रिश्ता कागज का: भाग-1

फोनकी घंटी की आवाज सुन कर आंखें खुलीं तो देखा मैं बैड पर हूं. नजर घुमा कर देखा तो अपने ही हौस्पिटल का रूम लगा. मैं कब और कैसे यहां पहुंची, कुछ याद नहीं आया. तभी फिर से फोन की घंटी की आवाज सुनाई दी. एक बिजली सी दिमाग में कौंध गई और अचानक सब याद आ गया. मैं दोपहर में सारे समाचारपत्रों को ले कर बैठी थी. सब में मेरी बेटी का फोटो आया था. 2 दिन पहले ही उस की सगाई की थी, जिस में राज्यपाल भी शरीक हुए थे. फोटो उन के साथ का था. नीचे लिखा था कि शहर के लोकप्रिय डाक्टर की बेटी प्रशिक्षु आईएएस प्रिया की सगाई प्रशिक्षु आईएएस शरद के साथ हुई.

फोटो में बेटी और होने वाले दामाद के साथ मैं और मेरे पति भी खड़े थे. मैं गर्व से भर उठी. तभी फोन बज उठा. जैसे ही रिसीवर कान से लगाया एक निहायत कर्कश आवाज सुनाई दी, ‘‘मेरी बेटी को अपना कह कर खुश हो रही हो… वह मेरा खून है और मैं आ रहा हूं उसे सब बताने.’’

बस इतना सुनने के बाद रिसीवर गिरने की आवाज कान में पड़ी और उस के बाद अब होश आ रहा है. पता नहीं कब से यहां हूं. नजर घुमा कर देखा तो मेरा बेटा जिस ने हाल ही में डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर हौस्पिटल जौइन किया है, एक कुरसी पर अधलेटा सा गहरी नींद में दिखा.

बेटी कहीं नजर नहीं आई. उफ, कहीं वह दुष्ट इनसान आ कर उसे सब बता कर तो नहीं चला गया… मेरी बेटी मेरी जान… मेरे जीने का सहारा सब कुछ, पर जो उस ने कहा कि वह तो उस का खून है, क्या सच है?

तभी बारिश की आवाज सुनाई दी और मन यादों के गलियारों में घूमते हुए कई बरस पीछे चला गया…

मैं अपने छोटे शहर से पापा से बहुत लड़झगड़ कर आईएएस की कोचिंग के लिए दिल्ली आई थी. दोपहर को 2 घंटे फ्री मिलते थे. तब पास के एक होटल में लंच कर वापस क्लास में आ जाती थी. उस दिन भी जब होटल जा रही थी, तभी अचानक जोर की बारिश आ गई. एक बड़े से घर का गेट खुला देख मैं भाग कर अंदर गई और पोर्च में खड़ी हो गई. फिर ध्यान आया कि घर वाले पता नहीं क्या कहेंगे. बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी. क्या करूं खड़ी रहूं या चल दूं, समझ नहीं आ रहा था.

ये भी पढ़ें- यादों का अक्स: भाग 2

तभी धीरेधीरे घर का दरवाजा खुलता दिखा. मैं जब तक कुछ समझ पाती तब तक एक प्यारी सी बच्ची घुटनों के बल चलती बाहर आई, जिस की उम्र मुश्किल से 9-10 माह होगी. मुझे देख कर बच्ची मुसकराने लगी और अपनी बांहें मेरी तरफ फैला दी. मैं ने भी मुसकरा कर उसे गोद में उठा लिया और दरवाजे की तरफ देखने लगी कि उस की मां या कोई नौकर आएगा तो उसे बता दूंगी कि बच्ची पानी की तरफ जा रही थी पर जब बहुत देर तक कोई नहीं आया तब हार कर मैं ने अंदर जाने का फैसला किया. बच्ची को गोद में लिए अंदर प्रवेश किया. सामने दीवार पर एक बहुत ही सुंदर युवती का फोटो लगा था, जिस में फूलों का हार पड़ा था. मैं कुछ सोच पाती, तभी अंदर के कमरे से एक बुजुर्ग महिला ने प्रवेश किया. मैं ने उन को नमस्कार कर बच्ची के बारे में बताया और अपने पोर्च में खड़े होने की वजह बताई.

उन्होंने मुसकरा कर बैठने को कहा. मैं ने बच्ची उन्हें देनी चाही तो बच्ची मुझ से लिपट गई. अपने नन्हे हाथों से उस ने मेरी गरदन जोर से पकड़ ली. मैं असमंजस में पड़ गई.

तब उन महिला ने कहा, ‘‘बेटा थोड़ा बैठ जाओ. तुम खड़ी हो तो यह घूमने के लालच में मेरे पास नहीं आएगी.’’

मुझे क्या आपत्ति होती. मैं बच्ची को लिए सोफे पर बैठ गई. घर बहुत ही सुंदर था. मैं ने देखा कि टेबल पर एक थाली रखी थी, जिस में रखा खाना ठंडा हो गया था. मैं समझ गई कि बच्ची के कारण आंटी खाना नहीं खा पाई होंगी.

मैं ने उन से कहा, ‘‘आंटी, आप खाना खा लो. मैं इसे लिए हूं.’’

आंटी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘यह तो रोज का काम है. इस की आया छुट्टी पर है. यह इतनी शरारती है कि रोज खाना ठंडा हो जाता है.’’

अचानक मुझे समझ में आ गया कि फोटो वाली युवती बच्ची की मां होगी और यह दादी या नानी. तभी आंटी की आवाज आई, ‘‘बेटा, यह सो गई. इसे लिटा दो और आराम से बैठ जाओ.’’

मैं ने बच्ची को वहीं रखे झूले में धीरे से लिटा दिया और जाने की इजाजत मांगी.

तब आंटी ने कहा, ‘‘अभी तुम ने बताया था कि तुम लंच के लिए जा रही थीं और बारिश आ गई. मतलब तुम ने भी खाना नहीं खाया. आओ, हम दोनों साथ खाते हैं.’’

मैं ने बहुत मना किया पर फिर उन के प्यार भरे अनुरोध को ठुकरा नहीं पाई और सच में भूख भी जोर से लग रही थी, इसलिए खाने बैठ गई. कई दिन बाद घर का खाना मिला तो कुछ ज्यादा ही खा लिया और तारीफ भी जी भर कर की.

आंटी ने मुसकराते हुए कहा, ‘‘अब रोज आ जाया करो लंच टाइम पर. प्रिया भी खुश हो जाया करेगी.’’

मैं ने जब आंटी से पूछा कि इस की बाई कब तक छुट्टी पर है, तो उन्होंने बताया कि बाई की सास मर गई है, इसलिए 15 दिन तक नहीं आएगी. दूसरी बाई लगानी चाही पर कोई मिल नहीं रही. खाना बनाने के लिए नौकर है, पर बच्ची का सवाल है, इसलिए कोई महिला ही देख रहे हैं.

मेरे दिमाग में एक विचार आया, तुरंत आंटी से कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं 15 दिन तक इस टाइम आ जाया करूंगी. आप खाना खा लिया करना तब तक मैं प्रिया के साथ खेल लिया करूंगी.’’

आंटी ने मेरी बात इस शर्त पर मानी कि मैं दोपहर का खाना उन के साथ खाया करूं.

मैं ने आंटी से मजाक भी किया कि किसी अजनबी पर इतना भरोसा करना ठीक नहीं, पर आंटी ने कहा, ‘‘इतनी दुनिया तो मैं ने भी देख रखी है कि किस पर भरोसा किया जाए किस पर नहीं.’’

फिर तो यह मेरा रोज का नियम हो गया. लंच टाइम पर आंटी के घर पहुंच जाती. प्रिया के साथ खेलती और आंटी के साथ खाना खाती. थोड़ाथोड़ा घर वालों के बारे में आंटी बताती थीं कि बेटा डाक्टर है. शादी के लिए तैयार नहीं हो रहा. बच्ची संभालना मुश्किल हो रहा है. मैं भी मन में सोचती कैसे तैयार होगा इतनी सुंदर बीवी थी बेचारे की. कैसे भूल पाएगा?

एक दिन दोपहर को पहुंची तो प्रिया के जोरजोर से रोने की आवाज बाहर से ही सुनाई दी. दौड़ कर अंदर गई तो देखा आंटी किचन के सामने बेहोश पड़ी थीं और प्रिया झूले में जोरजोर से रो रही थी. मैं ने जल्दी से प्रिया को उठा कर नीचे बैठाया और आंटी को पानी के छींटे मार कर होश में लाने की कोशिश की. जल्दी से अपनी सहेली निशा को फोन कर डाक्टर लाने को कहा. डाक्टर के आने के पहले निशा आ गई. जल्दी से हम ने आंटी को बैड पर लिटाया तभी डाक्टर आ गए. उन्होंने देख कर बताया कि ब्लडप्रैशर कम होने की वजह से चक्कर आ गया था. आवश्यक उपचार कर डाक्टर साहब चले गए. निशा को भी मैं ने जाने को कहा. फिर फोन के पास रखी डायरी से नंबर देख कर उन के बेटे को फोन किया. वह भी घबरा गया. तुरंत पहुंचने की बात कही. मैं आंटी के चेहरे को देख रही थी. गोरा चेहरा कुम्हला गया था. आंखें बंद किए वे बहुत कमजोर लग रही थीं. इस उम्र में छोटी बच्ची की जिम्मेदारी निभाना कठिन था. मेरी मां भी बड़ी छोटी उम्र में मुझे छोड़ गई थीं. पापा ने दूसरी शादी नहीं की पर मेरी चाची ने मुझे मां की कमी नहीं खलने दी. उन्होंने अपने बच्चों से ज्यादा मेरा खयाल रखा. शायद इसीलिए प्रिया पर मुझे बहुत प्यार आता था. पर यहां आंटी की उम्र और बीमारी के कारण बात अलग थी. इन के बेटे को शादी कर लेनी चाहिए, यही सोच रही थी कि तभी एक सुदर्शन युवक ने कमरे में प्रवेश किया. फिल्मी हीरो की तरह चेहरा, मैं देखती रह गई, पर वह आते ही पलंग की तरफ दौड़ा. बोला, ‘‘मम्मी क्या हुआ? मुझे फोन क्यों नहीं किया?’’

उस की इस बात पर अचानक मुझे गुस्सा आ गया. बोली, ‘‘अब बड़ी फिक्र हो रही है मां की. तब यह फिक्र कहां थी जब छोटी सी बच्ची की जिम्मेदारी मां पर डाल कर चले गए… क्यों नहीं दूसरी शादी कर लेते? क्या समझते हो कि सब सौतेली मांएं खराब होती हैं? कोई आप की बच्ची को प्यार नहीं करेगी या फिर देवदास बन कर अपनी शान में मां को दुख देते रहना चाहते हैं?’’

डाक्टर साहब का मुंह खुला का खुला रह गया. कालेज के दिनों में धुआंधार भाषण देती थी. वही जोश मेरी आवाज में भर गया, ‘‘बोलिए, क्यों नहीं कर लेते दूसरी शादी?’’

अचानक मैं ने देखा कि डाक्टर साहब का विस्मय चेहरे से गायब होने लगा और एक शरारती मुसकान उन के होंठों पर आ गई. वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘अरे बाबा, दूसरी तब करूंगा जब पहली हो, अभी तो मेरी पहली शादी भी नहीं हुई.’’

‘‘क्या?’’ मैं ने आश्चर्य से आंटी की तरफ देखा. उन के चेहरे पर भी शरारती मुसकान विराजमान थी.

अब तक आंटी उठ कर बैठ गई थीं. उन्होंने धीरेधीरे समझाया कि प्रिया उन की बेटी प्रियंवदा की बेटी है, जिस का फोटो हौल में मैं ने देखा था. डाक्टर प्रियांशु उन का बेटा है. अब तो मुझे काटो तो खून नहीं. मैं ने वहां से भागने में ही भलाई समझी और आंटी से जाने की इजाजत मांगी.

आंटी ने कहा, ‘‘अब बहुत रात हो गई है. तुम्हें खाना भी नहीं मिलेगा. खाना खा लो फिर मेरा बेटा होस्टल छोड़ देगा.’’

डाक्टर साहब ने भी अपनी मां का समर्थन किया और नौकर को खाना बनाने के लिए जरूरी हिदायत देते हुए कपड़े चेंज करने चले गए. खाना खाते टाइम सब चुप थे. तब प्रियांशु ने कहा, ‘‘वैसे आप ने एक बात ठीक पहचानी कि मुझे डर है कि मेरी शादी के बाद प्रिया का क्या होगा, कोई भी लड़की एक बच्ची और सास की जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहेगी.’’

उन का सामान्य व्यवहार देख कर मैं भी सामान्य हुई और कहा, ‘‘क्यों नहीं, कोई भी लड़की इतना अच्छा घर और इतना सुंदर लड़का देख कर तुरंत हां बोल देगी.’’

बोलने के बाद मैं ने देखा कि मांबेटा फिर मुसकरा उठे थे. मेरा ध्यान अपने शब्दों पर गया तो अपनी बेवकूफी पर शर्म महसूस हुई. अत: मैं ने जल्दी से खाना खत्म किया और जाने के लिए उठ खड़ी हुई.

तभी प्रियांशु ने कहा, ‘‘यदि ऐसा है तो क्या आप तैयार हैं मुझ से शादी करने को?’’

घबराहट के मारे मेरे तो पसीने छूटने लगे. आंटी ने बात संभाली, ‘‘बेटा, जाओ जल्दी इसे छोड़ कर आओ वरना होस्टल में अंदर नहीं जाने दिया जाएगा.’’

प्रियांशुजी ने कार निकाली. मैं चुपचाप उस में बैठ गई. कार चल पड़ी. अचानक मैं ने देखा कि कार एक आइसक्रीम की दुकान के सामने रुक गई.

प्रियांशु ने मेरा दरवाजा खोलते हुए कहा, ‘‘अभी 9 बजने में टाइम है. चलिए, आइसक्रीम खा लेते हैं. मैं ने बड़े दिनों से नहीं खाई.’’

मैं चुपचाप नीचे उतर गई. हम दोनों जा कर अंदर बैठ गए. प्रियांशु ने पूछा कि कौन सी खानी है तो मैं ने तुरंत कहा कि चौकलेट फ्लेवर वाली. वे 2 आइसक्रीम ले आए. मुझे महसूस हो रहा था कि वे लगातार मुझे देखे जा रहे हैं.

बड़ी देर बाद बोले, ‘‘मेरी बात से आप को बुरा लगा हो तो मैं माफी चाहता हूं पर जितना आप के बारे में मां से सुना था और जब से आप को देख रहा हूं तो लगता है आप बाकी लड़कियों से अलग हैं और मैं अपने शादी के प्रस्ताव को फिर दोहराता हूं. मुझे पता है आप के सपने अलग हैं. आप कलैक्टर बनना चाहती हैं तो वह शादी के बाद भी बन सकती हैं. मेरी सपोर्ट आप को रहेगी पर जिस तरह आप प्रिया को चाहती हैं वैसा प्यार कोई दूसरी लड़की नहीं दे सकती. मुझे आप के जवाब की कोई जल्दी नहीं है. आप आराम से सोच कर बताइएगा. आप का जवाब न भी होगा तो भी कोई बात नहीं. आप प्रिया और मां से पहले की तरह ही मिलती रहना.’’

मैं ने कोई जवाब नहीं दिया. कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या बोलना चाहिए. वे चुपचाप मुझे होस्टल के गेट पर छोड़ कर चले गए.

ये भी पढ़ें- मन बहुत प्यासा है

रूम के अंदर जाते ही मैं सीधे बैड पर गिर गई. सारी बातें दिमाग में घूमने लगीं. अभी तक कोई लड़का यदि प्यार की बात कहता था, तो मैं उस की 7 पुश्तों की खबर ले डालती थी. सब के सामने इतना बेइज्जत करती थी कि बेचारा ऐसी हिमाकत सपने में भी नहीं करता होगा, परंतु आज प्रियांशु ने सीधे शादी की बात कह दी और मैं ने चुपचाप सुन ली. एक शब्द भी नहीं कहा. कायदे से तो मुझे गुस्सा आना चाहिए पर मुझे तो शर्म आ रही है. एक अलग सी अनुभूति हो रही थी. बड़ी देर तक सोचती रही. जब सोचतेसोचते थक गई तो पापा को फोन लगा डाला. पापा की आवाज सुनते ही रुलाई निकल गई. बोली, ‘‘पापा, आप तुरंत आ जाओ. मुझे आप की जरूरत है.’’

पापा ने बहुत पूछा पर मैं कुछ बता नहीं पाई.

 

पापा दूसरे दिन मेरे सामने थे. मैं दौड़ कर उन से लिपट गई. पापा ने सारी बात

शांति से सुनी और फिर मुझ से पूछा, ‘‘तुम क्या चाहती हो? प्रियांशु मेरे मित्र डाक्टर नीरज का बेटा है. मैं पूरे परिवार को जानता हूं.’’

पापा खुद भी डाक्टर थे. मैं ने पापा से कहा, ‘‘मेरी तो समझ नहीं आ रहा कि क्या

करूं. आप बताओ.’’

पापा बोले, ‘‘बेटा, यदि एक पिता से सलाह मांगोगी तो मेरा कहना है लड़का और घर दोनों अच्छे हैं. मैं खुद भी इतना अच्छा घर नहीं ढूंढ़ पाता और यदि एक दोस्त के रूप में सलाह दूं तो मुझे पता है तुम्हारा सपना कलैक्टर बनने का है तो शादी का विचार छोड़ दो, परंतु जैसा तुम ने बताया कि प्रियांशु ने कहा है कि शादी के बाद भी तुम कोशिश कर सकती हो तो मेरा सोचना है कि तुम्हें हां कह देनी चाहिए.’’

बस इस के 10 दिनों के अंदर ही मैं डाक्टर प्रियांशु के साथ विवाह कर उन के घर आ गई. आंटी अब मम्मी बन गई थीं और प्रिया तो मुझे हर समय पा कर बहुत खुश थी.

 

कई दिन बीत गए. मैं घरपरिवार में कुछ ज्यादा ही रम गई. मम्मी और प्रियांशु

मुझे पढ़ने को कहते भी पर मैं टाल जाती. मेरा काम बस प्रिया को संभालना, घर जमाना और तरहतरह का खाना बनाना रह गया था. पापा के दोस्त दिल्ली में वकालत करते थे. कोचिंग जाते टाइम मैं हर सप्ताह उन के औफिस जाती थी. उन्होंने शादी के बाद भी आते रहने को कहा पर मैं तो अपनी दूसरी दुनिया में मस्त थी. फिर अचानक सारी खुशियां काफूर हो गईं.

हुआ यह कि मैं प्रियंवदा का रूम जमा रही थी. मम्मीजी ने उसे वैसे ही रखा था जैसे उस की शादी के पहले था. तब मुझे कुछ डायरियां मिलीं. मुझे यह तो पता लग चुका था कि प्रिया की मां ने घर वालों की इच्छा के विरुद्ध जा कर शादी की. उस टाइम प्रियांशु एमएस की पढ़ाई के लिए अमेरिका गए थे. पापाजी ने शादी की इजाजत नहीं दी तो प्रियंवदा ने घर छोड़ दिया और जब बेटी हुई तब उस के जन्म के समय ही उस की मृत्यु हो गई. तब प्रियांशु प्रिया को अपने साथ ले आए. बेटी के गम में पापाजी भी चल बसे. इस के आगे की जानकारी मुझे प्रियंवदा की डायरी से मिली. एक डायरी उस समय की थी जब प्रिया आने वाली थी. 1-1 दिन की बातें उस में लिखी थीं. उस का पति शेखर उसे कितना प्यार करता था. शेखर चाहता था कि बेटी हो. उस का नाम उन्होंने शिखा तय किया था और प्रियंवदा चाहती थी कि बेटा हो और उस का नाम प्रियंक उस ने सोचा था. उन की प्यारी नोकझोंक पढ़ कर मेरे आंसू बहने लगे और पता नहीं किस भावना के तहत मैं ने यह सोच लिया कि बेचारे शेखरजी अपनी बच्ची को कितना याद करते होंगे. डाक्टर साहब और मम्मीजी कभी उन का नाम भी नहीं लेतीं. अपनी बच्ची को देखने का उन को भी हक है. अपनी कानून की पढ़ाई के कारण हक की बात भी दिमाग में जोर मारने लगी और मैं ने चुपके से एक चिट्ठी शेखरजी को लिख दी कि आप का मन होता होगा बच्ची को देखने का तो कभी भी आ सकते हैं. आखिर वह आप का खून है और इंतजार करने लगी कि जब शेखरजी अपनी बच्ची से मिलने आएंगे तब मैं क्याक्या दलीलें दूंगी.

– क्रमश:

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें