शब्दचित्र: क्या था नीतू का सपना

सुबह 6 बजे का अलार्म पूरी ईमानदारी से बज कर बंद हो गया. वह एक सपने या थकान पर कोई असर नहीं छोड़ पाया. ठंडी हवाएं चल रही हैं. पक्षी अपने भोजन की तलाश में निकल पड़े हैं.

तभी मां नीतू के कमरे में घुसते ही बोलीं, ‘‘इसे देखो, 7 बजने को हैं और अभी तक सो रही है. रात को तो बड़ीबड़ी बातें करती है, अलार्म लगा कर सोती हूं. कल तो जल्दी उठ जाऊंगी, मगर रोज सुबह इस की बातें यों ही धरी रह जाती हैं.’’ मां बड़बड़ाए जा रही थीं.

अचानक ही मां की नजर नीतू के चेहरे पर पड़ी, यह भी क्या करे, सुबह 9 बजे निकलने के बाद औफिस से आतेआते शाम के 8 बज जाते हैं. कितना काम करती है. एक पल मां ने यह सब सोचा, फिर नीतू को जगाने लगीं.

‘‘नीतू, ओ नीतू, उठ जा. औफिस नहीं जाना क्या तुझे?’’

‘‘‘हुं… सोने दो न मां,’’ नीतू ने करवट बदलते हुए कहा.

‘‘अरे नीतू बेटा, उठ ना… देख 7 बज चुके हैं,’’ मां ने फिर से उठाने का प्रयास किया.

‘‘क्या…7 बज गए?’’ यह कहती

वह जल्दी से उठी और आश्चर्य से पूछने लगी, ‘‘उस ने तो सुबह 6 बजे का अलार्म लगाया था?’’

‘‘अब यह सब छोड़ और जा, जा कर तैयार हो ले,’’ मां ने नीतू का बिस्तर समेटते हुए जवाब दिया.

नीतू को आज भी औफिस पहुंचने में देर हो गई थी. सब की नजरों से बच कर वह अपनी डैस्क पर जा पहुंची. मगर रीता ने उसे देख ही लिया. 5 मिनट बाद वह उस के सामने आ धमकी. कहानियों से भरे पत्र उस की डैस्क पर पटक कर कहने लगी, ‘‘ये ले, इन 5 लैटर्स के स्कैच बनाने हैं आज तुझे लंच तक. मैम ने मुझ से कहा था कि मैं तुझे बता दूं.’’

‘‘पर यार, आधे दिन में 5 स्कैच कैसे कंप्लीट कर पाऊंगी मैं?’’

‘‘यह तेरी सिरदर्दी है. इस में मैं क्या कर सकती हूं. और, वैसे भी मैम का हुक्म है,’’ कह कर रीता अपनी डैस्क पर चली गई.

बचपन से ही अपनी आंखों में पेंटर बनने का सपना लिए नीतू अब जा कर उसे पूरा कर पाई है. जब वह स्कूल में थी, तब कौपियों के पीछे के पन्नों पर ड्राइंग किया करती थी, मगर अब एक मैगजीन में हिंदी कहानियों के चित्रांकन का काम करती है.

अपनी चेयर को आगे खिसका कर वह आराम से बैठी और बुझेमन से एक पत्र उठा कर पढ़ने लगी. वह जब भी चित्रांकन करती, उस से पहले कहानी को अच्छी तरह पढ़ती थी  ताकि पात्रों में जान डाल सके.

2 कहानियों के पढ़ने में ही घड़ी ने एक बजा दिया. जब उस की नजर घड़ी पर पड़ी, तो वह थोड़ी परेशान हो गई.

वह सोचने लगी, अरे, लंच होने में सिर्फ एक घंटा ही बचा है और अभी तक 2 ही कहानियां पूरी हुई हैं. कैसे भी 3 तो पूरी कर ही लेगी.  और वह फिर से अपने काम में लग गई.

लंच भी हो गया. उस ने 3 कहानियों का चित्रांकन कर दिया था. वह खाना खाती जा रही थी और सोचती जा रही थी कि बाकी दोनों भी 4 बजे तक पूरा कर देगी. साथ ही,  उस के मन में यह डर था कि कहीं मैम पांचों स्कैच अभी न मांग लें.

खाना खा कर नीतू मैम को देखने उन के केबिन की ओर गई, परंतु उसे मैम न दिखीं.

रीता से पूछने पर पता चला कि मैम किसी जरूरी काम से अपने घर गई हैं.

इतना सुनते ही उस की जान में जान आई. लंच समाप्त हो गया.

नीतू अपनी डैस्क पर जा पहुंची. अगली कहानी छोटी होने की वजह से उस ने जल्दी ही निबटा दी. अब आखिरी कहानी बची है, यह सोचते हुए उस ने 5वां पत्र उठाया और पढ़ने लगी.

‘प्रशांत शर्मा’ इतना पढ़ते ही उस के मन से काम का बोझ मानो गायब हो गया. वह अपने हाथ की उंगलियों के पोर पत्र पर लिखे नाम पर घुमाने लगी. उस की आंखें, बस, नाम पर ही टिकी रहीं. देखते ही देखते वह अतीत में खोने लगी.

तब उस की उम्र 15 साल की रही होगी. 9वीं क्लास में थी. घर से स्कूल जाते हुए वह इतना खुश हो कर जाती थी जैसे आसमान में उड़ने जा रही हो.

मम्मीपापा की इकलौती बेटी थी वह. सो, मुरादें पूरी होना लाजिमी थीं. पढ़ने में होशियार होने के साथसाथ वह क्लास की प्रतिनिधि भी थी.

दूसरी ओर प्रशांत था. नाम के एकदम विपरीत. कभी न शांत रहने वाला लड़का. क्लास में शोर होने का कारण और मुख्य जड़ था वह ही. पढ़ाई तो वह नाममात्र ही करता था. क्या यह वही प्रशांत है?

दिल की धड़कन जोरों से धड़कने लगी. तुरंत उस ने पत्र को पलटा और ध्यान से हैंडराइटिंग को देखने लगी. बस, चंद सैकंड में ही उस ने पता लगा लिया कि यह उस की ही हैंडराइटिंग है.

फिर से अतीत में लौट गई वह. सालभर पहले तो गुस्सा आता था उसे, पर न जाने क्यों धीरेधीरे यह गुस्सा कम होने लगा था उस के प्रति. जब भी वह इंटरवल में खाना खा कर चित्र बनाती, तो अचानक ही पीछे से आ कर वह उस की कौपी ले भागता था. कभी मन करता था कि 2 घूंसे मुंह पर टिका दे, मगर हर बार वह मन मार कर रह जाती.

रोज की तरह एक दिन इंटरवल में वह चित्र बना रही थी, तभी क्लास के बाहर से भागता हुआ प्रशांत उस के पास आया. वह समझ गई कि कोई न कोई शरारत कर के भाग आया है, तभी उस के पीछे दिनेश, जो उस की ही क्लास में पढ़ता था, वह भी वहां आ पहुंचा और उस ने लकड़ी वाला डस्टर उठा कर प्रशांत की ओर फेंकना चाहा. उस ने वह डस्टर प्रशांत को निशाना बना कर फेंका. उस ने आव देखा न ताव, प्रशांत को बचाने के लिए अपनी कौपी सीधे डस्टर की दिशा में फेंकी, जो डस्टर से जा टकराई. प्रशांत को बचा कर वह दिनेश को पीटने गई, पर वह भाग गया.

‘अरे, आज तू ने मुझे बचाया, मुझे…’ प्रशांत आश्चर्य से बोला.

‘हां, तो क्या हो गया?’ उस ने जवाब दिया.

अचानक प्रशांत मुड़ा और अपने बैग से एक नया विज्ञान का रजिस्टर ला कर उसे देते हुए बोला, ‘यह ले, आज से तू चित्र इस में बनाना. वैसे भी, मुझे बचाते हुए तेरी कौपी घायल हो गई है.’

उस ने रजिस्टर लेने से मना कर दिया.

‘अरे ले ले, पहले भी तो मैं तुझे

कई बार परेशान कर चुका हूं, पर अब से नहीं करूंगा.’

जब उस ने ज्यादा जोर दिया, तो उस ने रजिस्टर ले लिया, जो आज भी उस के पास रखा है.

ऐसे ही एक दिन जब उसे स्कूल में बुखार आ गया, तो तुरंत वह टीचर के

पास गया और उसे घर ले जाने की अनुमति मांग आया.

टीचर के हामी भरते ही वह उस का बैग उठा कर घर तक छोड़ने गया.

वहीं, शाम को वह उस का हाल जानने उस के घर फिर चला आया. उस की इतनी परवा करता है वह, यह देख कर उस का उस से लगाव बढ़ गया था. साथ ही, वह यह भी समझ गई थी कि कहीं न कहीं वह भी उसे पसंद करता है.

पर 10 सालों में वह एक बार भी उस से नहीं मिला. दिल्ली जैसे बड़े शहर में न जाने कहां खो गया.

‘‘रीता, इस की एक कौपी कर के मेरे कैबिन में भिजवाओ जल्दी,’’ अचला मैम की आवाज कानों में पड़ने से उस की तंद्रा टूटी.

मैम आ गई थीं. अपने कैबिन में जातेजाते मैम ने उसे देखा और पूछ बैठीं, ‘‘हां, वो पांचों कहानियों के स्कैचेज तैयार कर लिए तुम ने?’’

‘‘बस, एक बाकी है मैम,’’ उस ने चेयर से उठते हुए जवाब दिया.

‘‘गुड, वह भी जल्दी से तैयार कर के मेरे पास भिजवा देना. ओके.’’

‘‘ओके मैम,’’ कह कर नीतू चेयर पर बैठी और फटाफट प्रशांत की लिखी कहानी पढ़ने लगी.

10 मिनट पढ़ने के बाद जल्दी से उस ने स्कैच बनाया और मैम को दे आई.

औफिस का टाइम भी लगभग पूरा हो चला था. शाम 6 बजे औफिस से निकल कर नीतू बस का इंतजार करने लगी. कुछ ही देर में बस भी आ गई. वह बस में चढ़ी, इधरउधर नजर घुमाई तो देखा कि बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी. गिनेचुने लोग ही थे.

कंडक्टर से टिकट ले कर वह खिड़की वाली सीट पर जा बैठी और बाहर की ओर दुकानों को निहारने लगी.

अचानक बस अगले स्टौप पर रुकी, फिर चल दी.

‘‘हां भाई, बताइए?’’

बस के इंजन के नीचे दबी कंडक्टर की आवाज मेरे कानों में पड़ी.

‘‘करोल बाग एक,’’ पीछे से किसी ने जवाब दिया.

लगभग एक घंटा तो लगेगा. अभी इतना सोच कर वह पर्स से मोबाइल और इयरफोन निकालने लगी कि अचानक कोई आ कर उस की बगल में बैठ गया.

उसे देखने के लिए उस ने अपनी गरदन घुमाई, तो बस देखती ही रह गई. वह खुशी से चिल्लाती हुई बोली, ‘‘प्रशांत, तुम!’’

प्रशांत ने घबरा कर उस की ओर देखा. ‘‘अरे, नीतू, इतने सालों बाद. कैसी हो?’’ और वह सवाल पर सवाल करने लगा.

‘‘मैं अच्छी हूं. तुम कैसे हो?’’ नीतू ने जवाब दे कर प्रश्न किया. उसे इतनी खुशी हो रही थी कि वह सोचने लगी कि अब यह बस 2 घंटे भी ले ले, तो भी कोई बात नहीं.

‘‘मैं ठीक हूं. और बताओ, क्या करती हो आजकल?’’

‘‘वही, जो स्कूल के इंटरवल में

करती थी.’’

‘‘अच्छा, वह चित्रों की दुनिया.’’

‘‘हां, चित्रों की दुनिया ही मेरा सपना. और मैं ने अपना वही सपना अब पूरा कर लिया है.’’

‘‘सपना, कौन सा? अच्छी स्कैचिंग करने का.’’

‘‘हां, स्कैचिंग करतेकरते मैं एक दिन अलंकार मैगजीन में इंटरव्यू दे आई थी. बस, उन्होंने रख लिया मुझे.’’

‘‘बधाई हो, कोई तो सफल हुआ.’’

‘‘और तुम क्या करते हो? जौब लगी या नहीं?’’

‘‘जौब तो नहीं लगी, हां, एक प्राइवेट कंपनी में जाता हूं.’’

तभी प्रशांत को कुछ याद आता है, ‘‘एक मिनट, क्या बताया तुम ने, अभी कौन सी मैगजीन?’’

‘‘अलंकार मैगजीन,’’ नीतू ने बताया.

‘‘अरे, उस में तो…’’

नीतू उस की बात बीच में ही काटती हुई बोली, ‘‘कहानी भेजी थी. और संयोग से वह कहानी मैं आज ही पढ़ कर आई हूं, स्कैच बनाने के साथसाथ.’’

‘‘पर, तुम्हें कैसे पता चला कि वह कहानी मैं ने ही भेजी थी. नाम तो कइयों के मिलते हैं.’’

‘‘सिंपल, तुम्हारी हैंडराइटिंग से.’’

‘‘क्या? मेरी हैंडराइटिंग से, तो

क्या तुम्हें मेरी हैंडराइटिंग भी याद है

अब तक.’’

‘‘हां, मिस्टर प्रशांत.’’

‘‘ओह, फिर तो अब तुम पूरे दिन चित्र बनाती होगी और कोई डिस्टर्ब भी न करता होगा मेरी तरह. है न?’’

‘‘हां, वह तो है.’’

‘‘देख ले, सब जनता हूं न मैं?’’

‘‘लेकिन, तुम एक बात नहीं जानते प्रशांत.’’

‘‘कौन सी बात?’’

बारबार मुझे स्कूल की बातें याद आ रही थीं. मैं ने सोचा कि बता देती हूं. क्या पता, फिर ऊपर वाला ऐसा मौका दे या न दे, यह सोच कर नीतू बोल पड़ी, ‘‘प्रशांत, मैं तुम्हें पसंद करती हूं.’’

‘‘क्या…?’’ प्रशांत ऐसे चौंका जैसे उसे कुछ पता ही न हो.

‘‘तब से जब हम स्कूल में पढ़ते थे और मैं यह भी जानती हूं कि तुम भी मुझे पसंद करते हो. करते हो न?’’

प्रशांत ने शरमाते हुए हां में अपनी गरदन हिलाई.

तभी बस एक स्टाप पर रुकी. हम खामोश हो कर एकदूसरे को देखने लगे.

‘‘तेरी शादी नहीं हुई अभी तक?’’ प्रशांत ने प्रश्न किया.

‘‘नहीं. और तुम्हारी?’’

‘‘नहीं.’’

न जाने क्यों मेरा मन भर आया और मैं ने बोलना बंद कर दिया.

‘‘क्या हुआ नीतू? तुम चुप क्यों हो गईं?’’

‘‘प्रशांत, शायद मेरी जिंदगी में तुम हो ही नहीं, क्योंकि कल मेरी एंगेजमैंट है और तुम इतने सालों बाद आज

मिले हो.’’

इतना सुनते ही प्रशांत का गला भर आया. वह बस, इतना ही बोला, ‘‘क्या,

कल ही.’’

दोनों एक झटके में ही उदास हो गए.

कुछ देर खामोशी छाई रही.

‘‘कोई बात नहीं नीतू. प्यार का रंग कहीं न कहीं मौजूद रहता है हमेशा,’’ प्रशांत ने रुंधे मन से कहा.

‘‘मतलब?’’ नीतू ने पूछा.

‘‘मतलब यह कि हम चाहे साथ रहें न रहें, तुम्हारे चित्र और मेरे शब्द तो साथ रहेंगे न हमेशा कहीं न कहीं,’’ प्रशांत हलकी सी मुसकान भरते हुए बोला.

‘‘मुझे नहीं पता था प्रशांत कि तुम इतने समझदार भी हो सकते हो.’’

तभी कंडक्टर की आवाज सुनाई दी, ‘‘पंजाबी बाग.’’

‘‘ओके प्रशांत, मेरा स्टौप आ गया है. अब चलती हूं. बायबाय.’’

‘‘बाय,’’ प्रशांत ने भी अलविदा कहा.

वह बस से उतरी और जब तक आंखों से ओझल न हो गए, तब तक दोनों एकदूसरे को देखते रहे.

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