महिला उत्पीड़न: कपड़े छोटे या समाज की सोच!

झारखंड के दुमका शहर में 12वीं कक्षा की एक छात्रा को एक लड़के ने सिर्फ इसलिए जिंदा जला दिया क्योंकि लड़की ने लड़के के प्यार को न कर दिया. लड़की नाबालिक थी और लड़के ने उसे धमकी दी थी कि अगर उस ने उस से बात करने से मना किया तो वह उसे जान से मार डालेगा. जब लड़की ने उस की बात नहीं मानी तो लड़के ने उस के ऊपर पैट्रोल डाल कर आग लगा दी. बुरी तरह से जली लड़की ने 5 दिन बाद दम तोड़ दिया.

हैरानी तो इस बात की हो रही थी कि आरोपी शाहरुख को जब पुलिस पकड़ कर ले जा रही थी तब उस की आंखों में दुख, पछतावा या हिचकिचाहट नहीं थी, बल्कि वह मुसकरा रहा था. वह सीना ताने ऐसे चल रहा था जैसे उस ने कोई जंग जीत ली हो. इस से तो यही लगता है कि पितृसत्तात्मक समाज में उसे भी बचपन से यही सीख मिली है कि वह पुरुष है तो उस की बात उस से कमजोर लोगों खासकर महिलाओं को माननी ही होगी.

लड़का दूसरे धर्म का था. लेकिन मामला यहां सिर्फ मजहब का नहीं, बल्कि यह था कि इनकार करने वाली लड़की थी और सुनने वाला लड़का. वैसे इस तरह के मसले पर सारे पुरुष हममजहब हो जाते हैं. पुरुष हिंसा का रास्ता इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इसी माध्यम से सबकुछ प्राप्त कर सकता है जिसे वह एक मर्द होने के कारण अपना हक सम झता है. ‘डर’ और ‘अंजाम’ जैसी फिल्में इसी सोच के इर्दगिर्द बनीं थी कि ‘तू हां कर या न कर, तू है मेरी किरण…’ ऐसे सिरफिरे लोगों को लगता है लड़की के न करने से क्या होता है. वह उसे चाहिए तो बस चाहिए और जब ऐसा नहीं हो पाता तो वह उस की जान लेने से भी नहीं हिचकिचाता है.

बदले की भावना?

‘नैशनल लाइब्रेरी औफ मैडिसन’ में पुरुषों की इसी रिजैक्शन सैंसिटिविटी पर कई स्टडीज की हैं, जो स्वीडन से ले कर बंगलादेश जैसे छोटेबड़े कई देशों में हुईं, जहां पाया गया कि रिजैक्शन के मामले में करीब सारे पुरुष एक ही पायदान पर खड़े हैं. औरत की न को कहीं न कहीं इसे पौरुष पर चोट मानते हैं और मन में बदला लेने की सोच बैठते हैं.

इसी साल अगस्त में गुजरात के बलसाड जिले से ऐसी ही एक घटना सुनने को मिली, जहां शादी का प्रस्ताव ठुकराने पर लड़के ने स्कूल में पढ़ने वाली एक छात्रा को चाकू से गोद दिया. बिहार के वैशाली में एक सनकी पागल प्रेमी ने इंटर में पढ़ने वाली एक छात्रा की इस कारण हत्या कर दी कि उस ने उस के प्यार को ठुकरा दिया. दिल्ली में एक लड़की ने प्रेमी के साथ संबंध बनाने से इनकार किया तो उस ने उसे गोली मार दी.

इसी साल 24 मार्च को शाम के समय पड़ोस की दुकान से शक्कर लेने गई 11 साल की लड़की को 3 लोगों ने उस के चेहरे पर गमछा डाल कर अगवा कर लिया और कब्रिस्तान ले जा कर सामूहिक दुष्कर्म किया. घर के आंगन में खेलने और स्कूल जाने की जगह वह बच्ची अपने गर्भ में शिशु लिए अपनी मां के साथ इंसाफ के लिए दरदर भटक रही है, लेकिन दोषियों को सजा दिलाने की जगह पुलिस उन्हें ही बचाने का प्रयास कर रही है.

असुरक्षित महिलाएं

हरियाणा में 30 साल की महिला जोकि अपने 9 वर्षीय बेटे के साथ सफर कर रही थी, उस ने जब एक शराबी की छेड़छाड़ का विरोध किया तो उस ने उसे गाड़ी से धक्का दे दिया जिस से उसे अपनी जान गंवानी पड़ी. इस घटना से उस के बेटे पर क्या असर हुआ होगा सोच कर ही रूह कांप उठती है. अब उस बेचारे बच्चे की जिंदगी का क्या होगा? दुख तो इस बात का होता है कि इस तरह की घटनाएं बस समाचारपत्रों तक ही सीमित हो कर क्यों रह जाती हैं? तभी तो ऐसे सनकी लोगों की हिम्मत बढ़ती जा रही है.

केरल की एक अदालत ने एक लेखक और एक्टिविस्ट सिविक चंद्रन को यौन उत्पीड़न के मामले में जमानत देते हुए कहा कि महिला खुद ऐसी पोशाक पहनी हुई थीं, जोकि यौन उत्तेजक थे. आंध्र प्रदेश के एक प्रमुख पुलिस और मंत्री का कहना था कि अगर महिलाओं को परेशान किया जाता है, उन के साथ छेड़छाड़ की जाती है, बलात्कार किया जाता है, तो वास्तव में यह उन की गलती है. महिलाएं हलके कपड़े पहन कर पुरुषों को बलात्कार के लिए उकसाती हैं.

पुरुषों की सोच

कुछ पुरुषों की सोच है कि महिलाएं बिना आस्तीन के टौप और टाइट जींस पहन कर बलात्कार को निमंत्रण देती हैं. लड़कियां कुछ अच्छे कपड़े पहन सकती हैं और जब उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है तो क्यों न अच्छे कपड़े पहन कर भुगतान किया जाए. लड़कियों के टौप और टाइट जींस पहनने पर मर्दों को इतना एतराज है कि प्रमुख पुलिस और मंत्री को भी ये उत्तेजक कपड़े लगते हैं. मगर वहीं रणवीर सिंह के न्यूड वीडियो से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा.

26 मार्च, 1972 को महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के देसाई गंज पुलिस स्टेशन में 2 पुलिसकर्मियों ने 16 वर्षीय एक आदिवासी लड़की का बलात्कार किया था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बारी कर दिया था जिस के कारण सार्वजनिक आक्रोश और विरोध भी हुआ था. ऐसी घटनाएं आज भी हो रही हैं जहां पुलिस में शिकायत करने गई लड़की का पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार किया जाता है, उसे मारापीटा जाता है. सवाल यह है क्या पुलिस महकमा और सरकार पुलिस थानों में मौजूदा इस तरह की विकृतियों से पूरी तरह से अनजान है?

घर में भी असुरक्षित

जब बलात्कार और यौन उत्पीड़न का विषय है तो महिलाओं की पोशाक कैसे प्रासंगिक है? छोटीछोटी बच्चियों का बलात्कार भी क्या उत्तेजक कपड़े पहनने की वजह से होता है? जो बूढ़ी महिलाएं बलात्कार की शिकार बनती हैं क्या वे भी उत्तेजिक कपड़े पहने होती हैं? वह 11 साल की गरीब बच्ची जो पड़ोस की दुकान से शक्कर लेने गई थी क्या उस ने भी भड़काऊ कपड़े पहने होंगे जिस से बलात्कारी का मन फिसल गया? बूढ़ी, बच्ची, जवान, अधेड़, मोटी, पतली, काली, गोरी, किसी भी जाति, पंथ या वर्ग की महिलाएं हों, वह सुरक्षित नहीं हैं इस देश में. यहां तक की महिलाएं अपने घर में भी सुरक्षित नहीं हैं.

बिहार के मधेपुरा के तुलसीबाड़ी गांव में रात के समय जब एक महिला शौच करने निकली तो कुछ युवकों ने उसे दबोच लिया और उस के साथ दुष्कर्म करने की कोशिश करने लगे और जब वे लोग घटना को अंजाम देने में विफल रहे तो उलटे महिला पर ही चरित्रहीनता का आरोप लगाते हुए उस के साथ मारपीट करने लगे.

द्वापर युग में कौरवों की महारथियों से भरी सभा में द्रौपदी के चीरहरण की घटना के बाद भगवान कृष्ण ने उन की रक्षा की थी. लेकिन आज कहीं कोई कृष्ण दिखाई नहीं देता जो महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार से उन की रक्षा कर सके. आज जैसे पूरा समाज ही विकृति का शिकार हो गया है.

बढ़ती घटनाएं

इस तरह की घटनाएं न जाने रोज कितनी ही घटती होंगी, मगर कुछ ही सामने आ पाती हैं क्योंकि बदनामी के डर से महिलाएं चुप लगा जाती हैं. वैसे कुछ महिलाओं में चेतना जागी है और वे अपने अधिकारों के लिए आगे भी आ रही हैं. मगर बहुत सी ऐसी भी हैं जो अपने साथ हुए शोषण के खिलाफ आवाज नहीं उठा पातीं.

देश में 82% शादीशुदा महिलाएं ऐसी हैं, जो पति की यौन हिंसा की शिकार बनती हैं. 6% शादीशुदा महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने जीवन में कभी न कभी यौन हिंसा  झेली है.

देश में 30% शादीशुदा महिलाएं ऐसी हैं जिन्होंने पति की शारीरिक या यौन हिंसा  झेली है. 70% महिलाएं खुद पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ बोल नहीं पातीं.

हमारे देश में घरेलू हिंसा जितनी विकराल है उतने ही सरल उस के माने हैं. भारतीय घरेलू हिंसा मतलब पतिपत्नी का प्यार क्योंकि हमारे समाज में इसे हिंसा थोड़े ही न कहा जाता है. अरे, यह तो पति का अपनी पत्नी पर हक है. लेकिन दुख तो इस बात का है कि अधिकतर भारतीय पत्नियों को यह नहीं पता होता है कि उन के साथ गलत हो रहा है.

रोज महिलाओं को थप्पड़ों, लातों, पिटाई, अपमान, धमकियों, यौन शोषण और ऐसी अनेक हिंसात्मक घटनाओं का सामना करना पड़ता है, फिर भी वे चुप रहती हैं. कोई कदम नहीं उठातीं, बल्कि उसी रिश्ते में बंधी रहती हैं. कारण, बच्चे, पैसों की कमी, घर की सपोर्ट न मिलना, अपने कानून के हक की जानकारी न होना, डर वगैरहवगैरह.

औरतों के मन में बचपन से ही यह कहावत बैठा दी जाती है कि लड़की की अर्थी ससुराल से ही उठती है.

धर्म भी है जिम्मेदार

वैदिक युग के बाद से नारी के स्वतंत्र अस्तित्व को कभी स्वीकार नहीं किया गया. ऐसी परिस्थितियां और विधान बनते चले गए कि वे पिता, भाई, पति, पुत्र के अधीन रहने को बाध्य रहीं. औरत के लिए पति का स्थान भगवान से भी ऊंचा माना गया है. पति को परमेश्वर के रूप में प्रतिष्ठित किया गया जिस की चरणदासी बन आजीवन सेवा करना ही स्त्री का परम धर्म बन गया.

यह कहना गलत नहीं होगा कि धर्म की सब से बड़ी ग्राहक औरतें ही हैं और उन्हीं को सब से ज्यादा सताया जाता है. कभी सती के रूप में, कभी विधवाओं के लिए बनाए कठोर धार्मिक नियमों के रूप में, कभी देवदासी के रूप में और कभी विभिन्न धार्मिक एवं कर्मकांडों के रूप में. नारी को देश की आधी आबादी कहा गया है, लेकिन धर्म में इसी आधी आबादी की स्वतंत्रता की सीमा निश्चित की गई है.

अपनी सत्यता का सुबूत देने के लिए सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा था. लेकिन आज तक इतिहास में ऐसा कोई तथ्य नहीं मिलता जब किसी पुरुष ने किसी महिला के समक्ष ऐसा कोई साक्ष्य पेश किया हो जिस से उस की ईमानदारी और वफादारी का सुबूत मिलता हो. हर बार कसौटी पर महिलाओं को ही खरा उतरने का ठेका इस कुंठित व्यवस्था ने महिलाओं के लिए ही आरक्षित कर दिया.

शर्मिंदा करते हैं ये आंकड़े

देश में यौन शोषण के खिलाफ कड़े कानून के बावजूद नाबालिग लड़कियां हैवानियत की शिकार बन रही हैं. 2021 के ‘नैशनल क्राइम रिकौर्ड ब्यूरो’ के जो आंकड़े हैं, वे इंसानियत को शर्मसार कर देने वाले हैं. आंकड़ों के मुताबिक, औसतन हर दिन करीब 90 नाबालिग लड़कियों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं हुईं. नाबालिग लड़कियों से दुष्कर्म के मामले मध्य प्रदेश में सब से ज्यादा हैं. इस के बाद महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक का नंबर आता है.

एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, महिलाओं के लिए दिल्ली सब से खतरनाक शहर है. यहां महिला अपराध से जुड़े कुल 13,892 मामले सामने आए हैं. ‘ऐसिड सर्वाइवर्स ट्रस्ट इंटरनैशनल’ नाम के ब्रिटेन बेस्ड एनजीओ का डेटा बताता है कि पूरी दुनिया में हर साल 15 सौ से ज्यादा ऐसिड अटैक होते हैं और जिन में 99% शिकार महिलाएं होती हैं.

सभ्यता के आरंभ से ही मानव समाज के विकास में आधी आबादी का पूरा सहयोग रहा है और आज भी है. लेकिन आज हालात ये हैं कि उसी आधी आबादी पर अत्याचार, शोषण के लिए यह देश सब से खतरनाक देश बन गया है. ‘थौमसन रौयटर्स फाउंडेशन’ ने महिलाओं के मुद्दे पर 550 ऐक्सपर्ट्स का सर्वे जारी किया, जिस में घरेलू काम के लिए मानव तस्करी, जबरन शादी और बंधक बना कर यौन शोषण के लिहाज से भी भारत को खतरनाक बताया गया है.

सिर्फ खानापूर्ति

हमारे देश में हर साल महिला दिवस मनाया ही इसलिए जाता है कि कहीं न कहीं महिलाएं, बेटियां स्वतंत्र और सुरक्षित नहीं हैं. घर से निकलते हुए लड़कियां इस बात से नहीं डरतीं कि कोई गाड़ी आ कर उन्हें रौंद कर चली जाएगी, बल्कि इस डर से कांप उठती हैं कि किसी पागल, सनकी प्रेमी से पाला न पड़ जाए उन का, जो उन के सारे सपने अपने पैरों तले रौंद कर चला जाए. छोटेछोटे शहरों से अपने सपने पूरे करने निकली लड़की इस डर से उलटे पांव वापस लौट जाती है.

एक सर्वे में आए चौंकने वाले आंकड़ों के मुताबिक, 58 फीसदी लड़कियों ने माना कि वे सोशल मीडिया प्लेटफौर्म फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्हाट्सऐप और टिकटौक पर अपशब्द और उत्पीड़न का शिकार होती हैं. रिपोर्ट के अनुसार, 47 फीसदी लड़कियों को औनलाइन उत्पीड़न के साथसाथ शारीरिक और यौन हिंसा की भी धमकी दी गई, जबकि 59 फीसदी को सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर अपशब्द और अपमानजनक भाषा का सामना करना पड़ा है.

इतना ही नहीं, बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक और एलजीबीटीक्यू समुदायों की महिलाओं ने कहा कि उन की पहचान की वजह से उन्हें परेशान किया जाता है.

एक सर्वेक्षण में शामिल 11 फीसदी लड़कियों को अपने मौजूदा और पूर्व पार्टनर द्वारा परेशान किया जाता है. 21 फीसदी लड़कियों ने दोस्तों की ओर इशारा किया और 23 फीसदी ने माना कि उन्हें उत्पीडि़त करने वाले स्कूल और उन के वर्कप्लेस से हैं.

सर्वे के मुताबिक, सोशल मीडिया पर 36 फीसदी लड़कियों को अजनबियों द्वारा परेशान किया जाता है. वहीं 32 फीसदी को फेक आईडी सोशल मीडिया यूजर्स अपशब्द और अश्लील मैसेज भेजते हैं. इस के परिणामस्वरूप औनलाइन उत्पीड़न ने 42 फीसदी महिलाओं को तनावग्रस्त कर दिया है, साथ ही उन में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की कमी पैदा की है.

यही कारण है कि 5 में से 1 (19 फीसदी) लड़कियों ने सोशल मीडिया से दूरी बना ली है और कई लड़कियों ने इन प्लेटफौर्म का इस्तेमाल करना कम कर दिया. वहीं 10 में से 1 (12 फीसदी) ने खुद को अभिव्यक्त करने का दूसरा रास्ता चुन लिया.

सुरक्षा पर आंच

आज महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. चाहे घर हो, दफ्तर हो, बस, ट्रेन, सड़क, गली चौराहा हर जगह वे अपनेआप को असुरक्षित महसूस करती हैं. आज बेशक महिलाएं हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, सफलता की बुलंदियां छू रही हैं, चांद तक अपनी काबिलीयत का परचम लहरा रही हैं. इस के बावजूद उन की सुरक्षा पर आंच आ रही है तो इसलिए कि महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानून सरकारी फाइलों की धूल चाट रहे हैं और सरकार कुंभकरण की नींद सो रही है.

आज भी बच्चा न पैदा कर पाने के कारण औरतों को बां झ सम झा जाना, दहेज के लिए जलाया जाना, डायन कह कर उस पर पत्थर बरसाने की बात सुनने, पढ़ने को मिलती रहती है और इस से यही लगता है कि महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ है. यहां तक कि शादी टूटने के डर से लड़कियां सर्जरी तक करवा रही हैं ताकि दूल्हे के सामने यह साबित कर पाएं कि वे वर्जिन हैं.

लड़की वर्जिन ही चाहिए

एमबीए की छात्रा नताशा की शादी तय हो गई है. वह बहुत खुश है अपनी शादी से, लेकिन मन में एक डर बना हुआ है कि कहीं उस की बैस्ट फ्रैंड की तरह उस का पति भी शादी की पहली रात ही कैरेक्टरलैस बता कर उसे छोड़ न दे क्योंकि एनआरआई ससुराल वालों ने रिश्ता तय करते समय एक शर्त रखी थी कि उन्हें लड़की वर्जिन ही चाहिए.

नताशा की तरह कई ऐसी लड़कियां हैं जो शादी से पहले हाइमन की खतरनाक सर्जरी करा रही हैं ताकि साबित कर सकें कि वे कुंआरी हैं.

मगर यह सर्जरी इतनी जोखिमभरी है कि एक लड़की कोमा में चली गई. इस के बावजूद सर्जरी का ट्रैंड तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि वे जानती हैं कि सर्जरी से ही उन्हें कैरेक्टर सर्टिफिकेट मिलेगा. लेकिन लड़कों के लिए शादी से पहले ऐसी कोई शर्त नहीं होती. उन्हें किसी कैरेक्टर सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं होती.

कुछ सदियों पहले तेलुगु कवि बडेना ने पत्नी की भूमिका पर एक विजय गान लिखा था- ‘वो जो एक नौकर की तरह काम करती है, एक मां की तरह खाना खिलाती है, एक देवी की तरह दिखती है, एक वेश्या की तरह सुख देती है और पृथ्वी जैसी सहनशीलता रखती है’ 13वीं शताब्दी की एक कविता में गढे़ गए ये स्त्री गुण आधुनिक भारतीय समाज में इस कदर पसंद किए जाते हैं कि इस कविता का महिमामंडन आज भी टीवी सीरियलों, फिल्मों, गीतों और साहित्य में दिखाई दे जाता है, परंतु भारतीय महिलाओं के लिए ये सभी गुण उत्पीड़न के अलगअलग रूप हैं.

स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक स्टडी के अनुसार, जहां एक पुरुष हफ्तेभर में 42 घंटे काम करते हैं, वहीं एक हाउसवाइफ 112 घंटे काम करती हैं और घर से बाहर निकल कर नौकरी करने वाली महिलाएं 126 घंटे काम करती हैं यानी पुरुषों से करीब 3 गुना ज्यादा. यूएन वूमन के मुताबिक, कोरोनाकाल में लौकडाउन के दौरान महिलाओं का काम 17 गुना बढ़ गया यानी औरतें सब से ज्यादा काम करती हैं और सब से कम पैसा पाती हैं क्योंकि उन के द्वारा किए जा रहे श्रम का एक बड़ा हिस्सा बेगार है.

परिवार के लिए, पति के लिए, बच्चों के लिए, सासससुर के लिए उस श्रम का उसे कोई मूल्य नहीं मिलता. सब के लिए मुफ्त में अपनी हड्डियां गलाने वाली औरतों को काम के बदले भले ही एक धेला न मिलता हो, पर अन्नपूर्णा, देवी और महान औरत का दर्जा जरूर मिल जाता है.

भेदभाव की शिकार

कहने को तो महिलाओं को पुरुष के बराबर अधिकार मिला है, लेकिन असमानता आज भी समाज में कायम है. बराबरी पर कितने नारे आए और गए, लेकिन हालात में कुछ भी फर्क नहीं आया. आज भी महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक सम झा जाता है. और यही कारण है कि मताधिकार से ले कर, चुनाव लड़ने तक और पैतृक संपत्ति में बराबरी की हिस्सेदारी से ले कर समान वेतन के अधिकार तक हरेक मसले पर इंसाफ के लिए महिलाओं को लंबे संघर्ष करने पड़े हैं और कर भी रही हैं.

कहा जाता है कि आज की महिलाएं तो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं. उन्हें भी हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर दिया दिया जा रहा है मानो महिलाओं को उन का अधिकार नहीं, बल्कि खैरात दी जा रही हो.

हालात बड़े मुश्किल हैं और औरतों की कहानी बड़ी दुखद. लेकिन सवाल ये हैं कि यह कहानी बदले कैसे? जिस देश में महिलाओं को देवी का स्वरूप माना जाता है, नवरात्रि में कन्यापूजन विधान है, उन्हीं महिलाओं और बच्चियों के साथ उत्पीड़न, बलात्कार, हत्या की घटनाएं बढ़ती ही जा रहे हैं, तो आखिर क्यों?

यह कहना गलत न होगा कि महिलाओं के प्रति असमानता, अत्याचार, हत्या, बलात्कार जैसी हिंसाओं का कारण है देश की कमजोर कानून और न्यायिक व्यवस्था. आज कानून का डर नहीं रहा इसलिए अपराधी अपराध कर के निडर घूमते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि कुछ दिन सजा के बाद जमानत तो मिल ही जाएगी. इसलिए यहां के कानून प्रशासन को और सख्त होना पड़ेगा ताकि ऐसी हिंसात्मक घटनाएं बंद हों और अपराधी अपराध करने से पहले सौ बार सोचें. कानून व्यवस्था को और कई गुना अधिक सख्त होना पड़ेगा ताकि देश की महिलाओं, बच्चियों का शारीरिक और मानसिक शोषण न हो सके.

सख्त हो कानून

महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों खासकर यौन शोषण के मामलों पर आवाज उठाने वाली एक्टिविस्ट योगिता भयाना कहती हैं कि सैंटर और राज्य की सरकारों को बेटियों के साथ किए जा रहे यौन अपराधों और अपराधियों पर सख्ती बरतनी चाहिए. जो भी अपराधी हो उन्हें पुलिस गिरफ्तार करने में देर न करे. कोर्ट रेप जैसे जघन्य अपराध के दोषियों को आसानी से बेल, परोल न दे. वरना देश की न्याय प्रणाली से बेटियों का आत्मविश्वास डगमगा जाएगा और कोई भी बेटी अपने साथ हुए अपराध के खिलाफ आवाज उठाने से डरेगी.

मगर मात्र कानून बनाने से ही समस्या का समाधान नहीं होगा, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी में भी सुधार की आवश्यकता है. महिलाओं को भी खुल कर अपनी बात रखनी होगी बिना डरे. आमतौर पर बदनामी के डर से काफी बड़ी संख्या में ऐसे मामले दर्ज ही नहीं हो पाते हैं खासतौर पर तब जब पीडि़ता को अपने पति, परिवार के सदस्य या किसी अन्य परिचित के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी हो.

महिलाओं की सोच कि लोग क्या कहेंगे अपराधी के हौसलों को और बुलंद करने का काम करती है. महिलाओं की मौन स्वीकृति भी अपराध को बढ़ावा देती है, इसलिए चुप न रहें, अपने साथ हो रही हिंसा की रिपोर्ट करें. यदि आप कभी भी खतरा महसूस करें, तो तुरंत वूमंस हैल्पलाइन नंबर 1091/1090 पर कौल करें. इस के अलावा महिलाएं ‘नैशनल कमिश्नर फौर वूमन’ में अपनी बात रखना चाहें तो वे 0111-23219750 पर कौल कर सकती हैं.

बदलनी होगी मानसिकता

देश की आधी आबादी को अगर सच में पूरा हक दिलाना है तो लोगों को अपनी ओछी मानसिकता बदलनी होगी. मातापिता को सिर्फ अपनी बेटियों में ही नहीं, बल्कि बेटों में भी संस्कार भरने होंगे कि वे महिलाओं के साथ सम्मान से पेश आएं. उन की इज्जत करें.

शासनप्रशासन कितना भी कठोर क्यों न बना दिया जाए लेकिन जब तक पुरुष की मानसिकता और उसे बचपन में स्त्री मर्यादा के संस्कार नहीं सिखाए जाएंगे तब तक ऐसे कठोर कानून बनाने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा. ऐसे लोग कानून का बस मजाक ही बनाते रहेंगे.

यौन उत्पीड़न के खिलाफ उठाएं आवाज

हाल ही में दिल्ली की राउज एवेन्यू अदालत ने पत्रकार प्रिया रमानी के खिलाफ पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं संपादक एम. जे. अकबर के आपराधिक मानहानि मुकदमे को खारिज करते हुए कहा कि जीवन और गरिमा के अधिकार की कीमत पर प्रतिष्ठा के अधिकार का संरक्षण नहीं किया जा सकता.फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रिया रमानी के द्वारा किया गया खुलासा दफ्तरों में औरतों के साथ होने वाले यौन शोषण को बाहर लाने में मददगार था.

कोर्ट ने अपने आदेश में साफ़ कहा कि एक महिला को दशकों बाद भी अपनी पंसद के किसी भी मंच पर अपनी शिकायत रखने का अधिकार है. इस तरह के उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने को ले कर किसी महिला को दंडित नहीं किया जा सकता है. रमानी के खिलाफ लगाए गए आरोपों को साबित नहीं किया जा सका.

दरअसल रमानी ने 2018 में सोशल मीडिया पर चली ‘मी टू’ मुहिम के तहत अकबर के खिलाफ यौन दुर्व्यवहार के आरोप लगाए थे. अकबर ने इन आरोपों को खारिज कर दिया था साथ ही उन आरोपों को ले कर रमानी के खिलाफ 15 अक्टूबर 2018 को शिकायत भी दायर की थी.

एक तरह से यह फैसला कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ कभी न कभी आवाज उठाने वाली सभी महिलाओं की जीत है. इस से महिलाओं का यह विश्वास बढ़ेगा कि भले ही कितना भी बड़ा रसूखदार क्यों न हो, उन्हें डरने की जरुरत नहीं क्योंकि कानून उन के साथ है.

कौन हैं प्रिया रमानी और अकबर

प्रिया रमानी मीडिया इंडस्ट्री में लंबे समय से हैं. उन्होंने इंडिया टुडे, इंडियन एक्सप्रेस आदि समूहों के साथ काम किया है. वह अंतरराष्ट्रीय फैशन मैगजीन कॉस्मोपॉलिटन की संपादक और मिंट अखबार में फीचर एडिटर रही हैं.

एमजे अकबर दैनिक अखबार ‘द टेलीग्राफ’ और पत्रिका ‘संडे’ के संस्थापक संपादक रहे हैं. मीडिया इंडस्ट्री में उन्हें एक बड़ी हस्ती के रूप में जाना जाता था. अकबर 1989 में राजनीति में आए. उन्होंने पहले कांग्रेसपार्टी ज्वाइन की और सांसद बने थे. 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले वे बीजेपी में शामिल हो गए. मध्य प्रदेश से राज्यसभा सदस्य अकबर मोदी सरकार में केंद्रीय मंत्री भी रहे.

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क्या है मामला

कहानी 2017 में शुरू होती है जब हॉलीवुड के फेमस प्रोड्यूसर हार्वी वाइनस्टीन के ऊपर कई लड़कियों और औरतों ने यौन शोषण के आरोप लगाए. इन में कई नामी एक्ट्रेस भी शामिल थीं. यहीं से मीटू मूवमेंट की शुरुआत हुई. अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों की औरतें सामने आईं और अपने साथ हुए यौन शोषण पर खुल कर अपनी बात रखी.

इसी दौरान इंडियन जर्नलिस्ट प्रिया रमानी ने भी इस मसले पर वोग मैगज़ीन के लिए एक आर्टिकल लिखा. टाइटल था- ‘दुनिया के सभी हार्वी वाइनस्टीन के लिए’. इस में रमानी ने अपने करियर के पहले पुरुष बॉस के साथ हुई फर्स्ट मीटिंग का ज़िक्र किया. यहां प्रिया ने अपने बॉस का नाम लिए बिना लिखा-

‘ डियर मेल बॉस, आप ने मुझे वर्कप्लेस का पहला सबक सिखाया. मैं तब 23 साल की थी और आप 43 साल के. आप मेरे प्रोफेशनल हीरोज में से एक थे. मैं आप को पढ़ते हुए बड़ी हुई थी. सभी कहते थे कि आप ने देश की पत्रकारिता को बदल दिया है इसलिए मैं आप की टीम का हिस्सा बनना चाहती थी. इसलिए हम ने एक समय सेट किया ताकि आप साउथ मुंबई के एक होटल में मेरा इंटरव्यू कर सकें. मुझे शाम सात बजे बुलाया गया, लेकिन इस बात से मैं परेशान नहीं हुई. मैं जानती थी कि आप बिज़ी एडिटर हैं. जब मैं होटल की लॉबी में पहुंची तब मैं ने आप को कॉल किया. आप ने ऊपर आने को कहा. रूम में डेटिंग जैसा माहौल ज्यादा था, इंटरव्यू का कम. आप ने अपने मिनी बार से मुझे एक ड्रिंक ऑफर की. मैं ने मना किया तो आप ने वोडका पी. मैं और आप इंटरव्यू के लिए आमने-सामने थे. बीच में एक छोटा टेबल था. वहां से मुंबई का मरीन ड्राइव दिख रहा था. आप ने कहा कितना रोमांटिक लग रहा है. आप ने हिंदी फिल्म का पुराना गाना सुनाया और मेरी रुचि पूछने लगे. रात बढ़ती जा रही थी. मुझे घबराहट हो रही थी. कमरे में बिस्तर भी था. आप ने कहा यहां आ जाओ. मैं ने कहा नहीं मैं कुर्सी पर ही ठीक हूं. उस रात मैं किसी तरह बच गई. आप ने

मुझे काम दे दिया. सालों बाद भी आप नहीं बदले. आप के यहां जो भी नई लड़की काम करने आती थी आप उस पर अपना अधिकार समझते थे. आप भद्दे फोन कॉल और मैसेज करने में एक्सपर्ट हैं. ‘

इस आर्टिकल को ले कर 2017 में भारत में कोई हंगामा नहीं हुआ क्योंकि इस में किसी का नाम नहीं था. फिर 2018 के आखिरी महीनों में जब हमारे देश में भी मीटू मूवमेंट शुरू हुआ तो लड़कियों ने अपने साथ हुए यौन शोषण के अनुभवों को सामने रखना शुरू किया. जानेमाने लोगों पर भी संगीन आरोप लगे.
तब प्रिया रमानी सामने आईं और बताया कि 2017 में जिस बॉस की बात वह कर रही थीं, वे MJ अकबर थे. 1994 में जब वह एशियन एज अखबार में काम कर रही थीं तब अकबर उस अखबार के एडिटर थे.
देखते ही देखते अकबर के खिलाफ बोलती हुई और महिलाएं दिखने लगीं. धीरेधीरे यह संख्या एक दर्जन से भी ज्यादा हो गई. ज्यादातर ने यौन शोषण की बात की.

जब ये आरोप लग रहे थे तब अकबर राज्यसभा सांसद और विदेश राज्य मंत्री भी थे. इतने आरोपों के बाद एमजे अकबर ने सभी पदों से इस्तीफा दे दिया. 15 अक्टूबर 2018 के दिन उन्होंने प्रिया रमानी के खिलाफ क्रिमिनल डिफेमेशन केस यानी मानहानि का केस भी फाइल कर दिया. दिल्ली के पटियाला हाउस कोर्ट में प्रिया रमानी के खिलाफ IPC की धारा 499 और 500 यानी डेफेमेशन और पनिशमेंट फॉर डिफेमेशन के तहत केस फाइल हुआ. 41-पृष्ठ के मानहानि के मुकदमे में अकबर ने आरोप लगाया कि प्रिया रमानी के ट्वीट और समाचार पत्र के लेख ने उन की 40 साल से अधिक की प्रतिष्ठा और सद्भावना को खराब किया है जिस की वजह से उन्हें अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. अकबर की तरफ से यह दबाव भी बनाया गया था कि मामले को रफादफा कर लिया जाए पर प्रिया ने यह नहीं स्वीकारा.

आखिर में प्रिया के ऊपर लगे आरोप गलत साबित हुए. प्रिया ने बिना डरे, बिना थके एक ऐसे आदमी के खिलाफ लड़ाई लड़ी जो उस के मुकाबले बहुत ज्यादा ताकतवर था.

यौन उत्पीड़न या यौन दुर्व्यवहार की घटनाएं अक्सर बंद कमरे में अंजाम दी जाती हैं. कई बार पीड़िता यह समझ भी नहीं पाती कि उस के साथ गलत हो रहा है. खासकर जब सामने वाला शख्स समाज का एक सम्मानित व्यक्ति हो. बाद में जब लड़की को अहसास होता है कि कैसे उस की गरिमा पर आघात हुआ है तो भी कभी शर्म की वजह से और कभी सामने वाले की प्रतिष्ठा के आगे वह खुद को कमजोर महसूस करती है और कुछ बोल नहीं पाती. ऐसे में उस का आत्मविश्वास टूटने लगता है. वह खुद से ही नजरें मिलाने से कतराने लगती है.

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जिंदगी में औरतों को अक्सर ऐसे लोगों का सामना करना पड़ता है जो समाज में भले ही कितने भी सम्मानित व्यक्ति क्यों न हों मगर औरतों के प्रति उन की सोच बहुत ही छोटी और संकुचित होती है. वे

औरतों को महज एक शरीर के रूप में देखते हैं जिस के जरिये अपनी अपूर्ण इच्छाओं और वासनाओं की पूर्ति कर सकें. हमें यह समझना होगा कि समाज में अच्छी पहचान रखने वाला पुरुष भी सेक्शुअल अब्यूजर हो सकता है और एक पुरुष की प्रतिष्ठा बचाने के लिए एक महिला के आत्मसम्मान की बलि नहीं चढ़ाई जा सकती.

हमेशा होता है भेदभाव

ग्लास सीलिंग वाले हमारे समाज में औरतों के साथ हमेशा ही भेदभाव किया जाता है और उस के रास्ते में मुश्किलें खड़ी की जाती हैं. औरतें कितनी भी योग्यता दिखा लें मगर पुरुष उन्हें अपने हाथ की कठपुतली ही बना कर रखना
चाहते हैं. महिलाएं अपने साथ हो रहे अत्याचारों के मसले पर सिर्फ एक सामान्य वजह से नहीं बोलती हैं और वह है शर्म. वह जानती हैं कि यदि उन्होंने मुंह खोला तो समाज उसे ही कसूरवार समझेगा. खासकर जब सामने वाला बंदा बड़ा रसूखदार हो तो फिर उस की क्या हैसियत. यही वजह है कि कई बार पीड़िता यौन उत्पीड़न के बारे में वर्षों तक एक भी शब्द नहीं बोलती और उस शर्म के साथ जीती रहती है.

बचपन से दी जाती है शिक्षा

हमारे पुरुष प्रधान समाज में बचपन से बच्चों को यही सिखाया जाता है कि लड़कियों को पापा, भाई या पति की हर बात सर झुका कर मान लेनी चाहिए. यानी घर के पुरुष सदस्य ही मालिक हैं और औरतों का काम उन का ख्याल रखना और हुक्म मानना है. यदि लड़कियां किसी बात पर अपने भाई से लड़ने लगती हैं तो मां उसे अलग ले जा कर यह जरूर समझाती है कि बेटा तुझे तो पराए घर जाना है. नए घर में एडजस्ट होना है. इसलिए तुझे दब कर, झुक कर और अपने सम्मान को ताक पर रख कर ही जीना सीखना होगा ताकि कल को दूसरे घर जा कर तू हमारी नाक न कटा आना. जो भाई कहता है वैसा ही कर.

इसी तरह ससुराल जाने के बाद भी घर की महिलाएं नई बहू को पति से दबना और सहनशील बनना ही सिखाती हैं. जबकि लड़के चाहे जितना भी गलत कर लें उन की गलतियां इग्नोर कर दी जाती हैं. उन्हें शह दिया जाता है कि वह घर कीस्त्री के साथ नौकरों जैसा व्यवहार कर सकते हैं. नतीजा यह होता है कि समय के साथ पुरुषों की सोच तानाशाह वाली होने लगती है. वे स्त्रियों को अपनी प्राइवेट प्रॉपर्टी समझने लगते हैं. घर में विकसित हुई यह सोच और नजरिया
धीरेधीरे उन के सामाजिक व्यवहार में परिलक्षित होने लगता है. उन के व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है. पुरुषों की नजरों में स्त्रियां वह खिलौना बन जाती है जिन्हें जब जैसे चाहो अपने इशारों पर नचाया जा सके. उन की सोच और इच्छा को नजरअंदाज कर अपनी अहम की तुष्टि की जा सके.

आजकल औरतें बड़ी संख्या में ऑफिस में पुरुषों के साथ काम करती हैं. ऐसे में कई बार उन्हें कार्यस्थल पर पुरुषों की ज्यादती या यौन दुर्व्यवहार का शिकार होना पड़ता है;

क्या है कार्यस्थल पर सैक्सुअल हैरेसमेंट

कई बार ऑफिस में पुरुष बॉस या सहकर्मी द्वारा महिलाओं के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जो महिलाओं को बहुत असहज कर सकता है. ऐसे में उन्हें नौकरी छोड़ने पर भी मजबूर होना पड़ता है. ये हरकतें जानबूझ कर भी की जाती हैं और कई बार गैर-इरादतन भी होती हैं. पुरुषों को लगता है कि औरत को बोलने या टोकने का हक़ नहीं. जबकि वे उन के साथ कुछ भी कर सकते हैं.

मान लीजिए ऑफिस में कोई पुरुष कर्मचारी फाइल लेने या देने के दौरान अपनी महिला कुलीग का हाथ छू लेता है. महिला असहज महसूस करती है और आइंदा ऐसा न करने की ताकीद करती है. इस के बावजूद वह पुरुष इस तरह की हरकत करता रहता है तो यह व्यवहार यौन शोषण में शामिल होगा.

इस सन्दर्भ में क्रिमिनल लॉयर अनुजा कपूर कहती हैं कि यदि कोई पुरुष आप को गलत इंटेंशन के साथ हुए छुए. आप के ब्रेस्ट, हिप्स जैसी जगहों पर हाथ लगाए, कंधे पर हाथ रख कर आप को पकड़ना या जकड़ना चाहे, आप की इच्छा के विरुद्ध आप के हाथों को पकड़े, बहुत करीब आ कर खड़ा हो जाए, आप के स्पेस का आदर न करे, अपनी जुबान से कुछ ऐसा गलत कहे जिसे सुन कर आप कंफर्टेबल महसूस न करें, वह आप को यह कहे कि प्रमोशन चाहिए तो साथ सोना पड़ेगा या तुम मेरे लिए क्या कर सकती हो. ऐसी डिमांड रखे जिसे कोई भी भली लड़की पूरा करना नहीं चाहती, भले ही वह बॉस हो, कुलीग हो या फिर कोई जूनियर ही क्यों न हो. यौन शोषण जुबानी , शारीरिक या हाव भाव के द्वारा किया जा सकता है. यदि पुरुष आप की सहमति के बिना आप को पोर्न मूवी दिखाता है, शराब पिला कर कुछ गलत करता है या हाथ लगाता है, आप को ऐसे मैसेज या मेल करता है या फोटो भेजता है जिन्हें देख कर आप कंफर्टेबल नहीं, ऐसे द्विअर्थी जोक्स भेजता है जो उस की डिग्निटी पर चोट करे तो यह सब यौन शोषण के अंतर्गत आएगा. इसी तरह अगर कोई पुरुष किसी महिला सहकर्मी की शारीरिक बनावट पर कमेंट करता है, उस के साथ सेक्शुअल बातें करने की कोशिश करता है ,गंदे इशारे करता है या फिर सीटी बजाता और घूरना जैसी हरकतें करता है तो यह सब यौन शोषण का हिस्सा हैं. इसी तरह बारबार टकराते हुए जाना या किसी महिला का रास्ता रोकना इस में शामिल होता है.

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हम महिलाओं के एंपावरमेंट और सुरक्षा की बात करते हैं लेकिन जब वे अपने काम वाली जगह ही सुरक्षित नहीं तो उन का विकास कैसे होगा? किसी रसूखदार के नीचे काम करने का मतलब यह नहीं कि वह दब जाए. मगर सच यह भी है कि जबआप रसूखदार लोगों से लड़ते हैं और आप के पास सिर्फ आप की सच्चाई होती है. तब आगे का सफर आप के लिए बहुत ही कठिन हो जाता है.

इस तरह के मामले जहां मानहानि के मामलों में पुरुष महिलाओं की आवाज़ बंद करने की कोशिश करते हैं, महिलाओं में उन के खिलाफ आवाज़ उठाने पर डर पैदा करते हैं. रमानी अकबर केस में कोर्ट का यह फैसला उन औरतों के लिए जो अपनी आवाज़ सामने रखने में हिचकिचाती हैं, एक साहस पूर्ण उदाहरण बनेगा. यह सिर्फ़ एक औरत की एक आदमी के खिलाफ जीत के बारे में नहीं बल्कि हर औरत की दबी हुई आवाज़ की सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ जीत है. कोर्ट का यह फैसला औरतों के लिए एक उम्मीद है कि उनकी आवाज़ व्यर्थ नहीं जा रही बल्कि बदलता समाज उन की आवाज़ सुन सकता है.

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