हद है ऐसी मूर्खता की

सबरीमाला विवाद पर स्मृति ईरानी का यह कहना कि क्या मैं माहवारी से सना खून का सैनिटरी पैड किसी दोस्त के घर ले जा सकती हूं, उन की मूर्खता और दकियानूसीपन की निशानी है. सबरीमाला मंदिर में औरतों का प्रवेश किसी भी वजह से बंद हो पर यह माहवारी के खून से दूषित हो जाने के कारण तो नहीं है.

जहां तक सुप्रीम कोर्ट के फैसले की बात है, तो वह बिलकुल सही है क्योंकि औरतों का कहीं भी प्रवेश बंद होना अपनेआप में गलत है. स्मृति ईरानी के यह कहने का कि दोस्त के घर खून का पैड ले कर नहीं जा सकते सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कोई मतलब नहीं है. इस मूर्खतापूर्ण बयान का तो मतलब है कि खून के पैड के साथ कोई भी औरत कहीं भी नहीं जा सकती, मंत्री की कुरसी पर भी नहीं बैठ सकती.

अगर बात केवल खून से सने पैड की होती तो सबरीमाला में औरतों का प्रवेश तभी बंद होना चाहिए था जब वे माहवारी से हों. गर्भवती औरतों को तो शायद प्रवेश मिल जाना चाहिए था.

स्मृति ईरानी का बयान असल में उस मानसिकता की देन है जो ‘घरघर की कहानी’ में जम कर बेची गई थी जिस के हर दूसरे सीन में पूजापाठ थी, जगहजगह मंदिर थे, हर जगह संतोंमहंतों की जयजयकार थी. स्मृति ईरानी को वहीं से संघ ने पकड़ा और इसी कारण जम कर बोलने का मौका दिया. ‘घरघर की कहानी’ में औरतों को आजाद नहीं रस्मों का गुलाम ही दिखाया गया था और आज भी स्मृति ईरानी उस सोच की गुलाम हैं. वैसे तो उन की पूरी पार्टी ही ऐसी है. यहां तक कि कांग्रेस या समाजवादी भी पीछे नहीं हैं.

सबरीमाला में पुजारियों की जिद कि वे मंदिर बंद कर देंगे पर औरतों को घुसने न देंगे असल में सुखद समाचार है. मंदिर तो हर जगह बंद होने चाहिए क्योंकि पिछले 2000 सालों में औरतों ने मंदिरों, मसजिदों और चर्चों में ज्यादा यातनाएं सही हैं, बजाय आम पुरुषों के हाथों. पुरुष उन्हें भोगते हैं तो साथ ही खुश भी रखते हैं. धर्मस्थल उन से लेते हैं देते नहीं.

स्मृति ईरानी का तर्क कुछ ज्यादा ले जाएं तो पुरुष भक्त के शरीर में भी कोई मलमूत्र नहीं रहना चाहिए ताकि देवता दूषित न हो. आजकल पुरुष जो मंदिर में चले जाते हैं वे उस मलमूत्र का क्या करते हैं, यह क्या स्मृति ईरानी बताएंगी?

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