रिटायरमेंट: आत्म-सम्मान के लिए अरविंद बाबू ने क्या किया

‘‘तो पापा, कैसा लग रहा है आज? आप की गुलामी का आज अंतिम दिन है. कल से आप पिंजरे से आजाद पंछी की भांति आकाश में स्वच्छंद विचरण करने के लिए स्वतंत्र होंगे,’’ आरोह नाश्ते की मेज पर भी पिता को अखबार में डूबे देख कर बोला था.

‘‘कहां बेटे, जीवन भर पिंजरे में बंद रहे पंछी के पंखों में इतनी शक्ति कहां होती है कि वह स्वच्छंद विचरण करने की बात सोच सके,’’ अरविंद लाल मुसकरा दिए थे, ‘‘पिछले 35 साल से घर से सुबह खाने का डब्बा ले कर निकलने और शाम को लौटने की ऐसी आदत पड़ गई है कि ‘रिटायर’ शब्द से भी डर लगता है.’’

‘‘कोई बात नहीं पापा, एकदो दिन बाद आप अपने नए जीवन का आनंद लेने लगेंगे,’’ कहकर आरोह हंस दिया.

‘‘मैं तो नई नौकरी ढूंढ़ रहा हूं. कुछ जगहों पर साक्षात्कार भी दे चुका हूं. मुझे कोई पैंशन तो मिलेगी नहीं. नई नौकरी से हाथ में चार पैसे भी आएंगे और साथ ही समय भी कट जाएगा.’’

‘‘क्या कह रहे हैं, पापा, जीवन भर खटने के बाद क्या यह आप की नौकरी ढूंढ़ने की उम्र है. यह समय तो पोतेपोतियों के साथ खेलने और अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का है,’’ आरोह ने बड़े लाड़ से कहा था.

‘‘मैं सब समझ गया बेटे, रिटायर होने के बाद तुम मुझे अपना सेवक बना कर रखना चाहते हो,’’ अरविंद लाल का स्वर अचानक तीखा हो गया था.

‘‘पापा, आप के लिए मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूं.’’

‘‘बेटे, आज घरघर की यही कहानी है. बूढ़े मातापिता तो किसी गिनती में हैं ही नहीं. बच्चों को स्कूल से लाना ले जाना. सब्जीभाजी से ले कर सारी खरीदारी करना यही सब तो कर रहे हैं आजकल अधिकतर वृद्ध. सुबह की सैर के समय मेरे मित्र यही सब बताते हैं.’’

‘‘बताते होंगे, पर हर परिवार की परिस्थितियां अलगअलग होती हैं. आप को ऐसा कुछ करने की कतई जरूरत नहीं है. कल से आप अपनी इच्छा के मालिक होंगे. जब मन में आए सोइए, जब मन में आए उठिए, आप की दिनचर्या में कोई खलल नहीं डालेगा. मैं, यह आप को विश्वास दिलाता हूं. पर कृपया फिर से नई नौकरी ढूंढ़ने के चक्कर में मत पडि़ए,’’ आरोह ने विनती की.

अरविंदजी कोई उत्तर देते इस से पहले ही बहू मानिनी आ खड़ी हुई और अपने पति की ओर देख कर बोली, ‘‘चलें क्या? देर हो रही है.’’ ‘‘हां, चलो, मुझे भी आज जल्दी पहुंचना है. अच्छा पापा, फिर शाम को मिलते हैं,’’ आरोह उठ खड़ा हुआ.

‘‘मानिनी, नाश्ता तो कर लो,’’ आरोह की मां वसुधाजी बोलीं.

‘‘मांजी, चाय पी ली है. नाश्ता अस्पताल पहुंच कर लूंगी. आज चारू को हलका बुखार था. परीक्षा थी इसलिए स्कूल गई है. रामदीन जल्दी ले आएगा. आप जरा संभाल लीजिएगा,’’ मानिनी जाते हुए बोली थी.

‘‘बहू, तुम चिंता मत करो. मैं हूं न. सब संभाल लूंगी,’’ वसुधाजी ने मानिनी को आश्वस्त किया.

‘‘चिंता करने की जरूरत भी कहां है, यहां स्थायी नौकरानी जो बैठी है दिन भर हुकम बजा लाने को,’’ अरविंद लाल कटु स्वर में बोले.

‘‘अपने घर के काम करने से कोई छोटा नहीं हो जाता पर यह बात आप की समझ से बाहर है. चलो, नहाधो कर तैयार हो जाओ. आज तो आफिस जाना है. कल से घर बैठ कर अपनी गाथा सुनाना.’’

‘‘मेरी समझ का तो छोड़ो अपनी समझ की बात करो. दिन भर घर में लगी रहती हो. मानिनी तो नाम की मां है. चारू और चिरायु को तो तुम्हीं ने पाल कर बड़ा किया है. सुधांशु की पत्नी इसी काम के लिए आया को 7 हजार रुपए देती है.’’

‘‘आप के विचार से आया और दादी में कोई अंतर नहीं होता. मैं ने तो आरोह और उस की दोनों बहनों को भी बड़ा किया है. तब तो आप ने यह प्रश्न कभी नहीं उठाया.’’

‘‘भैंस के आगे बीन बजाने का कोई लाभ नहीं है. मैं आगे तुम से कुछ भी नहीं कहूंगा, पर इतना साफ कहे देता हूं कि मैं अपने ही बेटे के घर पर घरेलू नौकर बन कर नहीं रहूंगा. मेरे लिए मेरा आत्मसम्मान सर्वोपरि है.’’

‘‘क्या कह रहे हो, कुछ तो सोचसमझ कर बोला करो. घर में नौकरचाकर क्या सोचेंगे…अच्छा हुआ कि आरोह, मानिनी और बच्चे घर पर नहीं हैं. नहीं तो ऐसी बेसिरपैर की बातें सुन कर न जाने क्या सोचते.’’

‘‘मैं किसी से नहीं डरता. और जो कुछ तुम से कह रहा हूं उन से भी कह सकता हूं,’’ अरविंद लाल शान से बोले.

‘‘क्यों अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने पर तुले हो. याद करो वह दिन जब हम पैसेपैसे को तरसते थे. तब एक दिन आप ने बड़ी शान से कहा था कि चाहे आप को कुछ भी करना पड़े आप आरोह को क्लर्की नहीं करने देंगे. उसे आप डाक्टर बनाएंगे.’’

‘‘हां, तो क्या बनाया नहीं उसे डाक्टर? उन दिनों हम ने कितनी तंगी में दिन गुजारे यह क्या तुम नहीं जानतीं?’’

‘‘जानती हूं. मैं सब जानती हूं. पर कई बार मातापिता लाख प्रयत्न करें तब भी संतान कुछ नहीं करती लेकिन अपना आरोह तो लाखों में एक है. अपने पैरों पर खड़े होते ही उस ने आप की जिम्मेदारियों का भार अपने कंधों पर ले लिया. नीना और निधि के विवाह में उस ने कर्ज ले कर आप की सहायता की वरना उन दोनों के लिए अच्छे घरवर जुटा पाना आप के वश की बात न थी,’’ वसुधाजी धाराप्रवाह बोले जा रही थीं.

‘‘तुम्हें तो पुत्रमोह ने अंधा बना दिया है. अपनी बहनों के प्रति उस का कुछ कर्तव्य था या नहीं? उन के विवाह में सहायता कर के उस ने अपने कर्तव्य का पालन किया है और कुछ नहीं. परिवार के सदस्य एकदूसरे के लिए इतना भी न करें तो एकसाथ रहने का अर्थ क्या है? आरोह ने जब इस कोठी को खरीदने की इच्छा जाहिर की थी तो हम चुपचाप अपना 2 कमरों का मकान बेच कर उस के साथ रहने आ गए थे.’’

‘‘वह भी तब जब उस ने आधी कोठी आप के नाम करवा दी थी.’’

‘‘वह सब मैं ने अपने लिए नहीं तुम्हारे लिए किया था. आजकल की संतान का क्या भरोसा. कब कह दे कि हमारे घर से बाहर निकल जाओ,’’ अरविंदजी अब अपनी अकड़ में थे.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि आप को कैसे समझाऊं. पता नहीं इतनी कड़वाहट कहां से आ गई है आप के मन में.’’

‘‘कड़वाहट? यह कड़वाहट नहीं है आत्मसम्मान की लड़ाई है. माना तुम्हारा आरोह बहुत प्रसिद्ध डाक्टर हो गया है. दोनों पतिपत्नी मिल कर खूब पैसा कमा रहे हैं, पर वे मुझे नीचा दिखाएं या अपने रुतबे का रौब दिखाएं तो मैं यह सह नहीं पाऊंगा.’’

 

‘‘कौन आप को नीचा दिखा रहा है? पता नहीं आप ने अपने दिमाग में यह कैसी कुंठा पाल ली है और दिन भर न जाने क्याक्या सोचते रहते हैं,’’ वसुधा का स्वर अनचाहे भर्रा गया था.

‘‘चलो, बहस छोड़ो और मेरा सूट ले आओ. आज मेरा विदाई समारोह है. सूट पहन कर जाऊंगा.’’

अरविंद लाल तैयार हो कर दफ्तर चले गए. पर वसुधा को सोच में डूबा छोड़ गए. कुछ दिनों से अपने पति अरविंद लाल का हाल देख कर वसुधा का दिल बैठा जा रहा था. जितनी देर वे घर में रहते एक ही राग अलापते कि अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा देंगे.

फूलमालाओं और उपहारों से लदे अरविंदजी को दफ्तर की गाड़ी छोड़ गई थी. उन के अफसरों ने भी उन की प्रशंसा के पुल बांध दिए थे.

घर आते ही उन्होंने चारू और चिरायु के गले में फूलमालाएं डाल दी थीं और प्रसन्नता से झूमते हुए देर तक वसुधा को विदाई समारोह का हाल सुनाते रहे थे.

‘‘दादाजी, घूमने चलो न, आइसक्रीम खाएंगे,’’ उन्हें अच्छे मूड में देख कर बच्चे जिद करने लगे थे.

‘‘कहीं नहीं जाना है. चारू को बुखार है, वैसे भी आइसक्रीम खाने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है. फ्रिज में ढेरों आइसक्रीम पड़ी है,’’ वसुधाजी ने दोनों बच्चों को समझाया था.

‘‘ठीक कहती हो,’’ अरविंदजी बोले, ‘‘बच्चो, कल घूमने चलेंगे. आज मैं बहुत थक गया हूं. वसुधा, एक प्याली चाय पिला दो फिर कुछ देर आराम करूंगा. कल नई पारी की शुरुआत जो करनी है.’’

वसुधा के मन में सैकड़ों प्रश्न बादल की तरह उमड़घुमड़ रहे थे कि वे किस दूसरी पारी की बात कर रहे हैं, कुछ पूछ कर फिर से वे घर की शांति को भंग नहीं करना चाहतीं. इसलिए चुपचाप चाय बना कर ले आईं.

अगले दिन अरविंदजी रोज की तरह तैयार हो कर घर से चले तो वसुधा स्वयं को रोक नहीं सकीं.

‘‘टोकना आवश्यक था? शुभ कार्य के लिए जा रहा था… अब तो काम शायद ही बने,’’ अरविंदजी झुंझला गए थे.

‘‘मुझे लगा कि आज आप घर पर ही विश्राम करेंगे. आप 2 मिनट रुकिए अभी आप के लिए टिफिन तैयार करती हूं.’’

‘‘जाने दो, मैं फल आदि खा कर काम चला लूंगा. मुझे देर हो रही है,’’ अरविंदजी अपनी ही धुन में थे.

‘‘पापा कहां गए?’’ नाश्ते की मेज पर आरोह पूछ बैठा था.

‘‘वे तो रोज की तरह ही घर से निकल गए. कह रहे थे कि किसी आवश्यक कार्य से जाना है,’’ वसुधा ने बताया.

‘‘मां, आप उन्हें समझाती क्यों नहीं कि उन्हें फिर से काम ढूंढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है. 35 वर्ष तक उन्होंने कार्य किया है. अब जब कुछ आराम करने का समय आया तो फिर से काम ढूंढ़ने निकल पड़े.’’

‘‘क्या कहूं, बेटे. मैं तो उन्हें समझासमझा कर थक गई हूं. सुबह की सैर पर साथ जाने वाले मित्रों ने इन के मन में यह बात अच्छी तरह बिठा दी है कि अब घर में उन को कोई नहीं पूछेगा. बातबात में यही कहते हैं कि अपने आत्मसम्मान पर आंच नहीं आने देंगे.’’

‘‘उन के आत्मसम्मान पर चोट करने का प्रश्न ही कहां है, मां. घर में आराम से रहें, अपनी इच्छानुसार जीवन जिएं.’’

‘‘इस विषय पर बहुत कहासुनी हो चुकी है. मैं ने तो अब किसी प्रकार की बहस न करने का निर्णय लिया है, पर मन ही मन मैं बुरी तरह डर गई हूं.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है, मां.’’

‘‘इसी तरह तनाव में रहे तो अपनी सेहत चौपट कर लेंगे,’’ वसुधाजी रो पड़ी थीं.

‘‘चिंता मत करो, मां, सेवानिवृत्ति के समय कई लोग इस तरह के तनाव के शिकार हो जाते हैं,’’ आरोह ने मां को समझाया.

अरविंदजी दोपहर को घर आए तो देखा, आरोह खाने की मेज पर अपनी मां से कुछ बातें कर रहा था.

‘‘मांबेटे के बीच क्या कानाफूसी हो रही है? मेरे विरुद्ध कोई साजिश तो नहीं हो रही?’’ वे थके होने पर भी मुसकराए थे.

‘‘हो तो रही है, हम सब को आप से बड़ी शिकायत है,’’ आरोह मुसकराया था.

‘‘ऐसा क्या कर दिया मैं ने?’’

‘‘कल आप का विदाई समारोह था. आप सपरिवार आमंत्रित थे पर आप अकेले ही चले गए. मां तक को नहीं ले गए. हम से पूछा तक नहीं.’’

‘‘क्या कह रहे हो, आरोह? इन्हें सपरिवार बुलाया गया था?’’ वसुधा चौंकी थीं .‘‘पूछ लो न, पापा सामने ही तो बैठे हैं. मुझे तो इन के सहकर्मी मनोज ने आज सुबह अस्पताल आने पर बताया.’’

‘‘इन्हें हमारी भावनाओं की चिंता ही कहां है,’’ वसुधा नाराज हो उठी थीं.

‘‘बात यह नहीं है. मुझे लगा आरोह और मानिनी इतने नामीगिरामी चिकित्सक हैं. वे मुझ जैसे मामूली क्लर्क के विदाई समारोह में क्यों आएंगे. वसुधा सदा पूजापाठ और चारू व चिरायु के साथ व्यस्त रहती है, इसीलिए मैं किसी से कुछ कहेसुने बिना अकेले ही चला गया था. यद्यपि हमारे यहां विदाई समारोह में सपरिवार जाने की परंपरा है,’’ अरविंदजी क्षमायाचनापूर्ण स्वर में बोले थे.

‘‘आप की समस्या यह है पापा कि आप सबकुछ अपने ही दृष्टिकोण से देखते हैं. खुद को बारबार साधारण क्लर्क कह कर आप केवल स्वयं को नहीं, मेरे पिता को अपमानित करते हैं जिन्होंने इसी नौकरी के बलबूते पर मेहनत और ईमानदारी से अपने परिवार का पालनपोषण किया. साथ ही आप उन हजारों लोगों का अपमान भी करते हैं जो इस तरह की नौकरियों से अपनी जीविका कमाते हैं.’’

आरोह का आरोप सुन कर कुछ क्षणों के लिए अरविंदजी ठगे से रह गए थे. कोई उन के बारे में इस तरह भी सोच सकता है यह उन के लिए एक नई बात थी. उन की आंखों से आंसू टपकने लगे.

‘‘क्या हुआ, पापा? आप रो क्यों रहे हैं?’’ तभी नीना और निधि आ खड़ी हुई थीं.

‘‘मैं क्या बताऊं, पापा से ही पूछ लो न,’’ आरोह हंसा था. पर अरविंदजी ने चटपट आंसू पोंछ लिए थे.

‘‘तुम दोनों कब आईं?’’ उन्होंने नीना और निधि से अचरज से पूछा था.

‘‘ये दोनों अकेली नहीं सपरिवार आई हैं, वह भी मेरे निमंत्रण पर. कल कुछ और अतिथि भी आ रहे हैं.’’

‘‘क्या कह रहे हो…मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है…कल कौन सा पर्व है?’’

‘‘कल हम अपने पापा के रिटायर होने का फंक्शन मना रहे हैं.’’

‘‘यह सब क्या है. हमारे परिवार में इस तरह के किसी आयोजन की कोई परंपरा नहीं है.’’

‘‘परंपराएं बदली भी जा सकती हैं. हम ने कल की पार्टी में आप के सभी सहकर्मियों को भी आमंत्रित किया है. नीनानिधि, इन के हाथों से यह फाइल ले लो. पूछो आज दोपहर तक कहां भटकते रहे,’’ आरोह ने अरविंदजी की फाइल की ओर इशारा किया.

नीना ने पिता के हाथ से फाइल ले ली.

‘‘इस में तो डिगरियां और पापा का बायोडाटा है. यह क्या पापा? आप फिर से नौकरी ढूंढ़ रहे हैं?’’ नीना और निधि आश्चर्यचकित पास आ खड़ी हुई थीं.

‘‘चलो, चायनाश्ता लग गया है,’’ तभी मानिनी ने आ कर सब का ध्यान बटाया.

‘‘लाओ, यह फाइल मुझे दो. मैं इसे ताले में रखूंगा,’’ आरोह उठते हुए बोला.

‘‘चलो उठो, मुंहहाथ धो लो. सब चाय पर प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ वसुधाजी ने भरे गले से कहा.

‘‘इतना सब हो गया और तुम ने मुझे हवा भी नहीं लगने दी,’’ अरविंदजी ने उलाहना देते हुए पत्नी से कहा.

‘‘मुझे भी कहां पता था. मुझे तो कोई भी कुछ बताता ही नहीं. न तुम न तुम्हारे बच्चे. पर मेरे आत्मसम्मान की चिंता किसे है भला,’’ वसुधा नाटकीय अंदाज में बोली थीं.

अरविंद बाबू सोचते रह गए थे. वसुधा शायद ठीक ही कहती है. परिवार की धुरी है वह पर कभी किसी बात का रोना नहीं रोया. ये तो केवल वही थे जो आत्मसम्मान के नाम पर इतने आत्मकेंद्रित हो गए थे कि कोई दूसरा नजर ही नहीं आता था. न जाने मन में कैसी कुंठाएं पाल ली थीं उन्होंने.

 

रिटायरमेंट: शर्माजी के साथ क्या हुआ रिटायरमेंट के बाद

मेरी नौकरी का अंतिम सप्ताह था, क्योंकि मैं सेवानिवृत्त होने वाला था. कारखाने के नियमानुसार 60 साल पूरे होते ही घर बैठने का हुक्म होना था. मेरा जन्मदिन भी 2 अक्तूबर ही था. संयोगवश राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन पर.

विभागीय सहयोगियों व कर्मचारियों ने कहा, ‘‘शर्माजी, 60 साल की उम्र तक ठीकठाक काम कर के रिटायर होने के बदले में हमें जायकेदार भोज देना होगा.’’ मैं ने भरोसा दिया, ‘‘आप सब निश्ंिचत रहें. मुंह अवश्य मीठा कराऊंगा.’’

इस पर कुछ ने विरोध प्रकट किया, ‘‘शर्माजी, बात स्पष्ट कीजिए, गोलमोल नहीं. हम ‘जायकेदार भोज’ की बात कर रहे हैं और आप मुंह मीठा कराने की. आप मांसाहारी भोज देंगे या नहीं? यानी गोश्त, पुलाव…’’ मैं ने मुकरना चाहा, ‘‘आप जानते हैं कि गांधीजी सत्य व अहिंसा के पुजारी थे, और हिंसा के खिलाफ मैं भी हूं. मांसाहार तो एकदम नहीं,’’ एक पल रुक कर मैं ने फिर कहा, ‘‘पिछले साल झारखंड के कुछ मंत्रियों ने 2 अक्तूबर के दिन बकरे का मांस खाया था तो उस पर बहुत बवाल हुआ था.’’

‘‘आप मंत्री तो नहीं हैं न. कारखाने में मात्र सीनियर चार्जमैन हैं,’’ एक सहकर्मी ने कहा. ‘‘पर सत्यअहिंसा का समर्थक तो हूं मैं.’’

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फिर कुछ सहयोगी बौखलाए, ‘‘शर्माजी, हम भोज के नाम पर ‘सागपात’ नहीं खा सकते. आप के घर ‘आलूबैगन’ खाने नहीं जाएंगे,’’ इस के बाद तो गीदड़ों के झुंड की तरह सब एकसाथ बोलने लगे, ‘‘शर्माजी, हम चंदा जमा कर आप के शानदार विदाई समारोह का आयोजन करेंगे.’’ प्रवीण ने हमें झटका देना चाहा, ‘‘हम सब आप को भेंट दे कर संतुष्ट करना चाहेंगे. भले ही आप हमें संतुष्ट करें या न करें.’’

मैं दबाव में आ कर सोचने लगा कि क्या कहूं? क्या खिलाऊं? क्या वादा करूं? प्रत्यक्ष में उन्हें भरोसा दिलाना चाहा कि आप सब मेरे घर आएं, महंगी मिठाइयां खिलाऊंगा. आधाआधा किलो का पैकेट सब को दे कर विदा करूंगा. सीनियर अफसर गुप्ता ने रास्ता सुझाना चाहा, ‘‘मुरगा न खिलाइए शर्माजी पर शराब तो पिला ही सकते हैं. इस में हिंसा कहां है?’’

‘‘हां, हां, यह चलेगा,’’ सब ने एक स्वर से समर्थन किया. ‘‘मैं शराब नहीं पीता.’’

‘‘हम सब पीते हैं न, आप अपनी इच्छा हम पर क्यों लादना चाहते हैं?’’ ‘‘भाई लोगों, मैं ने कहा न कि 2 अक्तूबर हो या नवरात्रे, दीवाली हो या नववर्ष…मुरगा व शराब न मैं खातापीता हूं, न दूसरों को खिलातापिलाता हूं.’’

सुखविंदर ने मायूस हो कर कहा, ‘‘तो क्या 35-40 साल का साथ सूखा ही निबटेगा?’’ कुछ ने रोष जताया, ‘‘क्या इसीलिए इतने सालों तक आप के मातहत काम किया? आप के प्रोत्साहन से ही गुणवत्तापूर्ण उत्पादन किया? कैसे चार्जमैन हैं आप कि हमारी अदनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सकते?’’

एक ने व्यंग्य किया, ‘‘तो कोई मुजरे वाली ही बुला लीजिए, उसी से मन बहला लेंगे.’’ नटवर ने विचार रखा, ‘‘शर्माजी, जितने रुपए आप हम पर खर्च करना चाह रहे हैं उतने हमें दे दीजिए, हम किसी होटल में अपनी व्यवस्था कर लेंगे.’’

इस सारी चर्चा से कुछ नतीजा न निकलना था न निकला. यह बात मेरे इकलौते बेटे बलबीर के पास भी पहुंची. वह बगल वाले विभाग में बतौर प्रशिक्षु काम कर रहा था.

कुछ ने बलबीर को बहकाया, ‘‘क्या कमी है तुम्हारे पिताजी को जो खर्च के नाम से भाग रहे हैं. रिटायर हो रहे हैं. फंड के लाखों मिलेंगे… पी.एफ. ‘तगड़ा’ कटता है. वेतन भी 5 अंकों में है. हम उन्हें विदाई देंगे तो उन की ओर से हमारी शानदार पार्टी होनी चाहिए. घास छील कर तो रिटायर नहीं हो रहे. बुढ़ापे के साथ ‘साठा से पाठा’ होना चाहिए. वे तो ‘गुड़ का लाठा’ हो रहे हैं…तुम कैसे बेटे हो?’’

बलबीर तमतमाया हुआ घर आया. मैं लौट कर स्नान कर रहा था. बेटा मुझे समझाने के मूड में बोला, ‘‘बाबूजी, विभाग वाले 50-50 रुपए प्रति व्यक्ति चंदा जमा कर के ‘विदाई समारोह’ का आयोजन करेंगे तो वे चाहेंगे कि उन्हें 75-100 रुपए का जायकेदार भोज मिले. आप सिर्फ मिठाइयां और समोसे खिला कर उन्हें टरकाना चाहते हैं. इस तरह आप की तो बदनामी होगी ही, वे मुझे भी बदनाम करेंगे. ‘‘आप तो रिटायर हो कर घर में बैठ जाएंगे पर मुझे वहीं काम करना है. सोचिए, मैं कैसे उन्हें हर रोज मुंह दिखाऊंगा? मुझे 10 हजार रुपए दीजिए, खिलापिला कर उन्हें संतुष्ट कर दूंगा.’’

‘‘उन की संतुष्टि के लिए क्या मुझे अपनी आत्मा के खिलाफ जाना होगा? मैं मुरगे, बकरे नहीं कटवा सकता,’’ बेटे पर बिगड़ते हुए मैं ने कहा. ‘‘बाबूजी, आप मांसाहार के खिलाफ हैं, मैं नहीं.’’

‘‘तो क्या तुम उन की खुशी के लिए मद्यपान करोगे?’’ ‘‘नहीं, पर मुरगा तो खा ही सकता हूं.’’

अपना विरोध जताते हुए मैं बोला, ‘‘बलबीर, अधिक खर्च करने के पक्ष में मैं नहीं हूं. सब खाएंगेपीएंगे, बाद में कोई पूछने भी नहीं आएगा. मैं जब 4 महीने बीमारी से अनफिट था तो 1-2 के अलावा कौन आया था मेरा हाल पूछने? मानवता और श्रद्धा तो लोगों में खत्म हो गई है.’’ पत्नी कमला वहीं थी. झुंझलाई, ‘‘आप दिल खोल कर और जम कर कुछ नहीं कर पाते. मन मार कर खुश रहने से भी पीछे रह जाते हैं.’’

कमला का समर्थन न पा कर मैं झुंझलाया, ‘‘श्रीमतीजी, मैं ने आप को कब खुश नहीं किया है?’’ वे मौका पाते ही उलाहना ठोक बैठीं, ‘‘कई बार कह चुकी हूं कि मेरा गला मंगलसूत्र के बिना सूना पड़ा है. रिटायरमेंट के बाद फंड के रुपए मिलते ही 5 तोले का मंगलसूत्र और 10 तोले की 4-4 चूडि़यां खरीद देना.’’

‘‘श्रीमतीजी, सोने का भाव बाढ़ के पानी की तरह हर दिन बढ़ता जा रहा है. आप की इच्छा पूरी करूं तो लाखों अंटी से निकल जाएंगे, फिर घर चलाना मुश्किल होगा.’’ श्रीमतीजी बिगड़ कर बोलीं, ‘‘तो बताइए, मैं कैसे आप से खुश रहूंगी?’’

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बलबीर को अवसर मिल गया. वह बोला, ‘‘बाबूजी, अब आप जीवनस्तर ऊंचा करने की सोचिए. कुछ दिन लूना चलाते रहे. मेरी जिद पर स्कूटी खरीद लाए. अब एक बड़ी कार ले ही लीजिए. संयोग से आप देश की नामी कार कंपनी से अवकाश प्राप्त कर रहे हैं.’’ बेटे और पत्नी की मांग से मैं हतप्रभ रह गया.

मैं सोने का उपक्रम कर रहा था कि बलबीर ने अपनी रागनी शुरू कर दी, ‘‘बाबूजी, खर्च के बारे में क्या सोच रहे हैं?’’ मैं ने अपने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘बेटा, तुम अभी स्थायी नौकरी में नहीं हो. प्रशिक्षण के बाद तुम्हें प्रबंधन की कृपा से अस्थायी नौकरी मिल सकेगी. पता नहीं तुम कब तक स्थायी होगे. तब तक मुझे ही घर का और तुम्हारा भी खर्च उठाना होगा. इसलिए भविष्यनिधि से जो रुपए मिलेंगे उसे ‘ब्याज’ के लिए बैंक में जमा कर दूंगा, क्योंकि आगे ब्याज से ही मुझे अपना ‘खर्च’ चलाना होगा. अत: मैं ने अपनी भविष्यनिधि के पैसों को सुरक्षित रखने की सोची है.’’

श्रीमतीजी संभावना जाहिर कर गईं कि 20 लाख रुपए तक तो आप को मिल ही जाएंगे. अच्छाखासा ब्याज मिलेगा बैंक से. उन के इस मुगालते को तोड़ने के लिए मैं ने कहा, ‘‘भूल गई हो, 3 बेटियों के ब्याह में भविष्यनिधि से ऋण लिया था. कुछ दूसरे ऋण काट कर 12 लाख रुपए ही मिलेंगे. वैसे भी अब दुनिया भर में आर्थिक संकट पैदा हो चुका है, इसलिए ब्याज घट भी सकता है.’’

बलबीर ने टोका, ‘‘बाबूजी, आप को रुपए की कमी तो है नहीं. आप ने 10 लाख रुपए अलगअलग म्यूचुअल फं डों में लगाए हुए हैं.’’

मैं आवेशित हुआ, ‘‘अखबार नहीं पढ़ते क्या? सब शेयरों के भाव लुढ़कते जा रहे हैं. उस पर म्यूचुअल फंडों का बुराहाल है. निवेश किए हुए रुपए वापस मिलेंगे भी या नहीं? उस संशय से मैं भयभीत हूं. रिटायर होने के बाद मैं रुपए कमाने योग्य नहीं रहूंगा. बैठ कर क्या करूंगा? कैसे समय बीतेगा. चिंता, भय से नींद भी नहीं आती…’’ श्रीमतीजी ने मेरे दर्द और चिंता को महसूस किया, ‘‘चिंतित मत होइए. हर आदमी को रिटायर होना पड़ता है. चिंताओं के फन को दबोचिए. उस के डंक से बचिए.’’

‘‘देखो, मैं स्वयं को संभाल पाता हूं या नहीं?’’ तभी फोन की घंटी बजी, ‘‘हैलो, मैं विजय बोल रहा हूं.’’

‘‘नमस्कार, विजय बाबू.’’ ‘‘शर्माजी, सुना है, आप रिटायर होने जा रहे हैं.’’

‘‘हां.’’ ‘‘कुछ करने का विचार है या बैठे रहने का?’’ विजय ने पूछा.

‘‘कुछ सोचा नहीं है.’’ ‘‘मेरी तरह कुछ करने की सोचो. बेकार बैठ कर ऊब जाओगे.’’

‘‘मेरे पिता ने भी सेवामुक्त हो कर ‘बिजनेस’ का मन बनाया था, पर नहीं कर सके. शायद मैं भी नहीं कर सकूंगा, क्यों जहां भी हाथ डाला, खाली हो गया.’’ विजय की हंसी गूंजी, ‘‘हिम्मत रखो. टाटा मोटर्स में ठेका पाने के लिए रजिस्ट्रेशन कराओ. एकाध लाख लगेंगे.’’

बलबीर उत्साहित स्वर में बोला, ‘‘ठेका ले कर देखिए, बाबूजी.’’ ‘‘बेटा, मैं भविष्यनिधि की रकम को डुबाने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता.’’

बलबीर जिद पर उतर आया तो मैं बोला, ‘‘तुम्हारे कहने पर मैं ने ट्रांसपोर्ट का कारोबार किया था न? 7 लाख रुपए डूब गए थे. तब मैं तंगी, परेशानी और खालीहाथ से गुजरने लगा था. फ ांके की नौबत आ गई थी.’’ बलबीर शांत पड़ गया, मानो उस की हवा निकल गई हो.

तभी मोबाइल बजने लगा. पटना से रंजन का फोन था. आवाज कानों में पड़ी तो मुंह का स्वाद कसैला हो गया. रंजन मेरा चचेरा भाई था. उस ने गांव का पुश्तैनी मकान पड़ोसी पंडितजी के हाथ गिरवी रख छोड़ा था. उस की एवज में 50 हजार रुपए ले रखे थे. पहले मैं रंजन को अपना भाई मानता था पर जब उस ने धोखा किया, मेरा मन टूट गया था.

‘‘रंजन बोल रहा हूं भैया, प्रणाम.’’ ‘‘खुश रहो.’’

‘‘सुना है आप रिटायर होने वाले हैं? एक प्रार्थना है. पंडितजी के रुपए चुका कर मकान छुड़ा लीजिए न. 20 हजार रुपए ब्याज भी चढ़ चुका है. न चुकाने से मकान हाथ से निकल जाएगा. मेरे पास रुपए नहीं हैं. पटना में मकान बनाने से मैं कर्जदार हो चुका हूं. कुछ सहायता कीजिएगा तो आभारी रहूंगा.’’ मैं क्रोध से तिलमिलाया, ‘‘कुछ करने से पहले मुझ से पूछा था क्या? सलाह भी नहीं ली. पंडितजी का कर्ज तुम भरो. मुझे क्यों कह रहे हो?’’

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मोबाइल बंद हो गया. इच्छा हुई कि उसे और खरीखोटी सुनाऊं. गुस्से में बड़बड़ाता रहा, ‘‘स्वार्थी…हमारे हिस्से को भी गिरवी रख दिया और रुपए ले गया. अब चाहता है कि मैं फंड के रुपए लगा दूं? मुझे सुख से जीने नहीं देना चाहता?’’ ‘‘शांत हो जाइए, नहीं तो ब्लडप्रेशर बढे़गा,’’ कमला ने मुझे शांत करना चाहा.

सुबह कारखाने पहुंचा तो जवारी- भाई रामलोचन मिल गए, बोले, ‘‘रिटायरमेंट के बाद गांव जाने की तो नहीं सोच रहे हो न? बड़ा गंदा माहौल हो गया है गांव का. खूब राजनीति होती है. तुम्हारा खाना चाहेंगे और तुम्हें ही बेवकूफ बनाएंगे. रामबाबू रिटायरमेंट के बाद गांव गए थे, भाग कर उन्हें वापस आना पड़ा. अपहरण होतेहोते बचा. लाख रुपए की मांग कर रहे थे रणबीर दल वाले.’’ सीनियर अफसर गुप्ताजी मिल गए. बोले, ‘‘कल आप की नौकरी का आखिरी दिन है. सब को लड्डू खिला दीजिएगा. आप के विदाई समारोह का आयोजन शायद विभाग वाले दशहरे के बाद करेंगे.’’

कमला ने भी घर से निकलते समय कहा था, ‘‘लड्डू बांट दीजिएगा.’’

बलबीर भी जिद पर आया, ‘‘मैं भी अपने विभाग वालों को लड्डू खिलाऊंगा.’’ ‘‘तुम क्यों? रिटायर तो मैं होने वाला हूं.’’

वह हंसते हुए बोला, ‘‘बाबूजी, रिटायरमेंट को खुशी से लीजिए. खुशियां बांटिए और बटोरिए. कुछ मुझे और कुछ बहनबेटियों को दीजिए.’’ मुझे क्रोध आया, ‘‘तो क्या पैसे बांट कर अपना हाथ खाली कर लूं? मुझे कम पड़ेगा तो कोई देने नहीं आएगा. हां, मैं बहनबेटियों को जरूर कुछ गिफ्ट दूंगा. ऐसा नहीं कि मैं वरिष्ठ नागरिक होते ही ‘अशिष्ट’ सिद्ध होऊं. पर शिष्ट होने के लिए अपने को नष्ट नहीं करूंगा.’’

मैं सोचने लगा कि अपने ही विभाग का वेणुगोपाल पैसों के अभाव का रोना रो कर 5 हजार रुपए ले गया था, अब वापस करने की स्थिति में नहीं है. उस के बेटीदामाद ने मुकदमा ठोका हुआ है कि उन्हें उस की भविष्यनिधि से हिस्सा चाहिए. रामलाल भी एक अवकाश प्राप्त व्यक्ति थे. एक दिन आए और गिड़गिड़ाते हुए कहने लगे, ‘‘शर्माजी, रिटायर होने के बाद मैं कंगाल हो गया हूं. बेटों के लिए मकान बनाया. अब उन्होंने घर से बाहर कर दिया है. 15 हजार रुपए दे दीजिए. गायभैंस का धंधा करूंगा. दूध बेच कर वापस कर दूंगा.’’

रिटायर होने के बाद मैं घर बैठ गया. 10 दिन बीत गए. न विदाई समारोह का आयोजन हुआ, न विभाग से कोई मिलने आया. मैं ने गेटपास जमा कर दिया था. कारखाने के अंदर जाना भी मुश्किल था. समय के साथ विभाग वाले भूल गए कि विदाई की रस्म भी पूरी करनी है. एक दिन विजय आया. उलाहने भरे स्वर में बोला, ‘‘यार, तुम ने मुझे किसी आयोजन में नहीं बुलाया?’’

मैं दुखी स्वर में बोला, ‘‘क्षमा करना मित्र, रिटायर होने के बाद कोई मुझे पूछने नहीं आया. विभाग वाले भी विभाग के काम में लग कर भूल गए…जैसे सारे नाते टूट गए हों.’’ कमला ताने दे बैठी, ‘‘बड़े लालायित थे आधाआधा किलो के पैकेट देने के लिए…’’

बलबीर को अवसर मिला. बोला, ‘‘मांसाहारी भोज से इनकार कर गए, अत: सब का मोहभंग हो गया. अब आशा भी मत रखिए…आप को पता है, मंदी का दौर पूरी दुनिया में है. उस का असर भारत के कारखानों पर भी पड़ा है. कुछ अनस्किल्ड मजदूरों की छंटनी कर दी गई है. मजदूरों को चंदा देना भारी पड़ रहा है. वैसे भी जिस विभाग का प्रतिनिधि चंदा उगाहने में माहिर न हो, काम से भागने वाला हो और विभागीय आयोजनों पर ध्यान न दे, वह कुछ नहीं कर सकता.’’

विजय ने कहा, ‘‘यार, शर्मा, घर में बैठने के बाद कौन पूछता है? वह जमाना बीत गया कि लोगों के अंदर प्यार होता था, हमदर्दी होती थी. रिटायर व्यक्ति को हाथी पर बैठा कर, फूलमाला पहना कर घर तक लाया जाता था. अब लोग यह सोचते हैं कि उन का कितना खर्च हुआ और बदले में उन्हें कितना मिला. मुरगाशराब खिलातेपिलाते तो भी एकदो माह के बाद कोई पूछने नहीं आता. सचाई यह है कि रिटायर व्यक्ति को सब बेकार समझ लेते हैं और भाव नहीं देते.’’ मैं कसमसा कर शांत हो गया…घर में बैठने का दंश सहने लगा.

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