REVIEW: जानें कैसी है सिद्धार्थ मलहोत्रा और कियारा अडवाणी की फिल्म Shershah

रेटिंगः चार स्टार

निर्माताः काश इंटरटेनमेंट और धर्मा प्रोडक्शन

निर्देशकः विष्णु वर्धन

कलाकारः सिद्धार्थ मलहोत्रा, कियारा अडवाणी, शिव पंडित, जावेद जाफरी, निकितन धीर, हिमांशु मल्होत्रा, साहिल वैद्य, राज अर्जुन, कृष्णय बत्रा, मीर सरवर व अन्य.

अवधिः दो घंटा 17 मिनट

ओटीटी प्लेटफार्मः अमेजॉन प्राइम

1999 में पाकिस्तान ने कारगिल की पहाड़ियों पर कबजा कर लिया था, मगर बाद में भारतीय  जवानों ने 16 हजार फिट की उंचाई पर बर्फीली पहाड़ी पर बैठे पाक सैनिको को अपने शौर्य के बल पर खत्म कर पुनः कारगिल पर कब्जा जमाया था. उसी कारगिल युद्ध के परमवीर चक्र विजेता शहीद विक्रम बत्रा पर फिल्म ‘शेरशाह’आयी है. उसी कारगिल युद्ध पर  एलओसी,  लक्ष्य,  स्टंप्ड,  धूप,  टैंगो चार्ली और मौसम से लेकर गुंजन सक्सेना जैसी फिल्में बनी हैं.  मगर शेरशाह इनसे अलग है.

कहानीः

कहानी जम्मू कश्मीर राइफल की 13 बटाइलन की है, जो कि रिजर्ब फोर्स है. मगर कारगिल युद्ध में इसे ही कैप्टन विक्रम बत्रा के नेतृत्व में पाक सेना द्वारा कब्जा की गयी कारगिल की जमीन को वापस लाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, जिसे कैप्टन विक्रम बत्रा व उनके साथियों ने अपनी जान गंवाकर पूरी करते हुए पाकिस्तानी सेना का सफाया कर दिया था.

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फिल्म की शुरूआत विक्रम बत्रा के बचपन से होती है, और टीवी कार्यक्रम देखकर वह सैनिक बनने का निर्णय लेते हैं. कालेज में पढ़ाई करते हुए डिंपल(कियारा अडवाणी) से उनका प्यार हो जाता है. डिंपल का परिवार सिख है और विक्रम बत्रा(सिद्धार्थ मल्होत्रा) पंजाबी खत्री हैं. इस वजह से डिंपल के पिता इस व्याह के लिए तैयार नही होते. तब विक्रम मर्चेंट नेवी मंे जाने की बात करता है. इसी आधार पर डिंपल अपने पिता से लड़कर विक्रम से ही शादी करने का फैसला सुना देती है. लेकिन विक्रम का दोस्त सनी उसे समझाता है कि महज शादी करने के लिए वह अपने सैनिक बनने के सपने को छोड़कर गलती कर रहा है. तब फिर से विक्रम सेना में जाने का फैसला करता है, इससे डिंपल को तकलीफ होती है. पर वह विक्रम के साथ खड़ी नजर आती है. ट्रेनिंग लेकर विक्रम बत्रा जम्मू कश्मीर राइफल की तेरहवीं बटालियन में पहुंचकर अपने सहयोगियों के साथ ही कश्मीर की जनता के बीच घुल मिल जाते हैं. पहले वह आतंकवादी गिरोह के अयातुल्ला को पकड़ता है,  फिर वह आतंकवादियों का सफाया करते हुए हैदर का सफाया करता है. इससे उसके वरिष्ठों को उस पर नाज होता है. वह छुट्टी लेकर पालमपुर आता है और गुरूद्वारा में डिंपल की चुनरी पकड़कर फेरे लेने के बाद कहता है कि अब वह मिसेस बत्रा बन गयी. अपने आतंकियों के सफाए से बौखलाया पाकिस्तान कारगिल की पहाड़ियों पर कब्जा कर लेता है. तब विक्रम मल्होत्रा को वापस जाना पड़ता है. जब विक्रम ड्यूटी पर लौटने लगता है, तो जब उनका दोस्त सनी उससे कहता है कि जल्दी लौटना. तो विक्रम का जवाब होता हैः तिरंगा लहरा कर आऊंगा,  नहीं तो उसमें लिपट कर आऊंगा. इस बार उसकी बटालियन को विक्रम बत्रा के नेतृत्व में कारगिल की पहाड़ी पर पुनः कब्जा करने की जिम्मेदारी दी जाती है. तथा विक्रम बत्रा को कोडनेम ‘‘शेरशाह’’दिया जाता है. विक्रम बत्रा के नेतृत्व में  सेना के जांबाजों ने 16 हजार से 18 हजार फीट ऊंची ठंडी-बर्फीली चोटियों पर चढ़ते-बढ़ते हुए दुश्मन पाकिस्तानी फौज को परास्त कर कारगिल की पहाड़ी पर पुनः भारत का कब्जा हो जाता है, मगर विक्रम बत्रा सहित कई सैनिक शहीद हो जाते हैं. मगर उनके शौर्य को पूरा देश याद रखता है.

लेखन व निर्देशनः

बेहतरीन पटकथा वाली युद्ध पर बनी एक बेहतरीन फिल्म है. पूरी फिल्म यथार्थपरक है. तमिल में बतौर निर्देशक आठ फिल्में बना चुके विष्णुवधन की यह पहली हिंदी में हैं. विष्णु वर्धन ने हर बारीक से बारीक बात को पूरी इमानदारी के साथ उकेरा है. अमूूमन सत्य घटनाक्रम पर आधारित फिल्म बनाते समय फिल्मकार वास्तविक किरदारों के नाम बदल देते हैं. लेकिन निर्देशक विष्णु वर्धन ने फिल्म ‘शेरशाह’ में सभी किरदारों,  घटनाक्रम और जगह आदि के नाम हूबहू वही रखे हंै, जो कि यथार्थ में हैं.

फिल्म के संवाद कमजोर है. संवाद वीरोचित व भावपूर्ण नही है.

फिल्म में विक्रम बत्रा और डिंपल के बीच रोमांस को पूरी तरह  से फिल्मी कर दिया है. फिल्म में कारगिल की पहाड़ी पर एक पाक सैनिक, विक्रम बत्रा से कहता है कि  ‘हमें माधुरी दीक्षित दे दो, हम कारगिल छोड़ देंगे. ’’यह संदर्भ कितना सच है, यह तो निर्माता व निर्देशक ही बता सकते हैं. मगर बॉलीवुड के फिल्मकार अक्सर सत्यघटनाक्रम पर फिल्म बनाते समय इस तरह की चीजें परोसते ही हैं.

फिल्म का क्लायमेक्स कमाल का है. यह फिल्म कैप्टन विक्रम बत्रा और कारगिल युद्ध में अपने शौर्य का प्रदर्शन करते हुए अपनी जान गंवाने वाले वीर जवानों को सच्ची श्रृद्धांजली हैं. पटकथा अच्छी ढंग से लिखी गयी है।फिल्म की खासियत यह है कि इसमें देशभक्ति के नारे नही है. निर्देशक ने विक्रम बत्रा के सेना में पहुंचने के बाद उनकी निडरता, वीरता और नेतृत्व की खूबी को ही उभारा है. निर्देशक विष्णु वर्धन बधाई के पात्र हैं कि उन्होने भारतीय सिनेमा और विक्रम बत्रा के शौर्य को पूरे सम्मान के साथ उकेरा है. फिल्म यह संदेश देने में पूरी तरह से कामयाब रहती है कि फौजी के रुतबे से बड़ा कोई रुतबा नहीं होता.  वर्दी की शान से बड़ी कोई शान नहीं होती.  देश प्रेम से बड़ा कोई धर्म नहीं होता.

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मगर युद्ध के दृश्य काफी कमजोर हैं.

इस फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यह है कि फिल्म के अंत में कारगिल के योद्धाओं की निजी तस्वीरें, उनके संबंध में जानकारी और फिल्म में उनके किरदार को निभाने वाले कलाकार की तस्वीरों के साथ पेश किया गया है.

वीएफएक्स भी कमाल का है.

कैमरामैन कलजीत नेगी ने कमाल का काम किया है. उन्होेने लोकेशन को सही अंदाज में पेश किया है.

अभिनयः

विक्रम बत्रा के किरदार में अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा नही जमते. जो वीरोचित भाव और वीरोचित छवि उभरनी चाहिए थी, वह नहीं उभरती. रोमांस व कालेज के दृश्यों में वह जरुर जमे हैं. कियारा अडवाणी ने संजीदा अभिनय किया है. वैसे उनके हिस्से करने को कुछ खास रहा नही. अन्य सभी कलाकारों ने अपने अपने किरदार को बेहतर तरीके से जिया है.

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