूरी रखना ही अच्छा. सो उन्हें कभी इज्जत भी नहीं मिली. अब वही काम बेटेबहू करने लगे.

तो क्या पहले से ही मिलजुल कर मुसीबत के समय एकदूसरे को सहयोग कर परिवार की शांति और इज्जत बरकरार नहीं रखी जा सकती थी?

मंदिरों और सत्संग में जा कर कौन सा धर्म कमाया था और जानेअनजाने अपने बेटों को क्या सीख दी थी कि मौजमस्ती के समय सभी के साथ और काम के समय पीछे हट जाओ.

शायद छोटे बेटे ने बड़े के साथ हुए व्यवहार से जल्दी ही सीख ले ली थी और वह बहुत प्रैक्टिकल हो गया था. वह सम झता था कि यदि मांपिताजी को अपने घर ले कर गया तो उस के स्वयं के परिवार में अशांति होने की संभावना है. घर में काम बढ़ेगा सो अलग. इस के बजाय केयर सेंटर में भेज देना अच्छा. किंतु कोरोना के समय में हिदायत मिलने पर भी उन्हें घर न लाना?

यह वाकई आश्चर्य की बात है.

सिर्फ नौकरों के भरोसे क्यों

ऐसा एक और उदाहरण देखने को मिला बीकानेर के एक परिवार का. जिस में एक बेटा विदेश में रहता है और दूसरा भारत के किसी अन्य शहर में. अपने जीवन को बड़ी जिंदादिली से जीने वाले एक वृद्ध दम्पति अकेले रहते थे.

कोरोना ने पैर पसारे हुए थे और देश के कई शहरों में लौकडाउन था. तभी एक दिन अखबार में तस्वीरों के साथ खबर आती है कि बीकानेर में आकाशवाणी से रिटायर हुए वृद्ध की घर में ही मौत हो गई, उन की दिव्यांग पत्नी रात भर शव के पास बैठी रही और वह चल नहीं सकती थी इसलिए दरवाजा भी नहीं खोल पाई. सुबह कामवाली आई और जब अंदर से दरवाजा नहीं खोला गया तब उस ने पड़ौसियों को खबर की और जब उन्होंने जैसेतैसे दरवाजा खोला तो पाया कि वृद्ध पुरुष घर की लौबी में गिर पड़ा और मर गया. उस की पत्नी जो कि पैरालिटिक है, जैसेतैसे सरकसरक कर उन के पास आई, शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण पड़ोसियों को आवाज भी न लगा पाई और रोरो कर वहीं बेहोश हो गई. यह एक बहुत ही मार्मिक और बड़ी खबर बनी.

यहां भी यह सोचने की बात है कि इतने साधन संपन्न होते हुए भी वे परिवार के साथ क्यों नहीं थे? जबकि वृद्ध दम्पति सरकारी नौकरियों से सेवानिवृत्ति थे यानी कि पढ़ेलिखे थे.

दूसरी बात कोरोना संक्रमण का ज्यादा खतरा कमजोर और वृद्धों को है तो बाहर से आ कर खाना बनाने वाली और सफाई वाली के भरोसे क्यों मातापिता को छोड़ दिया गया था.

ऐसा महसूस होता है, शायद कहीं न कहीं परिवार में भावनात्मक लगाव की ही कमी रही होगी. वरना भारत में जैसे ही कोरोना पैर पसारने लगा उन के बेटे को उन की व्यवस्था अपने पास ही करनी चाहिए थी.

मातापिता की बजाय यदि उन के बच्चे किसी दूसरे शहर में या होस्टल में होते तो भी वे ये व्यवस्था करते.

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कोरोना संक्रमित मरीजों की मृत्यु के बाद

इसी तरह के और भी कई उदाहरण खबरों के माध्यम से मालूम हुए कि यदि परिवार का कोई सदस्य कोरोना संक्रमित हो कर अस्पताल में गया और वहां उस की मृत्यु हो गई तो उस के परिजन उस का शव लेने भी अस्पताल में न पहुंचे और बाद में फोन कर उन का फोन या हाथ की अंगूठी के बारे में पूछा. कई परिजनों ने तो अपने परिवार के सदस्यों को अस्पताल भेज फोन स्विच औफ ही कर दिए थे.

इस तरह के मामले जब सामने आते हैं तो स्थिति सोचनीय हो जाती है कि आखिर परिवारों में ऐसा क्या हो जाता है कि मुसीबत के समय सदस्य एकदूसरे के साथ नहीं होते हैं. खास कर अपने बूढ़े मातापिता को क्यों उन के बच्चे अकेले छोड़ देते हैं या मातापिता स्वयं अकेले रहने का निर्णय ले लेते हैं.

आखिर कमी कहां है

जरूरी कहीं न कहीं कुछ तो कमी है. वे अपने करीबी रिश्तों से उम्मीद छोड़ या तो बाहरी लोगों में मिलनाजुलना पसंद करते हैं या बाबाओं, धार्मिक स्थलों के चक्कर लगाते नजर आते हैं. कोई ञ्जा धर्म यह तो नहीं सिखाता कि मुसीबत के समय अपनों का साथ छोड़ दो या उन की जिम्मेदारी न उठाओ.

कहीं न कहीं धार्मिक ज्ञान की कमी है या सिर्फ धर्म के नाम पर ढोंग, पाखंड किया जाता है. जो लोग सुबहशाम पूजाअर्चना करते हैं, धार्मिक स्थलों, सत्संग एवं अन्य धार्मिक आयोजनों में नियमित रूप से जाते हैं वे आखिर ऐसा करने से कतराते क्यों नहीं?

आज ऐसा महसूस होता है कि धर्म कीसही परिभाषा सीखने एवं सिखाने की अत्यंत आवश्यकता है.

मानवता एवं सत्कर्म ही धर्म होना चाहिए. मुसीबत के समय अपने आसपास, अपने रिश्तेनातों, अपने पास काम करने वालों सभी के साथ सद्व्यवहार, दया भाव एवं करुणा ही धर्म का पर्याय हो.वरना मोटेमोटे ग्रंथों को पढ़पढ़ कर कंठस्थ करना, दियाबत्ती करना, धार्मिक स्थलों में दानदक्षिणा देना, प्रसाद, चढ़ावा सब व्यर्थ है.

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