फिल्म समीक्षाः एन एक्शन हीरो- आयुष्मान खुराना की अविश्वसनीय कहानी

रेटिंगः दो स्टार

निर्माताः आनंद एल राय व टीसीरीज

निर्देशकः अनिरूद्ध अय्यर

कलाकारः आयुष्मान खुराना, जयदीप अहलावत,हर्ष छाया, मिराबेल स्टुअर्ट, रचित जोडाॅन, अलेक्झेंडर गर्सिया,अमरो

मोहम्मद, हितेन पटेल,मो.  तालिब, जॉन बायरन, गौरव कंडोई,जीतेंद्र राय,टाइगर रूड व अन्य.  

अवधिः दो घंटे दस मिनट

‘तनु वेड्स मनु’ व ‘रांझणा’ जैसी कुछ बेहतरीन फिल्मों के निर्देशक व ‘निल बटे सन्नाटा’ जैसी फिल्म के निर्माता आनंद एल राय अब बतौर निर्माता फिल्म‘एन एक्शन हीरो’लेकर आए हैं,जिसका निर्देशन अनिरूद्ध अय्यर ने किया है.

कहानीः

कहानी के केंद्र में देश का मशहूर व घमंडी एक्शन हीरो मानव ( आयुष्मान खुराना) है,जिसे लोगों को इंतजार कराने में आनंद आता है.  वह लोगों को इंतजार कराकर अपनी शोहरत को नापता रहता है.  एक फिल्म की शूटिंग के लिए हरियाणा जाते समय एअरपोर्ट पर अंडरवल्र्ड के खिलाफ बयानबाजी करता है.  हरियाणा में शूटिंग के लिए इजाजत दिलाने वाला स्थानीय गांव के निगम पार्षद भूरा सोलंकी (जयदीप अहलावत) का भाई विक्की सोलंकी शूटिंग के सेट पर मानव के साथ फोटो खिंचाने जाता है. मगर मानव शूटिंग में व्यस्त रहता है. पूरा दिन बीत जाता है.

 

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शूटिंग खत्म होने के बाद मानव अपनी नई मुस्टैंग कार में बैठकर ड्ाइव पर निकल जाता है,यह देख कर विक्की अपनी कार से उसका पीछा करता है. सुनसान जगह पर विक्की,मानव की कार को रोकता है. दोनों में बहस होती है और विक्की की मौत हो जाती है. मानव डर कर चार्टर्ड प्लेन से लंदन चला जाता है. भूरा सोलंकी भी अपने भाई की मौत का बदला लेने के लिए लंदन पहुंच जाता है. लंदन पहुॅचते ही भूरा ,मानव के घर पहुॅचता है. उस वक्त मानव घर पर नही होता,पर मानव की तलज्ञश में यूके पुलिस जब पहुॅचती है तो भूरा ,उन यूके पुलिस अफसरों को मौत के घाट उताकर इस बात का परिचय देता है कि वह कितना खतरनाक है.

इधर मानव अपने सेके्रटरी रोशन (हर्ष छाया) व वकील की मदद से खुद को सुरक्षित करने में लगा हुआ है.  पर हालात कुछ और हो जाते हैं. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. भारत मंे मानव के खिलाफ एक माहौल बन गया है. इधर जब भूरा व मानव आमने सामने होते हैं,तो भूरा,मानव को मार कर अने भाई की मौत की बजाय लड़ने ़की बात करता है.

पूरी फिल्म मंे दोेनो एक दूसरे को पछाड़ते या भागते नजर ओत हैं. अचानक अंडरवल्र्ड डाॅन मसूद अब्राहम काटकर आ जाता है,जो कि मानव को अपनी नवासी की शादी में नाचने के लिए विवश करता है. काटकर के अड्डे पर भूरा भी पहुॅच जाता है. काटकर,मानव के साथ तस्वीर खिंचवाकर वायरल कर देता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंत मे मानव हीरो बनकर भारत वापस लौटता है.

कहानी व निर्देशनः

फिल्म ‘एन एक्शन हीरो’ के निर्माता आनंद एल राय मशहूर निर्माता व निर्देशक हैं. उन्होने ‘तनु वेड्स मनु’,‘तनु वेड्स मनु रिर्टन’, ‘रांझणा’ जैसी फिल्में निर्देशित कर अपनी एक अलग पहचान बनायी. उसके बाद वह निर्देशन से तोबा कर सिर्फ निर्माता बन गए.  फिर ‘निल बटे सन्नाटा’,‘तुम्बाड़’जैसी बेहतरीन फिल्मों के अलावा ‘मेरी निम्मो’ जैसी कुछ घटिया फिल्मों का निर्माण कर खूब पैसा कमाया.

2018 में आनंद एल राय ने शाहरुख खान को लेकर फिल्म ‘जीरो’ निर्देशित की,जिसने बाक्स आफिस पर पानी तक नही मांागा.  जब आनंद एल राय ने मुझे बताया था कि वह शाहरुख खान को लेकर एक फिल्म निर्देशित करने जा रहे हैं,तभी मैने उनसे फिल्म की कहानी के आधार पर कहा था कि वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जा रहे हैं.  उस वक्त आनंद एल राय ने अपनी बातों से खुद को भगवान और दर्शकों की नब्ज को समझने वाला सबसे बड़ा फिल्मकार साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पर हर कोई जानता है कि ‘जीरो’ अपनी लागत भी वसूल नही कर पायी.

यहीं से आनंद एल राय के बुरे दिनों की शुरूआत भी हो गयी थी. उसके बाद से उनकी किसी भी फिल्म को सफलता नही मिल रही है. लेकिन आनंद एल राय आज भी अहम के शिकार हैं. वह ख्ुाद को ही सबसे बड़ा समझदार इंसान समझते हैं. बतौर निर्माता अपनी नई फिल्म ‘एन एक्शन हीरो’ के प्रदर्शन से कुछ दिन पहले पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत के दौरान आनंद एल राय ने कहा था-‘‘हम फिल्में अच्छी बना रहे हैं, मगर दर्शक हमसे नाराज चल रहा है.

’’बहरहाल,फिल्म ‘एन एक्शन हीरो’ की कहानी भी एक अति घमंडी अभिनेता की है,जो कि बेसिर पैर के काम करता है. पर फिल्म में उसे विजेता दिखा दिया गया है. मगर हकीकत में इस फिल्म से बतौर निर्माता आनंद एल राय के विजेता बनकर उभरने की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. फिल्म के निर्देशक व कहानीकार अनिरूद्ध अय्यर एक बेसिरपैर की कहानी वाली फिल्म ‘एन एक्शन हीरो’ लेकर आए हैं.

फिल्म की कहानी व पटकथा दोेनों गड़बड़ है. हर मशहूर अभिनेता अपनी नई कार की डिलिवरी अपने शहर में लेता है,किसी गांव मंे नहीं और हर हीरो जहां भी जाता है, उसके साथ अब बाउंसरों की टोली होती है. मगर यह बात फिल्म के निर्माता,निर्देशक व लेखक को पता ही नही है.

एक सफल फिल्म कलाकार,जिसके पास भारत व लंदन में अपने आलीशान मकान व अकूट संपत्ति हो,तो उसके संबंध बड़े बड़े लोगों तक होते हैं. फिर भी दुर्घटना वष विक्की की मौत होेने पर मानव सीधे चार्टर्ड प्लेन पकड़कर लंदन भागता है. फिल्मकार ने लंदन की पुलिस को भी घटिया दिखा दिया. पुलिस कमिश्नर अपने आफिस में बैठकर सीसीटीवी पर सब कुद देखते रहते हैं. फिर भी अंडरवल्र्ड डाॅन काटकर के आदमी खुलेआम मानव को बीच सड़क से उठा ले जाते हैं.

 

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हरियाणा के गांव में रहने वाला जाट भूरा सोलंकी लंदन पहुॅचकर मानव के घर में यू के पुलिस वालों की हत्या कर घूमता रहता है,उसे पुलिस पकड़ती नही. पूरी फिल्म इसी तरह के अविश्वसनीय घटनाक्रमों से भरी हुई है.  मानव लंदन भगते समय मास्क पहनकर चेहरा नही छिपाता और कोई उसे पहचान नही पाता.

अभिनेता अक्षय कुमार प्लेन मंे मानव से मिलते हैं और कहते है कि वह किसी को न बताए कि प्लेन में अक्षय मिले थे.  वाह क्या पटकथा है. भारत में ऐसा कौन सा एक्शन हीरो है,जो अपनी निजी जिंदगी में भी एक्शन के कारनामंे करता हो,पर एक्शन सुपर स्टार मानव तो निजी जिंदगी में भी एक्शन मंे माहिर है. वाह क्या सोच है निर्माता,निर्देशक व लेखक की.

फिल्म में संजीदगी तो कहीं है ही नही.  मीडिया को मसखरा,भारतीय पुलिस इतनी निकम्मी है कि वह निगम पार्षद के इषारे पर उसके घर में बिना वस्त्र खड़े रहते हैं.  अंडरवल्र्ड डाॅन जिसके पास भारत का राॅ विभाग तीस वर्षों से नही पहुॅच पाया,उस तक भूरा आसानी से पहुॅच जाता है. फिल्मकार तो न्यायपालिका का मजाक उड़ाने से भी नहीं चूके.   फिल्म में इमोशन तो कहीं नजर ही नही आता. विक्की की मौत के बाद उसके भाई भूरा या परिवार के किसी सदस्य का दुःख नजर नही आता.  रिष्ते तो है ही नहीं. मानव भी अपने सेक्रेटरी व मैनेजर रोशन के अलावा पूरी फिल्म में किसी को फोन नही करता.

अभिनयः

मानव के किरदार को निभाने के लिए आयुष्मान ख्रुराना ने अपनी तरफ से कड़ी मेहनत की है.  पर सच यह है इस किरदार में वह फिट नही बैठते.  जयदीप अहलावत का अभिनय भी काफी मोनोटोनस नजर आता है. हर्ष छाया जरुर अपने अभिनय की छाप छोड़ जाते हैं.

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रेटिंगः एक़ स्टार

निर्माताः चार्मी कौर, पुरी जगन्नाथ, करण जेहर, अपूर्वा मेहता

निर्देशकः पुरी जगन्नाथ

कलाकारः विजय देवराकोंडा,  अनन्या पांडे, रमय्या कृष्णा,  विशु, चंकी पांडे,  अली, मकरंद देशपांडे, गीता श्रिनु, माइक टायन व अन्य

अवधिः ढाई घंटे

दक्षिण भारत की दो तीन फिल्मों के हिंदी संस्करणों ने बाक्स आफिस पर अच्छी कमायी क्या कर ली, हर किसी को ‘पैन इंडिया’ सिनेमा यानी कि तमिल, तेलगू के साथ हिंदी में भी फिल्म बनाने का चस्का लग गया. ऐसे में 2000 से तेलगू फिल्में निर्देशित करते आ रहे पुरी जगन्नाथ कैसे पीछे रह जाते. पुरी जगन्नाथ तेलगू में ‘बद्री’, ‘बाची’, ‘इडिएट’,  ‘शिवामणि’,  रोमियो’,  ‘टेम्पर’, ‘स्मार्ट शंकर’ सहित लगभग 25 फिल्में निर्देशित कर चुके हैं. पहली बार उन्होने अपनी फिल्म ‘लाइगर’ को तमिल, तेलगू व हिंदी में भी बनाया है. इस फिल्म का उन्होंने चार्मी कौर व धर्मा प्रोडक्शन के साथ निर्माण भी किया है. जबकि इस फिल्म से 2011 से तेलगू फिल्मों में अभिनय करते आ रहे अभिनेता विजय देवराकोंडा ने हिंदी में कदम रखा है.  वह ‘नुव्वील्ला’, ‘येवादे सुब्रमण्यम’, ‘अर्जुन रेड्डी’ सहित कई सफल फिल्में कर चुके हैं. मगर उनके सिर पर भी ‘पैन इंडिया स्टार’ का भूत सवार हुआ और वह भी ‘लाइगर’ से हिंदी सिनेमा में कदम रख लिया. इतना ही नही खुद को ‘पैन स्टार’ सबित करने के ेलिए अपनी फिल्म की पीआर टीम के साथ पटना, जयपुर, लखनउ,  अहमदाबाद, वडोदरा,  इंदौर, पुणे सहित देश के शहरोंे का फिल्म की हीरोईन अनन्या पांडे संग चप्पल पहनकर भ्रमण करते हुए अजीबोगरीब बयानबाजी करते रहे. खुद को सताया हुआ और लोगों द्वारा उन्हे आगे बढ़ने से रोका गया, ऐसा दावा भी करते रहे. वहीं वह ‘लाइगर’ को लेकर बड़े बड़े दावे करते नजर आए. मगर उनके पास अपनी फिल्म के संदर्भ में अच्छे से बात करने के लिए समय का अभाव रहा. एक ही दिन में ग्रुप में पत्रकारों से बात कर उन्होने इतिश्री कर दी. फिल्म देखकर समझ में आया कि फिल्म ‘लाइगर’ के निर्देशक के साथ ही विजय देवराकोंडा व अनन्या पांडे पत्रकारों से ज्यादा क्यो नही मिले? क्योंकि उन्हे पता था कि उनकी फिल्म में दम नही है. और वह सिनेमा की समझ रखने वाले पत्रकारांे से बात नहीं कर पाएंगे. फिल्म ‘लाइगर’ देखकर यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि ‘लाइगर’ में अभिनय करने वाले और पिछले एक माह से कई तरह की बयानबाजी करते आ रहे विजय देवराकोंडा ने ही तेलगू फिल्म ‘‘अर्जुन रेड्डी’’में अभिनय किया था. ‘लाइगर’अति बकवास फिल्म है. जिसमें न कहानी का अता पता है और न ही किसी कलाकार ने अच्छा अभिनय ही किया है.   फिल्म का नाम ‘लाइगर’ क्यांे है, यह समझना कठिन है. मगर फिल्म में लाइगर की मां बनी रमैया कृष्णा का संवाद है-‘‘शेर और बाघ दोनों से पैदा हुआ है-‘लाइगर’.

अपनी फिल्म ‘‘लाइगर’’ के हश्र से विजय देवराकोंडा व पुरी जगन्नाथ परिचित थे. इसलिए उन्होने ‘लाइगर’ के तमिल व तेलगू संस्करण  को 25 अगस्त की सुबह ही सिनेमाघरों में प्रदर्शित कर दिया था. उन्हे यकीन था कि जहां वह सुपर स्टार हैं, वहां वह अपने दर्शकों को मूर्ख बना ले जाएंगे, पर ऐसा नही हुआ. बहरहाल,  हिंदी में बनी ‘लाइगर’ 25 अगस्त की रात आठ बजे सिनेमाघरोे में पहुॅचाया गया. इस बार पत्रकारांे को ेभी 25 अगस्त की रात में ही यह फिल्म दिखायी गयी. मीडिया में दिन भर कानाफूसी होती रही कि यदि फिल्मकार अपनी फिल्म को लेकर इतना डरे हुए हैं, तो उन्हे अच्छी कहानी पर अच्छी फिल्म बनानी चाहिए अथवा फिल्म ही न बनाएं.

कहानीः

यह कहानी एक किक बाक्सर व हकलाने वाले इंसान लाइगर (विजय देवरकोंडा) की है. जो कि बनारस से चेन्नई अपनी मां बलमणि (रमैया कृष्णन)के साथ सड़क पर ठेला@ टपरी लगाकर चाय बेचता है. बलमणि (रमैया कृष्णन) खुद को बाघिन समझती हैं. वह अपने बेटे के माध्यम से मार्शल आर्ट के एमएमए फार्म में राष्ट्ीय चैंपियनशिप जीतने का सपना देख रही है, जिसे जीतने से पहले ही उनके पति बलराम  की मौत हो गयी थी. और बेटा लाइगर ने  एमएमए राष्ट्ीय चैंपियनशिप हासिल करने की कसम खायी है. उसकी मां उसे लेकर चेन्नई आयी है, जिससे वह मार्शल आर्ट की बेहतरीन शिक्षा मास्टर (रोनित रॉय)से मुफ्त में दिला सके. पहले तो मास्टर मना कर देते हैं. मगर जब लाइगर की मां उसे याद दिलाती हैं कि एक बार प्रतियोगिता में लाइगर के पिता बलराम ने उन्हे हराया था, तब वह तैयार हो जाते हैं. मगर मास्टर के यहां एमएमए का प्रशिक्षण ले रहे दूसरे लड़के लइगर के हकलाने का उपहास उड़ाते हैं.

फिर फिल्म में एक अमीर बाप की बिगड़ैल व सोशल मीडिया की सुपर स्टार बनने का सपना देख रही तान्या (अनन्या पांडे) का अवतरण होता है, जो कि एक रेस्टारेंट में पहली मुलाकात में ही लाइगर को दिल दे बैठती है और बताती है कि वह संजू (विशु) की बहन है. इससे पहले संजू और लाइगर के बीच मारामारी हो चुकी है. लाइगर की मां बालमणि उसे सलाह देती है कि ‘चुड़ैल’ लड़कियों से दूर रहे. मगर मंदिर में एम एस सुब्बुलक्ष्मी के गाने पर लिप सिंक कर वीडियो बनाते तान्या को देखकर बालमणि उसकी तरफ आकर्षित होती हैं. पर चंद क्षण में ही तान्या अपना असली रूप बालमणि को दिखा देती है. दोनों के बीच कहासुनी भी होती है. कुछ दिन बाद लाइगर व तान्या के संबंध पता चलने पर बालमणि, तान्या को अपने बेटे से दूर रहने के लिए कहती है. संजू के चलते तान्या, लाइगर से ूदूर चली जाती है. इधर लाइगर एमएमए में राष्ट्ीय चैंपियन बन जाता है. अब उसे एमएमए में अंतरराष्ट्ीय चैंपियन बनना है. पर उसके पास बीस लाख रूपए नही है. नाटकीय अंदाज में अमरीका बसे अप्रवासी भारतीय पांडे(चंकी पांडे ) सारा खर्च ही नहीं उठाते है बल्कि लाइगर, मास्टर व अन्य लड़कों को अपने प्रायवेट जेट विमान से अमरीका बुलाते हैं.

अमरीका के लास वैगास शहर में एमएमए का अंतरराट्ीय सेमी फाइनल जीतने के बाद लाइगर से पांडे बताते है कि तान्या उनकी बेटी है. तान्या ने उससे दूरी बनायी थी जिससे वह चैंपियन बन सके. संजू( विशु रेड्डी  ) भी उनका बेटा है. तभी अंडरवल्र्ड डॉन माइक टायसन(माइक टायसन ),  तान्या का अपहरण कर लेता है. क्योंकि पंाडे ने उससे कुछ उधार ले रखा है. तान्या को छुड़ाने के लिए लाइगर,  अंडरवल्र्ड डॉन के अड्डे पर जाते हैं. जहां दोनों के बीच लड़ाई होती है, जिसका लाइव प्रसारण होता है. लाइगर, माइक टायसन को अपने पिता का कातिल कहता है और अंततः जीत जाता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म ‘लाइगर’ की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसकी कहानी व पटकथा लेखक तथा निर्देशक पुरी जगन्नाथ ही हैं. फिल्म में कहानी के नाम पर कुछ भी नही है. बेसिर पैर की बातें है. पुरी जगन्नाथ को बनारस की संस्कृति ही नही मां बेटे के रिश्ते की भी कोई समझ नही है. कम से कम वाराणसी की मां अपने बेटे को ‘साले’ कभी नही बोलती. पूरी फिल्म भावनाओं से मुक्त है. पुरी जगन्नाथ ने अपनी फिल्म के नायक को हकलाने वाला बताया है. पर उन्हे हकलाहट के मनोविज्ञान की समझ ही नही है. यदि उन्हे समझ होती तो कहानी में कुछ दूसरे तत्व वह जोड़ते.

यह फिल्म ‘‘मार्शल आर्ट’ का नाम बदनाम करती है. इतना ही नही माइक टायन जैसे इंसान को अंडारवर्ड डौन बताने के साथ ही उन्हे गालियंा खाने के अलावा एक नौ सीखिए से हारते हुए भी दिखाया है. माइक टायसन ने शायद मोटी रकम देखकर यह किरदार निभा लिया. मगर माइक टायसन जैसे लीजेंड को इस तरह से पेश करना लेखक व निर्देशक का दिमागी दिवालियापन ही कहा जाएगा. वैसे भी लाइगर और माइक टायसन के बीच घंूसे बरसाने के दृश्य महज हास्य ही पैदा करते हैं. फिल्म का क्लायमेक्स भी घटिया है. सबसे बड़ी हकीकत यह है कि अतीत में भी पुरी जगन्नाथ हिंदी में मात खा चुके हैं. उन्हेोन अपनी दूरी तेलगू फिल्म‘बद्री’ को हिंदी में ‘शर्ट ए चैंलज’ के अलावा ‘बुड्ढा होगा तेरा बाप’ जैसी फिल्में बना चुके हैं, जिन्हे दर्शकों ने सिरे से नकार दिया था.

लेखक व निर्देशक के दिमागी दिवालियापन की दूसरी मिसाल यह है कि लाइगर ने अपने पिता को ‘एमएमए’ में हारते हुए नही देखा, उसने यह नही देखा कि उसके पिता को किसने मारा, मगर अपनी मां कहती है कि वह अपने हर प्रतिस्पर्धी को अपना कातिल मानकर उसे खत्म कर दे. यह सिर्फ अजीब सा लौजिक ही नही है, बल्कि आम जनमानस को बहुत ही गलत और अमानवीय संदेश भी देता है. जब लाइगर सोचता है कि माइक टायसन उसके पिता का कातिल है, तभी वह उन्हे हरा पाता है.

फिल्म को देशभक्ति का जामा पहनाने के लिए अमरीका के लास वेगास में एक चायवाले से ‘एमएए’ में अंतरराष्ट्ीय विजेता बने लाइगर को भारतीय ध्वज लहराते,  ‘वाट लगा देंगे‘ और ‘हम भारतीय हैं,  दुनिया को आग लगा देंगे‘ के नारे से देशभक्ति की बातें भी की गयी हैं, मगर सब कुछ बहुत ही अजीब तरीके से चित्रित किया गया है. पूरी फिल्म देखकर कहीं भी देशभक्ति कर जज्बा नही उभरता. बल्कि यह फिल्म पूरी तरह से बदले की कहानी ही नजर आती है.

‘लाइगर’ एक अंडरडॉग स्ट्रीट फाइटर की कहानी बतायी गयी है, जो ‘एमएए’ फार्म के मार्शल आर्ट की प्रतियोगिता मंे अंतरराष्ट्रीय खिताब जीतने में सफल होता है. इस कहानी में नयापन क्या है?इसी तरह के कथानक पर पहले भी कई फिल्में बनी हैं और उन्हे सफलता नही मिली.  कुछ समय पहले इसी तरह की कहानी वाली फरहान अख्तर की बाक्स आफिस पर बुरी तरह से मात खाने वाल फिल्म ‘‘तूफान’’ आयी थी. तो वहीं बी सुभाष की 1984 में आयी फिल्म ‘‘कसम पैदा करने वाले की’’ में दलित युवक द्वारा अपने पिता का बदला लेने की कहानी थी, जिसे दर्शकों ने पंसद नही किया था. वैसे ‘लाइगर’ देखते समय लोगों को 1984 में ही प्रदर्शित मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म ‘बाक्सर’ की याद भी आती है.

एक औरत होते हुए भी लाइगर की मां बलमणि एक लड़की को ‘चुड़ैल’ की संज्ञा देती है और अपने बेटे से कहती है कि वह लड़कियांे से दूर रहे, क्योंकि ‘चुड़ैल’ लड़की उसे प्यार में फंसाने का प्रयास करेगी. यह सोच तो पूरी नारी जाति का अपमान है.  एक जगह हीरो कहता है कि महिलाओं को चूमना यानी कि ‘किस’ ठीक है, लेकिन उनसे लड़ना ठीक नहीं है. तो वहीं एक संवाद है-मैने तुम्हे गर्भवती किया है क्या?’’इस तरह के संवाद सेंसर बोर्ड ने पारित कैसे कर दिए? इस फिल्म से सेंसर बोर्ड पर भी सवाल उठते हैं.

फिल्म के गाने भी घटिया हैं और उनका फिल्मांकन नब्बे के दशक के अंदाज मंे किया गया है. इन गानों को बेवजह कहीं भी ठॅूंस दिया गया है. संवाद दोयम दर्जे के हैं. एडीटर ने भी अपना काम सहीं ढंग से अंजाम देने में विफल रहे हैं.

अभिनयः

लाइगर के किरदार में विजय देवराकोडा दूसरी सबसे बड़ी कमजोर कड़ी हैं, वह हकलाने वाले के किरदार मंे है, मगर इस किरदार को निभाने से पहले अगर उन्होेने हकलाहट के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया होता, तो उनके हित में होता. वह कहंी से भी महत्वाकांक्षी मां के बेटे नजर ही नही आते. लगता है कि ‘पैन इंडिया स्टार’ बनने का सपना देखते हुए विजय देवराकोंडा अभिनय भी भूल गए.   .

एक अमीर, अत्याधुनिक और सोशल मीडिया पर अपने फालोवअर्स बढ़ाने के लिए मरी जा रही तान्या के किरदार में 2019 में फिल्म ‘‘स्टूडेंट आफ द ईअर 2’’ से अभिनय कैरियर की शुरूआत करने वाली अनन्या पांडे महज संुदर व कम वस्त्रों मे ही नजर आयी हैं. उनका अभिनय से कोई लेना देना नही है. लगभग हर दृश्य में उनका चेहरा सपाट ही नजर आता है. अनन्या पांडे के परदे पर आते ही दर्शक मंुॅह बनाने लगता है. तो चंद मिनट के दृश्य में  मकरंद देशंपाडे की प्रतिभा को जाया किया गया है. क्या मकरंद देशपांडे ने यह फिल्म महज पैसों के लिए की? यह तो वही जाने? लाइगर की मां बालमणि के किरदार में रमैया लगभग हर दृश्य में औरतों का अपमान करते अथवा फिल्म ‘बाहुबली’ के अपने किरदार की तरह महज चिल्लाते हुए ही नजर आती है. शायद बामणि का किरदार निभाते हुए उन्हे याद ही नहीं रहा कि वह ‘बाहुबली’ नही कर रही है. उन्हे  उनका अभिनय अप्रभावशाली है. तान्या के पिता पांडे के किरदार में चंकी पांडे की प्रतिभा को भी जाया किया गया है. उनके हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. संजू के किरदार में 2009 से तेलगू फिल्मों में अभिनय करते आ रहे अभिनेता विशु रेड्डी हैं. पर इस फिल्म में उन्होने क्यो सोचकर अभिनय किया, यह बात समझ से परे है.

अंत मेंः

‘‘पैन इंडिया सिनेमा’’ के नाम पर ‘‘लाइगर’’जैसी फिल्में भारतीय सिनेमा को तबाही की ओर ही ले जा रही हैं.

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रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः आमिर खान प्रोडक्शंस और वायकाम 18

निर्देशकः अद्वैत चंदन

लेखकः अतुल कुलकर्णी

कलाकारः आमिर खान, करीना कपूर खान, नागा चैतन्य,  मोना,  मानव विज,  आर्या शर्मा, मेहमान कलाकार शाहरुख खान व अन्य.

अवधिः दो घंटे 45 मिनट

बौलीवुड के फिल्मकारों के पास मौलिक कहानियां व मौलिक कहानी लेखकों का घोर अभाव है. इसी के चलते अब हर कोई विदेशी या दक्षिण की फिल्मों को ही हिंदी में बनाने पर उतारू हैं. पर यह सभी नकल भी ठीक से नही कर पा रहे हैं. इसमंे आमिर खान भी पीछे नहीं है. आमिर खान की ग्यारह अगस्त को सिनेमाघरों में पहुंची फिल्म ‘‘लाल सिंह चड्ढा’’ मौलिक फिल्म नही है,  बल्कि 1994 में प्रदर्शित अमरीकन  फिल्म ‘फॉरेस्ट गंप’’ का भारतीय करण है, जो कि मंदबुद्धि फारेस्ट नामक एक इंसान की बचपन से पिता बनने तक की एंडवेंचरस कहानी है. इसका भारतीय करण करते समय भारतीय संदर्भ जोड़ने के अलावा लाल सिंह को दयालु दिखाने के चक्कर में काफी गड़बड़ा गयी है. मूल फिल्म से लाल सिंह चड्ढा की कहानी काफी विपरीत है. मूल फिल्म के अनुसार लाल सिंह की मां अपने बेटे के लिए कोई सौदा नही करती. बल्कि भारतीय संवेदनाओ के अनुसार कहानी आगे बढ़ती है. मगर मूल कहानी के विपरीत लाल सिंह चड्ढा युद्ध के मैदान से पाकिस्तानी आतंकवादी को बचाकर भारतीय सेना के ही अस्पताल मे इलाज करवाने के बाद उसे अपना बिजनेस पार्टनर भी बनाता है? कुछ समय बाद उसे पाकिस्तान जाने की इजाजत दे देता है.  इसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है? तो क्या आमिर खान का मानना है कि मुंबई पर आतंकवादी हमला करने वाले कसाब को भी फांसी देने की बजाय उसे भी सुधारने का अवसर देना चाहिए था?

कहानीः

यह कहानी पठानकोट से ट्रेन में बैठे लाल सिंह चड्ढा (आमिर खान)  से शुरू होती है, जो कि अपने बचपन से कहानी सुनाना शुरू करती है. लाल सिंह के बचपन की कहानी के साथ ही देश में घट रही घटनाएं भी सामने आती रहती हैं. यह कहानी पठानकोट के गांव में जन्में लालसिंह चड्ढा की है. जिसके परनाना के पिता, परनाना और नाना सेना में थे और यह तीनों युद्ध के मैदान से कभी जीवित नहीं लौटे. वह अपने नाना के ही घर में अपनी मां (मोना सिंह) के साथ रह रहे हैं. लाल सिंह ठीक से चल नही पाते हैं. डाक्टरों ने उनके पैर में लोहे की राड बांधकर सहारा दे रखा है. लाल सिंह का आई क्यू लेवल काफी कम है, इसलिए उसे काफी परेशानी झेलनी पड़ती है. स्कूल का पादरी प्रिंसिपल मंदबुद्धि होने के चलते लाल सिंह को मंद बुद्धि स्कूल में पढ़ाने की बात उसकी मां से कहते हैं. पर लाल सिंह की मां के जिद के आगे वह झुक जाता है. स्कूल में काफी परेशानी झेलनी पड़ती है. सभी उसे बेवकूफ समझते हैं. स्कूल में लाल सिंह को रूपा डिसूजा नामक दोस्त मिलती है. बचपन में ही लाल सिंह अपनी मां के साथ दिल्ली जाते हैं और जब वह प्रधानमंत्री आवास के सामने खड़े होकर तस्वीरें खिचवा रहे होते हैं, तभी पीछे से गोलियों की आवाज आती है और पता चलता है कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गयी है. सिख विरोधी दंगे शुरू हो जाते हैं. बेटे को दंगाइयों से बचाने के लिए लाल सिंह की मां उसके बाल काट देती है, जिससे वह सरदार नजर न आए.

स्कूल दिनों में ही एक मौका ऐसा आता है, जब कुछ लड़कों से बचने के लिए भागते भागते लाल सिंह के पैर को जकड़कर रखने वाली लोहे की राड टूट जाती हैं और लाल सिंह अपने पैरों पर दौड़ने लगते हैं.

लाल सिंह चड्ढा और रूपा डिसूजा की जिंदगी तब बदलने लगती है, जब दोनों कालेज पहुंचते हैं. तेज दौड़ने के चलते लाल सिंह को कालेज की दौड़ टीम का हिस्सा बना लिया जाता है. उधर अति महत्वाकांक्षी और अमीर बनने का ख्वाब देखने वाली रूपा (करीना कूपर खान) एक अमीर लड़के हरी के साथ रोमांस करना शुरू करती है. जबकि लाल सिंह भी रूपा से प्यार करता है. वह अपने नाना या परनाना की तरह सेना में नहीं जाना चाहता. लाल सिंह कहता है कि मैं किसी को मारना नहीं चाहता. पर एक दिन वह हरी को थप्पड़ मार देता है, जिससे नाराज होकर हरी, रूपा से संबंध खत्म कर देता है.

अपने भविष्य को लेकर द्विविधा से ग्र्रस्त लाल सिंह सेना में भर्ती हो जाता है. सेना में सह सैनिक बाला (नागा चैतन्य ) से उसकी दोस्ती होती है. बाला उसके साथ सेना से रिटायरमेंट के भागीदारी में व्यापार शुरू करने की योजना बनाता है. कारगिल में छह आतंकवादियों के छिपे होने की खबर मिलने पर सेना की एक टुकड़ी को भेजा जाता है, जिसमें लाल सिंह और बाला भी है. पर वहां मामला उलटा पड़ जाता है. क्योंकि वहां छह से कई गुना ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक आतंकवादी भारी गोला बारूद के साथ मौजूद होते हैं. भारतीय सेना की टुकड़ी उनके हमलों से घबराकर पीछे लौटने लगती है. पीछे लौटते हुए लाल सिंह बसे तेज दौड़कर नीचे उतरता है. अचानक उसे बाला की याद आती है. वह बाला को लेने फिर से वापस पहाड़ी की तरफ भागता है. बीच में उसे एक घायल सैनिक मिलता है. उसे वह उठाकर नीचे सुरक्षित पहुंचाकर फिर बाला के लिए जाता है. ऐसा करते करते वह पाकिस्तानी सैनिक आतंकवादी के मुखिया मोहम्मद (मालव विज ), जो बुरी तरह से घायल है और बाला को भी वापस लेकर आता है. बाला की मौत हो जाती है. पर मोहम्मद का भारतीय सेना के अस्पताल में इलाज होता है. जिसे बाद में लाल सिह अपना बिजनेस मार्टनर बना लेता है. उधर वह रूपा को भूला नही है. मगर रूपा गलत राह पर चल पड़ी है. एक दिन मोहम्मद वापस पाकिस्तान लौट जाता है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंत में मालूम चलता है कि लाल सिंह चड्ढा,  असल में सिर्फ और सिर्फ भाग सकता था.  जब वो भाग रहा था,  उस बीच उसने अपना जीवन जिया.  न केवल अपना जीवन जिया, बल्कि और न जाने कितनों को जीना सिखाया.  और वो,  ये सब कुछ,  बेहद निर्मोही ढंग से कर रहा था.

लेखन व निर्देशनः

पौने तीन घंटे लंबी अवधि की फिल्म अति धीमी चाल से लाल सिंह चड्ढा की भटकती हुई कहानी है. दर्शक जिस तरह से मूल फिल्म ‘‘फौरेस्ट गंप’’ के साथ जुड़ता है, उस तरह ‘लाल सिंह चड्ढा’ के संग नही जुड़ पाता. आगे बढ़ती रहती है. यह फीचर फिल्म कम डाक्यूमेंट्री वाली फिल्म है. लाल सिंह चड्ढा के जीवन व रूपा के साथ उनकी प्रेम कहानी के साथ बीच बीच में आपातकाल हटाने,  सिख विरोधी दंगों, भारत को विश्व कप क्रिकेट में मिली पहली जीत, औपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गांधी की हत्या, उनके अंतिम संस्कार में सुबकते राजीव गांधी, सिख विरोधी दंगे, मंडल कमंडल,  आडवाणी की रथ यात्रा, बाबरी विध्वंस, मुंबई बम धमाके, अबू सलेम और मोनिका बेदी की कथित प्रेम कहानी से लेकर वाराणसी के घाटों पर लिखा नारा-‘अबकी बार मोदी सरकार’ सहित देश में पिछले पचास वर्षों के दौरान घटित सभी ऐतिहासिक घटनाक्रम भी आते रहते हैं. मगर 2002 के गुजरात दंगों का कहीं कोई जिक्र नही आता? क्या यह इतिहास के साथ छेड़छाड़ नही है? इस हिसाब से यह फिल्म कुछ घटनाक्रमों का ऐतिहासिक दस्तावेज जरुर है.

मगर कहानी व पटकथा के स्तर पर अतुल कुलकर्णी ने एक अजेंडे के तहत ही पूरी फिल्म लिखी है. लेखक व निर्देशक ने फिल्म में सिख दंगों का चित्रण किया है, जिसमें आठ नौ वर्ष का बालक अपनी मां के साथ फंस गया है. हालात ऐसे हैं कि लाल सिंह को बचाने के लिए उसकी मां पास में पड़े कांच के टुकड़े से उसके बाल काट देती है, जिससे वह सरदार न लगे. मगर लेखक व निर्देशक यह नही दिखा पाए कि इस घटनाक्रम का अबोध बालक लाल सिंह के मनमस्तिष्क पर किस तरह का मनोवैज्ञानिक असर पड़ा?लाल सिंह की संगत और लाल सिंह के घर में रहते हुए लाल सिंह के साथ सोेने के बावजूद रूपा क्यों गलत राह पकड़ती है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया. पूरी फिल्म में जब भी दंगे होते हैं, तो इस सच को स्वीकार करने की बनिस्बत ‘मलेरिया’ नाम दिया गया है. इतिहास के सच को दिखाते हुए इस तरह का डर क्यों? यदि डर है तो फिल्म न बनाएं. करीना के किरदार यानी कि रूपा के किरदार को मोनिका बेदी के रूप में चित्रित करना क्यो जरुरी समझा गया. अबू सलेम फिल्म नही बनाता था. एक सैनिक अपनी दयालुता वश किसी दुश्मन देश के सैनिक या आतंकवादी को उठा लाए, तो करूा भारतीय सेना  उस सैनिक का इतिहास भूगोल आदि की बिना जांच किए सैनिक अस्पताल में उसका इलाज करने के साथ ही उसे टेलीफोन बूथ चलाने की इजाजत देगा? उसके बाद वह वापस पाकिस्तान किस पासपोर्ट पर गया? इस पर भारतीय फिल्म सेंसर की अनदेखी समझ से परे है?क्योंकि यह दृश्य तो भारतीय सेना और पासपोर्ट जारी करने वाले विदेश मंत्रालय पर भी सवाल उठाता है?क्या इसे सिनेमाई स्वतंत्रता मानकर नजरंदाज किया जाना चाहिए? लेखक व निर्देशक ने ऐसा क्यों किया,  इसके पीछे उनकी क्या सोच रही है? यह तो वह जाने. पर मूल फिल्म ‘फौरेस्ट गम’ में अमरीकी सैनिक,  वियतनाम युद्ध में वियतनामी नही अमरीकी सैनिक को ही उठाकर लाता है और उसी के साथ भागीदारी में व्यापार भी करता है. इतना ही नही पठानकोट, पंजाब के गांव के बालक को पढ़ने के लिए क्रिश्चियन स्कूल व पादरी दिखाकर धर्म को बेचने की जरुरत क्यों पड़ी?

निर्देशक के तौर पर फिल्म में अद्वैत चंदन का नाम जरुर हे, मगर फिल्मू के अपरोक्ष रूप से निर्देशक आमिर खान ही हैं. फिल्म के निर्माता भी वह स्वयं हैं.

फिल्म का गीत संगीत भी आकर्षित नहीं करता.

अभिनयः

आमिर खान को परफैक्शनिट कलाकार माना जाता है. वह बेहतरीन कलाकार हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है. मगर लाल सिंह चड्ढा के किरदार को निभाते हुए आमिर खान ने वही सब किया है, जो वह इससे पहले ‘थ्री इडिएट’ या ‘पीके’ में कर चुके हैं. वही आंखों को चैड़ा करना,  गर्दन को टेढ़ा करना,  गला साफ करना,  पैंट को ऊंचा उठाना आदि. . बल्कि कई दृश्यों में तो ‘ओवर एक्टिंग’ करते नजर आते हैं. काली निराशा से आशावाद की ओर बढ़ने वाले दुश्मन देश के सैनिक मोहम्मद के किरदार में मानव विज अपनी छाप छोड़ जाते हैं. बाला के किरदार में नागा चैतन्य का किरदार छोटा है, मगर मनोरंजन के क्षण लाते हैं. रूपा के किरदार में करीना कपूर खान भी दर्शकों को आकर्षित करती हैं.

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रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः आदित्य चोपड़ा

निर्देशकः करण मल्होत्रा

लेखकः एकता पाठक मलहोत्रा,नीलेश मिश्रा,खिला बिस्ट,पियूष मिश्रा

कलाकारः रणबीर कपूर,संजय दत्त, वाणी कपूर, रोनित रौय,सौरभ शुक्ला,क्रेग मेक्गिनले व अन्य

 अवधिः दो घंटे 40 मिनट

सिनेमा एक कला का फार्म है. सिनेमा समाज का प्रतिबिंब होता है. सिनेमा आम दर्शक के लिए  मनोरंजन का साधन है. मगर इन सारी बातों को वर्तमान समय का फिल्म सर्जक भूल चुका है. वर्तमान समय का फिल्मकार तो महज किसी न किसी अजेंडे के तहत ही फिल्म बना रहा है. कुछ फिल्मकार तो वर्तमान सरकार को ख्ुाश करने या सरकार की ‘गुड बुक’ में खुद को लाने के ेलिए अजेंडे के ही चलते फिल्म बनाते हुए पूरी फिल्म का कबाड़ा करने के साथ ही दर्शकों को भी संदेश दे रहे हंै कि दर्शक उनकी फिल्म से दूरी बनाकर रहे. कुछ समय पहले फिल्म ‘‘सम्राट पृथ्वीराज ’’ में इतिहास का बंटाधार करने के बाद अब फिल्म निर्माता आदित्य चोपड़ा ने जाति गत व धर्म के अजेंडे के तहत पीरियड फिल्म ‘‘शमशेरा’’ लेकर आए हैं,जिसमें न कहानी है, न अच्छा निर्देशन न कला है. जी हॉ! फिल्म ‘शमशेरा’ 1871 से 1896 तक नीची जाति व उंची जाति के संघर्ष की अजीबोगरीब कहानी है,जो पूरी तरह से बिखरी और भटकी हुई हैं. इतना ही नही फिल्म ‘शमशेरा’’ में नीची जाति यानीकि खमेरन जाति के लोगों को नेस्तानाबूद करने का बीड़ा उठाने वाल खलनायक का नाम है-शुद्धि सिंह. इससे भी फिल्मकार की मंशा का अंदाजा लगाया जा सकता है. अब यह बात पूरी तरह से साफ हो गयी है कि इस तरह अजेंडे के ेतहत फिल्म बनाने वाले कभी भी बेहतरीन कहानी युक्त मनोरंजक फिल्म नही बना सकते. वैसे इसी तरह आजादी से पहले चोर कही जाने वाली अति पिछड़ी जनजाति ‘क्षारा’  गुजरात के कुछ हिस्से मंे पायी जाती थी. इस जनजाति के लोगो ने अपने मान सम्मान के लिए काफी लड़ाई लड़ी. इनका संघर्ष आज भी जारी है.

आदित्य चोपड़ा की पिछले कुछ वर्षों से लगातार फिल्में बाक्स आफिस पर डब रही हैं. सिर्फ तीन माह के अंदर ही ‘जयेशभाई भाई जोरदार’ व ‘सम्राट पृथ्वीराज’ के बाद बाक्स आफिस पर दम तोड़ने वाली ‘शमशेरा’ तीसरी फिल्म साबित हो रही है. मजेदार बात यह है कि आदित्य चोपड़ा निर्मित यह तीनों फिल्में धर्म का भ्रम फैलाने के अलावा कुछ नही करती. इसकी मूल वजह यह भी समझ में आ रही है कि अब फिल्म निर्माण नहीं बल्कि फैक्टरी का काम हो रहा है. मुझे उस वक्त बड़ा आश्चर्य हुआ जब एक बड़ी फिल्म प्रचारक ने कहा-‘‘अब क्वालिटी नही क्वांटीटी का काम हो रहा है,जिसकी सराहना की जानी चाहिए. ’ ’ वैसे फिल्म प्रचारक ने एकदम सच ही कहा. पर क्वांटीटी के नाम पर उलजलूल फिल्मों का सराहना तो नही की जा सकती. ऐसी पीआर टीम किसी फिल्म या निर्माता निर्देशक या कलाकारों को किस मुकाम पर ले जाएगी, इसका अहसास हर किसी को कर लेना चाहिए.

कहानी:

कहानी 1871 में शुरू होती है. उत्तर भारत के किसी कोने में एक खमेरन नामक बंजारी कौम थी,जिसने मुगलों के खिलाफ राजपूतों का साथ दिया.  लेकिन मुगल जीत गए और राजपूतों ने खमेरनों को नीची जाति बता कर हाशिये पर डाल दिया. इससे शमशेरा(रणबीर कपूर) के नेतृत्व में खमेरन बागी हो गए और वह हथियार उठाकर डाकू बन गए.  शमशेरा और उसके साथियों ने अमीरों की नाक में दम कर दिया. तब अमीरों ने अंग्रेज अफसरों से मदद की गुहार लगायी.  अंग्रेज पुलिस बल में नौकरी कर रहा दरोगा शुद्ध सिंह (संजय दत्त) अपने हुक्मनारों से कहता है कि वह शमशेरा को ठीक कर देगा. शुद्ध सिंह,शमशेरा को समझाता है कि सभी खमेरन के साथ वह सरकार के सामने आत्म समर्पण कर दें,जिसके बदले में अंग्रेज उन्हे अमीरो से दूर एक नए इलाके में बसाएंगे.  पैसा भी देंगे.  इससे वह और उसकी पूरी कौम सम्मान और इज्जत का जीवन फिर शुरू कर सकते हैं. शमशेरा समझौते को मंजूर कर लेता है. लेकिन आत्मसमर्पण करते ही शमशेरा को अहसास होता है कि उसके और खमेरन कौम को धोखा मिला है.  शुद्ध सिंह ने इन सभी को काजा नाम की जगह पर बनी विशाल किलेनुमा जेल में कैद कर देता है और फिर इनके साथ गुलामों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है. इस किले के तीन तरफ से अति गहरी आजाद नदी बहती है. शमशेरा को शुद्ध सिंह समझाता है कि अंग्रेज लालची हैं. अमीरों ने पांच हजार करोड़ सोने के सिक्के दिए हैं,वह दस हजार करोड़ सोने के सिक्के दे,तो उसे व उसकी पूरी खमेरन कौम को आजादी मिल जाएगी. स्टैंप पेपर पर लिखा पढ़ी हो जाती है. सोना जमा करने के लिए किले से बाहर निकलना जरुरी है. इसी चक्कर में शुद्ध सिंह की चाल में फंसकर शमशेरा न सिर्फ मारा जाता है,बल्कि खमेरन कौम उसे भगोड़ा भी कहती है.

शमशेरा की मौत के वक्त उसकी पत्नी गर्भवती होती है,जो कि बेटे बल्ली (रणबीर कपूर) को जन्म देती है. बल्ली 25 वर्ष का हो गया है. मस्ती करना और जेल के अंदर डांस करने आने वाली सोना(वाणी कपूर ) के प्यार में पागल है. अब तक उसे किसी ने नहीं बताया कि उसे भगोड़े का बेटा क्यों कहा जाता है. बल्ली भी अंग्रेजों की पुलिस में अफसर बनना चाहता है. शुद्धसिंह उसे अफसर बनाने के लिए परीक्षा लेने के नाम पर बल्ली की जमकर पिटायी कर देता है. तब उसकी मां उसे सारा सच बाती है कि उसका पिता भगोड़ा नही था,बल्कि सभी खमेरन को आजाद करने की कोशिश में उन्हे मौत मिली थी. तब बल्ली भी अपने पिता की ही राह पकड़कर उस जेल से भागने का प्रयास करता है,जिसमें उसे कामयाबी मिलती है. वह काजा से निकलकर नगीना नामक जगह पहुॅचता है,जहां उसके पिता के खमेरन जाति के कई साथी रूप बदलकर शमशेरा के आने का इंतजार कर रहे हैं. उसके बाद बल्ली उन सभी के साथ मिलकर सभी खमेरन को आजाद कराने के लिए संघर्ष शुरू करता है. सोना भी उसके साथ है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. अंततः शुद्धसिंह मारा जाता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी इसके चार लेखक व निर्देशक करण मल्होत्रा खुद हैं. फिल्म में एक नहीं चार लेखक है और चारों ने मिलकर फिल्म का सत्यानाश करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है. इनचारों ने 2013 की असफल हौलीवुड फिल्म ‘‘द लोन रेंजर’’ की नकल करने के साथ ही डाकू सुल्ताना,फिल्म ‘नगीना’ व असफल फिल्म ‘ठग्स आफ हिंदुस्तान’ का कचूमर बनाकर ‘शमशेरा’ पेश कर दिया. लेखकों व निर्देशक के दिमागी दिवालियापन की हद यह है कि इस जेल के अंदर सभी खमेरन मोटी मोटी लोहे की चैन से बंधे हुए हैं. इन्हे नहाने के लिए पानी नहीं मिलता. दरोगा शुद्ध सिंह इनसे क्या काम करवाता है,यह भी पता नही. सभी के पास ठीक से पहनने के लिए कपड़े नही है. इन सब के बावजूद बल्ली अच्छे कपड़े पहनता है. बल्ली ने अंग्रेजी भाषा की पढ़ाई कहां व कैसे की. वह अंग्रेजों और शमशेरा के बीच हुआ अंग्रेजी में लिखा समझौता पढ़-समझ लेता है. वह नक्शा पढ़ लेता है. आसमान में देखकर दिशा समझ जाता है. सोना जैसी डंासर से इश्क भी कर लेता है.

हौलीवुड फिल्म ‘‘ द लोन रेंजर’’ में ट्ेन,सफेद घोड़ा व लाखों कौए,बाज पक्षी के साथ ही पिता की मृत्यू के बदले की कहानी भी है. यह सब आपको फिल्म ‘‘शमशेरा’’ में नजर आ जाएगा.  शमशेरा और बल्ली पर जब भी मुसीबत आती है,उनकी मदद करने लाखों कौवे अचानक पहुॅच जाते हैं,ऐसा क्यांे होता है,इस पर फिल्म कुछ नही कहती. लेकिन जब बल्ली किले से भाग कर एक नदी किनारे बेहोश पड़ा होता है, तो उसे होश में लाने के लिए कौवे की जगह अचानक एक बाज कैसे आ जाता है? मतलब पूरी फिल्म बेसिर पैर के घटनाक्रमों का जखीरा है. एक भी दृश्य ऐसा नही है जिससे दर्शकों का मनोरंजन हो. इंटरवल से पहले तो फिल्म कुछ ठीक चलती है,मगर इंटरवल के बाद केवल दृश्यों का दोहराव व पूरी फिल्म का विखराव ही है.

2012 में फिल्म ‘अग्निपथ’ का निर्देशन कर करण मल्होत्रा ने उम्मीद जतायी थी कि वह एक बेहतरीन निर्देशक बन सकते हैं. मगर 2015 में फिल्म ‘‘ब्रदर्स’’ का निर्देशन कर करण मल्होत्रा ने जता दिया था कि उन्हे निर्देशन करना नही आता. अब पूरे सात वर्ष बाद ‘शमशेरा’ से जता दिया कि वह पिछले सात वर्ष निर्देशन की बारीकियां सीखने की बजाय निर्देशन के बारे में उन्हे जो कुछ आता था ,उसे भी भूलने का ही प्रयास करते रहे. तभी तो बतौर निर्देशक ‘शमशेरा’ में वह बुरी तरह से असफल रहे हैं. फिल्म के कई दृश्य अति बचकाने हैं. निर्देशक को यह भी नही पता कि 25 वर्ष में हर इंसान की उम्र बढ़ती है,उसकी शारीरिक बनावट पर असर होता है. मगर यहां शुद्ध सिंह तो ‘शमशेरा’ और ‘बल्ली’ दोनो के वक्त एक जैसा ही नजर आता है.

फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी पीयूष मिश्रा लिखित संवाद हैं. कहानी 1871 से 1896 के बीच की है. उस वक्त तक देश में खड़ी बोली का प्रचार प्रसार होना शुरू ही हुआ था.  अवधी और ब्रज बोलने वाला फिल्म में एक भी किरदार नहीं है जो उत्तर भारत की उन दिनों की अहम बोलियां थी.

फिल्म की मार्केटिंग और पीआर टीम ने इस फिल्म को आजादी मिलने से पहले अंग्रेजों से देश की आजादी की कहानी के रूप में प्रचार किया. जबकि यह पूरी फिल्म देश की आजादी नही बल्कि एक कबीले या यॅंू कहें कि एक आदिवासी जाति की आजादी की कहानी मात्र है.  जी हॉ!यह स्वतंत्रता की लड़ाई नही है. इस फिल्म में अंग्रेज शासक विलेन नही है. फिल्म में अंग्रेजांे यानी श्वेत व्यक्ति की बुराई नही दिखायी गयी है. बल्कि कहानी पूरी तरह से देसी जातिगत संघर्ष पर टिकी है,जिसका विलेन भारतीय शुद्ध सिंह ही है.

फिल्म का वीएफएक्स भी काफी घटिया है. फिल्म का गीत व संगीत भी असरदार नही है. फिल्म के संगीतकार मिथुन ने पूरी तरह से निराश किया है. फिल्म का बैकग्राउंड संगीत कान के पर्दे फोड़ने पर आमादा है. यह संगीतकार की सबसे बड़ी असफलता ही है.

अभिनयः

जहां तक अभिनय का सवाल है तो यह फिल्म और यह किरदार उनके लिए नही था. उन्हें फिलहाल रोमांस और डांस ही करना चाहिए. जितना काम यहां उन्होंने किया, उतना कोई भी कर सकता था. वैसे भी यह रणबीर कपूर वही है जो आज भी अपने कैरियर की पहली फिल्म का नाम नही बताते. उनकी इच्छा के अनुसार सभी को पता है कि रणबीर कपूर की पहली फिल्म ‘‘सांवरिया’’ थी,जिसके लिए उन्होने अपनी पहली फिल्म को कभी प्रदर्शित नही होने दिया. पर ‘सांवरिया’ असफल रही थी. वैसे रणबीर कपूर ने अपनी 2018 में प्रदर्शित अपनी पिछली फिल्म ‘‘संजू’’ में बेहतरीन अभिनय किया था. मगर चार वर्ष बाद ‘शमशेरा’ से अभिनय में वापसी करते हुए वह निराश करते हैं.

वाणी कपूर ने 2013 में प्रदर्शित अपनी पहली ही फिल्म ‘‘शुद्ध देसी रोमांस’’ से जता दिया था कि उन्हे अभिनय नही आता. उनके पास दिखाने के लिए सिर्फ खूबसूरत जिस्म है. उसके बाद ‘बेफिक्रे’,‘वार’,‘बेलबॉटम’ और ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ में भी उनका अभिनय घटिया रहा. फिल्म ‘शमशेरा’ में भी वही हाल है.  उनके कपड़े डिजाइन और मेक-अप करने वाले भूल गए कि कहानी साल 1900 से भी पुरानी है. इस फिल्म में भी कई जगह उन्होने बेवजह अपने जिस्म की नुमाइश की है. देखना है इस तरह वह कब तक फिल्म इंडस्ट्ी मंे टिकी रहती हैं. इरावती हर्षे का अभिनय ठीक ठाक है.

कुछ मेकअप की कमियों को नजरंदाज कर दें तो संजय दत्त ने कमाल का अभिनय किया है. वैसे उनका किरदार काफी लाउड है.  संजय दत्त का किरदार फिल्म का खलनायक है,पर वह क्रूर कम और कॉमिक ज्यादा नजर आते हैं.  फिर भी उनका अभिनय शानदार है. पूरी फिल्म में सिर्फ संजय दत्त ही अपनी छाप छोड़ जाते हैं. सौरभ शुक्ला जैसे शिक्षित कलाकार ने यह फिल्म क्यों की,यह बात समझ से परे है. शायद रोनित राय ने भी महज पेसे के लिए फिल्म की है.

क्या होना चाहिएः

यश राज चोपड़ा की कंपनी ‘यशराज फिल्मस’’ की अपनी एक गरिमा रही है. यह प्रोडक्शन हाउस उत्कृष्ट सिनेमा की पहचान रहा है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ‘यशराज फिल्मस’ की छवि काफी धूमिल हुई है. इस छवि को पुनः चमकाने और  अपने पिता यशराज चोपड़ा के यश को बरकरा रखने के लिए आवश्यक हो गया है कि अब आदित्य चोपड़ा गंभीरता से विचार करें. बौलीवुड का एक तबका मानता है कि अब वक्त आ गया है,जब आदित्य चोपड़ा को अपने प्रोडक्शन हाउस की रचनात्मक टीम के साथ ही मार्केटिंग व पीआर टीम में अमूलचूल बदलाव कर सिनेमा को किसी अजेंडे की बजाय सिनेमा की तरह बनाएं.  माना कि ‘यशराज फिल्मस’ के पास बहुत बड़ा सेटअप है. पर आदित्य चोपड़ा को चाहिए कि वह अपनी वर्तमान टीम में से कईयों को बाहर का रास्ता दिखाकर सिनेमा की समझ रखने वाले नए लोगों को जगह दे, वह भी ऐसे नए लोग, जो उनके स्टूडियो में कार से स्ट्रगल करने न आएं.  जिनका दिमाग विदेशी सिनेमा के बोझ तले न दबा हो.  कम से कम इतनी असफल फिल्मों के बाद आदित्य को समझ लेना चाहिए कि एक अच्छी फिल्म सिर्फ पैसे से नहीं बनती.

REVIEW: ऊंची दुकान फीका पकवान है ‘मॉडर्न लव मुंबई’

रेटिंगः एक स्टार

निर्माताः प्रीतीश नंदी कम्यूनीकेशन

निर्देशकःहंसल मेहता, विशाल भारद्वाज, अलंकृता श्रीवास्तव, शोनाली बोस, ध्रुव सहगल और नुपूर अस्थाना

कलाकारः प्रतीक गांधी, प्रतीक बब्बर, मेयांग चैंग, रणवीर ब्रार, वामिका गब्बी, मसाबा गुप्ता, अरशद वारसी और फातिमा सना शेख आदि

अवधिः 37 से 43 मिनट की छह लघु कहानियां, कुल अवधि चार घंटे

ओटीटी प्लेटफार्मः अमेजॉन प्राइम पर 13 मई से स्ट्ीमिंग

अमरीका के दैनिक अखबार ‘न्यू यार्क टाइम्स ’’ में प्रकाशित एक स्तम्भ पर आधारित वेब सीरीज ‘‘मॉडर्न लव न्यूयार्क’’ के दो सीजन प्रसारित हो चुके हैं, जिन्हे वहां काफी पसंद किया गया. अब प्रीतीशनंदी कम्यूनीकेशन उसी को मुंबई की पृष्ठभूमि में  ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ में छपे कॉलम की छह कहानियों या यॅू कहें कि एंथेलॉजी के तहत छह लघु फिल्मों को एक साथ वेब सीरीज ‘मॉडर्न लव मुंबई’’ के नाम से लेकर आया है. जो कि 13 मई से ‘‘अमेजॉन प्राइम वीडियो’ पर स्ट्रीम हो रही है. इन्हें देखकर घोर निराशा हुई. मुंबई शहर सपनों का शहर. जहां हर दिन हजारों लोग देश के हर कोने से अपने सपनों को पूरा करने के लिए पहुॅचता है और फिर मुंबई शहर की तेज गति से भागती जिंदगी में वह खो जाता है. मुंबई की जिंदगी में काफी विविधताएं हैं. देश के हर कोने से ही नहीं बल्कि कई दूसरे देशों के लोग भी यहां आते हैं, तो उनकी जिंदगी क्या हो सकती है, यह सभी समझ सकते हैं. जिंदगी जीने के संघर्ष के साथ प्यार का होना भी स्वाभाविक है. उसी प्यार को छह भिन्न भिन्न निर्देशकों ने अलग अलग कहानियों के माध्यम से उकेरा है.  मगर इन सभी छह लघु फिल्मों में कुछ भी नयापन नही है. चार घ्ंाटे का समय बर्बाद करने के बाद दर्शक खुद को ठगा हुआ महसूस करता है.  यह कहानियां मुंबई की जीवनशैली, मुंबई में जीवन की आपा धापी, संघर्ष आदि को लेकर कोई बात नहीं करती. इस वेब सीरीज से मुंबई की धड़कन पूरी तरह से गायब है.

कहानी व समीक्षाः

अलंकृता श्रीवास्तव निर्देशित कहानी ‘‘माई ब्यूटीफुल रिंकल्स‘ में बोल्ड और खुर्राट दिलबर सोढ़ी (सारिका) की कहानी है. जो 25 वर्षीय बिजनेस एनालिस्ट कुणाल (दानेश रजवी) को अंग्रेजी बोलना सिखाती हैं. कुणाल एक दिन दिलबर को उनकी एक अजीब सी तस्वीर बना कर देता है और कहता है कि वह रात रात भर उनके साथ रहने का सपना देखता रहता है. वह कह जाता है कि वह उनके साथ सेक्स भी करना चाहता है. दिलबर तुरंत उसे युवा लड़कियों के सपने देखने की सलाह देेते हुए घर से निकाल देती हैं. मगर फिर अपनी सहेलियों के साथ गपशप करने के बाद दिलबर, कुणाल को बुलाकर दोस्ताना संबंध रखती है, इस शर्त पर कि उनके बीच कोई शारीरिक संबंध नहीं होगा.

‘‘लिपस्टिक अंडर बुर्खा’’से जबरदस्त शोहरत हासिल कर चुकी अलंकृता श्रीवास्तव इस फिल्म में बुरी तरह से मात खा गयी हैं. वह प्रेम कथा को भी उभार नहीं पायी. पूरी फिल्म अति धीमी गति से ही आगे बढ़ती हैै. जिसे देखते हुए दर्शक सोचने लगता है कि कि यह कब खत्म होगी.

इसमें सारिका और दानेश रजवी का अभिनय भी आकर्षणहीन है.

दूसरी कहानी ‘‘मार्गरीटा विथ स्ट्पि’’ फेम निर्देशक शोनाली बोस की ‘‘रात रानी ’’है. इस कहानी कें केंद्र में शादीशुदा कश्मीरी लड़की  लाली (फातिमा सना शेख) है, जो पिछले दस साल से अपने बोरिंग व वाचमैन की नौकरी कर रहे पति लुत्फी (भूपेंद्र जदावत) के साथ मुंबई में रह रही है. लाली भी एक घर में काम करती है. लाली दस साल पहले  अपने पिता का विरोध कर अपने से नीची जाति के लुत्फी संग शादी कर कश्मीर छोड़कर मुंबई आ गयी थी. उसने पति के लिए स्कूटर खरीदकर दिया. मगर एक दिन अचानक लुत्फी उसे छोड़कर चला जाता है. कुछ दिन लाली, लुत्फी को बार बार फोन कर वापस आने की बात करती है. पर एक दिन वह अकेले ही जिंदगी जीने का निर्णय लेकर सायकल चलाते हुए दिन व रात में काम कर अपने टूटे मकान को बनाने के साथ ही एक नई जिंदगी जीना शुरू कर देती है, जिसमें लुत्फी के लिए कोई जगह नहीं है.

शोनाली बोस बेहतरीन कथा वाचक और निर्देशक हैं, इसमें कोई दो राय नही है. इस फिल्म से उन्होने साबित कर दिखाया कि उन्हे नारी मन की बेहतरीन समझ हैं. वह सामाजिक बंधनों को तोड़ने की भी वकालत करते हुए नजर आती हैं. फिल्म में ट्पिल तलाक का मुद्दा भी हैं. लगभग 41 मिनट की इस लघु फिल्म में शोनाली बोस ने नारी उत्थान का मुद्दा भी खूबसूरती से उठाया है. सभी छह कहानियों में से एक मात्र यह ऐसी काहनी लघु फिल्म है, जो दर्शकों को कुछ हद तक बांध कर रखती है.

लेकिन  ‘‘रात रानी’’ की कमजोर कड़ी इसके कलाकार फातिमा सना शेख व भूपेंद्र जतावत हैं. भूपेंद्र के हिस्से कुछ खास करने को आया ही नही. मगर फातिमा सना शेख ने अपनी ‘ओवर एक्टिंग’ से सब कुछ बर्बाद कर डाला.

हंसल मेहता निर्देशित फिल्म ‘‘बाई’’ की कहानी काफी बिखरी हुई है. अति धीमी गति से बागे बढ़ने वाली इस कहानी में यही नहीं समझ में आता कि यह ‘बाई’ यानी कि नायक मंजर अली उर्फ मंजू (प्रतीक गांधी) की दादी (तनुजा) की कहानी है अथवा होमोसेक्सुअल समलैंगिक मंजर अली की कहानी है. फिल्म की शुरूआत दंगों से की जाती है. खैर, मंजर के माता पिता को लगता है कि बाई यह बर्दाश्त नही कर पाएंगी कि उनका पोता समलैंगिक है. वह एक अच्छी लड़की से मंजर का निकाह करवाने की बात करते हैं. मगर मंजर मुंबई छोड़कर गोवा जाकर समलैंगी राजवीर (रणवीर ब्रार  ) से विवाह कर लेता है.

हंसल मेहता बेहतरीन निर्देशक हैं. मैं उनकी कई फिल्मों का प्रशंसक हॅूं. मगर इस बार हंसल मेहता ने निराश किया है. वह समलैगिकता पर ‘अलीगढ़’जैसी फिल्म दे चुके हैं. उसके बाद ‘बाई’ तो मलमल में ताट का पैबंद ही है. इस फिल्म में समलैंगिक प्यार को लेकर उनका ताना-बाना हास्यास्पद है. मंजर व राजवीर के  बीच किसिंग सीन से लेकर बिस्तर के दृश्य अजीब ढंग से फिल्माए हैं. यह हंसल मेहता की अब तक की सबसे कमजोर फिल्म है.

जहां तक अभिनय की बात है तो प्रतीक गांधी और रणवीर ब्रार दोनो ही निराश करते हैं.

नूपुर अस्थाना की फिल्म ‘कटिंग चाई‘ में उपन्यास लिख रही लतिका(चित्रांगदा सिंह) और उनके पति डैनी(अरशद वारसी) के रिश्ते की कहानी है. डैनी कभी भी सही समय पर कहीं नहीं पहुंचते.

‘‘कटिंग चाय’’ प्रेम कहानी की बजाय पति पत्नी के बीच रिश्ते की कहानी बयां करने वाली अति धीमी गति की फिल्महै. इस तरह के विषय पर सैकड़ों फिल्में बन चुकी हैं. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि दर्शक इसे देखना चाहे.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो अरशद वारसी का अभिनय बेहतरीन है. वह अपने सदाबहार वाले अंदाज में नजर आते हैं.  मगर चित्रांगदा सिंह निराश करती हैं. लगता है कि वह अभिनय भूलती जा रही हैं.

ध्रुव सहगल निर्देशित कहानी लघु फिल्म ‘‘आई लव थाणे’’ की कहानी के केंद्र में बांदरा में रहने वाली आर्किटेक्ट व लैंडस्केप डिजायनर साईबा (मासाबा गुप्ता) हैं, जो रिश्ते में बंधने के लिए परेशान हैं. इसी बीच उन्हें ठाणे म्यूनीशिपल कारपोरेशन की तरफ से एक हरा भरा पार्क बनाने का काम मिलता है. यहां उन्हें अपनी उम्र से कम उम्र के ठाणे में रहने वाले पार्थ (ऋत्विक भौमिक) के साथ काम करना है. धीरे धीरे साईबा, पार्थ की ओर आकर्षित होती है.

ध्रुव सहगल बतौर लेखक व निर्देशक बुरी तरह से असफल रहे हैं. कहानी की गति धीमी तो है ही, वहीं एडीटिंग व मिक्सिंग भी गड़बड़ है. दृश्य आने से पहले ही संवाद शुरू हो जाते हैं. कहानी में ऐसा कुछ नही है कि लोग देखना चाहें. यह फिल्म बोर ही करती हैं.

जहंा तक अभिनय का सवाल है तो जब कहानी व पटकथा मंे दम न हो तो कलाकार कुछ नही कर सकता. वैसे अभिनय उनके वश की बात नही है, इस बात को मासाबा गुप्ता जितनी जल्दी समझ जाएं, उतना ही उनके हित में होगा. ऋत्विक भौमिक भी नही जमे.

विशाल भारद्वाज निर्देशित ‘‘मुंबई ड्ैगन’’ की कहानी के केंद्र में सुई (येओ यान यान) हैं, जो कि युद्ध के वक्त अपने पिता के साथ चीन से भारत आ गयी थी. अपने पिता की तरह सुई भी अति स्वादिष्ट भोजन बनाती हैं. उनके पति का देहंात हो चुका है. बेटा मिंग(मियांग चांग) डाक्टर बनते बनते गायक बनने के लिए संघर्ष करने के साथ ही एक गुजराती लड़की मेघा के प्यार में पड़ा हुआ है. वह मेघा(वामिका गब्बी ) के साथ मेघा के पिता के घर मंे पेइंग गेस्ट है. सुई अपने बेटे मिंग का विवाह चीनी लड़की से ही करना चाहती है. इसी बात को लेकर मां बेटे के बीच टकराव है.

विशाल भारद्वाज की फिल्म ‘‘मुंबई डै्गन’’ चुं चुं का मुरब्बा के अलावा कुछ नही है. इस कहानी के साथ दर्शक जुड़ नही पाता.

जहां तक अभिनय का सवाल है तो मां सुई के किरदार में येओ यान यान का अभिनय ठीक ठाक है. मगर मियांग चांग और वामिका गब्बी निराश करती हैं.

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रेटिंगः आधा स्टार

निर्माताः साजिद नाड़ियादवाला

निर्देशकः अहमद खान

कलाकारः टाइगर श्राफ,तारा सुतारिया, नवाजुद्दीन सिद्दिकी,

अवधिः दो घंटे  22 मिनट

2014 की सफल फिल्म ‘‘हीरोपंती’’ से अपने कैरियर की शुरूआत की थी,जिसका लेखन संजीव दत्ता,निर्देशन सब्बीर खान और निर्माण साजिद नाड़ियादवाला ने किया था. अब पूरे आठ वर्ष बाद उसी फिल्म का सिक्वअल ‘‘हीरोपंती’’ 29 अप्रैल को सिनेमाघरो में पहुंची है. फिल्म ‘‘हीरोपंती 2’’ के  निर्माता साजिद नाड़ियादवाला ने खुद ही इस बार कहानी लिखी है. यह बात गले नहीं उतरती कि साजिद ने क्या सोचकर अपनी इस बकवास कहानी पर फिल्म के निर्माण पर पैसे खर्च कर डाले. इससे ज्यादा बकवास फिल्म अब तक नही बनी है.

एक फिल्म के निर्माण में तकरीबन सौ से अधिक लोगों की मेहनत लगी होती है. एक फिल्म की सफलता व असफलता का असर हजार से अधिक परिवारों की रसोई पर पड़ता है. इस वजह से अमूमन मैं फिल्म की समीक्षा लिखते दर्शक फिल्म देखने न जाएं,ऐसा लिखने से बचने का प्रयास करता हॅूं,मगर ‘‘हीरोपंती 2’’ देखने का अर्थ सिरदर्द मोल लेेन के साथ ही समय व पैसे का क्रिमिनल वेस्टेज ही होगा.

कहानीः

लैला जादूगर (नवाजुद्दीन सिद्दिकी ) की आड़ में पूरे विश्व के साइबर क्राइम के मुखिया हैं. जिसने योजना बनायी है कि 31 मार्च के दिन भारत के सभी बैंको में सभी नागरिको के बैंक एकाउंट को हैककर सारा धन अपने पास ले लेंगें. बबलू( टाइगर श्राफ )दुनिया का सबसे बड़ा हैकर है,जिसकी सेवाएं कभी सीबाआई प्रमुख खान( जाकिर हुसेन ) के लिया करते थे. अब बबलू अपनी सेवाएं लैला को दे रहे हंै. लैला की बहन इनाया( तारा सुतारिया) ,बबलू से प्यार करती है. फिर बबलू का हृदय परिवर्तन भी होता है.

लेखन व निर्देशनः

फिल्म ‘‘हीरोपंती 2’’ में ऐसा कुछ नही है,जिसे अच्छा कहा जा सके. घटिया कहानी,घटिया पटकथा और घटिया निर्देशन अर्थात फिल्म ‘‘हीरोपंती 2’’ है. लेखक व निर्देशक के दीमागी दिवालिएपन की हालत यह है कि एम्बूलेंस ड्रायवर का मकान अंदर से किसी आलीशान बंगले से कमतर नही है. टाइगर श्राफ की पहचान बेहतरीन डांसर व एक्शन दृश्यों को लेकर होती है,लेकिन इस फिल्म में यह दोनो पक्ष भी कमजोर हैं. फिल्म में कई एक्शन दृश्य ऐसे है, जिन्हे देखते हुए लगता है हम मोबाइल पर एक्शन का वीडियो देख रहे हो. मजेदार बात यह है कि एक्शन दृश्य देखकर हंसी आती है. एक व्यक्ति दोनों हाथांे में मशीनगन पकड़कर टाइगर श्राफ पर गोलियां चला रहा है,मगर टाइगर पर असर नही पड़ता. तो वहीं कहीं किसी भी दृश्य के बाद कोई भी गाना ठूंस दिया गया है. फिल्म में एक भी दृश्य ऐसा नही है,जिसमें कुछ नयापना हो. सब कुद बहुत बचकाना सा है. अब तीन मिनट के सिंगल गानों के जो म्यूजिक वीडियो बन रहे हैं,उनमें भी एक अच्छी कहानी होती है,मगर ‘हीरोपंती 2’’ की पटकथा इतनी खराब लिखी गयी है कि दर्शक अपना माथा पीटता रहता है.

अहमद खान अच्छे नृत्य निर्देशक रहे हैं,मगर बतौर निर्देशक वह बुरी तरह से मात खा गए हैं. वैसे अहमद खान ने इससे पहले ‘बागी 2’ और ‘बागी 3’ जैसी अर्थहीन फिल्मंे  निर्देशित कर चुके हैं.

फिल्म में एक दृश्य पांच सितारा होटल के अंदर से शुरू होता है,जहां इयाना (तारा सुतारिया ) बबलू (टाइगर श्राफ ) की होटल के बाहर बीच सड़क पर अपने आदमियों से बबलू की पैंट उतरवाकर  पीठ के नीचे कमर पर तिल की तलाश करवाती है. यह अति भद्दा व वाहियात दृश्य है. इसे करने के लिए टाइगर श्राफ क्या सोचकर तैयार हुए,पता नही. जबकि इस दृश्य से कहानी का कोई लेना देना नही है.

इसके संवाद भी अति घटिया हैं. फिल्म में नवाजुद्दीन का संवाद है-‘‘यह तुम्हारी मां है और यह मेरी बहन है. अब तुम दोनो जाकर मां बहन करो. ’’

लैला यानी कि नवाजुद्दीन सिद्दिकी के कम्प्यूटर रूम में सीसीटीवी कैमरा लगा है,जो कि अजीब ढंग से घूमता रहता है. यह कैमरा क्यों लगा हुआ है,किस पर निगाह रख रहा है,पता ही नहीं चलता.

अभिनयः

इनाया के किरदार में तारा सुतारिया का अभिनय अति घटिया है. पूरी फिल्म में वह विचित्र से कपड़े पहने,विचित्र सी हरकतें करते हुए नजर आती है.

जादूगर लैला के किरदार में नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने अब तक का सबसे निम्न स्तर का अभिनय किया है. वह कभी ट्रांसजेंडर की तरह हाव भाव करते व चलते नजर आते हैं,तो कभी कुछ अलग ही चाल ढाल होती है. नवाजुद्दीन सिद्दिकी ने इस फिल्म में क्यों काम किया,यह समझ से परे है. शायद वह सिर्फ पैसा बटोरने के चक्कर में कला व अभिनय को तिलांजली देने पर उतारू हो चुके हैं.

टाइगर श्राफ हर दृश्य में अपना सपाट सा चेहरा लिए हुए नजर आते हैं. उनके चेहरे पर कहीं कोई भाव नहीं आते. बेवजह उछलकूद करते हुए नजर आते हैं.

अफसोस की बात यह है कि इस बकवास फिल्म के गीतों को संगीत से ए आर रहमान ने संवारा है. फिल्म के गाने घटिया हैं और बेवजह फिल्म के बीच बीच में ठॅूंसे गए हैं. फिल्म के अंत में ‘व्हिशल बाजा’ प्रमोशनल गाने में कृति सैनन को देखकर लगा कि शायद अब उनका कैरियर पतन की ओर जाने लगा है.

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REVIEW: जानें कैसी है जौन अब्राहम की फिल्म ‘Attack’

रेटिंगः डेढ़ स्टार

निर्माताः जे ए इंटरटेनमेंट, पेन वीडियो , अजय कपूर फिल्मस

निर्देशकः लक्ष्य राज आनंद

कलाकारः जौन अब्राहम, जैकलीन फर्नांडिस, रकूल प्रीत सिंह, किरण कुमार, एल्हम एहसास,  प्रकाश राज,  रत्ना पाठक शाह, रजित कपूर व अन्य.

अवधिः दो घंटे तीन मिनट

2016 में चल फिर सकने में पूरी तरह से असमर्थ नार्थन नामक एक अमरीकी इंसान के दिमाग में एक चिप बैठाया गया था, जो कि उनके दिमाग को संचालित करता है और वह चलने फिरने लगते हैं. इसी से प्रेरित होकर जौन अब्राहम ने एक सुपर सोल्ज्र की एक्शन प्रधान कहानी लिखी, जिसे वह निर्देशक लक्षय राज आनंद के साथ फिल्म ‘अटैक’ के माध्यम से दर्शको तक लेकर आए हैं. यह काल्पनिक कहानी का सूत्र यह है कि आतंकवादियों से निपटने के लिए देश का ‘डीआरडीओ‘ मशीनी सुपर सोल्जर का निर्माण यानी कि साइबर ट्ानिक हूमनायड का प्रयोग कर रहा है. जौन अब्राहम व लक्ष्य राज आनंद का दावा है कि वह इस फ्रेंचाइजी की कई फिल्में लेकर आने वाले हैं. इस दो घंटे की इस एक्शन फिल्म में जौन अब्राहम ने अर्जुन शेरगिल के रूप में भारत के पहले सुपर सोल्जर का किरदार निभाया है, जिनके दिमाग में ईरा (कुछ हद तक सिरी और एलेक्सा की तरह) नामक एक उच्च- उन्नत चिरपी माइक्रोचिप फिट की गयी है. जो अर्जुन का ज्ञान बढ़ाने के साथ असीमित शक्तियां भी प्रदान करती है.

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कहानीः

भारतीय फौजी अर्जुन शेरगिल (जौन अब्राहम )  के नेतृत्व में भारतीय सेना की एक टुकड़ी सीमा पार एक ठिकाने पर झपट्टा मारकर एक मोस्ट वांटेड आतंकवादी रहमान गुल को पकड़ लेती है. उसके बाद अर्जुन भारत में एक हवाई यात्रा के दौरान एअर होस्टेस आएशा(जैकलीन फर्नांडीस) को दिल दे बैठते हैं. वह एअरपोर्ट पर आएशा के संग रोमांस फरमाने में व्यस्त होते हैं, तभी आतंकवादी हमला हो जाता है. जिसमें आएशा सहित कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं. अर्जुन भी बुरी तरह से घायल हो जाते हैं और फिर सिर से नीचे का उनका पूरा हिस्सा लकवा मार जाता है. अब अर्जुन की मां (रत्ना पाठक शाह )  ही उनकी देखभाल कर रही है.

इधर आरडीओ की एक वैज्ञानिक( रकूल प्रीत सिंह) ने एक चिप को विकसित किया है, जिसे सिर्फ अपाहिज लोगों के दिमाग में ही फिट किया जा सकता है, जिससे वह उन्हे असीमित ताकत मिल जाएगी. काफी विचार के बाद सेना से जुड़े अधिकारी सुब्रमणियम (प्रकाश राज) इसके लिए अर्जुन शेरगिल को चुनते हैं. अर्जुन के दिमाग में चिप के बैठाए जाते ही खबर आती है कि रहमान गुल का बेटा हमीद गुल (एल्हम एहसा) ने अपने शैतानी दिमाग के बल पर अपने सौ आतंकवादी साथियों के साथ भारतीय संसद के अंदर घुसकर तीन पचास संासदों और प्रधानमंत्री को बंधक बना लिया है. अब सुब्रमणियाम, तीनों सेनाध्यक्ष ,  गृहमंत्री(  रजित कपूर) सहित कई लोग बैठके कर इस स्थिति से निपटने का प्रयास करते हुए देश के प्रधानमंत्री को बचाना चाहते है. कई रणनीति अपनायी जाती हैं. सुब्रमणियम के इशारे पर  दिमाग में बैठाए गए चिप यानी कि ईरा की मदद से अकेले ही हमीद गुल व सौ आतंकवादियों से भिड़ने के लिए संसद भवन के अंदर घुस जाता है. और कई घटनाएं तेजी से घटित होती हैं. अंततः हमारे देशभक्त सिपाही अर्जुन शेरगिल की ही जीत होती है.

लेखन व निर्देशनः

जौन अब्राहम की पिछली फिल्मों पर गौर फरमाया जाए, तो वह आतंकवाद के सफाए व देशभक्ति वाली फिल्मों में ही अभिनय करते हुए नजर आते हैं. फिल्म ‘‘अटैक’’ भी उसी श्रेणी की फिल्म है.      फिल्म के शुरूआती आधे घंटे में दो एक्शन दृशें के अलावा प्यार, रोमांस व गाने आ जाते हैं.

लेकिन यह फिल्म एक बेहतरीन कॉसेप्ट पर बनी बहुत कमजोर फिल्म है. कहानी के कई सिरे गडमड हैं. कहानी में कुछ भी नयापन नही है. फिल्म के एक्शन में भी दोहराव है. इंटरवल से पहले की बजाय इंटरवल के बाद की फिल्म काफी कमजोर है. यहां तक कि इंटरवल के बाद संसद के ंअंदर का एक्शन काफी कमजोर है. फिल्म में ऐसा एक्शन नजर नही आता, जो कि सुपर सोल्जर जैसा लगे. दिमाग में चिप के फिट किए जाने को लेकर कथा पटकथा व निर्देशन के स्तर पर बहुत गहराई से काम नहीं किया गया है. रकूल प्रीत सिंह के किरदार को ठीक से विकसित ही नही किया गया. फिल्म में इमोशन का घोर अभाव है.

फिल्म की एडीटिंग काफी गड़बड़ है. क्लायमेक्स भी मजेदार नही है.

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अभिनयः

एक्शन दृश्यों में ही जौन अब्राहम अच्छे लगे हैं. इस फिल्म में भी वह भावनात्मक दृश्यों को अपने अभिनय से उकेरने में असफल रहे है. इस फिल्म में जौन अब्राहम का अभिनय उनकी कई पुरानी फिल्मों की याद दिलाता है. चंचल व चालाक नेता यानी कि गृहमंत्री के किरदार को रजित कपूर ने बड़ी खूबी से निभाया है. जैकलीन फर्नाडिश और रकूल प्रीत सिंह के हिस्से करने को कुछ खास आया ही नहीं और यह दोनों कहीं भी अपने अभिनय से प्रभावित नहीं करती. किरण कुमार और प्रकाश राज की प्रतिभा को भी जाया किया गया है.

REVIEW: जानें कैसी है वेब सीरीज ‘ब्लडी ब्रदर्स’

रेटिंगः  दो स्टार

निर्माताः समीर नायर,  दीपक सहगल, समीर गोगाटे

निर्देशकः शाद अली

कलाकारः जयदीप अहलावत, मो. जीशान अयूब, असरानी, श्रुति सेठ,  जीतेंद्र जोशी , सतीश कौशिक, माया अलघ, सारवरी देशपांडे, इंद्रनील सेनगुप्ता , प्रेशा भारती, निपुन धर्माधिकारी, अरविंद कुपलीकर, टीना देसाई, मुग्धा गोड़से व अन्य.

अवधिः लगभग तीन घंटे 45 मिनट,  32 से 49 मिनट के छह एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्म: जी 5 पर 18 मार्च से स्ट्रीम

2019 की चर्चित ब्रिटिश डार्क कौमेडी वेब सीरीज ‘‘गिल्ट’’का हिंदी रीमेक ‘‘ब्लडी ब्रदर्स’’ भाईचारे, रिश्ते, अविश्वास के साथ रिश्तों में आती दरार, प्रेम, लालच, वासना और अपराध मिश्रित एक बोर करने वाली कथा है. जो कि 18 मार्च से ओटीटी प्लेटफार्म ‘‘जी 5’’पर स्ट्रीम हो रही है.

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कहानीः

कहानी शुरू होती है उटी में सखी (सारवरी देशपांडे) की शादी के बाद रिसेप्शन पार्टी से, जिसमें सखी का पूर्व प्रेमी व किताब की दुकान चलाने वाले दलजीत ग्रोवर (मो.  जीशान अयूब)के साथ उसका बड़ा भाई व वकील जगजीत ग्रोवर (जयदीप अहलवात) जो पेशे से वकील है,  और दूसरे तमाम लोग मौजूद हैं. सभी जमकर शराब पीते हैं. फिर जगजीत और दलजीत दोनोे भाई जगजीत की कार से निकलते हैं, मगर कार दलजीत चला रहा होता है. शराब के नशे में उनकी कार एक बूढ़े इंसान साम्युअल अल्वारेज (असरानी) को टक्कर मार देती है. दोनों भाई कार से उतर कर साम्युअल को उनके घर के अंदर ले जाते हंै. दलजीत अपनी पर्स सैम्युअल के घर मंे ही भूल जाते हैं. पर जगजीत वहां पर मौजूद कागज से यह जान जाता है कि सैम्युअल कैंसर के मरीज थे. दोनों भाई वहां से चले जाते हैं. मगर दलजीत इस हादसे को नही भूल पाता. उसे लगता है कि कभी भी उसके गले में फंदा लग सकता है. पर जगजीत उसे आश्वस्त करता रहता है कि सब कुछ ठीक होगा. दूसरे दिन दोनों भाई फिर से साम्युअल के घर के पास जाते हैं, तो देखते हैं कि पुलिस साम्युअल की मृतदेह को एम्बूलेंस मंे डालकर ले जा रही है. दूसरे दिन अखबार में खबर छप जाती है कि सैम्युअल की मौत कैंसर की बीमारी से स्वाभाविक मौत हो गयी. पर दलजीत के पास साम्युअल के वकील जयंत मेहरा (नरेंद्र सचर) का फोन आता है कि उनका पर्स सैम्युअल के घर पर है, जाकर ले आएं. साम्युअल की प्रेअर मीटिंग के वक्त दलजीत व जगजीत दोनो जाते हैं, जहां उनकी मुलाकात साम्युअल की भतीजी सोफी (टीना देसाई )से होती है, जो मंुबई से आयी है. सोफी की मदद करने के बहाने दोनो भाइयों का साम्युअल के घर आना जाना शुरू होता है. इधर तान्या ( मुग्धा गोड़से ) के जिम में कसरत कसरत करते करते जगजीत की पत्नी प्रिया ग्रोवर ( श्रुति सेठ ) तान्या के साथ घूमना शुरू करती है. तान्या लेसबियन है और वह प्रिया ग्रोवर से प्यार करने लगती है. पर प्रिया को तान्या से रिश्ते बनाने की इच्छा नही है. मगर एक दिन अपने पति की व्यस्तता के चलते अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए तान्या के पास जाती है. दोनों के बीच समलैंगिक संबंध बनते हैं.  इधर जगजीत व दलजीत खुद को साम्युअल की मौत मामले में निर्दोष बचाए रखने के लिए चालेे चलते हैं. जगजीत अपने दोस्त व जासूस दुश्यंत (जीतेंद्र जोशी ) को लेकर सोफी के पास जाते हैं. उधर साम्युअल ने अपना बंगला पड़ोसी शीला डेविड (माया अलघ)  के नाम और अपनी किताबें अपनी भतीजी सोफी के नाम लिख रखी हैं. शीला डेविड ने इस तरह से सीसीटी लगवा रखा है कि सड़क व साम्युअल के घर की हर घटना नजर आती है. इसी का सहारा लेकर शीला डेविड मुंह बंद रखने के लिए जगजीत से पचास लाख रूपए लेती है. उधर दुश्यंत की जांच से खुद पर आंच आती देख जगजीत उसके साथ इस तरह से पेश आता है कि उनके बीच रिश्ते में खटास आ जाती है. फिर दुश्यतं अपने तरीके से जासूसी करना जारी रखता है. तो पता चलता है कि  जगजीत तो अपरोक्ष रूप से माफिया डॉन हांडा (सतीश कौशिक)के लिए काम करता है. हांडा की तीन सौ कंपनियां दलजीत की किताबों की दुकान के पते पर रजिस्टर्ड है. यहां से कहानी कई मोड़ लेती हैं. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते हैं. पता चलता है कि तान्या,  हांडा के इशारे पर काम कर रही है. शीला डेविड और हांडा एक ही हैं. सोफी से दलजीत को प्यार हो गया, पर वह असली सोफी नही है. वह तो शीला की ही मोहरा है. जगजीत की पत्नी प्रिया ग्रोवर, जगजीत को घर से निकाल देती है, जगजीत और दलजीत के बीच खाई बढ़ जाती है. दुश्यंत , शीला व दलजीत एक साथ खड़े नजर आते हैं. जगजीत को पुलिस ले जाती है,

लेखन व निर्देशनः

पटकथा काफी सुस्त और कमजोर है. लिखावट अति बचकानी है. लेखक के ज्ञान का अंदाजा इसी बात से किया जा सकता है कि सीरीज के मुख्य पात्र जगजीत जो कि जाने माने वकील हैं, उन्हें यह नही पता कि दुर्घटना के बाद मृत इंसान को उसके घर छोड़ते हुए उसके घर के सामानों पर भी अपने हाथ व पैरी के निशाने नही छोड़ना चाहिए. इता नही नही दलजीत या जगजीत के चेहरे पर कभी पसीना नही आता. इतना ही नही वेब सीरीज में बेवजह लेस्बियन प्रेम कहानी ठॅूंसना तो नियम सा बन गया है. इसमें भी प्रिया व तान्या के बीच की लेस्बियन प्रेम कहानी व संबंध जबरन ठॅूसे हुए ही नजर आते हैं.

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लेखक व निर्देशक को खुद नही पता कि उन्हे किस किरदार से क्या करवाना है?सभी किरदार कैरीकेचर के अलावा कुछ नही. कहानी वर्तमान व अतीत के बीच हिचकोले लेते हुए चलती है. पहले पांच एपीसोड तक दर्शक उटी की खूबसूरती का आनंद ले सकते हैं. कहानी में जो भी मोड़ आते हैं, जो भी खुलासे होते हैं, वह सब छठे एपीसोड में ही हैं. रोमांच का घोर अभाव है. लेखक ने भ्रमित करने वाली कहानी को उलझाने के अलावा कुछ नही किया. अपराध कथा में अचानक डॉन वाला एंगल ठूंसने की क्या जरुरत थी, यह तो लेखक व निर्देशक ही जाने.

अभिनयः

जब किरदार सही ढंग से न लिखे गए हों और पटकथा में दमखम न हो तो बेहतरीन कलाकार भी अपने अभिनय में कुछ खास नही कर पाता. फिर भी जयदीप अहलवात और मोहम्मद जीशान अयूब की मेहनत नजर आती है. अपराध के सरगना हांडा के छोटे किरदार में सतीश कौशिक अपनी छाप छोड़ जाते हैं. जीतेंद्र जोशी, टीना देसाई, माया अलघ, श्रुतिज सेठ का अभिनय प्रभावशाली नही है.

REVIEW: पैन इंडिया सिनेमा के नाम पर सिर दर्द है ‘राधे श्याम’

रेटिंगः आधा स्टार

निर्माताः यू वी क्रिएशंस और टीसीरीज

लेखक व निर्देशकः राधा कृष्णा कुमार

कलाकारः प्रभास, मुरली शर्मा, सचिन खेड़ेकर, भाग्यश्री, पूजा हेगड़े जगापति बाबू, सत्यराज व अन्य.

अवधिः दो घंटा बाइस मिनट

फिल्मकार राधा कृष्णा कुमार की 11 मार्च को हिंदी के अलावा तेलगू व तमिल भाषा में सिनेमाघरों में पहुॅची फिल्म ‘राधे श्याम ’’ देखकर समझ में आ जाता है कि पिछले कुछ समय से जो हो हल्ला मचाया जा रहा था कि ‘बौलीवुड खत्म हो गया’ और दक्षिण का सिनेमा बौलीवुड पर कब्जा कर रहा है. . ’’ उसकी हवा निकल चुकी है. यह हो हल्ला भी महज जुमला ही साबित हुआ. ‘राधे श्याम’से यह बात साबित हो गयी कि बौलीवुड पर दक्षिण के सिनेमा का कब्जा नही हो सकता. इससे पहले ‘साहो’,  ‘मास्टर’, ‘खिलाड़ी’का हिंदी वर्जन,  ‘वालीमाई’ का हिंदी वर्जन बुरी तरह से असफल हुए हैं. इसी के चलते ‘विमलाबाई’ का हिंदी वर्जन आने से पहले ही बंद कर दिया गया.  अब ‘‘राधे श्याम’’ का हिंदी वर्जन देखकर लोग दक्षिण सिनेमा को हिंदी में लेकर नही आएंगे.

कहानीः

फिल्म की कहानी सत्तर के दशक की है. मशहूर हस्तरेखा ज्योतिषी विक्रमादित्य उर्फ आदित्य( प्रभास), प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी का हाथ देखकर आपातकाल की भविष्य वाणी करते हैं. इसके बाद उन्हे भारत छोड़कर विदेश यानी कि रोम में जाकर बसना पड़ता है. रोम ही नही पूरे यूरोप में उनके हस्तज्योतिष के चमत्कारों की खूब चर्चा हो रही है. विक्रमादित्य एक पोलीटीशियन का हाथ देखकर भविष्य वाणी करते है कि वह सफल राजनेता नही सफल उद्योगपति बनने वाले हैं. यहां तक कि वह जिस तारीख की बात करते हैं, वह भी सच साबित होता है. वह ट्ेन के एक्सीडेंट और उसके यात्रियों की मौत की भविष्यवाणी करते हैं. यानी कि उनकी हर भविष्यवाणी सच साबित होती है. फिर नाटकीय अंदाज में वह एक अस्पताल में डॉ प्रेरणा(पूजा हेगड़े) से टकराते हैं और उनसे उन्हे प्यार हो जाता है. हस्तरेखाविद् विक्रमादित्य उर्फ आदित्य (प्रभास) भाग्य में यकीन करते हैं, जबकि डॉक्टर प्रेरणा (पूजा हेगड़े) की अलग मान्यता है. डॉ.  प्रेरणा  विज्ञान और तर्क के नियमों में यकीन करती हैं. लेकिन उनका प्यार सभी तर्कों को धता बताता है.

डॉ.  प्रेरणा को पता है कि उनकी जिंदगी के चंद माह ही बचे हैं. क्योंकि वह दुर्लभ ब्रेन ट्यूमर नुमा कैंसर रोग से पीड़ित हैं. डॉ.  प्रेरणा के चाचा(सचिन खेड़ेकर), जो चालिस वर्ष से डाक्टरी पेशे में हैं, जिनका अपना एक नाम है, वह भी मानते हैं कि मेडीकल साइंस में डॉ.  प्रेरणा की बीमारी का कोई इलाज नही है. मगर डां.  प्रेरणा के प्यार में आकंठ डूबे विक्रमादित्य उनका हाथ देखकर 74 वर्ष तक जीने की भविष्यवाणी करते हैं. पर उन्हे यह नही पता चलता कि डॉं प्रेरणा कैंसर की मरीज है. जब प्रेरणा के चाचा डॉ. आदित्य को बताते हैं कि प्रेरणा की बीमारी का मेडिकल साइंस में कोई इलाज नही है, तब आदित्य कहते हैं कि मेडिकल साइंस बेकार है. प्रेरणा 74 साल तक जिएंगी. इतना ही नहीं मृत लोगों के हाथों के कागज पर प्रिंट देखकर उनकी उम्र, पुरूष या स्त्री, मौत का कारण वगैरह बताते हैं. फिर अपने अपने प्यार को जीतने की बात होती है. इसके बाद कहानी एक अलग ढर्रे पर चलती है.

लेखन व निर्देशनः

जिन्हे मनोरंजन की बजाय सिर दर्द मोल लेकर क्रोसीन या अन्य सिर दर्द की दवा का सेवन करना हो, उन्हे ही ‘बाहुबली’ फेम अभिनेता प्रभास की फिल्म ‘‘राधे श्याम ’’ देखनी चाहिए. फिल्म की धीमी गति और कहानी के चलते यह अति बोरिंग व सिरदर्द वाली फिल्म है. फिल्म की सबसे बड़ी कमजोर कड़ी इसकी पटकथा है.  इसमें हस्तज्योतिष को महान बताने के लिए विज्ञान को ही नेस्तानाबूद कर डाला गया. इतना ही नही हस्तरेखाविद् विक्रमादित्य उर्फ आदित्य (प्रभास) भाग्य में यकीन करते हैं, जबकि डॉक्टर प्रेरणा (पूजा हेगड़े) की अलग मान्यता है. डॉ.  प्रेरणा  विज्ञान और तर्क के नियमों में यकीन करती हैं. लेकिन प्यार को जिताने के चक्कर में फिल्मकार आदित्य व प्रेरणा के विरोधाभासी यकीन को नजरंदाज कर पूरी फिल्म को तहस नहस कर डाला. फिल्मकार अपने किसी भी तर्क ्रपर टिके ही नहीं. पूरी फिल्म देखकर यह सोचना भी मूर्खता ही होगी कि फिल्म का नाम ‘राधे श्याम’ क्यों है?

अफसोस की बात यह है कि फिल्मकार को यही नही पता कि वह हस्त ज्योतिष को महान,  मेडीकल साइंस को बेकार  बताना चाहते हैं अथवा टाइटैनिक वाली प्रेम कहानी बताना चाहते हैं या हाथ की रेखाएं नही बल्कि कर्म से तकदीर बनती है. आखिर उन्हे दर्शकांे को कौन सी कहानी बतानी है, यही नही पता. पूजा हेगड़े और प्रभास के बीच जो रोमांस फिल्माया गया है, वह दो ंइंसानों की बजाय दो लकड़ियों की कठपुतली का रोमांस नजर आता है. पूजा और प्रभास के बीच कोई केमिस्ट्ी ही नजर नही आती. फिल्म में पूजा हेगड़े का परिचय वाला शुरूआती दृश्य हूबहू उस स्टंट की नकल है,  जो कि चलती लोकल ट्ेन में नई पीढ़ी के लड़के व लड़कियां करते नजर आने पर पुलिस उन पर जुर्माना लगाकर सजा देती है. और हमारे फिल्मकार उसी स्टंट का महिमा मंडन करते हुए युवा पीढ़ी को गलत राह पर ढकेलने का काम किया है. अफसोस तो इस बात का है कि जिसे भारतीय रेलवे गैर कानूनी मानता है, उस स्टंट को सेंसर बोर्ड ने पारित कर दिया. इतना ही नहीं विक्रमादित्य अपने ज्योतीषीय ज्ञान से देख लेता है कि ट्ेन का एक्सीडेंट होगा और सभी यात्री मारे जाएंगे, फिर वह बाहुबली बनकर पेड़ को उखाड़कर फेंकते हुए तेज गति से भाग रही ट्ेन का एक्सीडेंट रोकने के लिए भागता है, जबकि ट्ेन का एक्सीडेंट हो जाता है. यह पूरा दृश्य ही अति बनावटी है. इस तरह के दृश्य कहानी को मजबूती प्रदान नही करते.

फिल्म का क्लायमेक्स अति घटिया है. अस्पताल के अंदर दो मिनट के ‘डेथ प्रैक्टिस’ के दृश्य न सिर्फ घटिया हैं, बल्कि सेंसर बोर्ड पर सवाल उठाते हैं कि उसने ऐसे दृश्य को पारित कैसे कर दिया?

फिल्म में सारा वीएफएक्स  बहुत घटिया है. माना कि कैमरामैन मनोज परमहंस ने इटली और जॉर्जिया के भव्य स्थानों और गलियों को सबसे असाधारण तरीके से कैद किया है. प्रत्येक दृश्य एक दृश्य तमाशा है, जो दर्शकों को इसकी पृष्ठभूमि से मंत्रमुग्ध कर देता है. यहां तक कि फिल्म के मुख्य किरदारों के घर और बेडरूम भी आलीशान हैं. काश इतना ही ध्यान इसकी पटकथा लेखन पर भी दिया गया होता.

फिल्म के अंतिम दृश्य के साथ अमिताभ बच्चन की आवाज में संवाद गूंजता है-‘किस्मत तुम्हारे हाथों की लकीरें नहीं,  तुम्हारे कर्मों का नतीजा है. ’तो सवाल उठता है कि फिल्मकार सवा दो घंटे से भी अधिक समय तक दर्शकों को क्या मूर्ख  बना रहे थे.

350 करोड़ की लागत से बनी फिल्म ‘राधे श्याम’ को लेकर लंबे समय से ‘साइंस फिक्शन’ के नाम पर जो हौव्वा खड़ा किया गया था, इसमें वैसा कुछ भी नही है.

अभिनयः

‘राधे श्याम’ में प्रभास के अति स्तरहीन अभिनय को देखकर यह यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि प्रभास ने ही ‘बाहुबली’ में अभिनय किया था. ‘बाहबुली’ में प्रभास का जो करिश्माई व्यक्तित्व, अभिनय स्टाइल वगैरह नजर आया था, वह सब इस फिल्म में शून्य है. प्रभास की संवाद अदायगी बहुत ही कमजोर है. पूजा हेगड़े का अभिनय की बजाय उनकी खूबसूरती जरुर आंखे को सकून देती है. पर भावनात्मक दृश्यों को उन्होने  परिपक्वता के साथ निभाया है. जगापति बाबू, मुरली शर्मा, कुणाल रौय कपूर जैसे कलाकारों की प्रतिभा को पूरी तरह से जाया किया गया है.

REVIEW: जानें कैसी है Web Series ‘अनदेखी सीजन 2’

रेटिंगः साढ़े तीन स्टार

निर्माताः अप्लॉज एंटरटेनमेंट और बानीजे एशिया प्रोडक्शन

निर्देशकः आशीष आर शुक्ल

लेखकः अमेय सारदा , अनाहता मेनन , दीपक सेगल और सुमीत बिश्नोई

कलाकारः हर्ष छाया , दिब्येंदु भट्टाचार्य , सूर्य शर्मा , आंचल सिंह , अपेक्षा पोरवाल , अंकुर राठी , नंदीश सिंह संधू और मेयांग चांग व अन्य.

अवधिः लगभग छह घंटेः 34 से 40 मिनट के दस एपीसोड

ओटीटी प्लेटफार्मः सोनी लिव

सोनी लिव पर 2020 में अपराध कथा वाली वेब सीरीज ‘‘अनदेखी’’ स्ट्रीम हुई थी,जिसे काफी पसंद किया गया था. अब दो वर्ष बाद ‘अनदेखी’ का सीजन दो 4 मार्च से ‘सोनी लिव’ पर ही स्ट्रीम हो रही है. जिसका मुकाबला अजय देवगन अभिनीत वेब सीरीज ‘‘रूद्राः द एज आफ डार्कनेस’’ से हैं,जो कि 4 मार्च से ही हॉटस्टार डिज्नी पर स्ट्रीम हो रही है. मगर नामी कलाकारों को देखने की बजाय कहानी देखने व सुनने में रूचि रखने वालों को ‘‘अनदेखी सीजन दो’’ ही पसंद आएगी.  इतना ही नही ‘सत्यकथा’ और ‘मनोहर कहानियां’ के पाठकों को ‘‘अनदेखी सीजन दो’’ काफी पसंद आएगा.

कहानीः

‘‘अनदेखी सीजन दो’’ की कहानी वहीं से शुरू होती है,जहां पहले सीजन की कहानी खत्म हुई थी. अब हर किरदार के लिए अपने सामने हत्याएं देखना न सिर्फ आम बात है बल्कि वह इसका हिस्सा बन चुके हैं. अब तो हर किरदार अपने मकसद के लिए हत्या करने व दूसरों को बरबाद करने पर आमादा है. हर किरदार ‘मैं’ तक ही सीमित है. पर पात्र जो चाहते हैं,वह उनके हाथ में आते आते फिसल जाता है.

ऋषि मर चुका है और रिंकू (सूर्य शर्मा ) किसी भी कीमत पर कोयल (आपेक्षा पोरवाल ) और ऋषि के दोस्तों सलोनी(ऐनी जोया ) व शाश्वत( ) को ढूंढना चाहता है. जबकि कलकत्ता का डीएसपी घोष (दिब्येंदु भट्टाचार्य ),कोयल को गिरफ्तार कर अपने साथ ले जाना चाहता है. उधर दमन) अटवाल(अंकुर राठी ) के आपराधिक परिवार के कांड जानने के बाद शादी तोड़ने वाली तेजी( आंचल सिंह) अब उसी परिवार व उसी व्यापार से जुड़कर अटवाल परिवार के मुखिया पापाजी(हर्ष छाया) की जड़ काटने पर आमादा है.

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नाटकीय घटनाक्रम में बुरी तरह से घायल कोयल एक बौद्ध बिक्षु अभय( मियांग चेंग ) के हाथ लग जाती है,जो कि अपने साथ सुरक्षित जगह ले जाकर उसका इलाज करता है. जबकि कोयल का पता न लग पाने पर डीएसपी घोष को वापस बंगाल बुला लिया जाता है.  लेकिन कोयल अभी भी रिंकू और पापाजी से बदला लेना चाहती है. तो वहीं शाश्वत व सोनाली किसी तरह सुरक्षित चंडीगढ़ पहुॅचना चाहते हैं,मगर ऐसा हो नही पाता. तो वहीं अटवाल परिवार के अंदर और बाहर बहुत कुछ घटता है. बीच में कुछ एपीसोडो में कहानी बदला लेने व हत्या के सबूत मिटाने से हटकर ड्ग सिंडिकेट के इर्द गिर्द ही घूमती है. अटवाल परिवार को बर्बाद कर समर्थ (नंदीश संधू) का विश्वास जीतकर खुद गैर कानूनी दवाओं के व्यापार व अपराध जगत की हस्ती बनने के लिए तेजी अपने ही दोस्तो शाश्वत और सलानी को रिंकू के हाथ सौंप देती है. इसी बीच पुनः डीएसपी घोष मनाली पहुंचकर कोयल को अपने साथ जिंदा ले जाना चाहते हैं,मगर ऐसा हो नही पाता. जबकि कोयल व अभय अपनी तरफ से अटवाल परिवार के खिलाफ काम कर रहे हैं,लेकिन अभय व कोयल दोनों के मकसद अलग अलग हैं. कहानी कई मोड़ो, उतार चढ़ाव,खून खराबे के साथ आगे बढ़ती रहती है और कई किरदार खत्म हो जाते हैं. मगर तीसरे सीजन का संकेत देते हुए दसवां एपीसोड खत्म होता है.

लेखन व निर्देशनः

‘अनदेखी’ का दूसरा सीजन पहले वाले के मुकाबले ज्यादा डार्क है. यह सीजन काफी तेज गति से भागता है. पर कई जगह लॉजिक की बजाय इत्तफाक ही नजर आता है. मसलन- समर्थ के अति सुरक्षा युुक्त गैर कानूनी दवा के गोदाम में शाश्वत बड़े आराम से घुसकर आफिस में समर्थ के लैपटैप में अपने फोन से कुछ फाइल ट्रांसफर कर बड़े आराम से वापस आ जाता है.  कहने का अर्थ यह कि लेखन और एडीटिंग कमजोर है. यहां तक कि अभय के किरदार को भी ठीक से विकसित नही किया गया.  इतना ही नही इस बार उभ्एसपी घोष का किरदार निभाने वाले प्रतिभाशाली कलाकार दिब्येंदु भट्टाचार्य का कम इस्तेमाल किया जना दर्शकों को अखरता है.

इस सीरीज में तमाम दृश्य ऐसे है,जिन्हें दर्शक कई फिल्मों में देख चुका है. मगर निर्देशक आशीष आर शुक्ला ने खुद को भारतीय परिवेश की अपराध कथाओं को पश्चिम का अनुसरण कर ढालने की नई परंपरा से बचाए रखा.  इतना ही नही इस सीरीज की दूसरी खास बात इसकी लोकेशन है. सुरम्य मानाली यानी कि हिमाचल की गहराई और घुमावदार पहाड़ियों का खूबसूरती से कहानी में उपयोग किया गया है.

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अभिनयः

पहले सीजन की भंाति इस सीजन में भी पापाजी के किरदार में  हर्ष छाया अपनी पूरी लय में हैं. रिंकू के किरदार में सूर्य शर्मा ने नायक और खलनायक दोनों ही रूप में बौलीवुड के फिल्मकारों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है.  विशाल व्यक्तित्व और मौत का तांडव विखेरने वाले रिंकू के किरदार में सूर्य शर्मा एकदम फिट नजर आते हैं.

परिवार के अंदर दरकिनार किए जाने के बाद अपराध जगत में जोड़ तोड़ की मास्टर माइंड बन  जाने वाली तेजी के किरदार में आंचल सिंह ने कमाल का अभिनय किया है. इस सीरीज से पहले वह एक सीरियल कर चुकी हैं,मगर ‘अनदेखी सीजन दो’ से आंचल सिंह ने साबित कर दिखाया कि उनके अंदर एक सफल अभिनेत्री बनने की प्रतिभा है. दमन के किरदार में अंकुर राठी को बड़ा मौका मिला,मगर वह कमजोर नजर आते हैं. उन्हे अपने अंदर की प्रतिभा को उजागर करने का अवसर नही मिला. लकी के किरदार में वरूण भाट और मुस्कान के किरदार में शिवांगी सिंह अपनी छाप छोड़ती हैं.

अभय के किरदार में मेयांग चांग अपनी छाप छोड़ जाते हैं,जबकि उनके किरदार को ठीक से लिखा नही गया. समर्थ के किरदार में नंदीश संधू का अभिनय शानदार है.

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